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आपका हार्दिक स्वागत है, आपको यह चिट्ठा कैसा लगा? अपनी बहूमूल्य राय से हमें जरूर अवगत करावें,धन्यवाद।

November 29, 2007

एक यादगार शाम

एक यादगार शाम

कोई डेढ़ हफ़्ता पहले अपने मेल बोक्स में युनुस जी का नाम देख कर हम चौंक गए। चौकें इसलिए कि 6 महीने पहले जब नया नया ब्लोग जगत में घूमना शुरु किया था तो युनुस जी के ब्लोग पर अक्सर गये थे( भला इस देश में गानों का रसिया कौन नहीं?), कई बार टिप्पणी भी छोड़ी पर कभी पता नहीं चल पाया कि उन्होंने हमारी टिप्पणी देखी भी कि नहीं। हम थे नये नये एकदम अनाड़ी, तकनीकी ज्ञान न के बराबर होने के कारण उनके ब्लोग पर टिप्पणी छोड़ना हमारे लिए नाकों चने चबाने के जैसा होता था। हम नियमित रुप से वहां जा कर गानों का मजा लूट आते थे। बाद में जब हमने लिखना शुरु कर दिया तो युनुस जी को कभी हमारे ब्लोग पर आते नहीं देखा इस लिए लगा कि शायद उनको हमारे बारे में जानकारी नहीं होगी।
खैर उनके मेल से पता चला कि मनीष जी बम्बई आ रहे हैं और उनको बम्बई के ब्लोगरों के साथ मिलवाने क जिम्मा युनुस जी ने अपने ऊपर ले लिया है। मनीष के आने की खबर हमें पहले से थी, उन्होंने कई दिन पहले मेल करके बता दिया था और हमने मिलने का वादा भी किया था। पर युनुस जी का मेल से पता चला कि और ब्लोगर भाइयों से भी इस बहाने मिलने का मौका मिल सकता है तो हम बहुत खुश हो गये। युनुस जी को तुरंत अपनी सहमती जताते हुए हमने अपना फोन नबंर भेज दिया।

मनीष जी शायद 26 को बम्बई पहुंच गये, और हमारी बदकिस्मती ये कि हमारा नेट क्नेक्शन टूटा हुआ था 23 से और अभी तक ठीक नहीं हुआ था। 27 को हमने विकास से बात की, फ़िर मनीष जी और युनुस जी से बात हुई, पता चला कि उसी शाम मिलने का प्रोग्राम बन रहा है, शाम को 7 बजे। हमारे ये कहने पर कि हम पहुंच जायेंगे, मनीष को थोड़ा अचरज हुआ (और शायद खुशी भी)। कहे बिना रह न सका कि मै तो छोटे शहर से हूँ, जहां महिलाएं रात में अकेले निकलने में हिचकिचाती हैं, अब हम सोच रहे थे कि जायें या न जायें पर सब से मिलने का लालच ज्यादा हावी हो गया और हमने कहा तुम चिन्ता मत करो हम आयेगें। अब उसे क्या बताते कि कॉलेज के जमाने में हमारी मेनेज्मैंट क्लास ही शाम को 8 बजे खत्म होती थी और हम रात को दस बजे घर पहुंचते थे। शुक्र है कि आज भी बम्बई में महिलाओं के लिए रात में सफ़र करना सुरक्षित ही है काफ़ी हद्द तक, हालांकी धीरे धीरे हालात बिगड़ रहे हैं।

शाम को पौने आठ के करीब हम वहां पहुचें और बाकी के लोग भी उसी समय पहुंचे, सब ट्रेफ़िक की बदौलत्। युनुस जी, अभय जी, विमल जी, प्रमोद जी एक साथ आये और अनिल जी थोड़ी देर के बाद आये और हम अलग दिशा से आये थे। मनीष और विकास तो पहले से ही मौजूद थे।


मनीष के कमरे में महफ़िल सजी। हमारे हिसाब से असली मेजबान तो विकास था(पिछ्ले चार साल से वहां रह रहा है तो आई आई टी उसका घर हुआ कि नहीं), मनीष और हम सब तो मेहमान, इस लिए और कुछ अपनी उम्र का फ़ायदा उठाते हुए हमने विकास को मेजबानी के काम पर लगा दिया। चेहरे देखते ही मैं युनुस जी, अनिल जी और मनीष को पहचान सकी, बाकी किसी के चेहरे मैंने देखे हुए नहीं थे। बड़े शर्म के साथ कहना पड़ रहा है कि प्रमोद जी और विमल जी के ब्लोग भी मैने कभी देखे नहीं थे, तो उनको पहचानने का सवाल ही नहीं उठता था। आशा करती हूं कि प्रमोद जी और विमल जी माफ़ कर देगें।


परिचय का दौर शुरु हुआ। प्रमोद जी से मनीष और विकास काफ़ी डरे डरे से थे, उनका व्यक्तितव है ही ऐसा रौबीला, हम भी उनसे सभंल कर बोल रहे थे। अभय जी बता रहे थे कि किसी जमाने में वो और भी रौबीले लगते थे। मनीष के साथ हमारा जो पहले पत्र व्यवहार हुआ था उस के बल पर हमने सोचा था कि वो कॉल सेंटर में काम करते हैं, पर असलियत एकदम अलग थी, वो तो सरकारी नौकरी में कार्यरत हैं। वो बहुत ही स्नेही, शिष्टाचारी, और इन्टेलिजेंट हैं, मुझे उनसे मिल कर बहुत अच्छा लगा। युनुस जी एकदम दोस्ताना तरीके से मिले। उन्होंने माना कि हमारी टिप्पणियां उन्होंने देखी थीं। अपनी व्यस्त जीवन शैली का हवाला दिया। हमारे मन में जो छ्वी थी कि शायद वो रिर्सव्ड नेचर के हैं वो बिल्कुल बदल गयी। उन्होंने ऐसा लगने नहीं दिया कि पहली बार मिल रहे हैं।

