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March 04, 2009

जरा बच के, ये है मुंबई मेरी जान

पिछले हफ़्ते संजीत ने कहा कि आप बम्बई में इतने सालों से रह रही हैं , जरा अपने अनुभवों में झांक कर बताइए तो क्या क्या बदलाव दिखते हैं आप को बंबई( नहीं , नहीं मुंबई) में , मुंबई की जीवन शैली, संस्कृति, इत्यादी में। संजीत हमें जनादेश नामक ई-पेपर के लिए लिखने के लिए आमंत्रित कर रहे थे। अब संजीत हमारे खास मित्रों में से हैं उनकी बात को कैसे टाला जा सकता था। वैसे भी किसी पेपर में जगह पाने का ये हमारा दूसरा मौका था। पहले शैलेश भारतवासी ने सितंबर 2008 में हमारा परिचय मुंबई संध्या नामक पेपर में करवाया था।

सो कल दोपहर को किसी तरह से मन बना कर बैठ गये लिखने। अभी खत्म भी नहीं हुआ था कि संजीत जी नजर आ गये (हमारे चैट बॉक्स में…।:)) हमने कहा कि भाई ई – मेल में रफ़ ड्राफ़्ट भेज रहे हैं, देखिए ये आप की अपेक्षाओं के अनुरूप बन रहा है कि नहीं, साथ में ये भी कह दिया कि अभी तो जो मन में आया हम लिखते गये, कल पढ़ कर थोड़ा छोटा कर देगें और लेख पूरा भी कर देगें। हमें पक्का यकीन हैं कि संजीत हमेशा की तरह चैट बॉक्स और मोबाइल दोनों पर बतिया रहे होगें। आज आकर अपना ई-मेल देखा तो पता लगा कि लेख तो छप भी गया। हम खुश भी हैं और एम्बेरेस्ड भी। खुश इस लिए कि संजीत जी को और अम्बरीश जी ने लेख पसंद कर लिया, एम्बेरेस्ड इस लिए कि बिना सुधार किए लेख प्रकाशित होना ऐसे ही है मानों बिना तैयार हुए कलाकार का मंच पर उतरना।

हम खुद मानते हैं कि लेख बहुत लंबा है( शुक्रगुजार हैं अम्बरीश जी के कि फ़िर भी उसे अपने पेपर में स्थान दे दिया) और हम जानते हैं कि ब्लोगर भाइयों के पास समय की बहुत कमी होती है इस लिए उस लेख का लिंक देने के साथ साथ उसे टुकड़ों में यहां पेश कर रहे हैं, जैसा आप को सुविधाजनक लगे वैसे ही पढ़ें । सिर्फ़ एक सवाल उठ रहा है मन में, संजीत मेरे लेख के साथ देवानंद की तस्वीर क्युं लगाई गयी है भई, क्या मैं वैसे ही हिलती नजर आ रही हूँ इस लेख में या उतनी ही पुरातत्व विभाग की सेंपल नजर आ रही हूँ? इसे यहां देख कर तो देवानंद भी कन्फ़्युज हो रहा होगा …।:)

http://janadesh.in/

पहला भाग

जरा बच के , ये है मुंबई मेरी जान

फ़ागुन आयो रे, संग रंगों की बहार लायो रे। बचपन से हमें हर साल मार्च का बड़ी बेसब्री से इंतजार रहता है। जनवरी में नया केलेण्डर आते ही हम सबसे पहले मार्च का महीना खोल कर दो तारीखों पर गोल निशान लगा देते हैं। एक तारीख तो लाल रंग में ही लिखी रहती है- होली का दिन और दूसरी कभी लाल तो कभी काली लिखी रहती है, वो तारीख हमें याद दिलाती है उस दिन की जब भगवान ने इस रंगबिरंगी खूबसूरत दुनिया से हमारा परिचय कराया था और हम इस दुनिया में ऐसे रमे कि अभी तक जाने का नाम नहीं ले रहे । होली मेरा सबसे प्रिय पर्व है। होली की मस्ती किसी और त्यौहार में कहां, बस एक ही खराबी है इस त्यौहार में, ये हमें बरबस यादों के सफ़र पर ले चलता है और हम सम्मोहित से इसके साथ चलते चलते यादों में खो जाते हैं।


