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December 28, 2007

गाजर मीठी है

गाजर मीठी है

1960 के दशक में बम्बई आने के बाद से और पिछले 25 सालों की नौकरी में शायद ही छुट्टियों में बाहर जाने का लुत्फ़ उठाया हो। कहते हैं सपनों में जीने का जो मजा है वो सपने साकार होने में शायद नहीं। सपने गधे के आगे टंगी गाजर के जैसे हैं जिन्हें पाने की आस में गधा चलता चला जाता है। पता नहीं गधा गाजर खाये तो उसे अच्छी लगे या नहीं। अगर उसे वो गाजर मिल जाये तो शायद सोचे अरे नाहक ही इतनी मेहनत की। खैर जो भी हो, अपनी हालत भी कुछ उस गधे जैसी ही थी। विनोद जी की एक कविता पढ़ी थी फ़ुरसतिया जी के ब्लोग पर, उसकी कुछ पक्तियां याद आती हैं जिन्हों ने हमारे दिल में घर बना लिया
जैसे तुम सोच रहे साथी,वैसे आजाद नहीं हैं हम-2
पिंजरे जैसी इस दुनिया में पंछी जैसे ही रहना है
भर पेट मिले दाना पानी, लेकिन मन ही मन दहना है
जैसे तुम सोच रहे साथी, वैसे संवाद नहीं हैं हम
जैसे तुम सोच रहे साथी वैसे आजाद नहीं हैं हम

आगे बढ़ने की कौशिश में, रिशते नाते सब छूट गये
तन को जितना गढ़ना चाहा, मन से उतना ही टूट गये
जैसे तुम सोच रहे साथी वैसे आबाद नहीं हैं हम
जैसे तुम सोच रहे साथी, ……………………………"


हमारी क्या हमारे माता पिता की भी वही हालत थी। इस भागती दौड़ती जिन्दगी में कभी कुछ फ़ुरसत के क्षण मिलते तो हमारे पिता अपने बचपन के किस्से सुनाते जिन्हें हम बड़े चाव से सुनते। कहानियां तो सभी घर में सुनायी जाती हैं और बच्चे बड़े चाव से सुनते हैं पर हमारे घर की कहानी में थोड़ा रोमांच था, थोड़ा दर्द्।

दरअसल हमारी दादी जी हमारे पिता(पहली संतान) को जन्म देते ही भगवान को प्यारी हो गयीं तो बाद में हमारे पिता का अपने ननिहाल से कोई संपर्क नहीं रहा।खैर वो कहानी फ़िर कभी, अभी तो हम बात कर रहे हैं अपने पिता के सपने की। उनकी बहुत इच्छा थी कि एक बार सपरिवार वैष्नो देवी के दर्शन कर सकें और लौटते हुए अपने ननिहाल ले जा सकें। एक बार वो गये भी पर हम साथ न जा सके। बस हम सब सपने ही देखते रह गये और पिता जी स्वर्ग सिधार गये और कुछ साल बाद माता जी भी पिता का ये सपना पूरा न होने का मलाल लिए चल दीं। माता का जाना हमें झक्झोर कर रख गया। हमने सब व्यस्तानों को किनारे करते हुए उसी साल माता के दर्शन का प्रोग्राम बना लिया। एक तरह से ये माता पिता को श्रद्धांजली देने जैसा था।

हमें इस बात का भी एह्सास न था कि माता का मंदिर कटड़ा में है जम्मु में नहीं। खैर माता के दर्शन कर लौटते वक्त हमने जम्मु के रास्ते लौटने का निश्चय किया। हमारे पिता का ननिहाल जम्मु में ही बसता है ऐसा सुना था उनसे। बचपन की सुनी उन कहानियों में से सिर्फ़ इतना याद था कि जम्मु में एक रघुनाथ का मंदिर है जिसके बाहर या नीचे उनके मामा की कैंटीन है या दुकान है(पता नहीं) और उनका सरनेम मनचंदा है। बस इतनी ही जानकारी के साथ हम उन्हें उस अनदेखे परिवार को अनजाने शहर में ढूंढने निकले। मन में ये भी उपापोह चल रही थी कि हम उनसे कभी मिले नहीं। उनमें से एक मामा जो शायद कश्मीर में रहते थे और साड़ियों की दुकान चलाते थे वो कभी बम्बई आये थे देखने की क्या बम्बई में दुकान खोली जा सकती है, जब कट्टरवादियों ने हिन्दुओं को कश्मीर से खदेड़ा था तब हम अपनी ससुराल में रहते थे तो उनसे मिलना न हो सका था।

खैर हॉटेल में सामान रख हम पहले रघुनाथ का मंदिर ढूंढने निकले वो तो आसानी से मिल गया काफ़ी प्रसिद्ध मंदिर है फ़िर हमने ढूंढना शुरु किया मंनचदा, कई दुकानों में पूछा कोई नहीं जानता था। मोबाइल से बम्बई अपने छोटे भाई को फ़ोन लगाने की कौशिश की, वो बरसों पहले हमारे पिता के साथ माता के मंदिर गया था, पर कश्मीर में तब सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए मोबाइल काम न करते थे, सिर्फ़ एस टी डी बूथ से फ़ोन कर सकते थे, वो भी न लगा। दरअसल रघुनाथ मंदिर का जो चित्र हमने अपनी कल्पना में खींचा था ये उससे बिल्कुल अलग था। दो तीन बार आतंकवादी हमले होने के बाद मंदिर की सुरक्षा बढ़ा दी गयी थी और उसके नक्शे में कुछ फ़ेर बदल कर दी गयी थी।