अभय जी का ब्लोग मैंने देखा हुआ था, और उनकी कानपुर यात्रा का विवरण पढ़ा हुआ था और अनिल जी अक्सर मेरे ब्लोग पर आ जाते हैं तो उनका ब्लोग भी मैंने देखा हुआ था। विमल जी से हम पहली बार मिल रहे थे। परिचय के दौर में सब इतनी विनम्रता से अपने बारे में बता रहे थे कि आप को लगे जैसे ये कुछ करते ही नहीं जब कि सब के सब अपने अपने क्षेत्र के महारथी हैं। जैसे अभय जी को जब हमने पूछा आप क्या करते हैं तो बोले मुंशीगिरी करता हूँ मजदूर आदमी हूँ, हा हा हा। पता चला वो टी वी के सिरियल लिखते हैं, यानी के क्रिएटिव राइटर।

हर कोई ब्लोग पर कैसे आया से लेकर तकनीकी तकलीफ़ों तक बातों का दौर चला। विकास ने जिम्मा उठाया कि वो तकनीकी ज्ञान देने के लिए एक ब्लोग बनायेगा। काम भी उसने बड़ी तेजी से किया, आज जब नेट कनेक्शन ठीक हुआ तो हमने देखा उसने ब्लोग बुद्धी नाम से ये चिठठा शुरु कर दिया है।

हम तो सोच कर आये थे कि युनुस और मनीष जी हो और गाने की बातें न हो ये हो नहीं सकता और हो सकता है कि किसी दुर्लभ गाने की कोई चर्चा हो पर बाकी बातों में गपियाते वक्त कैसे उड़ गया कि पता ही नहीं चला। साढ़े नौ बजे हमने उठना चाहा तो प्रमोद जी और युनुस जी बोले अरे अभी तो ठीक से जान पहचान भी नहीं हुई, हम फ़िर बैठ गये। हमारा भी मन कहां था जाने के लिए, सिर्फ़ दूर जाना है इस ख्याल से उठ रहे थे। खैर अब सबको चाय की तलब लगी थी सो हम लोग चाय की तलाश में कमरे से निकल लिए। करते करते दस बज गये और अब हम ने सबसे विदा ली, पर उसके पहले विमल जी और उनका साथ देते अभय जी और अनिल जी का गाना सुना। सुन कर मजा आ गया। लगा महफ़िल तो अब जमने लगी है पर हमें जाना पड़ेगा। सब इतने स्नेह से मिले कि इन तीन घंटों में बड़े अपने से लगने लगे। हमारा वापस आने का बिल्कुल मन नहीं कर रहा था, पर मजबूरी थी ।
अभय जी की पोस्ट से पता चला कि हम झील के किनारे चांदनी रात का लुत्फ़ उठाने से वंचित रह गये। आशा करते हैं कि ऐसा मौका फ़िर आयेगा जब हम सब फ़िर एक बार फ़िर मिलेगें। एक बात जो हमने पूछी नहीं पर हमारे मन में घुमड़ रही है कि बम्बई में और भी महिला ब्लोगर्स तो होगीं हिन्दी में लिखने वाली, अगर उनसे भी संपर्क हो पाए तो कितना अच्छा हो।

मनीष जी धन्यवाद, आप की बदौलत मुझे दूसरे ब्लोगर भाइयों से मिलने का मौका मिला, फ़िर कब आ रहे हैं? बाकी सब ने हमसे वादा किया है कि घर पर आयेगें, हमारा घर दूर होने के बावजूद, आशा करते हैं कि वो अपना वादा भूल नहीं जायेगें।

November 19, 2007

तो

तो

मेरी दिवारों में बड़ी बड़ी खिड़कियां है,
दिखती है उनसे आस पास फ़ैली,
बच्चों की किलकारियां,
अलसायी दुपहरिया की गप्पें,
सीती,पिरोती, पापड़ बेलती कलाइयों की खनकती चूड़ियां,
दिवारों के इस पार पसरा पड़ा है अजगरी सन्नाटा,
बड़ी बड़ी अलमारियां, किताबें ही किताबें,
दोस्त हैं मेरी, पक्की दोस्त,
सवाल पूछूं तो जवाब देती हैं
कभी कभी खुद भी पूछ लेती हैं,
कहानी, कविता सुनाती हैं ,
दुनिया की सैर कराती हैं,
मेरे संग मस्ती की तान छेड़तीं तो……।

नाक तक भरे रेल के डिब्बे,
गाती, बुनती मैथी धनिया साफ़ करती
ये अनजानी रोज की हमसफ़र मुसाफ़िरनें,
उनकी चुहलबाजी में शरीक होने को मचलता मेरा मन,
आस पास फ़ैले हजारों नाम गूंजते हैं
इन कानों में,
कोई मेरा भी नाम पुकारे तो………

दोस्ती की पहल करने को
बैठने की जगह देखड़ी हो जाती हूँ,
वो थैंक्यु कह बैठ जाती है
और खो जाती है अपनी रंग रलियों में
बिना नजर घुमाए
मैं बगल में दबी किताब को ,
किताब मुझको देखती है,
अगर किताब कुछ बोल पड़ी तो………


November 15, 2007

साधारण सी

साधारण सी

शब्द कैसा गाली के जैसे तीर सा जा लगता है। आजकल असाधारण का चलन है। आप जो भी हो, जो भी करे असाधारण होना चाहिए। वो दिन लद गये जब लोग किस्मत का लिखा मान साधारण सी जिन्दगी जी लेते थे। आज आप अगर महत्त्वकांशी नहीं हैं, हर क्षेत्र में अव्वल नही हैं और साधारण सी जिन्दगी जीना भी चाहें तो लोग आपको हिकारत की नजर से देखेंगे।

मैने अक्सर माओं को बड़े दीन भाव से स्कूल की टीचर से कहते सुना है," मेरा बच्चा बहुत ही जहीन है, बस इच्छा शक्ती की कमी है, जिस दिन इसमें कुछ कर दिखाने की इच्छा जाग गयी, ये सबसे आगे होगा"?, टीचर अगर सह्रदय है तो बड़े सब्र से मां के मुख से बच्चे के गुणगाण सुनेगी और मानेगी कि उसका बच्चा साधारण है, और कुछ नहीं तो सुशील तो है ही, और हाँ कुछ बच्चे अपनी प्रतिभा देर से दिखाते है…लेट बलूमर्स । न जाने कितनी बार टीचरों ने ये बातें सुनी होगीं।

