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March 07, 2009

और ट्रेन से कूद गये


और ट्रेन से कूद गये


कॉलेज के आखरी दिनों में लोकल ट्रेन के सफ़र के मजे लूटने का अवसर मिला। लोकल ट्रेन बम्बई का आइना है, जिन्दगी है। लोकल ट्रेन की अपनी एक दुनिया है। पूरी ट्रेन में सिर्फ़ दो डिब्बे महिलाओं के लिए आरक्षित होते थे। अब आम तौर पर तीन होते हैं और पिछ्ले कुछ सालों से तो महिलाओं के लिए अलग ट्रेन ही चल पड़ी हैं –पूरी ट्रेन आरक्षित्, कभी सुना किसी और देश में महिलाओं का इतना ख्याल रखा जाता हो कि पूरी की पूरी ट्रेन उनके लिए आरक्षित।

पिछले कई सालों में लोकल ट्रेन की तादात बड़ायी गयी, रेल के डिब्बे बड़ाये गये लेकिन फ़िर भी इन ट्रेनों में भीड़ शैतान की आंत सी बड़ती ही जाती है। पहले ये भीड़ सुबह और शाम ज्यादा होती थी और दोपहर और रात को काफ़ी कम हो जाती थी। अब तो क्या दिन क्या रात, चौबिसों घंटे भीड़ का वही हाल है। लेकिन इस भीड़ के सकारत्मक परिणाम भी हैं। असहनीय भीड़ और गाड़ी का हर स्टेशन पर सिर्फ़ एक मिनिट के लिए रुकना, हर बम्बईवासी को रेल से यात्रा करते हैं चुस्त और फ़ुर्तीला बना देता है। आप कभी शाम को वी टी स्टेशन पर चले जाएं और नजारा देखें। दूर से आती ट्रेन को देख औरतें अपनी अपनी साड़ियों की प्लीटस उठा कर कमर में खोंस लेती है, बैग जेबकतरों से बचाने के लिए पेट के आगे कर कस कर पकड़ लिए जाते हैं , सारे थैले और हाथ का सामान एक ही हाथ में कर लिया जाता है और दूसरा हाथ खाली रक्खा जाता है। सहेलियों से चल रही बातचीत बीच में ही बंद, आखें निशाने पर टिकी हुई, धीमी पड़ती रेल जैसे ही कुछ हाथ की दूरी पर रह जाती है, दौड़ कर डिब्बे के अंदर कूदा जाता है और सीट पकड़ी जाती है, मिशन कम्पलीट्। खिड़की के पास वाली खिड़की मिल जाए तो सोने पर सुहागा। इस दम घोंटू भीड़ में यही खिड़की सांस लेने का एक मात्र सहारा बनेगी अगर कोई उसके सामने आ कर न खड़ी हो गई तो। जो इतनी फ़ुर्ती नहीं दिखा पातीं वो फ़िर दो सीटों के बीच में खड़े होने की जगह तलाशती हैं या फ़िर तीन लोगों के लिए बने तख्ते पर जरा सा खिसक कर तिल भर बैठने की जगह की याचना करती नजर आती हैं। याचना कहना ठीक न होगा, वो तो बात पुरानी हो गयी, अब तो साधिकार आदेश दिया जाता है “खिसको”। ज्यादातर कामकाजी महिलाओं का पूरा जीवन इन ट्रेनों में सफ़र करते ही बीतता है, ट्रेन और वक्त कुछ नहीं बदलता, अरे जब दफ़तर के टाइम वहीं है तो ट्रेन का टाइम कैसे बदलेगा। लिहाजा वही चेहरे वही लोग सुबह शाम मिलते रहते हैं। धीरे धीरे दोस्तियां होती चली जाती हैं, कुछ महिलाएं तो एक ही दफ़तर में काम करती है तो पहले से ही दोस्त होती हैं। जब दोस्तियां होती हैं तो गप्पें भी होती है और परिवार के दुख सुख भी बांटे जाते हैं, दूर रहने वाली महिलाएं ट्रेन में ही बैठ कर सब्जी छील काट रही होती हैं, (पूरी तैयारी के साथ आती है), फ़ल, फ़ूल, सब्जी, कंघा, बिन्दी,रुमाल, साड़ी, समोसे, चकली, चिक्की सब बिकने के लिए आता है ट्रेन में ही। इस भीड़ में भी ये सामान बेचने वाले कैसे अपने घूमने के लिए जगह बना लेते हैं अपने आप में एक अचंभा है। उस पर भी जो बात मुझे हैरान करती है वो ये कि अगर एक लड़का बिंदियाँ बेच रहा है और एक ग्राहक ने बिंदियों का डिब्बा पकड़ रखा है और चुन रही है तो वो लड़का उस डिब्बे को उसी के पास छोड़ कर डिब्बे के दूसरे हिस्से में बैठी ग्राहक के पास दूसरा डिब्बा ले कर चला जाएगा, बिना डरे कि अगर इस महिला ने उसमें से कोई पैकेट मार लिया तो या स्टेशन आया और नीचे उतर गयी तो? इतने सालों से देख रहे हैं रेल के डिब्बों के इन दुकानदारों और ग्राहकों का एक दूसरे पर विश्वास्। कभी कोई गड़बड़ नहीं होती।