जोर का झटका धीरे से


कुछ तेरह चौदह साल की रहे होगें साठ के दशक में जब बड़े बेमन से अलीगढ़ के मोहल्ले से निकल बम्बई आये थे और आते ही एक सांस्कृतिक झटका खाया था। मुंबई सैंट्रल से पापा सीधे चेम्बूर ले गये जहां हम सबको अस्थायी तौर पर एक किराए के मकान में रहना था। टैक्सी जब उस इमारत के सामने जा कर खड़ी हुई तो हम हैरान, परेशान सकुचाते से उस बिल्डिंग की सीढ़ियां चढ़ रहे थे। बिल्डिंग अंग्रेजी के यू अक्षर सी बनी हुई तिमंजली इमारत थी। बिल्डिंग को एकदम बीच से दो भाग में विभक्त करते हुए सीढ़ियां और सीढ़ियों के दोनो तरफ़ बने हुए ढेर सारे कमरे। हर कमरे में एक एक या किसी किसी में दो तीन परिवार्। तीन तीन कमरों के लिए साझा गुसलखाने और पखाने। जी हां, हम बात कर रहे हैं मुंबई की प्रसिद्ध चाल की। अलीगढ़ के स्वत:पूर्ण घर से निकल कर ये चाल का एक कमरा और किचन एक साल के लिए हमारा घर बन गया। पहली बार जब मां ने कहा जाओ बाहर लगी तार पर कपड़े सुखा आओ। हमने बड़े जतन से फ़टक फ़टक कर कपड़े सुखाना शुरू ही किया था कि हमारे पास वाले कमरे से एक मोटी सी औरत बाहर निकली और बोली तुम यहां कपड़े नहीं सुखा सकती ये मेरी तार है। मैंने कहा कि लेकिन ये तो हमारे कमरे के बाहर है। उसने एक अर्थपूर्ण मुस्कुराहट के साथ हमारा ज्ञान बड़ाते हुए कहा तुम्हारी तार वो सीढ़ियों के सामने लगी है। मतलब ये कि अगर हमें कपड़े सुखाने हैं तो हमें गीले कपड़ो की टोकरी ले कर छ: कमरे पार कर सीढ़ियों के सामने सुखाने जाना होगा। शर्म के मारे हम कपड़े वहीं छोड़ सीधे अपने कमरे में लौट गये । कमरे में एक ही खिड़की होने के कारण हवा की आवाजाही के लिए दिन में लोग दरवाजे खुले रखते थे। हवा को तो पता नहीं आती थी कि नहीं लेकिन गलियारे में हर आने जाने वाला कमरे में झांक सकता था। सबको पता होता था कि किसके घर क्या पका, क्या बात हुई,इत्यादि इत्यादि। मुंबई की बात हो और फ़िल्म कलाकारों की बात न हो ये तो हो ही नहीं सकता न। फ़िल्मी कलाकारों से मेरा पहला पाला बड़ी जल्दी पड़ गया यहीं इसी बिल्डिंग नंबर 29 में( जी हां इन चालों के कोई नाम नहीं होते , वो सिर्फ़ नंबर से जानी जाती हैं।) आधी रात के बाद अक्सर सामने वाले कमरे से खूब जोर जोर से चीखने चिल्लाने की, रोने की, गालियों की आवाजें आती थीं, हम डर जाते थे। आसपास पूछने पर पता चला कि केदार ( जो फ़िल्मों में एक्स्ट्रा का काम करता है) शराब के नशे में अपनी बीबी को मारता है। ऊपर तीसरे तल से उतरते हुए अक्सर एक आदमी सीढ़ियों में दिखाई दे जाता था। वो इतना मोटा था कि अगर वो सीढ़ियाँ उतरता हो तो कोई और पास से नहीं गुजर सकता था, जगह ही नहीं बचती थी। लेकिन वो और उसका पूरा परिवार दिल के बड़े अच्छे थे। नाम था उसका मूलचंद , अमिताभ बच्चन वाली डॉन पिक्चर में खैइके पान बड़ा रस वाला वाले गाने में वो भांग घोटता नजर आता है अपनी बड़ी सी तोंद के साथ्। खैर धीरे धीरे हमें उस चॉल में रहने की आदत पड़ने लगी। कपड़े सीढ़ियों के सामने सुखाने लगे। घर के नाम पर एक कमरा, लकड़ी की बनी परछती जिसे मेजेनेन फ़्लोर कहा जाता है, और छोटी सी किचन । आदमी एक ऐसा जानवर है जो हर परिस्थिती के अनुसार खुद को ढाल सकता है। हमने भी किया। किसी जमाने में पूरा कमरा अपना हुआ करता था, अब हमने उस परछती को , जिसमें खड़े भी नहीं हुआ जा सकता था सिर्फ़ बैठा जा सकता था को ही अपनी दुनिया बना लिया। स्कूल तो हम अलीगढ़ में भी पैदल जाया करते थे, गलियों में से, जहां गली के दोनों तरफ़ दुकाने कम और घर ज्यादा दिखाई देते थे। तिमंजले मकान तो किसी किसी के ही होते थे। बम्बई में भी स्कूल पैदल ही जाना होता था लेकिन लगता था रास्ता खत्म ही नहीं होता। मेन मार्केट में से गुजरना, गाड़ियों की चिल्ल पों, रोड के दोनों तरफ़ दुकाने ही दुकाने और फ़िर दुकानों के आगे दुकानें। फ़ुटपाथ? फ़ुटपाथ तो जी वो नेमत है जो सिर्फ़ पैसे वालों को ही नसीब होती है, सिर्फ़ पोश इलाके में ही फ़ुटपाथ दिखते हैं ।