टीचर होने के नाते मैने भी कितनी मांओं को ढाढस बंधाया। अपना टीचर होने का फ़र्ज निभा रही थी, इसमें बोलने वाली कौन सी बात है जी? लेकिन एक दिन ये पहाड़ मुझ पर भी टूटा, मैं खुद ऐसी मांओं की पक्ती में खड़ी थी और इन सब बातों की निर्थरकता को जानते हुए भी दोहरा रही थी किसी और टीचर के सामने। वो टीचर शायद सिर्फ़ इस लिए मेरी बातों को काट नही रही थी क्योंकि मैं प्रोफ़्शन के हिसाब से उसी बिरादरी की थी। मेरा उन टीचरों को सलाम्।
मुझ पर ये पहाड़ तब टूटा जब मेरा लड़का-आदित्य(मेरी इकलौती संतान) बारहवीं में थाउसके नाजुक कधों पर मां-बाप, नाना-नानी, दादी और जाने कितनों के सपनों का भार था, जो उससे उठाए नहीं उठ रहा थासमाजिक मुल्यों के चलते उसके दिमाग में ये बात घर कर गयी थी कि सब अच्छे लड़के सांइस लेते हैं, चाहे चले या चलेसांइस ले तो ली पर अब वो रसहीन लग रही थी और बेकार का बोझ लग रही थीबहुत समझाया कि देखो बेटा तुम्हारे मां-बाप भी तो आर्ट्स ले कर अच्छा खासा जीवनयापन कर रहे हैं, सांइस छोड़ दो पर नहीं जी, उसकी इच्छा को आदर देते हुए जैसे तैसे साइंस कॉलेज में दाखिला करा दियाऔर तब शुरु हुआ फ़ेल होने का चक्कर, एक के बाद एक तीन साल निकल गयेये वहीं के वहीं

फ़ैल होने का सिर्फ़ यही कारण नही था कि वो रसहीन लग रही थी, दूसरा कारण ये था कि जनाब को बहुत ही अनुशासन प्रिय स्कूल से नया नया छुट्कारा मिला था और नये नये दोस्त, दोस्तनियां, लेक्चर बंक करने के चान्स, कॉलेज के वार्षिक उत्सव में हिरोगिरी करने के और दोस्तों से वाहवाही लूटने के मौके।

एक महत्त्वकांशी महिला जिसने कभी हार का मुंह न देखा हो अपने जीवनकाल में वो आज असहाय सी अपने जीवन के सबसे अहम भाग में हार पर हार झेल रही थी। खुद अपनी ही नजरों में गिरती हुई,सेल्फ़-एस्टीम चकनाचूर, हर पल हजार मौतें मरती हुई, मैं सबसे कन्नी काटने लगी। स्टाफ़-रूम से उठ कर लायब्रेरी में किताबों के बीच ज्यादा वक्त गुजारती हुई, डरती थी कोई मेरे लड़के के बारे में न पूछ ले। यार दोस्तों, रिश्ते नाते दारों से भी दूर रहने लगी, मानों खुद को काल कोठरी की सजा दे दी हो। मेरी कॉलेज के जमाने की सहेलियां छूट गयीं, जिन्हें मैं बता न सकी कि मै क्युं न मिलने के बहाने ढूढती हूँ। दूसरों के बच्चों को डाक्टर, इंजीनियर की डिग्रीयों की तरफ़ अग्रसर होते देख मेरे मन पर अमावस की रात का ढेरा होता था। तबियत खराब रहने लगी। तीन साल गुजर गये इसी तरह्। लगता था जमीन फ़ट जाए और मै उसमें समा जाऊँ।

जब तीसरे साल भी वो फ़िर फ़ैल हो गया तो मैंने जोर डाला कि अब वो पढ़ाई छोड़ किसी काम धंधे की तलाश करे और साथ साथ में डिस्टेंस मोड से ग्रेजुएशन करें। इन तीन सालों में अगर कुछ अच्छा हुआ था तो सिर्फ़ इतना कि उसने एन आई आई टी से तीन साल का कंप्युटर प्रोग्रामिंग का डिप्लोमा कर लिया था। अब तक वो भी अंदर से काफ़ी टूट चुका था। उसने फ़ौरन मेरा प्रस्ताव मान लिया बिना किसी हील हुज्जत के। अब कोई अफ़सरी तो मिलनी नहीं थी। छोटे से दफ़्तर में प्रोग्रामर की नौकरी मिली और शुरु हुआ मालिक द्वारा उसके शोषण का दौर्। जिन्दगी की पाठ्शाला में दाखिल हो गया था। डिस्टेंस मोड के तहत आर्ट्स में दाखिला ले लिया था।

ये वो स्टेज थी जहां हम ने मान लिया था कि मनोविज्ञान की किताबों में जो पढ़ा था कि अगर हम चाहें तो किसी को भी प्रसीडेंट बना दें या भिखारी बना देँ(वाट्सन), सिर्फ़ कोरी किताबी बातें हैं। न चाह्ते हुए भी किस्मत पर विश्वास होने लगा था। खैर, हमने बिल्कुल पूछना बंद कर दिया कि अब पढ़ रहे हो या नहीं। जनाब पास होने लगे।

एक दिन हमने सुझाया कि तुम कॉल सेंटर में क्युं नहीं ट्राई करते, सुना है वहां ग्रेजुएशन की जरुरत नहीं पड़ती। शोषण तो सब जगह ही है। जाने में उसे हिचकिचाहट थी क्युं कि उसका भी आत्मविश्वास मार खाया हुआ था। हम समझते थे, एक बार फ़िर खुद के जख्म छुपा कर उसका मनोबल बढ़ाने में जुट गये। आखिरकार उसने कॉल सेंटर में पदादर्पण किया और अच्छी अंग्रेजी, कॉलेज के जमाने में उत्सव आयोजकों की मंडली में रह कर सीखी नेतागिरी, प्रंबधक बनने के गुण, मिलनसारिता और भी कई गुणों के कारण कई पदाने आगे बढ़ गया और आज प्रोजेक्ट मैनेजर की पोस्ट पर कार्यरत है। हर पदान पर कम से कम 300-400 लोगों के साथ कड़ी प्रतिस्पर्धा रहती थी, नया पद पाने के लिए। साथ साथ में ग्रेजुएशन भी खत्म कर एम बी ए करना शुरु कर दिया जो अब खत्म होने के कगार पर है।

