Subscribe

RSS Feed (xml)

Powered By

Skin Design:
Free Blogger Skins

Powered by Blogger

सुस्वागतम

आपका हार्दिक स्वागत है, आपको यह चिट्ठा कैसा लगा? अपनी बहूमूल्य राय से हमें जरूर अवगत करावें,धन्यवाद।

October 25, 2007

कंगारू

कंगारू
टी 20 इंटरनेशनल जीतने की खुशी में ताज इंटर्कॉटिनेट्ल में एक रात्री भोज का आयोजन हुआ। धोनी की तरफ़ से खास न्यौता आया, आखिर पुराने छात्र हैं हमारे, हाँ ये बात और है कि वो कभी क्लास में न नजर आये और उनका नाम हमारी ब्लैक लिस्ट में था। पर आज हमारे मन में कोई शिकायत नहीं थी, आखिरकार टी 20 जीत देश का नाम रौशन किया था, और फ़िर ताज जैसे महंगे हॉटेल में भोज, वो भी एकदम मुफ़्त्।

हॉटेल पहुंचे तो देखा कई राजनेता, फ़िल्लम इस्टार, मिडिया वाले और न जाने कौन कौन धोनी को बगल में पोस्टर सा चिपकाये फ़ोटू खिचवाये रहे हैं। सिर्फ़ आखों से अभिवादन का आदान प्रदान हुआ, धोनी के चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान, मानो कहते हो, देखा तुम तो कहती थी ऐसे ही चला तो वी टी स्टेशन पर चने बेचते नजर आओगे, वैसे भी अंग्रेजी आती नही, अगूंठा छाप कहीं के, उस फ़ट्फ़टिया की ड्राइवरी करते नजर आओगे, अब कौन से चने के झाड़ पर बैठे है हम्। फ़ीकी सी हंसी के साथ हमने हां में सिर हिलाया। समझ गये कि ये वक्त रिश्तों के सेतु संवारने का नहीं।

इधर उधर नजर दौड़ाई तो एक तरफ़ कौने में ऑस्ट्रेलियन खिलाड़ी गंभीर चेहरे लिए किसी गहरी मत्रंणा में डूबे नजर आये। कोई उनकी तरफ़ ध्यान न दे रहा था, न वो किसी की तरफ़ ध्यान दे रहे थे। उनके बगल वाली खाली टेबल हमें सबसे सुरक्षित लगी धोनी के फ़ारिग होने का इंतजार करने के लिए। फ़िर हमारी कान लगाने की पुरानी आदत जायेगी थोड़े न।

रिक्की पोटिंग - जो हुआ बहुत बुरा हुआ, इनका तुक्का दूसरी बार कैसे चल गया। समझ नहीं आ रहा, ये लोग तो हार स्पेशलिस्ट हैं, जीती हुई बाजी एन वक्त पर छोड़ देना इनकी फ़ितरत है, कहां गयी इनकी संस्कृती अतिथी दैवो भव:, पहले आप्। सच्ची बहुत बतमीज हो गये हैं।दुनिया में हमारी क्या साख रह जायेगी।

मैथ्यु- मेरी बीबी का तो ऑलरेडी स म स आ चुका है- तलाक, तलाक , भला उसकी भी कोई इज्ज्त है कि नहीं, क्या मुहं दिखाय अपनी सहेलियो को, उसका पति एक टुच्ची सी बच्चों वाली टीम से हार गया।

साइमंड- मौका मिलने दो, हनुमान बन इनकी लंका में आग न लगाई तो मेरा नाम भी बंदर, सॉरी, साइमंड नहीं।

रिक्की- चुप यार, हमेशा कन्फ़्युजड रहता है, अबे अपुन इन्डियीन टीम से हारे हैं, श्री लकंन टीम से नहीं ( हालाकिं अब ये रोज होगा ऐसा ख्तरा बड़ता जा रहा है)और ये हनुमान कौन है?