जहां एक तरफ़ सांस्कृतिक झटका खाया था कि जगह की कमी के कारण लोग अपनी और एक दूसरे की प्राइवेसी का हनन ऐसे ही करते हैं जैसे रोजमर्रा का दातुन कर रहे हों( क्या आप यकीन करेगें कि कई लोग तो दातुन भी बाहर गलियारे में खड़े हो कर करते थे) वहीं कुछ विशिष्ट अनुभव भी आते ही हुए। अलीगढ़ में हमने हिन्दी और अंग्रेजी के सिवा और कोई भाषा न सुनी थी। बम्बई आते ही बम्बई के सर्वप्रांतीय चरित्र से परिचय हुआ। हांलाकि चेम्बूर का इलाका विभाजन के समय आये सिंधियों और पंजाबियों का गढ़ है( उस समय सरकार ने इन सिंधी और पंजाबी शरणार्थियों को बसाने के लिए ही शहर से दूर ये बिल्डिंगे बनायी थी जिनमें हमें बिल्डिंग नंबर 35 तक की तो खबर है , इससे ज्यादा और भी होगीं तो पता नहीं)पर यहां आर सी एफ़, भारत पेट्रोलियम, केलिको, जैसी कई बड़ी बड़ी कंपनियों की फ़ैक्ट्रियां होने की वजह से हर प्रांत के लोग नजर आते हैं । हमने पहली बार मुलतानी, सिंधी, तमिल, मराठी, बंगाली जैसी भाषाएं सुनी और लोग देखे। सिंधी और मुलतानी तो पंजाबियों जैसे ही थे लेकिन बाकी के लोगों के रहन सहन में बहुत अंतर था। उस जमाने में उत्तर भारतीय तो कोई इक्का दुक्का ही दिखता था। मुझे याद है कॉलेज में सिर्फ़ हिन्दी के प्रोफ़ेसर ही हिन्दी भाषी हुआ करते थे बाकी सब दूसरे प्रांतों से।

15 comments:

ghughutibasuti said...