उसका आत्मविश्वास कई गुना बड़ कर लौट आया है और मैने एक बार फ़िर जीना शुरु कर दिया है। उसकी मानसिक परिपक्वता अक्सर मुझे हैरत में डाल देती है, और अब मुझे उसके भविष्य की कोई चिन्ता नहीं। आज मुझे उस पर नाज है। मैं फ़िर से स्टाफ़ रूम में बैठ्ने लगी हूँ और फ़्री पिरीयड में गुनगुनाती हूँ, मेरी सहेलियाँ अकसर इस गुनगुनाने में मेरा साथ देती हैं। मैं भूल गयी हूँ कि कभी ये ही मेरी तरफ़ सहानुभूती की नजर से देखती थी मानों मुझ में ही कोई कमी हो।

ओह! पोस्ट इतनी लंबी हो गयी कि फ़ुरसतिया जी को भी मात दे गयी,समीर जी सॉरी, सॉरी के डेढ़ घंटे में शायद फ़िट न हो तो छोड़ दिजिएगा या स्पीड रीडींग्…। मैं सिर्फ़ ये कहने की कौशिश कर रही हूं कि हर मां बाप अपने बच्चे को स्टार के रूप में देखना चाह्ते हैं और बच्चा स्टार बन भी सकता है अगर मां बाप या टीचर उसके रास्ते में न आये तो। मेरी कहानी का सुखद अंत तभी हुआ जब मैने हार के निश्च्य किया कि मैं अपने साधारण से बेटे को असाधारण बनाने की कौशिश नहीं करुंगी क्योंकि मै खुद बहुत साधारण सी हूँ। अब हम दोनों साधारण बन कर बहुत खुश हैं…॥:)

November 12, 2007

एक रंगीन शाम

एक रंगीन शाम

कई महीनों से सत्यदेव त्रिपाठी जी के संदेश आ रहे थे मोबाइल पर कि हम 'बतरस' में आमंत्रित हैं, पर हमारे घर से उनके घर की दूरी हमारी जाने की इच्छा पर घड़ों पानी डाल देती थी। इतनी बार बुलाए जाने पर भी हमारे न जाने पर त्रिपाठी जी ने कभी बुरा नहीं माना।
ओह! पहले आप को त्रिपाठी जी के बारे में तो बता दें। सत्यदेव त्रिपाठी जी एस एन डी टी युनिवर्सटी में हिन्दी विभाग में रीडर की पोस्ट पर कार्यरत हैं। लगभग हमारी ही उम्र के और हमारे जितना ही अध्यापन का अनुभव्। नाटकों में उनकी विशेष रुची है। उनकी कविता कहानियां तो छ्पती ही रहती हैं। हम अलग अलग संस्थानों में काम करते हैं इस लिए कभी कभार ही मिलना होता है। उन के यहां हर महीने के पहले इतवार को एक साहित्यिक गोष्टी का आयोजन होता है जिसमें इस शहर के कई साहित्यकार भाग लेते हैं। गोष्टी का विषय पहले से निश्चित किया रहता है( जैसे दिसंबर में होने वाले आयोजन में हिन्दी में दलित साहित्य पर चर्चा होगी)। इस गोष्टी समूह का नाम रखा है 'बतरस'।

हां तो इस बार नवंबर के पहले इतवार को होने वाली बतरस में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया था। कवि सम्मेलन- हम खुद को रोक नहीं पाये और किसी तरह से घर की बाहर की एड्जस्ट्मेंट्स करते हुए पहुंच ही गये। ढेर सारे कवि, एक से बड़ कर एक रचनाएं , सोच रहे थे कि साथ में टेप रिकार्डर लाए होते तो कितना अच्छा होता।

खैर, कवि सम्मेलन खत्म हुआ, त्रिपाठी जी का धन्यवाद कर बाहर निकलने लगे तो त्रिपाठी जी बोले 'अरे जैन साहब अनिता जी वाशी की तरफ़ जा रही हैं' और आखों में मुस्कान लिए बोले 'और कार ले कर आयी हैं' जैन साहब जिन्हें हमने अभी अभी सुना था और एक और श्रोता हमारे साथ हो लिए। जैन साहब ने अपनी कविताओं का छोटा सा सकंलन हमें भेंट किया। दिवाली की व्यस्ताओं के चलते वो कार में ही पड़ा रहा । आज हम उसे पढ़ रहे हैं ।

सोचा जो कविताएं हमें अच्छी लग रही हैं वो आप को भी सुनाएं।

गाय

हम तुम्हारा दूध पीते हैं
मांस जो खाते हैं
तुम्हारी हड्डियों पसलियों केबेल्ट, बटन जो बनाते हैं
तुम्हारी नस नस को नोचते हैं
हम अपनी खातिर
तुम्हारे तन का हर तरह उपयोग जो करते हैं
तो भी हम इन्सानों को इस बात का बहुत दु:ख है
कि तुमको काटते समय तुम्हारी चीख का कोई उपयोग नहीं हो पाता
(पंखकटा मेघदूत-1968 से)

एक और देखिये-
तेरे भाग में नहीं लिखा है ,एक वक्त का खाना,
राजा चुन कर तुम्हीं ने भेजा, तुम्हीं भरो हर्जाना,

अख्बार
हर जगह इश्तहार था हर आदमी बाजार था
कितना आसान था खरीदना निष्ठा, प्रतिभा,विद्रोह, जीवन
एक मँजे हुए दलाल की भूमिका में
अख्बार था।