एक और बात जो रेल यात्रा के बारे में विशिष्ट हुआ करती थी वो था स्त्रियों का सम्मान्। अगर कभी ट्रेन छूट रही हो या किसी और कारण से अगर महिला पुरुषों के डिब्बे में चढ़ जाती थी तो पुरुष पूरे सम्मान के साथ उसे बैठने की जगह दे देते थे। अगर डिब्बा ठसाठस भरा हो और स्त्री पुरुष डिब्बे में प्रवास कर रही हो तो भी कोई किसी प्रकार की कोई बत्तमीजी या छेड़खानी नहीं करेगा, स्त्री तो खैर सिमटेगी ही, आस पास खड़े मर्द भी सिमटते रहते थे। सत्तर के दशक तक अगर कभी देर रात में महिलाओं का डिब्बा खाली हो तो महिला पुरुषों के डिब्बे में प्रवास करने में ज्यादा सुरक्षित महसूस करती थी। रात के कितने भी बजे हों , महिलाओं के लिए बम्बई एकदम सुरक्षित था। हमें बड़ा फ़क्र था इस बात का कि हमारी बम्बई के मर्द कितने शालीन हैं और औरत को एक मांस का टुकड़ा भर नहीं समझते।


अस्सी का दशक आते आते छुटपुट घटनाओं का जिक्र आने लगा, जैसे रात के एक बजे एक महिला रेलेवे प्लेट फ़ॉर्म पर सिगरेट खरीदने के लिए रुकी तो वहां खड़े हवलदार ने उसके साथ बत्तमीजी की। पुलिस ने कहा कि जो महिला रात के एक बजे स्टेशन पर हो और सिगरेट खरीद रही हो उसका चरित्र कैसा होगा? वो महिला एडवर्टाइजिंग जगत से जुड़ी हुई थी देर से आना उसके काम का हिस्सा था। ये पहला मौका था जब हम सकते में आ गये कि ये किस्सा हमारी बम्बई में? फ़िर तो जैसे महिला अत्याचार की खबरों की बाढ़ सी आ गयी। रिंकू का केस (जिसमें उसके पूर्व प्रेमी ने परिक्षा कक्ष में से परिक्षा देते सब छात्रों को चाकू की नोक पर बाहर खदेड़ दिया था और फ़िर रिंकू को आग लगा दी थी) , जूहू का केस जहां एक लड़की पर तेजाब फ़ैंका गया था, चलती लोकल ट्रेन में दोपहर के समय एक मानसिक विकलांग लड़की के साथ एक शराबी का सबके सामने बलात्कार, हमें अंदर तक झंझोड़ कर रख गया। आज भी जब अखबारों में खबरे पढ़ते हैं दुध मुंही बच्चियों का बलात्कार, दोस्तों के दोस्तों को पैसे के लिए अगवा करने, मारने के किस्से तो लगता है क्या ये वही बम्बई है जहां हम रात के दो दो बजे तक अपने पति के साथ बेधड़क घूमा करते थे।

बहुत पहले चूहों को ले कर एक प्रयोग किया गया था जिसमें चूहों के बरताव को परखने के लिए एक बड़े से डिब्बे में एक एक कर चूहे छोड़े गये। उस डिब्बे में धीरे धीरे इतने चूहे छोड़े गये कि कोई भी चूहा दूसरे चूहे से अछुता न रह सका। उस डिब्बे में सब चूहों के लिए पर्याप्त खाना पानी होते हुए भी जैसे जैसे चूहे बड़ते गये वो आक्रमक होते चले गये और एक दूसरे को काटना शुरु कर दिया। कई चूहे मारे गये। ये सिलसिला तब तक चला जब तक उस डिब्बे में सिर्फ़ इतने ही चूहे बचे जितनों के लिए आरामदायक जगह थी। सोचती हूँ कहीं यही हाल मुंबई का तो नहीं हो रहा। दूसरी तरफ़ ऐसा भी लगता है कि सिर्फ़ बड़ती आबादी बड़ते अपराध का एक अकेला कारण नहीं हो सकती। और भी बहुत से कारण है।