पूछ्ते पाछ्ते किसी ने बताया कि मंदिर में जाने का एक रास्ता पीछे से भी है सोचा ये भी आजमां लें। काफ़ी लंबा रास्ता पार कर जब हम उस दरवाजे पर पहुंचे तो महिला संतरी खड़ी थी, भारी चैकिंग होती थी। उसके सवालों का क्या जवाब देते कि किससे मिलना है। किसी तरह अंदर पहुंच ही गये। बायें हाथ को मुड़ते ही एक लंबा सा गलियारा दिखा जिसके अंत में कैंटीन नुमा कमरा दिख रहा था। हिचकिचाते से कदमों से हमने वो गलियारा पार किया। शुक्र है उस समय वंहा कोई ग्राहक नहीं था। कांउटर पर बैठे आदमी को हमने धीरे से प्रश्नीली आवाज में पूछा
"मंनचदा?",
उसने आश्चर्य से भवें ऊपर उठाईं, हमने झिकझिकते हुए कहा

धड़कने हमारी राजधानी से भी तेज दौड़ रही थीं कि पता नहीं क्या कहें कहीं मनचंदा नहीं हुए तो, अपनी निराशा के बारे में हम सोचना भी नहीं चाहते थे। अचानक उस व्यक्ती के चहेरे पर मुस्कान खेल गयी हालांकि आश्चर्य अभी भी बना हुआ था। हमारा परिचय पाते पाते उन्होंने हमें अपने अंक में ले लिया और आखें बरबस भर आईं। पता चला वो हमारे पिता के बीच वाले मामा थे। बातों का दौर शुरु हुआ, हमने अपने पिता के ननिहाल का ब्यौरा अब ठीक से सुनना शुरु किया। इतने में उन्होंने किसी को फ़ोन किया और जल्द ही एक 35/40 के आस पास का व्यक्ती आ गया। पता चला वो हमारे पिता का ममेरा भाई है (बड़े मामा का लड़का) और हमें घर लिवा लाने के लिए उनकी माता जी का विशेष आग्रह है। मना करने का तो सवाल ही न था।

हम अपने पिता के सबसे बड़े मामा के घर पहुंचे। मामा जी तो अब नहीं थे पर मामी जी ने हमारा स्वागत किया, उनकी उस नन्द की पोती का जिन्हें उन्हों ने कभी देखा नहीं था जो उनके शादी कर के आने से पहले परलोक सिधार चुकी थीं। मेरे पिता के मामा के पोते और उनके बच्चे और हम अजीब सुखद मिलन था, सब एक दूसरे को जिन्दगी में पहली बार मिल रहे थे। मामी जी (जिन्हें अब सब दादी कह रहे थे), पतोहू बहुएं, बच्चे इतने खुश थे हमें देख कर की हम ब्यां नहीं कर सकते। मामी जी की पोती जो दंसवी की परिक्षा में बैठ्ने वाली थी बुआ बुआ कर के हमसे ऐसे बातें कर रही थी जैसे घर के आंगन में फ़ुदकती गौरया। मामी जी ने अपनी उम्र की मजबूरी को दरकिनार करते हुए दूसरे दिन हमें सब रिशतेदारों से मिलाया ये सफ़र उनके लिए इतना आसान न था। पर सब रिशतेदार ऐसे खुश थे और हैरान थे जैसे हम हैरी पॉटर की किताब में से निकल आये हों।

हम देख सकते थे कि इन सब के स्नेह में बिभोर होता देख मेरे पिता कितना तृप्त महसूस कर रहे होगें और मानो हमसे कह रहे हों देखा मैं न कहता था मेरे ननिहाल जैसा कोई नहीं । हाँ डैडी आप की ननिहाल जैसा सच में किसी का ननिहाल नहीं हो सकता। कभी कभी गाजर मीठी भी होती है, सिर्फ़ उसके पीछे भागिए मत रुक कर खा कर भी देख लिजिए।

December 27, 2007

पन्नालाल

आठ साल पहले घर से बाहर जाते हुए एक 17 /18 बरस का मासूम सा नौजवान गैरेज में बैठा दिखाई दिया। हमें देखते ही बड़ी तत्परता के साथ गेट खोलने आगे बढ़ लिया। अक्सर हमारे चौकीदार के मित्रगण उससे मिलने आते ही रहते थे और चौकीदार की ऐसे कामों में मदद भी करते रहते हैं । हम जल्दी में थे कोई ध्यान नहीं दिया। शाम को लौटे तो उसी नौजवान को एक शर्मीले से अभिवादन के साथ गेट खोलते पाया। पूछने पर पता चला वो नया चौकीदार नियुक्त हुआ है।

नाम है पन्नालाल देखने में सुन्दर, पतला पर स्वस्थ बदन का,अभी मसें भी न भीगी थीं। हमारे और ज्यादा पूछ्ने पर डरते डरते बताया -गांव झरोनिया, जिल्हा इलहाबाद, दसंवी फ़ैल, पिता किसान, चार भाई। इससे ज्यादा कुछ बताता तब तक हमारी सोसायटी का दूसरा चौकिदार उसे हमारी प्रश्नावली से बचा कर ले गया। दूसरे चौकीदार को हम कुछ कह न पाए, कैसे कहते, उनकी उम्र होगी लगभग पचास पचपन की, पूरा नाम तो हम भी भूल चुके हैं उन्हें हम बुलाते हैं तिवारी जी, पता चला वो यू पी से हैं और एम ए पास हैं हिन्दी में । गांव में कोई नौकरी का जुगाड़ नही हो सका तो शहर चले आये और कोई नौकरी न मिली तो चौकीदारी ही कर ली, इस बहाने किराए का मकान तो नहीं लेना पड़ेगा। अब दोनों पंप रूम में खाना बनाते हैं और वहीं गैरेज में सो लेते हैं। शुरुवात में आज से आठ साल पहले दोनों की पगार 1000 रुपये प्रति माह थी अब बड़ कर 3000 रुपये प्रति माह है।