एक थोड़ी लंबी सी है, सुना दें थोड़ी छोटी कर के?
सरकार
सरकार के पास हजारों ट्न कागज है
सरकार के पास लाखों टन झूठ है
इससे भी ज्यादा बुरी खबर है
सरकार समाजवादियों से नहीं डरती।
पढ़े-लिखे लोगों की सेहत का बहुत ख्याल रखती है सरकार
कितना उन्हें हवाई जहाजों में उड़ाया जाये
कितना उन्हें दूरदर्शन पर दिखलाया जाये
कितने नुक्क्ड़ नाट्क और कितना मुक्तनाद
उनसे करवाया जाये
किससे लिख्वाया जाये इतिहास, बनवायी जाये पेंटिग्स
और किसके लिए खोले जायें राज्यसभा के दरवाजे
कोई कंजूसी नहीं करती है हमारी सरकार
खूब ठोंक बजा कर तय करती है उनका कद
और लगाती है वाजिब दाम………।


कैसी लगीं…॥:)

November 06, 2007

दिवाली की रात

दिवाली के उपलक्ष्य में दिवाली की शुभ कामनाओं के साथ अपनी एक पुरानी रचना फ़िर से प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसमें एक राजस्थानी परंपरा को नमन किया गया है। ये कविता लिखी गयी थी जब मैं ने मकान बदला था



दिवाली की रात



कहने को चार दिवारें अपनी थीं



काले चूने से पुती हुईं



पहली दिवाली की शाम



न दिया न बाती



न जान न पहचान


ठंडा चुल्हा, घर में बिखरा सामान,



अन्जान बाजारों में ढूढंती पूजा का सामान,



दुकानों की जगमग, पटाखों का शोर,



सलीके से सजी दियों की पक्तियां,



मेरे घर से ज्यादा मेरे मन में अंधेरा भर रही थीं,



अकेलेपन की ठिठुरन, बोझिल कदम,



लौटते हुए माँ लक्ष्मी से बार बार माफ़ी मांग रही थी,



प्राथना कर रही थी,



इस ठंडे अंधेरे घर की तरफ़ नजर डाले बिना न निकल जाना



लौटी तो देखा, दरवाजे पर दो सुन्दर से दिये



अपनी पीली पीली आभा फ़ैला रहे हैं,



दो सुन्दर सी कन्याएं सजी संवरी



हाथों में दियों की थाली लिए खड़ी



मुस्कुरा कर बोलीं



ऑटी दिवाली मुबारक


आश्चर्यचकित मैं,



हंस कर बोलीं



हमारे यहां रिवाज है



अपना घर रौशन करने से पहले



पड़ौसियों का घर जगमगाओ



शत शत प्रणाम उन पूर्वजों को



जिन्हों ने ये रस्मों रिवाज बनाए



शत शत प्रणाम उन बहुओं को



जिन्हों ने ये रिवाज खुले मन से अपनाए

















November 05, 2007

बातें

बातें

बचपन में(तीसरी/चौथी क्लास में रहे होगें) हमने एक दिन अपनी मां से शिकायत की कि क्लास में कोई हमसे बात नहीं करता, मां ने पहले तो अनसुना कर दिया पर जब हमने दो तीन बार कहा तो एक दिन मां पता लगाने हमारे स्कूल चली आयीं। टीचर को क्लास के बाहर बुला कर पूछा कि भई बात क्या है, टीचर मां को क्लास के अंदर ले आयीं , हम बेन्च पर खड़े थे, सजा मिली हुई थी, टीचर बोली देखो, इत्ता बात करती है कि हमें सजा देनी पड़ी , बेन्च पर खड़ी है और फ़िर भी बतिया रही है।

बातों का सिलसिला आज तक जारी है। वो कहते है न कि अगर मन पंसद काम मिल जाए तो जिंदगी भर काम नहीं करना पड़ता, तो हमारा भी यही हाल्। क्लास में बातें करते हैं और उसके लिए पैसा भी पाते हैं। पर घर पर बहुत परेशानी हो जाती है। ले दे कर घर में हैं कुल तीन प्राणी, हमें मिला कर, उसमें भी बेटा जी तो अपने दोस्त यारों के साथ मस्त, तो बाकी बचे पतिदेव। वो बहुत मितभाषी हैं। ज्ञानी जन कह गये कि धीर गंभीर व्यक्तितव का रौब पड़ता है, और जो हर समय बक बक करे, उसे लोग बेवकूफ़ समझते हैं ( याद है न शोले की बसंती)।

पता नहीं लोग क्युं बाते करने के इतने खिलाफ़ हैं जी। किसी भी दफ़्तर में चले जाइए, अगर बॉस अपने आधीन लोगों को गप्पे लगाते देख लेगा तो आग बबुला हो जाएगा, उन्हें कामचोर समझेगा। खास कर महिलाएं गप्पबाजी के लिए बहुत बदनाम रहती हैं (जब की तथ्य ये है कि मर्द भी उतनी गप्पबाजी करते है जितनी औरतें)। पुराने जमाने में तो फ़ैक्टरियों, दफ़्तरों में दिवारों पर तख्तियां लगी होती थी,'कीप साइलेंस'।

लेकिन हम तो कहते है जी बातें बड़े काम की चीज होती हैं। बातें करने के लिए भी तो अक्ल चाहिए होती है, सवेंदना चाहिए होती है। मन में कुछ कुलबुलाए नहीं तो आप क्या बोलेगे। और मान लिजिए कि दुनिया के सारे लोग सिर्फ़ काम पड़ने पर ही बोले तो क्या ये साहित्य बनता था, ये गीत , ये कविताएं बनती थी? कितने अलौकिक आनंद से वंचित रह जाते हम सब्। पर नहीं जी , हमारे तर्क सुनता कौन है्।