मन्ने तो लागे है जी कि ये सारा किया धरा शाहरुख खान का है। जिधर जाता है जीत उसके पीछु पीछु लग लेती है। अब बताओ, इन्ने कोई काम न हे जो किरकिट देखन साउथ अफ़्रिका आ गये।
हाँ सही कह रहे हो बंधु, क्यों न शाहरुख को अपनी टीम का चियर लीडर का अनुबंध दिया जाए। ये चियर लिडरनियां तो जी जरा लकी न निकलीं। लेकिन रिक्की भाई एक बात एकदम क्लीयर कर दियो, ये शाहरुख चक दे इंडिया न बोले।

क्लार्क- हाँ, मन्ने तो लागे है ये चक दे इंडिया गाना ही अपनी वाट लगाये है। मैं जब भी इनको घेरु हूँ, वो डी जे चक दे चक दे लगा दे और पूरा स्टेडियम खड़ा हो जावे। अब ये तो भई ज्यासती है ने हम बिचारे 11 और ये लोग 11000, कोई न्याय है भला, दिल तो करता था इस चक दे को चक्कु से चॉक ही कर दूं।
ब्रिट ली गंभीर मुद्रा में अब तक गिटार के तार ठीक कर रहे थे, बोले - मुझे लगता है ये दीपिका पदुकौन को स्टेडियम में आने से रोकना होगा।
रिक्की अचकचाए कौन दीपिका, और सुन्दर कन्या को आने से क्युं रोकना होगा, सुन्दर नजारे न हुए तो पूरी रात मैदान में कैसे कटेगी।
ब्रिट- तुम देखे न भैया, उसकी एक शर्मिली सी मुस्कुराहट पर धोनी कैसे घूम जाता था, बॉल सीधा स्टेडियम की छ्त को छूती दीपिका के पैरों पर गिरती। भई, इनका तो इश्क का तोहफ़ा हो गया खेल खत्म होने से पहले, इधर छ्क्का मान लिया गया।
एड्म- सही कहते हो, शोनाली का नाम भी उस लिस्ट में जोड़ो, श्रीसंत को देखा, उसे देख कैसे बलियों उछ्लता है।
रिक्की- दरअसल एक दो को छोड़ सब छ्ड़े छांट भर लिए है टीम में। खेलते तो है क्रिकेट पर जेन्टलमैन वाली कोई बात नहीं रह गयी। दे आर ऑल आउट टू इम्प्रेस गर्ल्स्। मंत्रणा चल ही रही थी कि खाना आ गया।

रिक्की- आइडिया

बाकी सब- क्या , क्या,

रिक्की- क्युं न अपनी सरकार से सिफ़ारिश करे कि इन्हे वो कंगारू गेहूं भेज दें, वो लाल वाले।
रिक्की ने आखँ मारी, सब हस पड़े, सही है गुरु, क्या सोचा है, ये मारा चौका। कगांरु गेंहू का के ये कंगारू और कगांरुओ से निपटना हमे आता है( मानो कहते हो हारी बाजी को जीतना हमें आता है …हम सिंकदर हैं …।) ही ही ही

(मेरे एक छात्र के अनुसार पहली पंक्ती परिक्षा में जो लिखी जानी चाहिए वो है"नीचे लिखे सारे उत्तर काल्पनिक है, किसी भी किताब से किसी भी प्रकार की कोई भी समानता महज इत्तेफ़ाक है, इरादतन नहीं)

तो हम भी यही कहना चाह्ते हैं कि ऊपर लिखी सब घटनाएं कोरी काल्पनिक हैं ,किसी को दुख/ठेस पँहुचाने का मेरा कोई इरादा नहीं, ये सिर्फ़ मजे के लिए लिखा गया है।




October 22, 2007

आलोक जी का रावण

आलोक जी का रावण

आलोक जी के रावण को देख एक दृश्य मेरे जहन में कौंध रहा है, आप भी देखिए।रावण ज्ञानद्त्त जी के सैलून जैसे ड्ब्बे में सफ़र कर रहा था, फ़र्क सिर्फ़ इतना था कि ज्ञानदत्त जी अकेले सफ़र करने का मजा लूट सकते हैं साथ में सिर्फ़ अर्दली और रावण लालू की तरह लंबी चौड़ी ताम झाम साथ में लिए सफ़र कर रहा था, नौकर चाकर, प्रेस वाले , कुछ कंपनियों के सेल्समेन, कुछ सुरक्षा कर्मी और पता नहीं कौन कौन्।