हमने जब सुना कि तिवारी जी एम ए पास है और चौकीदारी कर रहे हैं तो मन रो उठा। हमने उनको सुझाया कि वो दूसरी जगह कोई और नौकरी क्युं नहीं तलाश करते, पर उनका कहना था कि हिन्दी को कौन पूछता है और उनके पास कोई अनुभव भी नहीं था और फ़िर दूसरी नौकरी में किराए पर खर्च कर जितना पैसा बचा पायेंगे अब भी उतना ही बचाते हैं। हमने सुझाया कि सारा दिन यूं ही ऊंधते रहने से अच्छा है वो कुछ बच्चों की ट्युशन ले लें। उनके पास कोई तर्क नहीं था हमारी बात काटने का, इस लिए देखते हैं कह कर टाल गये। उनकी ड्युटी लगती थी रात की लिहाजा वो दिन में सोते हुए नजर आते थे, पर लोगों को ये भी शिकायत थी कि वो रात को भी घोड़े बेच कर सोते हैं। एम ए पास होने के बावजूद अगर उन्हें कोई बाहर का काम दे दिया जाए तो उन्हें पिस्सु पड़ जाते थे। बाहर का काम जैसे पानी, बिजली का बिल भरना, सबके टेलिफ़ोन के, बिजली के बिल जमा कर एक साथ भर कर आना, सोसायटी के बैंक के काम निपटाने। बम्बई की दौड़ती भागती जिन्दगी में इन सब कामों के लिए हम लोग चौकीदारों पर काफ़ी निर्भर करते हैं।

इसके विपरीत पन्नालाल जो पहले बड़ा शर्मीला सा बच्चा लगता था अब काफ़ी कारगर सिद्ध हो रहा था। बाहर के काम वो चुटकियों में समझ जाता था और बड़ी मुस्तेदी से करता था। धीरे धीरे वो कई ग्रहणियों का मुंहलगा पसंदीदा चौकीदार बन गया। और क्युं न होता वो इतना महनती जो था , लोगों की सब्जी, ब्रेड, इत्यादी खरीदने से लेकर शाम को बच्चे संभालने तक का काम वो करता था। हर मर्ज की दवा है पन्नालाल्। आप को घर में काम करने वाली बाई चाहिए पन्नालाल को बोल दिजिए, शाम तक कई बाइयां आप के घर पहुंच जांएगी, ऊंची बिल्डिंगों में अक्सर मधुमक्खी के छ्त्ते की परेशानी आये दिन होती रहती है, आप के घर मधुमक्खी ने छ्त्ता बना लिया है, पर आप उसे जला कर अपनी दिवार का पेंट खराब नहीं करना चाहते अभी अभी तो करवाया था, पन्नालाल के पास उसका भी हल है-बेगॉन स्प्रे, आप के पास 200 गमले हैं जिनकी गुढ़ाई, निराई करनी है, पन्नालाल हाजिर है। आप के घर का दरवाजा हवा से बंद हो गया है और आप बाहर अटक गये हैं पन्नालाल को बुलाइए। कारें धोते तो अक्सर चौकीदार हर सोसायटी में आप को मिल जाएगें पर आश्चर्य तो हमें तब हुआ जब सात साल पहले हम अपनी कार को मन चाहे ढंग से पार्किंग में लगा नहीं पा रहे थे, और पन्नालाल आया और बोला मैं लगा देता हूँ। उसके आत्मविश्वास को देखते हुए हम न नहीं कर पाए न पूछ पाए गाड़ी चलानी आती है क्या? उसने गाड़ी इतनी बड़िया पार्क की हम पूछे बिना रह नहीं पाए। बड़ी लापरवाह नम्रता के साथ उसने बताया कि वो गांव में जीप चलाया करता था। उस समय तो ठीक से समझे नहीं पर बाद में पता चला कि वो वहां जीप से सवारियां ढोने का काम किया करता था । उसके बाद कई दिनों तक हमें इस बात का प्रलोभन रहता था कि गाड़ी पार्क करने के लिए उसे दे दें। वो भी खुशी खुशी करता था पर इस प्रलोभन पर काबू पाया ये सुच कर कि हम कब ठीक से पार्क करना सीखेंगे। लेकिन टायर पंक्चर हो जाए तो उसे बदलने की जिम्मेदारी अभी भी उसी की है।

अजी ये तो कुछ भी नहीं, अवाक तो हम उस दिन रह गये थे जब पन्नालाल एक दिन हमारे पास आया और बोला

"मैने सुना है आप दूसरा मकान खरीदना चाहती हैं?
हमने हंस कर कहा।
हां है कोई नजर में?
बोला " हां "


उस दिन हमें पता चला कि वो इस्टेट एजेंसी का साइड बिसनेस करता है। हमारे घर के पास तीन चार इंजीरियंग कॉलेज हैं और कई छात्र बाहर से पढ़ने आते हैं। इन कॉलेजों में होस्टेल नहीं हैं और छात्र कॉलेज के पास किराए के मकान तलाश करते है तो पन्नालाल और उसके गांव से आये और साथियों ने मिल कर बिन दुकान के ये धंधा शुरु कर लिया। जून के महीने में ये चौकीदार सारा सारा दिन गेट के पास खड़े पाए जाएंगे, छात्रों के झुंड जो दलाली देने से बचना चाह्ते हैं इन लोगों से पूछ्ते हैं कोई मकान मिलेगा और ये कम दलाली में उन्हें मकान दिला देते हैं। इसी तरह से किस सोसायटी में कौन सा मकान बिक रहा है सब खबर रहती है। अक्सर जिस बिल्डिंग में दलाल की दुकान होती है उसका चौकीदार भी इनका दोस्त होता है जैसे ही कोई ग्राहक दलाल की दुकान से निकला ये उसे घेर घार कर कम दलाली में मकान दिलाने की कौशिश करते है।