वाह,वाह, बधाई! आपने अपनी विशेष शैली में बहुत रोचक तरीके से अपने अनुभव लिखे हैं।
घुघूती बासूती

Arvind Mishra said...

इतना तो अन्यत्र पढ़ ही लिया है और धीमा धक्का भी जोर सेलग चुका है -आगाज जोरदार हैं अंजाम देखना है !

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप ने तो हमें मुम्बई घुमा दी वैसे हम जनादेश पर पढ़ आए हैं। जमा दिया जी रंग।

Anonymous said...

वाह! आपने ऐसा शब्द चित्र बनाया, लगा कि हम ही विचरण कर रहे हैं उस चाल का।

बढ़िया। बहुत रोचक्।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

सबसे पहले आपका यह जीवँत आलेख छप कर कई लोगोँ तक पहुँचेगा उसकी हार्दिक बधाई अनिता जी
और दूसरी बात,
आपकी शैली
प्रवाहमान और मनोरँजक होने के साथ दीलचस्पी बनाये रखती है -
आगे के इँतज़ार मेँ
- स स्नेह,
- लावण्या

Sanjeet Tripathi said...

भई ऐसा है कि देवानंद और आप समकालीन ही हो एक तरह से , कम से कम इस मामले मे कि उसकी फिल्में आप ने भी उतनी ही शिद्दत से देखी होंगी जितनी कि आपकी पीढ़ी या उसके पहले या बाद की पीढ़ी ने, सो बस लगा दिए देवानंद की तस्वीर।

और वैसे भी याद है न कि देवानंद का ही गाना है ना एक कि है अपना दिल तो आवारा, तो आवारा बंजारा को तो हक बनता है।

लेकिन लिखा आपने शानदार है इस बात पर कोई दो राय नहीं।

अनूप शुक्ल said...

बहुत अच्छी तरह से बदलती मुंबई के किस्से बयान किये हैं। यूपी-बिहार के बारे में पुनर्विचार करिये जी। आखिर आप भी अलीगढ की हैं! मायके के बारे में अच्छा-अच्छा सोचा जाता है जी। अगली कड़ी का इंतजार है जी। :)

Anonymous said...

mumbai aur 60 ke dashak ke kai prateek hai jsme dev aanand ,raj kapoor aur dilip kumar ki tikadi mashhoor hai.usme bhi dev sahab us dour ki rumaniyat ki sahi numandgi karte nazar aate hai.unki yah photo
us dour ko jivant kar deti hai.

संगीता पुरी said...

बहुत बहुत बधाई आपको !!!! आपको पढना बहुत अच्‍छा लग रहा है।

PD said...

aunty ji, ham to chale poora padhne.. poora padh kar aate hain fir batiyayenge.. :)

PD said...

next part aunty ji.. I'm waiting for the next part.. :)

रंजू भाटिया said...

मुंबई सैर हो गयी यह बहुत रोचक लिखा है आपने

Gyan Dutt Pandey said...

सशक्त लेखन! मुम्बई के अनुभव तो निराले हैं! विभिन्न रंगों-खण्डों का शहर। मैं तो ढ़ाई महीने रहा हूं और छोटा-मोटा उपन्यास ठेल सकता हूं! :)

Udan Tashtari said...

सर्वप्रथम तो अखबार में छपने के लिए बधाई ले लिजिये और फिर, इत्ता मन लगा कर बम्बईया चाल में घुमाने का बहुत आभार भी रख कर सुनाते चलिये. कान लगाये हैं.

Batangad said...

बहुत खूब। शानदार है। इतना लंबा लेख फिर भी कहीं तार टूटता नहीं।