सफ़र करते हुए वो अपने मोबाइल के बिल बाँच रहा है और मंदोदरी ड्रेसिंग टेबल पर बैठी गिन गिन कर अपने सफ़ेद बाल नोच रही है। बालों की लहलहाती ख्रेती तेजी से गायब हो रही है, मंदोदरी परेशान है। बाल तो रावण भी अपने नोच रहा है, आलोक जी ने सही कहा, रावण बिचारा लोन कन्या के गच्चे में आ गया। दरअसल हुआँ यूं कि लोन कन्या की आवाज सीता जी से इतनी मिलती थी कि रावण को लगा वहीं है, सोचा, अगर पाचँ द्स मोबाइल लेने से मामला फ़िट हो जाता है तो सौदा महंगा नहीं। अब बिल आया तो पता चला कि मामला तो कुछ और ही था।वो राम ने कोई लोचा कर दिया था फ़िर से।पहले भी एक बार ऐसी खुराफ़ात की थी उसने किसी बंदर को भेज दिया था। सब अच्छे पतियों की तरह रावण ने भी फ़ाइनेंस मिनिस्टर, होम मिनिस्टर का पद भार मंदोदरी को दे रखा था, अब परेशानी ये कि मंदोदरी के सवालों के क्या जवाब देगें, सवाल करने पर आ जाए तो बड़े बड़े वकीलों के भी कान काट दे। एक तो ये पेचीदा बिल, ऊपर से उनका भुगतान करने के लिए अशोक वाटिका गिरवी रख चुके थे, अब मंदोदरी को क्या बताते, इश्क में बाल कहां तक नुचे।

मामले को सभांलने के इरादे से मंदोदरी का मनुहार करते हुए अपने ज्ञान का बखान करते हुए बोले तुम क्युं अपने बाल यूं नौचती रहती हो, बालों को रंग क्युं नही लेती, तपाक से लॉरइल वाला सेल्समेन शुरु हो गया- महारानी साहिबा महाराज ने क्या पते की बात कही है, ऐसे ही थोड़े चहु दिशाओं में महाराज के ज्ञानी होने के डंके बजते। अब देखिए बाल रंगने के कितने फ़ायदे हैं, इत्ते सालों से वही काले बाल देख देख कर आप बोर नहीं हो गयीं , अब ये सफ़ेद बाल तो आप का पेंटिग का कैनवास है, रोज जिस कलर की साड़ी पहनो उसी रंग के बाल रंगो, न्यु लुक एवेरी डे, मैचिंग सैंडल( कहाँ मिलते हैं समीर जी बता देंगे), मैचिंग पर्स, मैचिंग लिपस्टिक, मैडम एश्वर्या भी नहीं नहीं सीता भी पानी भ्ररेगी आप के सामने।
बात तो महारानी को अच्छी लगी पर अभी भी एक परेशानी की शिकन माथे पर थी, बोली लेकिन मैने तो सुना है कि बाल रंगने से बाल गिरने लगते है, ऐसे तो मै बहुत जल्द गंजी हो जाऊंगी। रावण ने सोचा मामला हाथ से निकला जा रहा है, फ़टाक से बीच में कूद पड़े, अरे प्रिय तुम तो मुझे हर हाल में अच्छी लगती हो( बस मोबाइल के बिल के बारे में न पूछना) गजीं भी हो गयीं तो क्या हम फ़िर भी नुक्कड़ के फ़ूलचंद से तुम्हारे लिए सर पर सजाने को गुलाब लाएगे, बालों मे खोस न सके तो क्या सेल्वटेप है न चिपकाने को, जहां चाह वहां राह्। इनफ़ेक्ट, जुलियस सीजर के ताज सा गुलाबों का मुकुट कैसा रहेगा।
बीच में दूसरा सेल्स मेन टपक पड़ा, महारानी जी महाराज बिल्कुल सही कहते हैं, जिसकी बीबी गंजी उसका भी बड़ा नाम है, मेरी कंपनी की क्रीम लगा दो लाइट का क्या काम है। इनफ़ेक्ट महाराज मैं तो निवेदन करुंगा की आप ऐसा कानून ही बना दें कि लंका में समस्त प्रजा आज से अपने सर मुंड्वा दे, जो भी दानव दानवनियां लंबे बालों वाले पाये गये वो देश द्रोही माने जाएगे और उन्हें देश निकाला दे दिया जाएगा, आखिर लबें बाल तो वानरों की निशानी है, देखा नहीं था वो बदंर, कित्ता तुफ़ान मचा कर गया था पुरी लंका बर्बाद कर गया था। हनुमान के उत्पात की याद आते ही महाराज का खून खौलने लगा। उस सेल्समेन ने सोचा लौहा गरम है एक हथौड़ा और मार ही दें सेफ़्टी के लिए, महारानी की तरफ़ मुड़ कर बोला और फ़िर महारानी साहिबा महाराज को ही देखिए बाल आगे से यूं जा रहे है जैसे लो टाइड में समुद्र का पानी पीछे खिसक लेता है अब ये आधे अधुरे बाल महाराज की पर्सनलिटी के साथ शोभा नहीं न देते, या तो है या नही है, ये क्या अयौध्या के मंत्रियों की तरह कभी कहते है हम सहमत भी है और नही भी। पर्सनलिटी तो हमारे महाराज की है, एक बार जो स्टेंड ले लिया बस ले लिया अब जीतेगे या मरेगें और महारानी जी आप इस टुच्चे रंगरेज की बातों में न आइएगा, ये तो कल सीता को भी कह रहा था कि बाल हरे रंग लो फ़ैशन का फ़ैशन और आस पास के पेड़ों के साथ मैच करेगा सो अलग्। असली फ़ैशन तो गंजेपन में है, आप को अपनी क्रिएटिविटी दिखाने का पूरा मौका मिलता है, जब ट्व्टी ट्व्टी चले तो लंका का झंडा अपने सर पर पेंट कराइए चियर लीडरनियां भी आपको सरगना बना लेंगी, और जब मैच न हो तो हमारी क्रीम से सर की मालिश कराइए, ये बाल नौच नौच कर जो सर में दर्द रहता है एकदम दूर हो जाएगा और आपके चांद की चमक देख महाराज बोल उठेंगेये चांद सा रौशन ट्कला, फ़ूलों का रंग सुनहरा, ये झील से गहरी आखें, कोई राज है इनमें गहरा…इतने में रावण का मोबाइल बज उठा…हैल्लो, हैल्लो, रावण, लोन रिक्वरी वाले थे, रावण बोला सॉरी रोंग नम्बर्॥दिस इस टकलु हिअर्…ढूंढो बेटा अब रावण को, और आजा बेटा राम अपनी सब चालाकियों के साथ, यूं नहीं पिजंरे में उतरने वाले हम, सुसाइड कर तू।