लेकिन आज मैं अपने आप को बहुत हल्का मह्सूस कर रही हूँ, क्यों , क्या मैं ने बाते करना कम कर दिया? ना जी ना , वो तो हो ही नही सकता न, हाँ आज मेरे हाथ एक ऐसी साइनटिफ़िक रिपोर्ट लगी है जिसे पढ़ कर मन बाग बाग हो गया। इस रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में मनोवैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया गया था और पाया कि अगर दिन में कम से कम 10 मिनट लोगों के साथ बतियाने में गुजारे जाएं तो आप की यादाश्त और दूसरी मानसिक शक्तियां/मानसिक सामर्थ्य बड़ता है। इस प्रयोग में ये भी पाया गया
कि समाजिक अकेलेपन का हमारी भावनात्मक सेहद पर बुरा असर पड़ता है और मानसिक शक्तियों का हॉस होता है।

एक और भी ऐसी ही स्ट्डी याद आ रही है जो इसराइल के एक अनाथाश्रम में की गई थी कई साल पहले। उस अनाथाश्रम के साथ ही मेंटली रिटार्डेड(मानसिक रूप से कमजोर) महिलाओं का वार्ड था। एक बार उस अनाथाश्रम में अनाथ बच्चों की संख्या इतनी बड़ गयी कि आया कम पड़ने लगीं, एक आया के जिम्मे बीस बीस बच्चे, वो भी नवजात्। ये निर्णय लिया गया कि कुछ बच्चों को मेंटली रिटार्डेड महिलाओं की देख रेख में छोड़ दिया जाए। समाज में इस निर्णय की घोर निन्दा हुई, पर प्रबंधको के पास कोई और चारा न था। साल के अंत में सब बच्चों का मुआयना किया गया। जो अनाथाश्रम में थे उनका भी और जो इन महिलाओं के साथ थे उनका भी। परिणामों ने सबको आश्चर्यचकित कर दिया। जो बच्चे महिलाओं की देख रेख में थे उनका मानसिक और भावनात्मक विकास अनाथाश्रम में आयाओं के साथ पल रहे बच्चों से ज्यादा था। पता है क्युं? क्युं कि जो बच्चे मेंटली रिटार्डेड महिलाओं के पास रखे गये थे वो महिलाएं उन बच्चो के साथ बतियाती रह्ती थीं, क्या बतियाती थी ये महत्वपूर्ण नहीं था।वो बच्चे उनके लिए खिलौनों के जैसे थे, हर कोई खेलने को ललायित्। बच्चे हर समय कुछ न कुछ समझने की कौशिश कर रहे होते थे। जब कि आया चुपचाप आकर दूध की बोतलें बच्चों के मुहँ से लगाती जाती थी और बच्चे सारा दिन अपने बिस्तर पर पड़े पड़े सर के ऊपर घूमते पखें को देखा करते थे। जब तक वो रोएं न कोई गोद में उठाने वाला नहीं न कोई बात करने वाला। उठाए भी गये तो कुछ क्षण के लिए।

कुछ महीने का बच्चा भी अगर कमरे में अकेला पड़ा हो और आप उस कमरे में जाए तो तेजी से हाथ पांव चलाने लगता है, मानों कहता हो मुझसे बात करो, और अगर आप बात करें चाहे कितनी भी बेतुकी, या कुछ बेतुकी सी आवाजें निकालें गले से, तो वो और जोर से हाथ पांव चलाने लगता है, चेहरे पर मुस्कान खिल उठती है, आखों मे चमक, और वो भी कुछ आवाजें निकालने लगता है मानों आपसे बाते कर रहा हो। ये खेल बच्चे के मानसिक विकास में तेजी लाते हैं। हमें जहां तक हो सके बच्चों को चाहे वो कोई भी उम्र के हों बतियाने से नहीं रोकना चाहिए।

रोकना तो बड़ों को भी नही चाहिए, क्या तुम सुनोगे मेरी बातें ?…॥:)

फ़िरंगी के पन्नों से

फ़िरंगी के पन्नों से

अपने वादे के अनुसार मैं यहां फ़िंरगी उपन्यास का एक पन्ना प्रस्तुत करने जा रही हूँ,
आशा है आप को पंसद आयेगा।सगुन अनुकूल होने पर दूसरों का भविष्य केवल मौत था, दल में चाहे कितने ही लोग हों, या वक्त कितना ही लगे। अगर दिखाई पड़े कि राह्गीर संख्या में ज्यादा हैं तो सूझ-बूझवाला सरदार मकड़ी के उस जाले पर हाथ रखेगा और खामोशी से एक धागा खींचेगा। सुबह होते न होते ही दिखाई पड़ेगा कि नुक्क्ड़ पर राह्गीरों का एक और दस्ता अपने ढ़ंग से चल रहा है। धीरे-धीरे उनके साथ मेल मिलाप होगा। दल भारी होता चला जाएगा।तीन दिन बाद शायद और बड़ा हो जाए। तब किसी एक रात को धरती का
सन्नाटा तोड़ते हुए,'झिरनी' उठेगी,"साह्ब खान, तंबाकू खाओ"।