पन्नालाल अपने हिसाब का बड़ा पक्का है, बिना पैसे लिए वो कोई काम नहीं करता, अगर उसकी लाई हुई बाई आपने रक्खी तो वो बाई से कमीशन लेता है काम दिलाने का, अगर आपने उसे नीचे से गुजरते ठेले वाले को रोकने को कहा तो जो कुछ भी खरीदो उसे नजराना देना पड़ेगा। है तो दसवीं फ़ैल पर अग्रेजी काफ़ी समझ लेता है। ऊपर लिखे सब काम वो पैसे ले कर ही करता है।

पन्नालाल की एक आदत हमें बहुत खराब लगती है वो अपने काम से काम नहीं रखता, बिल्डिंग में सबके घर में क्या चल रहा है उसे पूरी जानकारी रहती है। एक दिन जब हमारी डाक आयी तो हम उसके नाम का खत अपने पते पर देख कर चौंक गये। पता लगा कि हमारा इन्सयौरेंस का काम जो एंजेट देखता है उस पर पन्नालाल की कई दिन से नजर थी। एक दिन जिज्ञासावश उसने उस एंजेट को नीचे घेर लिया पूछ्ने के लिए वो क्युं आता है? हमारा एंजेट भी इलाहाबादी, तो साहब उसने इसको इंस्यौरेंस के बारे में जानकारी दी। अब इनके मन में भी आया की एक पॉलिसी ली जाए, समस्या सिर्फ़ मकान का पता किसका दें वो थी सो हमसे पूछे बिना हमारे पते पर पॉलिसी ले ली गयी, सोसायटी के सेक्रेटरी के पते पर बैंक एकाउंट खोला गया। गुस्सा तो हमें बहुत आया लेकिन उसकी अपनी जिन्दगी संवारने की ललक को देखते हुए हमारा गुस्सा उड़नछू हो गया। ये एक आदमी था जो अपने सपने साकार करने के लिए किसी बाधा को बीच में न आने देता था और एक बार मन में कुछ निश्चय कर लिया तो फ़ुर्ती से आगे बड़ता था।

एक दिन हम रात को लौटे तो देखा ये महाराज आराम से कुर्सी पर पांव फ़ैलाए गैरेज में टी वी देख रहे हैं। टी वी-- कई प्रश्न दिमाग में कौंध गये। पूछ्ने पर पता चला उसने खुद खरीदा है शायद सेकेंड हैंड, ब्लैक एंड वाइट, पर केबल कनेक्शन कहां से लिया, ये गुत्थी मैं आज तक नहीं सुलझा पायी। उसकी सिर्फ़ एक ही समस्या है। हमारी बिल्डिंग में एक रिटार्यड अकंल जी रहते हैं जिनका तीन चौथाई दिन नीचे घूमते या गैरेज में बैठ कर गुजरता है। अब जब से पन्नालाल टी वी लाया है तब से उन्होने घर पर टी वी देखना ही छोड़ दिया है। अब पन्नालाल को भी 25 साल की उम्र में जबरन आसाराम जी को सुनना पड़ता है और रामदेव बाबा को देखना पड़ता है।

दिन की ड्युटी में उसे ये नौकरी से अलग दूसरे धंधे करने में बड़ी तकलीफ़ हो रही थी, दिन भर सोसायटी में बंध जाए तो मकान कैसे दिखाए। उन दिनों हम खजानची थे सो हमको आकर बोला देखिए ये मेरे साथ बहुत ज्यातती है, मुझे ही क्यों दिन की ड्युटी पर रक्खा जाता है हमेशा। हमने समझाया कि तिवारी जी बाहर के काम करने में सक्षम नहीं इस लिए। पर ये तो उसकी काबलियत की सजा जैसे था। बात हमें जंच गयी और नियम बना कि आधा महीना वो रात की ड्युटी करेगा और आधा महीना तिवारी जी। तिवारी जी को बात पसंद न आयी क्युं कि दिन में काम ज्यादा रहता है पर आखिरकार मानना ही पड़ा। वो उसके साइड बिसनेस की चुगली भी नहीं लगा सकते थे क्योंकि हम खुद इस बात को बढ़ावा देते थे कि बिना नौकरी से बेइमानी किए अपने खाली वक्त में तुम ऐसा कुछ जुगाड़ करना चाहो तो करो। सोच रही हूँ इसे हिन्दी में पढ़ने के लिए धीरुभाई अंबानी की जीवन गाथा दे दूँ। सपने थोड़े और बड़े हो जाएगें।

इसी पन्नालाल का एक और पहलू भी है उसके इस चालाक, तेज तरार रूप से एकदम अलग। उसका बड़ा भाई बाजू वाली बिल्डिंग में चौकीदार है, वो तिवारी जी जैसा, लेकिन पन्नालाल उसकी बहुत इज्जत करता है, करनी भी चाहिए। पर इन्तहा ये है कि पन्नालाल को अपनी पत्नी का नाम तक नहीं पता और एल आई सी पॉलिसीस पर नॉमिनेशन में बड़े भाई का नाम लिखाया है। बहुत समझाया पर ये तो लक्ष्मण है न्। ये है आज का युवा, भारत के भविष्य का एक हिस्सा