October 19, 2007

दादी रॉक्स

दादी रॉक्स


अभी टी वी पर चैनल घुमाते घुमाते सोनी पर चल रहे कार्यक्रम बूगी बूगी पर जा पहुँची। मम्मी एपीसोड चल रहा था। शुरु के एक दो नृत्य तो अच्छे लगे(बाकी भी अच्छे लगे), 25 वर्ष से ले कर 29 वर्ष की महिलाएँ अपने नृत्य के जौहर दिखा रही थीं। फ़िर अपने जौहर दिखाने आयी एक 45 वर्षिय महिला, डील डौल भी काफ़ी हरा भरा और अदाएँ बिखेरी मॉइकल जैकसन की नकल की। अन्दाजा लगाना मुश्किल नहीं कि कैसा लग रहा होगा वो भी टी वी पर जिसे लाखों लोग देख रहे होगें। अच्छा, उस प्रोग्राम की एक और खासियत ये है कि जो भी कलाकार मंच पर होता है उसके साथ आये उनके स्वजनों पर कैमरा केन्द्रित किया जाता है, इस बार भी ऐसा ही हुआ। जो महिला नाच रही थी उनके साथ आयी एक वृद्धा बड़ी मजे ले कर उनका नृत्य देख रही थीं। जावेद जी के पूछ्ने पर पता चला वो वृद्धा उस महिला की माता जी हैं और वो भी बूगी बूगी में नाचने की तमन्ना रखती हैं। जावेद जी ने बड़ी शालीनता से उनकी ये मनोकामना पूर्ण करने के लिए उन्हें आमंत्रित किया मंच पर आने के लिए, बिना किसी हिचक के वो न सिर्फ़ मंच पर आ गयीं बल्की मॉइकल जैकसन की भी छुट्टी कर दी। जावेद ने जब उन्हें कैमरे में देख अपने पति को फ़्लांइग किस्स देने को कहा तो बेझिझक दादी जी ने वो इच्छा भी पूरी कर दी।