आइए आपका परिचय रामासी भाषा से कराया जाए।जो सच्चा 'बोरा' या 'औला' है, यानी जो पक्का ठग है, वह बोली सुन कर बता देगा कि सामने वाला दल ठ्गों क है या 'बिट्टो' या 'कुज' अर्थात ठ्ग नहीं। सच्चा ठ्ग अपरिचित ठग को देख्ते ही बोल पड़ेगा'औले खान, सलाम' या 'औले भाई, राम-राम'।बोरो की भाषा में उनके विचरने के क्षेत्र का नाम है' 'बाग' या 'फ़ूल'। रुमालधारी खूनी का नाम है 'भूकोत' या 'भुरतोत'। जहां खून किया जाता है उस जगह का नाम 'ब्याल' या 'बिल'। जाल में मनपंसद मंडली फ़ंसते ही एक आदमी चला जाएगा 'बिल' पसंद करने, जाने से पहले दलपति कहेगा 'जा कटोरी मांज ला', यानी 'जगह तय कर आओ। उसका नाम है 'बिलहो'। उसकी रिपोर्ट मिलते ही वहां से दौड़ेगा 'लुगहा' यानी कब्र खोदने वाला।
कब्र दो किस्म की हो सकती है- कुरवा यानी चौकोर या गव्वा यानी गोलाकार्।उधर दस या बीस मील दूर कब्र बन रही है इधर शिकारी और शिकार में दोस्ती हो जाती है। अगर मंडली अमीर दिखे तो 'सोथा' फ़ौरन उनके इर्द गिर्द मँडराने लगेंगे। उनका काम है मंडली को दोस्ती के दायरे में लाना, उनमें विश्वास जगाना, उनका मनौरंजन करना।
'चँदूरा' या दक्ष ठग उनकी इस काम में सहायता करते हैं। मुसाफ़िर अगर 'लट्कनिया' यानी गरीब है तो भी खातिर में कोई कमी नहीं। 'खारुओ' के पास ,यानी ठगों के गिरोह के लिए राह पर सभी बराबर्। वहाँ 'फ़ाँक' यानी बदाम की चीजों की भी काफ़ी कद्र है।इधर जितना वक्त गुजरता जाएगा, एक दल उतना पिछड़ता जाएगा। वे हैं 'तिलहाई' या गुप्तचर्। पीछे 'डानकी' यानी पुलिस वाले लगे हैं कि नहीं देखने।वध-स्थान पर पहुँच कर भी वे मौके की प्रतीक्षा करेंगे। मनपंसद जगह पर वे 'थाप' बिछाएँगे, यानी तबूं गाड़ेगे। देखेंगे कि जगह 'निसार'(निरापद) है,या 'टिक्कर'(खतरनाक)?
सारी सूचनाएं लेने के बाद रात को एक दावत होगी, उसके बाद किस्सा-कहानी। दल में अगर कोई 'नौरिया' यानी नाबालिग है, तो उसे वहां से दूर भेज दिया जाएगा।'सोथा' अपने बगल में बैठे आदमी को धीमी आवाज में संदेश देगा'चुका देना' या 'थिवाई देना' यानी किसी तरह इन्हे समझा बुझा कर इन्हे बिठा दो। वे बैठ गये तो बगल में वे भी बैठ जाऐगे, दोनो ओर दो, पीछे एक और्। बीच में बटोही। किस्सा जारी है।बटोहियों की आँखों में नींद उतर आई है। ऐसे ही समय सुनाई पड़ा, कोई कह रहा था, "पान का रुमाल लाओ"मतलब रुमाल तैयार करो। उसके बाद ही दूसरा हुक्म 'तमाकू लाओ'। सोते हुए आदमी का खून करना मना है। इसलिए बटोही अगर सो रहे हों तो एक आदमी चिल्ला उठेगा,'सापँ-सापँ', वे हड़बड़ा उठ बैठेंगे और फ़िर नींद की गोद लुढ़क जाएँगे-अबकी बार हमेशा के लिए।


'मुकोत' लमहे भर में उसके गले में फ़ाँसी लगा देगा। बगल में बैठा आदमी एक धक्का देकर उसे जमीन पर गिरा देगा। उसका नाम है' चुभिया'। एक आदमी दोनों हाथ पकड़े रहेगा। उसका नाम है 'चुभोसिया'। क्या हो रहा है इसके पहले ही बटोही आखिरी सांस ले लेगा। दलपति कहेगा-'ऐ बिचाली देखो' यानी 'बाहरा' अर्थात लाशों का इंतजाम करो। देखना कोई 'जिवालु' यानी जिन्दा आदमी न रह पाए।

एक दस्ता लाशों को ढो कर कब्र कि ओर ले चलेगे, वे है 'मोजा'। एक दस्ता उनके घुटनों को तोड़ ठोड़ी से मिलाएगा, पेट और सीने पर चाकू चला काम पक्का करेगा, वे है 'कुथावा'। हाथों- हाथ हैरतअंगेज फ़ुर्ती से लमहे भर में खून के सारे निशान मिटा दिए जाँएगे। उस दस्ते को कहेंगे 'फ़ुरजाना'। देखते ही देखते कब्रों के ऊपर उनकी भोज-सभा बैठ जाएगी।
गुड़ का भोज्।

November 03, 2007

फ़िरंगी

फ़िरंगी



हाल ही में एक उपन्यास पढ़ा,"फ़िरंगी", सुरेश कांत जी ने लिखा है और 1997 में ग्रंथ अकादमी , नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ था। ये उपन्यास मैं ने दूसरी बार पढ़ा है, और उतने ही मजे से पढ़ा जैसे पहली बार पढ़ा था। आज कुछ इसी के बारे में।



उपन्यास जितना रोचक है उतना ही आखें खोलने वाला।अक्सर उपन्यासों में लेखक किसी एक या अनेक पात्रों से आरम्भ करता है और फ़िर कहानी उन्ही के जीवन की घट्नाओं के इर्द गिर्द घूमती रहती है, पर इस उपन्यास में कोई कहानी नहीं सिर्फ़ किस्से हैं पर ऐसा नहीं लगता कि कड़ी टूट गयी है।



ये किस्से उन्नीसवीं सदी के तीसरे दशक के है जब अग्रेजों का राज था,पर कंपनी राज तेजी से अपने ढलान पर था। जब भारत में रेल गाड़ियां नहीं चलती थीं और लोगों को पैदल या घोड़ों वगैरह पर एक जगह से दूसरी जगह जाना होता था। लोग कभी अकेले, दुकेले या काफ़िले बना कर सफ़र करते थे।अपना काफ़िला न हो तो किसी और दल के साथ जुड़ जाते।



यात्रा कई कई दिनों तक चलती और खतरों से खाली न होती।घर से निकला हर यात्री अपनी मंजिल तक नहीं पहुंचता, वह खो जाता है, लापता हो जाता है। खतरे तो आज भी वैसे ही बरकरार हैं, हां टाइम जरूर कम लगता है। लापता तो आज भी हो जाते है, यात्रा करते हुए क्या, घर के बाहर खेलते हुए बच्चे भी गायब हो जाते है(निठारी कौन भूल सकता है)पर ये कहानी कुछ और ही प्रकार के लापता होने की है।