पैसा कमाने की मशीनें

मुझे दूसरे शहरों का तो पता नहीं लेकिन बम्बई में हर कोई जल्द से जल्द पैसा कमाने की मशीन बन जाना चाहता है। कोई मजबूरी से, कोई सिर्फ़ अपने आप को सिद्ध करने के लिए, कोई दोस्तों में अपनी साख बनाने के लिए, कोई भविष्य के लिए अनुभव संचित करने के लिए तो कोई सिर्फ़ इस लिए कि पैसा कमाने के अवसर आसानी से मिल जाते हैं। किसी ने सच कहा है कि बम्बई नगरी किसी को भूखों नहीं मरने देती, कोई न कोई जुगाड़ हो ही जाता है। बम्बई सपनों का शहर है। सपना देखने की हिम्मत करो पूरी शिद्दत के साथ पूरा करने की कौशिश करो और बम्बई तुम्हारे सपने साकार करने में जी जान से जुट जाएगी। ये बात आज भी उतनी ही सच है जितनी कल थी, बल्कि आज कुछ ज्यादा ही सच है। पैसा कमाने के रुप बदल गये हैं लेकिन मूल आदर्श आज भी वही हैं।

हमारे जमाने में कॉलेज सुबह नौ बजे शुरु होता था और चार बजे तक रहता था। आज कल के जैसे कॉलेज फ़ैक्टरी नहीं थे जिसमें सुबह साढ़े सात बजे एक शिफ़्ट, फ़िर दोपहर एक बजे से दूसरी शिफ़्ट और शाम को पांच बजे से तीसरी शिफ़्ट् चलती है। हम अक्सर आज कल के बच्चों पर तरस खाते हैं बेचारे जैसे पैदा ही फ़ैक्टरी से फ़िनिशड प्रोडकट बनने के लिए हुए है। कॉलेज जाओ, फ़िर क्लासेस और फ़िर और होमवर्क। अब बताइए किसी और को पैसा कमाने का कोई और तरीका नहीं सूझा तो बच्चों को ही परेशान कर रहे हैं। पहले कोई क्लासेस जाता था तो शर्म महसूस करता था , आज कल तो शान से कहा जाता है मैं फ़लां फ़ंला क्लास में जाता हूँ।

अजी मजे तो हमारे जमाने में थे। सुबह छ: बजे उठ कर एक घंटा समुद्र की हवा खाने के बाद भी आराम से कॉलेज पहुंच जाते थे एक दो क्लास बैठे तो बैठे, न बैठे तो न बैठे। हमारे दिन अक्सर कॉलेज की केन्टीन में गुजरते थे, वहीं बैठ कर नोटस लिखे जाते, खाया पिया जाता, अब बताइए बिना खाए कोई पढ़ सकता है क्या। केन्टीन भी ऐसी कि उठने का मन ही न करे। केन्टीन में न बैठे तो फ़िर लायब्रेरी हमारा दूसरा घर थी। सबके बैठने के लिए पर्याप्त जगह, एकदम शांत्। उस जमाने में जिरोक्स का चलन नहीं था। हम लोग कार्बन पेपर का इस्तेमाल कर नोटस बनाते थे। किताबें महंगी होने के कारण लायब्रेरी से ले कर पूरी पूरी किताब नकल की जाती थी। हमारे भावी पतिदेव ने कितने ही नोटस हमारे लिए इस तरह से बनाये। लगे कि नोटस प्यार की गहराई का मापक बन गया।