आप कहेंगे , हाँ तो आप क्युं इतना बखान कर रही हैं। वो इस लिए कि मैं पूरी तरह से कनफ़्युजड हूँ जी, पता नहीं मैं कौन सी सदी में जी रही हूँ , क्या मैं पिछ्ड़ गयी हूँ और मुझे पता भी नहीं चला कि जमाना कितना आगे निकल गया है। मेरे मानस पट्ल पर दादी नानी की जो आम तस्वीर है और जो मैं अब देख रही हूँ उसमें जमीन आस्मान का अंतर है। मेरी नानी ने पाँच बेटियों में से तीसरी की शादी की तो हल्के रंग की साड़ियाँ पहनना शुरु कर दिया था और अतिंम बेटी की शादी तक पहुंचते पहुंचते तो सफ़ेद साड़ियाँ पहनना शुरु कर दिया था। (यहाँ मै बता दूँ कि मेरे नाना की मृत्यु नानी के जाने के कई साल बाद हुई थी) उन्हें दामाद के सामने रंगीन कपड़े पहनने में शर्म आती थी। खैर वो तो बहुत पुराने जमाने की बात है जी। मेरी माँ ने मेरी शादी के बाद लिपस्टिक लगाना छोड़ दिया था, सिर्फ़ इस लिए कि मैं लिपस्टिक नहीं लगाती थी। अब नवविवाहिता बेटी अगर इतनी सादी रहे तो मैं कैसे होंठ रंग लूं। मैने लाख समझाया कि ये अपनी अपनी पंसद की बात है और इसमें कोई बुराई नहीं पर उन्होंने एक न सुनी। फ़िर जब कुछ साल बाद मेरे बालों में चांदी झिलमिलाने लगी, सबने कहा (पति को छोड़ कर) बाल रंग लो, पर हम इसके लिए तैयार न हुए, तो मेरी माता जी ने भी बाल रंगने छोड़ दिए, तर्क वही की बेटी के बाल सफ़ेद और मेरे काले, कैसा दिखेगा भला। ये
बात सिर्फ़ मेरी माँ और दादी की नहीं थी, मैने तो अपने परिवेश में सभी दादी नानियों को यूं ही देखा है, अपने रखरखाव से बेखबर, ममता से ओतप्रोत, हमेशा दूसरों की फ़िक्र करतीं, जीवन के मुल्य देती, धीर, गंभीर, जिन्हें देखते ही नतमस्तक हो आशिर्वाद लेने को मन करे। इन्हें घर में आयोजित कीर्तनों में भाग लेते हुए नाचते गाते देखा पर कभी भी पब्लिक में नहीं। किसी शादी ब्याह में बहुत जोर देने पर दादी तो नहीं पर माँ एक ठुमका भर लगा देतीं और बैठ जातीं, वो भी इस बात का ध्यान रखते हुए कि उम्र या रिश्ते के लिहाज से कोई बड़ा मर्द तो वहाँ नहीं। माँ का दर्जा पाते ही कब हमने अपने पराये (ऑटो ड्राइवर से लेकर सब्जी वाले, वॉचमेन, अर्द्ली, छात्र) सबको बेटा बुलाना शुरु कर दिया पता ही नहीं चला ।

मैं ये नहीं कह रही कि बूगी बूगी में नाच रही महिलाएं सभ्रांत नहीं थीं, वो संभ्रात थी,(छोटे शहरों से थीं)। वहाँ आयी सभी महिलाओं के परिवार(मायका और ससुराल दोनों) इतना गौरव महसूस कर रहे थे। कौन कहता है कि औरतों को मन की करने की छूट नहीं। मैं यहाँ कोई सवाल नहीं खड़े कर रही , सिर्फ़ अपना आश्चर्य प्रकट कर रही हूँ, सिर्फ़ बदलते समाजिक मुल्यों की बात कर रही हूँ। क्या कोई मुझे बताएगा कि मैं कित्ते साल पीछे छूट गयी हूँ?