उन दिनों लोगों का गुम हो जाना बिल्कुल खामोशी से दब जाता था। उनके खो जाने की राह पर कोई सुराग नहीं रह जाता था। झुंड के झुंड सिपाही लापता हो जाते थे। उत्तर भारत में तीर्थ को गया दक्षिण का बड़ा सा दल फ़िर कभी अपने गावँ न लौटता। गुम हो जाना उस समय विशाल भारत में प्रतिदिन का नियम था। एक अग्रेंज इतिहासकार ने हिसाब लगाया तो पाया हर साल 40,000 लोग गुम हो जाते थे, अपने सामान, जानवरों, अंगरक्षकोंके साथ, कुछ इस तरह कि पता ही न लगता कि उन्हें धरती खा गयी या आसमान निगल गया।



दरअसल हर किस्सा एक ठ्गी कि दास्तां है, सच्ची घट्नाएं जो इतिहास के पन्नों में कहीं दफ़न हैं।



स्लीमैन नामक एक अग्रेंज जिलाधीश पर ठगों को समझने का गहरा जनून था, सरकारी सेवा से हट जाने के बावजूद उसने ठगों कि दुनिया को गहरे पैठ कर समझा और फ़िर ठगों के राजा फ़िरंगी ठग को साधा, इतना आसान न था उस शातिर दिमाग को साधना पर स्लीमैन भी कुछ कम न थे। आखिरकार अपने काम में सफ़ल रहे पर क्या ठ्गों का नामों निशां मिटा सके, ना, वो तो बीजरक्त के रक्त जैसे फ़िर उठ खड़े हुए और आज भी मौजूद है हमारे बीच। उल्टे अब तो ख्तरा बढ़ गया है, पहले तो इन ठ्गों से खतरा सिर्फ़ यात्रा के दौरान होता था लेकिन अब तो ये बम्बई की बाहरी परिधी के पास बसी कॉलोनियों पर भी हमला करते पाए जाते हैं । पहले इनकी करतूतों की खबर किसी को
कानो कान न होती अब तो ये कच्छा बनियान गैंग के नाम से मशहूर हैं। ये ठग तब भी पूरे भारत में फ़ैले थे और आज भी पूरे देश में फ़ैले हैं। हां , इनके काम करने के तरीके अलग अलग हैं। और उसी पर आधारित है इनके प्रकार-



खूनी ठग, जो झिरनी उठाते थे, धतुरिए, तस्माठग, मेख-फ़ंसा ठग, भगिना(जो नाव में सफ़र करने वालों का शिकार करते थे),ठेंगाड़े,और भी न जाने क्या क्या।



स्लीमैन बताते हैं कि ये खूनी ठ्ग एक अलग ही भाषा बोलते थे, न तो वह हिन्दी थी, न उर्दू, अरबी-फ़ारसी, तमिल-तेलूगु, किसी भी भाषा के साथ उसका कोई मेल न था, मेखफ़ंसा और भगिना की भाषा के साथ भी नहीं, ठगों की भाषा का नाम था 'रामासी', और इनका कत्ल करने का हथियार होता था महज एक रुमाल जिसमें एक चांदी का सिक्का बंधा होता था। स्लीमैन ने रामासी सीख ली थी , इसी वजह से वो ठ्गों के राजा फ़िरंगिया को वश में कर पाए।



एक बात और जो जहन में आती है वो ये कि आदमी की प्रवत्ती नहीं बदलती, उस वक्त भी ये ठग यात्रिओं का विश्वास जीत कर अपना काम करते थे, चाहे कितना भी वक्त लगे, धैर्य इनमें खूब था, एक नंबर के ड्रामेबाज और आज भी सुनते है ट्रेनों में किसी ने चाय, कोल्ड ड्रिंक या बिस्कुट खिला कर लूट लिया। छुटपन में जब ट्रेन से सफ़र करते तो आस पास के सहयात्रियों से सहज ही मित्रता गांठ लेते, उसके लिए अपने पिता से डांट खाते, हमारी मां को भी लगता कि इसमें हर्ज ही क्या है, पर हमारे पिता से अगर सहयात्री पूछ बैठ्ता भाईसाह्ब कहां जा रहे हैं तो जवाब मिलता तुमसे मतलब्। बहुत खराब लगता था पर आज इस उपन्यास को पढ़ कर लगता है कि कितने सही थे वो और
कितने अपने परिवार की सुरक्षा को ले कर कितने सजग्। अब कई बार अकेले बम्बई से इन्दौर जाना होता है, और हम देख कर हैरान है कि अब हम भी वही करते हैं जो हमारे पिता जी किया करते थे, खास कर इस उपन्यास को पढ़ने के बाद्।

यहां मुझे याद आ रहा है एक और वाक्या- अगर इन्दौर सड़क से जाया जाये तो महाराष्ट्रा और मध्य प्रदेश की सीमा पर एक इलाका आता है(नाम तो याद नहीं आता) एकदम उजाड़, छोटी छोटी पहाड़ियां सड़क के दोनो ओर्। दिन में तो ठीक, पर रात में वहां दोनों पुलिस की गश्त तैनात रहती है। इन्दौर से आने वाली सब गाड़ियां वहां रुक जाती हैं , एक काफ़िला बनता है गाड़ियों का, फ़िर आगे आगे पुलिस की गाड़ी और पीछे पीछे ये काफ़िला, और काफ़िले के पीछे एक और पुलिस की गाड़ी चलती है सरहद पार कराने। क्या मजाल कि कोई लाइन तोड़ आगे भागने की कौशिश करे, ये ठ्गों का दल सड़क किनारे की पहाड़ियों के पीछे ताक में बैठा रहता है , कोई कार या ट्र्क भी अकेला पड़ा नही कि घेर लिया, बस्।

पोस्ट बहुत लंबी हो गयी है, आप लोग सोचेगें हम सुनने क्या बैठे मैडम तो लेक्चर ही देने पर उतर आईं, तो साहब यहीं इति श्री करती हूं। अगर आप लोग सुनना चाहे तो इन ठ्गों के तौर तरीके, रीति रिवाज और पारवारिक जीवन के बारे में वर्णन करुंगी और ठगी को कैसे अंजाम दिया जात था के किस्से सुनाउगीं।