December 22, 2007

घायल हुई सोने की चिड़िया

घायल हुई सोने की चिड़िया

कुछ दिन पहले संजीत जी ने अपनी पोस्ट पर "आज़ादी एक्स्प्रेस" के बारे में जानकारी दी थी। जहां एक तरफ़ ये जानकर दिल गर्वित हुआ कि हम एक स्वतंत्रता सेनानी के बेटे के दोस्त हैं, वहीं उनकी पोस्ट पर लॉर्ड मेकॉले के खत को पढ़ कर चौंक गये। इतिहास की किताबें बचपन में हमने भी पढ़ीं थीं , जानते थे कि भारत में मौजूदा शिक्षा प्रणाली का सूत्रधार करने वाला वही था। उसका कारण जो हमने पढ़ा था वो ये कि तब अग्रेजों को कई कर्लकों की जरुरत थी जो अंग्रेजी जानते हों और इस कमी को पूरा करने के इरादे से मौजूदा प्रणाली लायी गयी थी। ये भी कहा जाता है कि लॉर्ड मेकॉले के अनुसार संस्कृत और अरबी भाषाएं अंग्रेजी जितनी समृद्ध नहीं थीं। पर ये खत तो बता रहा था कि यहां तो माजरा ही कुछ और था। जैसे ही हमने अखबार में पढ़ा कि ये आजादी एक्सप्रेस 17-22 दिसंबर के बीच बम्बई में रहेगी हमने जाने का मन बना लिया, हांलाकी वी टी स्टेशन जहां ये गाड़ी रुकने वाली थी हमारे घर से बहुत दूर है।



हमारे पतिदेव ने भी साथ चलने में रुचि दिखायी। स्वाभाविक था, उनके पिता जी भारतीय सेना में लेफ़टिनेंट कर्नल रह चुके थे और अगर मेरे पति के जीवन में मुझसे मिलने की दुर्घटना न हुई होती तो आज वो भी भारतीय सेना का हिस्सा होते। ये निश्चय किया गया कि 21 को ईद की छुट्टी है तो उस दिन चलेगें। पतिदेव के ऑफ़िस में छुट्टी नहीं थी पर किसी तरह कौशिश करेगें, ये सोच 21 की शाम का प्रोग्राम बनाया गया।



21 की शाम हम किसी तरह लोकल ट्रेन में लदे फ़दे वी टी पहुंच गये। शाम के साढ़े पाँच बज चुके थे, हमारे पतिदेव को अचानक कांदिवली (बम्बई के दूसरे कोने में) जाना पड़ गया। सो हमने एक पुलिस वाले को पूछा "भैया, आजादी एक्सप्रेस कहां खड़ी है?" हमें लगा आदतन पुलिस वाला बोलेगा आगे पूछो। हैरानी तब हुई जब उसने बड़ी तत्परता के साथ बोला प्लेट्फ़ार्म नंबर 13, वहां पहुंच कर तो हमारी हैरानी का ठिकाना ही न रहा जब हमने देखा कि जितनी लंबी ट्रेन थी उतनी ही लंबी लाइन थी लोगों की अंदर जाने के लिए। हम लाइन में जाके खड़े हो गये, सोचा कि चलो इतनी लंबी लाइन है तो हमारे पतिदेव को उतना वक्त मिल जाएगा कि वो भी पहुंच जाएं।



हमारे पीछे खड़ा आदमी बहुत बातुनी था। कोई सुने या न सुने वो अपनी बात बोले जा रहा था-



पहले कहा था 22 दिसंबर तक ट्रेन रुकेगी अब कह रहे हैं आज लास्ट दिन है, और वो भी सिर्फ़ साढ़े छ बजे तक। जितने लोग घुस सके वो देख पायेगें बाकियों को वापस लौटना पड़ेगा। अब आज छुट्टी का दिन है भीड़ तो ज्यादा होगी ही न, इन्हें कम से कम रात के 8 बजे तक खुला रखना चाहिए, लोग इतनी दूर दूर से आते हैं"।



न चाहते हुए भी हम उसकी बातों पर ध्यान देने को मजबूर हो गये, घड़ी पर नजर डाली, पौने छ बज चुके थे। पतिदेव को फ़ोन लगाया तो पता चला कि वो तो अभी वी टी से बहुत दूर हैं। आखों से लाइन नापी, लाइन की रफ़्तार नापी और समझ गये कि अपना नंबर नहीं आने वाला। इतने एक बहुत ही सभ्रांत सा व्यक्ती आकर लाइन की लंबाई नाप गया। उसके गले में पहचान पत्र तो था लेकिन वो इतनी तेजी से हमारे सामने से निकल गया कि हम उसका नाम न पढ़ सके। अपने मनोरथ के विफ़ल होने की आशंका से मन ही मन कुढ़ रहे थे, खुद को ही कोस रहे थे कि थोड़ा जल्दी पहुंच जाते तो यहां तक आना अकारथ न जाता, पर जल्दी कैसे आ जाते जी वो मिश्रा जी( हमारे एक परिचित) जो आकर बैठ गये थे और उठने का नाम ही न ले रहे थे।



निराश हो कर हमने वहीं लाइन में खड़े खड़े संजीत को फ़ोन लगाया बताने के लिए कि भैया हम तो तुम्हारी बतायी ये आजादी एक्सप्रेस न देख सके। संजीत ने कहा आप फाये जी से मिलिए और हमारा नाम लिजिए। लो जी अब हम लाइन छोड़ ये मिस्टर फाये को कहां ढूढेगें, उन्होंने कहा अच्छा मैं उनको फ़ोन कर देता हूं । हमने कहा ठीक है लेकिन मन में सोच रहे थे "अरे भले आदमी मिस्टर फाये इतनी भीड़ में हमें पहचानेगें कैसे, तुमने भी हमें देखा नहीं तो मिस्टर फाये को क्या बताओगे?" खैर, तब तक लाइन कुछ और आगे रेंग गयी। हम नजरें इधर उधर दौड़ा रहे थे कि कोई अधिकारी दीख जाए तो शायद मिस्टर फाये का अता पता मिल जाए। तभी हमें कुछ दूरी पर वही सभ्रांत व्यक्ति खड़ा दिखायी दिया।



लाइन में अपनी जगह सुरक्षित कर हम लाइन छोड़ उसी व्यक्ती की तरफ़ बढ़ लिए और पूछा " मिस्टर फाये?"



उस व्यक्ती ने कहा, " अनिता कुमार?"