सत्तर के दशक में आया टी वी मुंबई


टी वी देहली में तो कई बरसों से था लेकिन बम्बई आया 1970 में या 1971 में। टी वी आने से पहले रोजमर्रा के जीवन में मनोरंजन के साधनों में तीन ही प्रमुख थे –फ़िल्में, रेडियो और उपन्यास्। हर नुक्कड़ पर सरकुलेटिंग लायब्रेरी दिखाई देती थी, (आज कल सायबर कैफ़े दिखते हैं , सरकुलेटिंग लायब्रेरी तो कब की लुप्त हो चुकीं) छुट्टियों में इन लायब्रेरियों पर छात्र छात्राओं की भीड़ लगी रहती थी। हिन्दी माध्यम से स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के कारण जब कॉलेज में आये तो अपनी भी अंग्रेजी लालू प्रसाद यादव से तोला भर बेहतर थी। छुट्टियों में इन्हीं लायब्रेरियों से ले ले कर पी जी वुडहाउस और जेम्स हार्डली चेस की पूरी श्रखंला पढ़ी और आज भी हमें पी जी वुडहाउस बहुत पंसद है। रेडियो पर भी सीमित स्टेशन ही बजते थे, शाम को पांच बजे से रात के साढ़े ग्यारह बजे तक विविध भारती या आल इन्डिया रेडियो या बुधवार के बुधवार बिनाका गीत माला सुना जाता था। कालेज से भाग कर मैटिनी शो को जाना हमारे ऐबों में से एक था। एक किस्सा याद आ रहा है, इजाजत हो तो आप के साथ बांटते चलें। बॉबी फ़िल्म लगी थी और कॉलेज में उसकी बड़ी धूम थी। सहेलियों, दोस्तों के साथ कॉलेज बंक कर के वो पिक्चर देखने का प्रोग्राम बना। हम लोग कुल आठ जन गये बारह से तीन का शो देखने। पकड़े न जाएं इस डर से जूहू के थिएटर छोड़ दूर गोरेगांव में जा कर पिक्चर देखी जाती थी। शो छूटने के बाद घर आते आते साढे चार बज गये, घर पहुंचे तो देखा मम्मी बहुत गुस्से में थी। हमने सोचा मारे गये आज तो किसी ने आ कर बता दिया होगा कि हम पिक्चर गये थे, बच्चू अब खैर नहीं। मम्मी ने कहा , इतनी देर से कैसे आईं? हमारी तो घिग्गी बंध गयी पर इससे पहले कि हम मुंह खोलते , वो बोलीं । तुमने बहुत परेशान कर रखा है, इतना देर से आती हो हम लोग पिक्चर जाने के लिए तैयार बैठे हैं सिर्फ़ तुम्हारे इंतजार में, अब अगर लेट हो गये तो सबका मजा खराब हो जाएगा, जल्दी से तैयार हो कर आओ। हमारी सांस में सांस आयी , धीरे से पूछा , कौन सी पिक्चर? जवाब आया ‘बॉबी’। हमें अत्यधिक खुशी जाहिर करने का नाटक करना पड़ा और जल्दी जल्दी तैयार हो कर चल दिये बॉबी देखने छ: से नौ। आज कल के बच्चों के नसीब में ऐसे एडवेन्चर कहां?

सत्तर के दशक में टी वी अभी नया नया आया था,इरले बिरले लोगों के घर पर ही होता था। अरे टी वी तो दूर टेलीफ़ोन भी एक बिल्डिंग में एक दो ही हुआ करते थे। शाम होते ही जिसके घर टी वी होता था वहां जमा होने लगते थे, खास कर इतवार को। टी वी वाले उस दिन जल्दी खाना बना लेते थे। मुश्किल से एक दो चैनल हुआ करते थे। मुझे याद है तबुस्सम जी का फ़ूल खिले हैं गुलशन गुलशन, छायागीत, कमलेश्वर जी का परिक्रमा जैसे साहित्यिक प्रोग्राम एकदम हिट प्रोग्राम हुआ करते थे। टी वी पर कवि सम्मेलन सुनने के लिए मैं तो क्या पूरा परिवार पूरे हफ़्ते इंतजार करता था। बहुत लंबा होता जा रहा है, आप लोग अब उकता रहे होगें , तो लिजिए एक और याद के साथ इसे यहीं खत्म करती हूँ। एक बार कमलेश्वर जी को हमारे कॉलेज में आमंत्रित किया गया था। तब तक हम जूहू से फ़िर चेम्बूर वासी बन चुके थे पर आखरी साल था इस लिए कॉलेज वही था। लोकल ट्रेन से नया नया सफ़र करना शुरु किया था, कौन सी ट्रेन कहां जा रही है समझ में न आता था। जिस दिन कमलेश्वर जी का आना सुनिश्चित था,हम बांद्रा पहुचें वहां से ट्रेन बदल कर विले पार्ले जाना होता था। हमारे रोज के प्लेट फ़ार्म पर एक खाली गाड़ी देख कर हम चढ़ गये। गाड़ी थोड़ा देर से चली। जब गाड़ी चलने लगी तो हमें एहसास हुआ कि हम तो गलत गाड़ी में बैठे हैं। अब सीधा सा उपाय ये था कि हम अगले स्टेशन पर उतर कर वापसी की गाड़ी ले लेते। लेकिन हमने अपने मन में सोचा लेकिन इस सब में तो कम से कम आधा घंटा देर हो जाएगी और कमलेश्वर जी का शुरुवाती भाषण हम मिस कर देगें, वो हमें गवारा न था। बस आव देखा न ताव, चलती गाड़ी से कूद गये। शुक्र है कि प्लेट फ़ार्म पर ही गिरे, नहीं तो ……।