October 16, 2007

अम्मा- मेड टू ऑर्डर

अम्मा- मेड टू ऑर्डर

जाल तंत्र पर हमारे एक मित्र हैं।मुश्किल से 23/24 साल के होंगे, मूलत:उत्तर प्रदेश के किसी गावँ से हैं पर आज कल देहली में रहते हैं, दाल रोटी के जुगाड़ के चक्कर में।देहली से ही उन्होंने मॉस मिडिया का कॉर्स किया हुआ है, खुद को अति महान पत्रकार मानते हैं। हम अक्सर उनसे अपनी रचनाओं पर टिप्प्णी करने को कहते थे। तब तक हमने ब्लोगिंग करना नहीं शुरु किया था और अपनी रचनाएँ दूसरी कविताओं की साइट पर प्रकाशित किया करते थे। ये जनाब से भी ऐसे ही कहीं मुलाकात हुई थी। हमारी कोई भी रचना इनकी नाक के नीचे नहीं आती थी, हर रचना में कोई न कोई कमी, पता नहीं क्या क्या टेकनिकल खामियाँ निकालते थे, ये मीटर में नहीं बैठती, यहाँ शब्दों का चयन ठीक नहीं, क्रिएटिव राइटिंग के फ़न्डास से ले कर हिन्दी व्याकरण तक सब समझाते थे। हम नतमस्तक हो सब सुन लेते थे। अपने कॉलेज के ग्रंथालय में भी क्रिएटिव राइटिंग की किताबें पूछ्ने लगे, नहीं मिली, वो बात अलग है। इनकी हर मीन मेख का हमारे पास एक ही जवाब होता कि भैया अपुन तो दिल से लिख्ते है, तुम्हारे बताए कोई नियम जानते ही नहीं तो लिख्ते वक्त वो जहन में कैसे आयेगें? और ये कहते सिर्फ़ दिल से लिखना काफ़ी नहीं होता। खैर, फ़िर पता नहीं क्युं ये कुछ एक महीने से गायब थे, पता लगा कि नौकरी बदल रहे हैं।
कल अचानक ऑन लाइन दिख गये, और हमारे बुलाने के पहले स्क्रीन पर टपक पड़े, बोले आजकल आप के लेखन में काफ़ी सुधार हुआ है। हमने सोचा क्या बात है, इनके मुहँ से ऐसे शब्द्। खैर इसके पहले कि हम धन्यवाद के आगे कुछ और कहते ये फ़िर गायब हो गये। आज शाम फ़िर प्रकट हुए और बोले, हम्म, मैने आप की कविता 'खुली वसियत' पढ़ी है, आप ऐसे कैसे लिख सकती हैं। हम हैरान, भई क्या लिख दिया ऐसा ओब्जेक्शेबल्। पहले तो लम्बी बहस कर डाली कि हमें कोई अधिकार नहीं मृत्यु शैया पर इलाज से इंकार करने का, फ़िर अचानक बोले, मैने अपनी अम्मा को लम्बी चिठ्ठी लिख दी है। अरे भई, बीच में तुम्हारी अम्मा को लिखी चिठ्ठी कैसे आ गयी। बोले इस टेलिफ़ोन के युग में हमने अपनी अम्मा को आपकी कविता का हवाला देते हुए खत लिख दिया है कि तुम तो ऐसा सोचना भी मत। माँ बिचारी ने परेशान हो कर बेटे को फ़ौरन फ़ोन लगाया कि बात क्या है, साथ ही समझाया कि बिट्वा जो आता है उसे जाना भी पड़ता है। बिट्वा भाव विहल हो मातृ प्रेम में डूबे बोले माँ तू मेरे से पहले नहीं मर सकती। भावनाओं में डूबे कुछ भी ऊलूल जलूल तर्क दिए गये, मैं जब छोटा था, असहाय था तूने मुझको संभाला, जिन्दा रखा, मैं चाहता तो मैं भी मर सकता था, तुझको कितना दु:ख होता, तेरी खातिर मैं तब जिन्दा रहा, बड़ा हुआ, और अब दुनिया को झेल रहा हूँ। अब तुझे भी मेरे साथ इसे झेलना है जब तक मैं झेलूं। माँ के कुछ बोलने से पहले ही ये अपने रौ में बोलते चले गये कि मैं चाहता हूँ मेडिकल क्षेत्र में इतनी तरक्की हो कि कोई मरे ही नहीं और शुरुवात मेरी माँ से हो। हम ने कहा,'आमीन'।
इनकी बातें सुन इनकी माँ जो कभी गांव से बाहर नहीं निकली और जिन्हों ने शायद स्कूल का कभी मुँह नहीं देखा, बोली, बिट्वा हमने तो सुना है कि आज कल के डागदर सीसे की नलियों में बच्चा बनाई देत हैं तो उन डागदरां के बोले एक नयी माँ काहे नहीं बनवा लेते? वैसे हम द्शहरा पर तोके मिलने को दिल्ली आईं। भई वाह, क्या कल्पना है-टेस्ट टुयब माँ, सारे अनाथालयों की छुट्टी, और बात भी कितनी स्टीक, अगर बिन औलाद के माँ बाप को ये अधिकार दिया मेडिकल सांइस ने कि इस तरह से बच्चे की चाह पूरी कर लो तो बच्चों को भी वही अधिकार मिलना चाहिए कि अगर किसी कारणवश अगर वो अपनी माँ खो दें तो भी मां के वात्सलय से वंचित न रहें। अब मामला जरा रोचक हो गया था, हम जानना चाहते थे कि बिटवा ने क्या जवाब दिया? जवाब सुन कर हमारी हसीं नहीं रुक रही थी। बड़ी मासुमियत से जनाब बोले कि वो तो बाबा को पूछ्ना पड़ेगा, आज कल धान की फ़सल कट रही है तो बाबा व्यस्त हैं । हमें भी इंत्जार है कि बाबा का कहीं? खैर हमने कहा कि क्या आप को इस कविता में कुछ कमी नजर आयी हो तो कहिए, बोले हाँ, कमी तो है, ये वसियत शब्द का चयन ठीक नहीं, वो 5 मिनिट तक तर्क देते रहे कि वो शब्द क्युं ठीक नहीं, फ़िर जाते जाते बोले वैसे आप मेरी बातों पर ध्यान मत दिजिएगा और जैसा लिख रही हैं वैसा ही लिख्ती रहिए। उफ़्फ़! अट्लास्ट, जनाब को कुछ तो पसंद आया। लेकिन अब हम इनकी टिप्प्णियों के बारे में नहीं इनकी माँ के बारे में सोच रहे थे। इनके बारे में भी सोच रहे थे कि ये बेटे का रूप उस टिप्प्णीकार से कित्ता ज्यादा सुहाना है।