हमारे होठों पर मुस्कान तैर गयी। हम समझ गये संजीत जी ने अपना काम कर दिया। हमने कहा " जी, संजीत का…।"



वो बोले हां अभी अभी फ़ोन आया, आप मनोवैज्ञानिक हैं?



हमने हां में सिर हिलाते हुए सोचा लो उससे क्या फ़र्क पड़ता है।



और आप लॉर्ड मेकॉले का खत देखना चाह्ती हैं?



जी



आप अकेली हैं?



जी



ठीक है तब आइए



पूरी ट्रेन की लंबाई पार कर बारहवें डब्बे से हम पहले डब्बे के पास पहुचें जहां से ट्रेन के अंदर घुसना था। रास्ते में उन्होंने बताया कि उनके परिवार में से भी किन्ही दो महिलाओं ने मनोविज्ञान में एम फ़िल कर रखी है, हमने धीरे से बताया कि हम भी एम फ़िल हैं तब तक हम प्रवेश द्वार तक पहुंच गये। कुछ क्षण वो असंमजस में खड़े रहे फ़िर बोले कि आप अदंर जाइए और मजे से देखिए।



पहली बार हमने किसी अधिकारी को अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए इतना संकोच महसूस करते देखा। उनके चेहरे के भाव बता रहे थे कि हमें लाइन में बीच में घुसने की छूट दे कर वो खुद को गुनहगार मह्सूस कर रहे थे और लाइन में लगी जनता से आखों ही आखों में माफ़ी मांग रहे हो। हमें भी इतनी शर्म महसूस हुई, मन हुआ कि दौड़ कर वापस अपनी जगह पर जा कर खड़े हो जाए पर घड़ी की सुइयां आगे खिसक रही थीं और हम ये अवसर खोना नहीं चाहते थे। बाद में हमें पता चला कि उन्हों ने लाइन में खड़े सभी व्यक्तियों को अंदर जाने की इजाजत दे दी और किसी को निराश हो कर वापस नहीं लौटना पड़ा।



ट्रेन के अंदर एक अलग ही दुनिया थी। एक अभूतपूर्व अनुभव्। लॉर्ड मेकॉले का खत खुद अपनी आखों से देखा। एक एक शब्द पढ़ कर एह्सास हो रहा था कि ये तो बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक था। देखिए कैसे उसने हमारा देश जो सोने की चिड़िया कहलाता था उसे घायल करने का प्लान बनाया- "दमित देश"॥ये शब्द पढ़ कर आज भी मन खौल उठा, कितना अचूक निशाना था उसका, अगर अंग्रेजी को इतना महत्व देने का षड्यंत्र न रचा होता तो आज कितने ही मेधावी युवा हीन भावना से ग्रस्त न होते और बेरोजगार न होते। अग्रेजों के दमन की तस्वीरें जहां मन को अवसाद से भर गयीं वहीं भारतीयों की वीरता की तस्वीरे देख सीना गर्व से चौड़ा हो गया। गांधी जी की कुछ बहुत दुर्लभ तस्वीरें भी देखने को मिलीं और आजादी के बाद भारत के प्रगती की ओर अग्रसर होते कदम देख बहुत अच्छा लगा। अपने तिरंगे का इतिहास भी मुझे वही पता चला।



इतने बड़िया आयोजन के लिए सरकार की तारीफ़ करनी पड़ेगी। खास कर बच्चों के लिए ये यात्रा काफ़ी ज्ञानवर्धक रही। मुझे तो लगता है कि सरकार को सब स्कूल के बच्चों को ये दिखाना अनिवार्य कर देना चाहिए। अंत में सबसे महत्त्वपूर्ण धन्यवाद देना है संजीत को, जिसकी मदद के बिना ये अनुभव लेना हमारे लिए मुमकिन न था। आज पता चला ब्लोगिंग सिर्फ़ शौकिया ही सही पर इसके भी कई फ़ायदे हैं। समीर जी जब बम्बई आये थे तो उन्होंने कहा था कि ब्लोगिंग का एक फ़ायदा ये है कि आप किसी भी शहर में चले जाइए आप को कोई न कोई ब्लोगर मित्र मिल जाएगा और शहर उतना अन्जाना नहीं लगेगा। यहां तो ब्लोगर मित्र ने हमें हमारे ही शहर में मदद दिला दी, क्या बात है। मेरे ख्याल से अब अंग्रेजी में भी ब्लोग लिखना शुरु कर दूं ताकि दोस्तों का दायरा और बढ़ जाए। संजीत जी थैंक्यु , और मैं मिस्टर फाये कैसे भूल सकती हूं। एक घंटे बाद जब हम ट्रेन से बाहर निकले तो प्लेट्फ़ार्म सूना पड़ा था। हम फाये जी का धन्यवाद करना चाह्ते थे पर वो कहीं नजर नहीं आये। संजीत से उनका लोकल नंबर लिया लेकिन लगा नहीं सो मेसेज छोड़ दिया और पतिदेव की कार की ओर बढ़ लिए जो अब तक पहुच गये थे।

December 05, 2007

राहुल गांधी की शादी

राहुल गांधी की शादी


शाम को घूमने निकले तो नये मॉल की तरफ़ निकल लिये। कित्ता बड़ा मॉल था जी, पांच मंजिला और कित्ती सारी दुकानें, अपने अपने साजो सामान से लैस, सजी धजी जगमग जगमग करती। अंदर घुसने को भी तीन तीन दरवाजे, दरवाजों पर संतरी। किसी तरह से सकुचाते सकुचाते हम सब से नजदीक के दरवाजे से अंदर घुस लिए। सतंरी ने पर्स तक खंकाल लिया, उसमें सिर्फ़ चिल्लर और कुछ मूंगफ़लियां थीं। इत्ती शर्म महसूस हुई, भला क्या सोचेगें संतरी भैया, कहां कहां से उठ के आ जाते हैं ऐसे ट्ट्पूंजीए लोग, चवन्नी , अठन्नी लिए हुए, यहां क्या मूंगफ़लियां बेचेगें। पता होता कि ये संतरी महाराज चेकिंग करने वाले हैं तो कुछ रुपये न डाल लेते पर्स में । खैर, उससे आखं चुराते हम आगे बढ़ लिए। सामने ही आलोक पुराणिक जी अपनी दुकान पर पूड़ियां छानते नजर आ गये। हमारी तो जैसे जान में जान आई, उधर ही बढ़ लिए, वैसे वो हमको नहीं जानते जी, हम उनकी पूड़ियों का ऑर्डर घर से देते हैं न जी।