10 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

तो आप कमलेश्वर जी के लिए ट्रेन से कूद गई?
आप ने तो मुझे 1978 की मुम्बई यात्रा याद दिला दी। जब मैं पत्रकार होने मुम्बई गया और आवास के संकट से भय खा कर लौट आया। वहीं कमलेश्वर जी से सारिका के द्फ्तर में मुलाकात हुई थी।

संगीता पुरी said...

हमेशा की तरह ही बहुत सुंदर प्रस्‍तुति ... मुंबई के बारे में बहुत जानकारी मिली ... साथ ही आपके बचपन के बारे में भी ... बहुत अच्‍छा लगा पढकर।

अनिल कान्त said...

अजी आपके जमाने के तो क्या कहना ...सच मानिए एक एक शब्द जादू की माफिक दिल में उतरता गया ...बहुत यादगार लम्हों से रू-ब-रू कराया आपने ....बहुत मिठास थी

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

अनिता जी ,
बम्बई की यादोँ मेँ मन खो गया आपका लिखा हुआ बडा जीवँत बन पडा है - आपकी लगन और मेहनत की सही पहचान हो रही है और खूब आनँद आ रहा है आपके जाल घर से सभी हिन्दी ब्लोग जगत के साथियोँ को होली पर्व पर रँगभरी शुभकामनाएँ

Arvind Mishra said...

सच कहा आपने मुबई सपनो की नगरी है _ बहुत बढियां संस्मरण है -मुझे भी मुम्बई का अपना अदो वर्षीय प्रवास य्ह्दआ गया १९९१ से ९३ तक का ! लोकल ट्रेन का एक बार मैं भूल से महिलाओं के डब्बे में घुस गया था पर आश्चर्य उन्होंने मेरे साथ बहुत भद्र व्यवहार किया ! बाबी आपने दो बार देखी ! एक ही दिन ! क्या कहने ! और ट्रेन से कूदना -वह तो बहुत गलत किया आपने -शुक्र मनाईये बच गईं आप यह संस्मरण लिखने के लिए !

Udan Tashtari said...

अजी, जवानी तो हमने भी बम्बई में ही काटी चार साल तक और लोकल में ही घूमें मगर आप जैसा डूब कर लिखने की ताकत हमारी कलम में कहाँ. भरपूर आनन्द लिया आपकी पोस्ट का.

Gyan Dutt Pandey said...

कमलेश्वर जी के लिये ट्रेन से कूदना?! ऐसी हाराकीरी तो लड़कियां केवल राजेश खन्ना के लिये करती थीं! आपका ग्रे-मैटर नॉर्मल छाप नहीं लगता!

अनूप शुक्ल said...

मजेदार संस्मरण है। लालूजी से तो आपकी अंग्रेजी और हिंदी दोनों बढ़िया है। कमलेश्वरजी की परिक्रमा के किस्से पहले भी सुने थे लेकिन इतनी लोकप्रियता का एहसास न था। किस्से और होंगे मुंबई के वो भी खोलिये न यादों की गठरिया से!

सागर नाहर said...

आत्मकथाओं में अब तक गाँवों की बातें पढ़कर आनंदित होते थे अब लगता है कि शहरों की बातें भी उतनी ही मजेदार होती है।
मजेदार, लम्बा होते हुए भी कहीं उबाऊ नहीं लगा। अगली कड़ी का इंतजार है।

Puja Upadhyay said...

उस वक़्त की बम्बई के किस्से सुनकर अच्छा लगा...आपके संस्मरण जैसे कहानी सुन रहे हों पहली से आखिरी लाइन तक एक नया अनुभव हुआ. आगे भी पढने की इच्छा है...उम्मीद है आप और भी किस्से लिखेंगी.