October 13, 2007

नवरात्री के रंग

नवरात्री के रंग

लो जी श्राद्ध खत्म और नवरात्री आयी- कलकत्ता के पंडालों में, गुजरात के गरबे में, तमिलनाडू की गुड़ियों के त्यौहार में और न जाने कहाँ कहाँ। तो जी हम कैसे पीछे रहते। हमारा बम्बई तो वैसे ही न सिर्फ़ कॉसमोपोलिट्न है, मेरे अनुमान से 85% महिला जनता यहाँ काम पर जाती हैं।लाजिमी है कि त्यौहार भी वहीं मनाये जाए जहाँ हमारा ज्यादा से ज्यादा जीवन बीतता है।

कोल्हापुर में एक देवी का मन्दिर है, जिसकी बड़ी मानता हैवहाँ दसों दिन देवी का श्रंगार अलग अलग रगों के परिधानों से किया जाता हैमहाराष्ट्रा टाइअम्स नवरात्री से कुछ दिन पहले ही रोज इसकी सूची छापता है जो कुछ इस प्रकार है


तारीख देवी का रुप रंग

12/10/07 अंबा पोपटी (मतलब तोता रंग)
13/10/07 चामुंडा नारंगी
14/10/07 अष्टमुखी पीला
15/10/07 भुवनेश्वरी आस्मानी नीला
16/10/07 उंपागललिता गुलाबी
17/10/07 महाकाली ग्रे
18/10/07 जगदंबा हरा
19/10/07 नारायणी जामनी
20/10/07 रेणुका नीला
21/10/07 दुर्गा लाल

अब हमारे ग्रुप की सरगना (रमा) ने ये निश्चय लिया कि हम सब इसी सूची के अनुसार कपड़े पहनेगेऔर मर्द टीचर्स को भी यही नियम मानने होगेंजिस रंग के कपड़े नहीं हैंखरीदो, नियम तोड़ने वाले को सबको नाशता कराना पड़ेगाहमारे कॉलेज में डिग्री सेक्शन में ही साठ टीचर्स हैंलिस्ट नॉटिस बॉर्ड पर चिपका दी गयीक्या मजाल कि मर्द टीचर्स इसे मानेहम मन ही मन मुस्कुरा रहे थे- मर्दाना शर्ट वो भी पोपटी रंग कीहा, हा, हादेखें फ़ोटो, पर ठहरिए जी अभी महिला टीचरों पर भी आफ़त आनी थीये निश्चय लिया गया कि सिर्फ़ ये रंग के अनुसार कपड़े पहनने हैं , बल्कि महिलाएं सिर्फ़ साडियां ही पहनेगीअब जी जब सुबह सुबह 6:३० बजे घर से निकलना हो तो कहाँ साड़ी लपेटने का वक्त होता है, पर रमा के आगे कोई बोल नही सकताउसके पास हर बात की काट मौजूद रहती है












अब जी मेरे पास तो पोपट रंग की साड़ी थी ही नहीं, और नवरात्री के एक दिन पहले तक तो श्राद्ध थे, मन के अंध विश्वासों के चलते हम कुछ खरीदने वाले नही थे। हमने हरा रंग पहना और सब से कहा मेरा तोता अंग्रेजीस्तान से आया है, ठंडी के मारे रंग हल्का पड़ गया है, ही ही ही। खैर नाश्ता खिलाने से तो बच गये।