आलोक जी ये बड़ी बड़ी सुनहरी पूड़ियां छान रहे थे, बिल्कुल वैसी जैसी बचपन में हमने करोल बाग के स्टेंडर्ड की दुकान की खाई थीं । पूड़ी और आलू की सब्जी इतनी तेज कि मुंह से सी सी न निकले तो नाम बदल दो। देखते ही मुहँ में पानी आ गया। हम इंतजार करने लगे कि कोई आके हमसे ऑर्डर ले ले। बगल वाली टेबल पर ही राहुल गांधी बैठा था, बड़ा अनमना सा, मुंह लटकाए।


आलोक जी ने नौकर से हमारा ऑर्डर लेने को कह अपनी चिरपरिचित मुस्कान बखेरते हुए राहुल को पूछा क्युं गुरु आज ये मुर्दनी कैसी। सब खैरियत तो है। अपने भी कान उधर लग गये(आदत से मजबूर, क्या करें)। पहले तो राहुल ने ना नुकुर की फ़िर एक लंबी सांस लेकर बोले


पता है यार मेरी उमर कित्ती हो गयी है?


आलोक जी थोड़ा अचकचाए, फ़िर बोले, हां तुम निक्कर पहन कर आते थे मेरी दुकान पर पूड़ियां खाने राजीव जी के साथ, ह्म्म्म्म्म, तो अब 32/33 के तो होगे। क्युं?नहीं यार मुझे लगता है मेरी शादी कभी न होगी.


अरे! ऐसा क्युं लगता है, अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है, अटल जी को देखो, अभी तक नहीं फ़सें।


मजाक मत करो यार, मैं सीरियस हूं।


अरे तुम इतने सुन्दर गबरू जवान हो, एक क्या हजार मिलेगीं।


नहीं यार मुझे लगता है मुझे तो कोई इम्पोर्ट करनी पड़ेगी, सोचता हूं एक इटली का चक्कर लगा ही आऊं।


अब आलोक जी थोड़ा झुंझुलाए। छालना नौकर के हवाले करते हुए उठ पड़े और राहुल की टेबल पर आते हुए बोले ऐसी क्या बात है, यहां भी एक से बढ़ कर एक हैं कभी हमारी मीडिया की क्लास में आओ, ये लो हमारा लुच्चई चश्मा, इससे सब बराबर दिखता है। रखो, रखो मेरे पास और भी हैं।


राहुल अब भी ठंड़े से बैठे रहे, चश्मा जरूर उन्हों ने जेब के हवाले कर दिया, बोले कोई फ़ायदा नहीं।


आलोक जी जरा चिंतित होते हुए बोले भई बात क्या है, कुछ बताओगे भी , आखिर दोस्त हैं तुम्हारे।


यार क्या बताऊं लड़कियां तो यहां भी एक से बढ़ कर एक हैं पर कौन मां बाप मेरी मां से पंगा लेगा?


क्युं सोनिया जी नहीं चाह्तीं कि तुम्हारी शादी हो?


वो तो कुछ नहीं कहतीं पर हमारी पार्टी वाले ही मेरी जान के दुश्मन हैं। आश्चर्य से आलोक जी ने पूछा वो कैसे?


यार तुम्हें दीन दुनिया की कोई खबर है नहीं, कभी दुकान से बाहर जाकर देखा है? जगह जगह पोस्टर लगे हैं


<pसोनिया>" गांधी को बहुमत दो"


"सोनिया गांधी को बहुमत दो"

अब बताओ कौन देगा अपनी बेटी मुझे।


गंभीर मुद्रा धारण करते हुए आलोक जी ने हुंकार भरी, "हुम्म! ये तो सोचने वाली बात है"।


तब तक राहुल दो प्लेट पूड़ियां चट कर चुके थे, पता नहीं चल रहा था कि आसूं तरकारी के तीखेपन के कारण हैं या अपनी हालत पर रो रहे हैं।


इतने में बाहर से युनुस जी की दुकान से मधुर सगींत के स्वर पूरे मॉल में फ़ैलने लगे, "खोया खोया चांद, खुला आस्मान्…।" आलोक जी की आखें चमक उठीं। राहुल के कान में फ़ुस्फ़ुसाते हुए बोले एक आइडिया है, तुम ममता बहन को कोनटेकट करो, बंगालने भी एक से बढ़ कर एक होती हैं अब सोहा अली खान को ही ले लो, खोया खोया चांद देखी कि नहीं , भैया, चांद तो वो थी, खोये खोये से हम थे, क्या लगी है। और फ़िर बंगाल में तो अभी ऐसे पोस्टर भी नहीं लगे जैसे तुम बता रहे हो। वैसे भी बहां कब कौन लेफ़्ट है और कौन राइट, पता ही नहीं चलता, तुम्हारा मामला फ़िट …


राहुल ने हैरानी से पूछा पर तुम तो राखी सावंत और मल्लिका शेरावत…॥ उसकी बात काटते हुए आलोक जी बोले अजी वो सब बहुत पुरानी बाते हो गयीं आज कल तो सोहा, विध्या बालन और प्रियंका का जमाना है।


