गोली दिमाग के आरपार, महिला ने चाय बनायी"
वैसे तो हमने अखबार पढ़ना बहुत कम कर दिया है। अखबार हमारी सेहत के लिए हानिकारक हैं। पूरा अखबार रेप, इनसेस्ट, या राजनीतिज्ञों की फ़ैलायी नफ़रत, धोखागड़ी के मामलों से पटा पड़ा रहता है, पढ़ते पढ़ते बेकार में रक्तचाप बड़ जाता है। लेकिन आज इतवार का दिन और बहुत दिनों बाद फ़ुर्सती सुबह के कुछ पल्। आराम से चाय की चुस्की के साथ सोचा चलो अखबार ही देख लें। पहले पन्ने पर तो था कि संजय दत्त ने मायावती को जादू की झप्पी और पप्पी देने की इच्छा जताई, हम क्ल्पना मात्र से ही मुस्कुरा उठे। संजय को अपनी ये तमन्ना पूरी करने के लिए मायावती के जन्मदिन पर एक जिम उपहार के रूप में भेजना होगा तभी उनका ये सपना पूरा होने की कुछ संभावना बन सकती है।
पेज पलटते ही एक खबर पर नजर पड़ी, " गोली दिमाग के आरपार, महिला ने चाय बनायी"
यकीनन खबर चौंकाने वाली थी। खबर कुछ यूँ थी कि ब्रिटेन में एक 47 वर्षीय महिला दोपहर के बारह बजे अपने घर आराम कर रही थी। अदालत ने उसके पति को घरेलू मारपीट की वारदात की वजह से छ: महीने के लिए पत्नी से दूर रहने को कहा था। लेकिन ये जनाब दोपहर बारह बजे घर में घुसे और आते ही पंलग पर आराम करती अपनी पत्नी के माथे पर गोली दाग दी। गोली खोपड़ी को चीरती पीछे से निकल गयी। इतने में पत्नी के एक पड़ौसी रिश्तेदार ने पुलिस को फ़ोन कर दिया था। अब ये अपनी पुलिस तो थी नहीं जो क्रियाकरम होने के बाद तेरहवीं पर आती, तो आनन फ़ानन में पुलिस हाजिर हो गयी। तब तक पति देव मकान के पिछवाड़े जा कर खुद को भी गोली मार कर टें बोल लिए। जब पुलिस अफ़सर उस महिला के पास पहुँचा तो महिला न सिर्फ़ होश में थी बल्कि अपने लिए किचन में जा कर चाय बना लाई थी, हां माथा एक कपड़े से दबा रखा था। लेकिन उसने अफ़सर को पूछा
"यहां क्या हो रहा है? तुम यहां क्या कर रहे हो? अब आये हो तो चाय पियो।"
महिला को हेलिकोप्टर से तुंरत अस्पताल ले जाया गया और उम्मीद की जा रही है कि वो पूर्णरुपेन स्वस्थ हो जायेगी। लोग परेशान हैं, अरे गोली लगे तो आदमी को मर जाना चाहिए,ये थोड़े के चाय पीने बैठ जाओ और फ़िर आराम से अस्पताल जाओ और ठीक हो कर आ जाओ। कल को टाटा टी वाले कहेगें "देखाआआआअ, हमारी चाय का कमाल।"
इसे पढ़ कर हमें इंगलैंड में ही घटा एक और किस्सा याद आ गया, मनोविज्ञान की किताबों में अक्सर इसका जिक्र रहता है और छात्रों की यादों में रचा बसा रहता है।
बात सन 1848 की है। रेल की पटरी बिठाने का काम चल रहा था। अब जमीन कहीं समतल तो कहीं ऊबड़ खाबड़ थी। पटरी बिठाने वाली टीम में से एक पच्चीस साल के नौजवान के जिम्मे ये काम था कि जमीन को समतल बनाने के लिए चट्टानों में ड्रिल मशीन से सुराख कर उसमें थोड़ा बारुद भर कर ऊपर से रेता से ढक दो और फ़िर बिजली के फ़्युस और लोहे की छड़ों की मदद से चट्टान को उड़ा दिया जाए। उस दिन इस नौजवान का थोड़ा सा ध्यान बंटा और लोहे की तीन सेंटीमीटर मोटी और 109 से मी लम्बी छ्ड़ चट्टान के बदले उसके गाल को चीरती हुई खोपड़ी से आकाश की तरफ़ उड़ ली। ये नौजवान हक्का बक्का रह गया लेकिन तत्काल होश संभाला। वो बात करने और साथी की मदद से चलने की स्थिती में था। वो नौजवान न सिर्फ़ बच गया बल्कि एक लंबे जीवन का सफ़र तय करके गया।
हाँ, ये बात और है कि इस हादसे ने उसकी पूरी पर्सनलिटी ही बदल दी। हादसे से पहले वो एक जिम्मेदार, अक्लमंद, सर्वजन प्रिय व्यक्ति था जिसका उज्जवल भविष्य सबको दिखाई दे रहा था। हादसे के बाद जैसे जैसे समय गुजरा उसके माता पिता ने चैन की सांस ली, उसके शारिरीक स्वास्थय में, बातचीत में, उठने बैठने, चलने फ़िरने में कहीं कोई कमी नहीं आयी थी, सब पहले जैसा ही था। यहां तक की उसकी नयी चीजें सीखने की काबलियत, यादाश्त या बुद्धीमत्ता पर भी कोई असर न पड़ा था।
लेकिन कुछ न कुछ तो असर पड़ना ही था। उसके स्वभाव में एक अजीब प्रकार का सनकीपन, उंदडता, मौजीपना, गैरजिम्मेदारानापन नजर आने लगा। माता पिता का श्रवण कुमार अब समाज के किसी भी नियम को तोड़ना अपना धर्म समझने लगा। गाली गलौच करना, दूसरों से झगड़ा करना उसकी खास आदत बन गयी और लोग उससे कतराने लगे। लोगों से किए वायदे तोड़ना उसका शौक बन गया। किसी जमाने में सबसे निष्ठावान, जिम्मेदार माना जाने वाला मजदूर अब नौकरी से हाथ धो बैठा इसके बावजूद की मालिक उसे निकालना नहीं चाहते थे पर उस पर भरौसा भी नहीं किया जा सकता था।
क्या आप को भी ऐसा ही कोई किस्सा मालूम है, यदि हाँ तो बताइए न…॥