अब वेटर बिल ले कर आ गया तो हम को उठना पड़ा, पता नहीं राहुल ने खोया खोया चांद देखी की नहीं।

December 01, 2007

एक यादगार शाम- भाग 2

एक यादगार शाम- भाग 2

हम अभी तक पहली ब्लोगर्स मीट का आनंद आत्मसात कर रहे थे कि विकास का मेल आ गया कि एक बार फ़िर सब लोग मिल रहे हैं शुक्रवार को शाम सात बजे के करीब और आज तो गानों का दौर चलने वाला है, आप आइये। हम अभी सोच ही रहे थे कि जायें या नहीं कि मनीष जी का स म स आ गया। तो लगभग शुक्रवार के दो बजे के करीब हमने जाने का मन बना लिया। पिछ्ली बार हम देख आये थे कि वहां आस पास खाने पीने की सुविधा कुछ खास नहीं थी (शायद महिला होने के नाते इन सब बातों पर ध्यान ज्यादा जाता है) और हम घर से जा रहे थे इस लिए सोचा कि कुछ ले जाया जाये। पिछ्ली बार बाजार से कुछ ले गये थे तो प्रमोद जी (जो अभी अभी पीलिया की बिमारी से उठे हैं) ने कुछ नहीं लिया था।

हम वहां पौने आठ बजे पहुंचे, गीतों की महफ़िल तो सवा 6 बजे से जम चुकी थी। प्रमोद जी भी उसी समय पहुंचे और अनिल जी देर से आये। हमारे आने से गीतों के श्रंखला कुछ समय के लिए टूटी। विकास को आज भी मेजबान का रोल निभाना था, सो बड़े धड़ल्ले से उसे चाय का इंतजाम करने को कहा गया। बिचारा पता नहीं कहां कहां घूम कर चाय का जुगाड़ किया और आधे पौने घंटे बाद दो चाय से भरी पेप्सी की बोतलें और नाशता लेकर हाजिर हुआ। पर चाय पीते ही महफ़िल में फ़िर जोश आ गया और अब एक कुर्सी सिंहासन की तरह बीचम बीच रखी गयी, विमल जी सिंहासनासीन हुए और प्रसिध कवि नीरज जी(अलीगढ़ वाले) की आवाज और शैली की नकल करते हुए गाना शुरु किया। आप सुने तो लगे नहीं कि नीरज जी नहीं गा रहें। उसके बाद तो महफ़िल ने राजधानी की रफ़्तार पकड़ ली। गाने में और टेबल को तबले की तरह बजाने में विमल जी का साथ दे रहे थे विकास। क्या गला पाया है दोनों ने, बहुत ही सुरीले और बुलंद आवाज, सुनने का मजा आ गया।
विकास को शिकायत थी कि हमने अपनी पोस्ट में उनकी फ़ोटो नहीं डाली, अरे जब हमारे केमरे की कमान उन्होंने संभाली थी पिछ्ली बार तो उनकी फ़ोटो मेरे केमरे में कैसे आ सकती थी। खैर, इस बार अपने केमरे से रिकॉरडिंग हम खुद कर रहे थे इस लिए हम उनकी शिकायत दूर कर देते हैं। वैसे उस दिन की कई तस्वीरें युनुस जी के ब्लोग पर हाजिर हैं.

जैसे जैसे वक्त आगे खिसका प्रमोद जी, मनीष जी, अनिल जी सब ने तान छेड़ी, न गाने वालों में सिर्फ़ शायद सिर्फ़ हम थे। हमारे लिए सब कुछ नया था। इनके छात्र जीवन के गीत, अवधी गीत, उत्तर प्रदेश और बिहार की मिट्टी से जुड़े गीत, लेकिन सब इतने मधुर कि कब हमारे चलने का वक्त हो चला पता ही नहीं चला।



सवा नौ बजे से हमने घड़ी देखना शुरु कर दिया था। महफ़िल में रंग में भंग डालते हुए हमने 9.30 बजे जोर दिया कि सब गीतों को छोड़ खाना खाएं। हमने वहां खाना नहीं खाया, पर जब घर पर खाना खाने लगे तो इतने शर्मिन्दा हुए कि अरे हम तो सब्जी में नमक डालना ही भूल गये थे और किसी ने एक शब्द नहीं कहा इस बारे में और इतनी बेस्वाद सब्जी ऐसे ही खा ली। उस पे तुर्रा ये की युनुस जी ने तो खाने की तारीफ़ भी कर दी। हम यहां उन सब से क्षमा मांग रहे हैं कि आप को इतना बेस्वाद खाना झेलना पड़ा।

दस बजते न बजते हम वहां से निकल पड़े पिछली बार की तरह्। रास्ते में हमें सिन्ड्रेला की कहानी याद आ रही थी और हंसी आ रही थी कि उसकी डेड लाइन बारह बजे की थी और हमारी 10 बजे की हो गयी। हम अपने आप को सिन्ड्रेला बिल्कुल नहीं समझ रहे जी। कुल मिला कर दूसरी शाम पहली शाम से भी ज्यादा आनंदमय रही। एक बार फ़िर मनीष जी का धन्यवाद देना चाहूंगी जिनकी बदौलत ये दो शामें बहुत खुशगवार रहीं। आशिष महर्षि और हर्ष नहीं आ पाये इस बाद का उन्हें भी अफ़सोस है और हमें भी, खैर अगली बार। अब अगली बम्बई ब्लोगर्स मीट हमारे घर पर रखने का इरादा बना रहे हैं , नीरज जी आप को भी बहुत याद किया दोनों दिन हमने





वीडियो देख कर आप मनीष जी और युनुस जी किस आनंद से सुन रहे हैं इसका अंदाजा लगा सकते हैं।

हम तहे दिल से सागरचंद जी का शक्रिया अदा करते हैं जिनकी तकनीकी सहायता के बिना ये पोस्ट बनाना हमारे लिए संभव न था।