कॉलेज पहुँचे तो देख कर हैरान कि जुनियर कॉलेज के टीचर्स, नॉन टीचींग स्टॉफ़ (यहां तक की केटीन बॉय भी) सब तोते बने हुए। मर्द टीचर्स भी खुशी खुशी त्यौहार मनाने को हमारे साथ रंग बिंरगी होने को तैयार्। परिक्षाए चल् रही हैं बच्चे भी परीक्षा की चिन्ता के बीच हम सब को देख मुस्कुराए बिना न रह सके।

चलूं अब कल के लिए नारंगी रंग की साड़ी देखनी है। ओजी भाई लोग जो इस को पड़ रहे हैं इस नियमावली के अनुसार ही रंग पहनना, नहीं तो देवी माँ को प्रसन्न करने का मौका तो खो ही दोगे, सजा भी भुगतनी पड़ेगी-एक दिन में कम से कम बीस कमेंट्स्। बोलो क्या मंजूर- कल भगवा वस्त्र पहनेगे या बीस ब्लोग पढ़ेगें। हा हा हा अगली बार एक और छ्टा नव रात्री की

October 09, 2007

खुली वसीयत

खुली वसीयत



इसके पहले कि तालू से चिपके,

ये पटर पटर चलती जबां,

सुन मेरी वसीयत बेटा बैठ यहां,
कुछ बातें तुझसे कहनी हैं,
जो मेरे मरने से पहले और मरने के बाद तुझे निभानी हैं,

जब जीवन धारा सूखने लगे, जबां न चले,
करवट मौह्ताजी हो, आखँ न खुले,
तुझसे मेरी विनती है,
इन रिसती सासों को सुइयों नलियों कि सजा न हो,



किसी की रोजी रोटी की तिक्कड़म का सामान न हो,
खिसका देना खटिया मेरी उस खिड़की के पास,
नजरों से आलिंगन कर लूं अपनी अमराई का अंतिम बार,
मेरे गालों को चूमे मन्द मन्द ब्यार, ओड़ूं सावन की फ़ुहार,
दवाइयों की बदबू,ठ्डे लोहे के बिस्तर,ए सी की बासी हवा,
इन अटकी सासों को मत देना ये सजा,

छूटे सासें ,कटे सजा तो मेरी खुशियों में शामिल होना,
किसी अच्छे से होटल में सपरिवार स्वनिमत्रंण देना,
निर्जीव मिट्टी की खातिर जीवित पेड़ों की ह्त्या,
ये पाप न मेरे सर देना,
ये हरियाली भविष्य की धरोहर,मेरे लिए हुआ पराया,
न जलाना, न गाड़ना, न चील कऊऔं को खिलाना,
मुझसे न हो मैली हवा, माटी , ये नदिया,
किसी मेडिकल कोलेज में दे देना दान,
शिक्षक थी, शिक्षक हूँ,निभाऊँ मर कर भी शिक्षक धर्म
मेरे अंगों को चीर फ़ाड़ के जाने बच्चे मर्ज का मर्म,



जिस सखा से जीवन भर बतियाई हूँ,
उल्हाने दिए और मुस्काई हूँ,
उससे मिलने को पंडित के श्लोकों कि दरकार कहाँ,
न सहेजना दिवारों पर मेरे निशां,
तू मेरी जीवंत निशानी है, फ़ोटो में वो बात कहाँ,
न याद कभी करना मुझको, आगे बढ़ना सिखलाया तुझको,
ले चली हूँ बस मैं इन एहसासों को, इस मन्थन को,
जिसने जीवन भर सताया मुझको,
अब मेरी बारी आयी, सजाए-मौत देने की इनको

October 07, 2007

प्यार तेरा यही अंजाम


प्यार तेरा यही अंजाम

अभी हाल ही में एक खबर छपी थी, कलकत्ता से करीब 175 कि मी दूर कुमारबाजार में एक सर्कस चल रहा था-ओलंपिक सर्कस। सर्कस में एक हथिनी थी सावित्री। 29 अगस्त की मध्य रात्री में एक 26 वर्षिय जगंली हाथी आया, सावित्री को देखा, पहली ही नजर में दोनों को एक दूसरे से प्यार हो गया। आनन फ़ानन दोनों ने फ़ैसला लिया और सावित्री अपने प्रेमी के साथ भाग गयी पास ही के जंगल में। जंगल में मंगल का माहौल था, दोनों प्रेमी साथ साथ बहुत खुश थे। सर्कस का मालिक अपने लाखों रुपयों के नुकसान को रो रहा था जो उसने सावित्री को खरीदने में खर्चे थे जब वो बच्ची थी। हम मन में सोच रहे थे कि बचपन से लेकर जवानी तक उसने तुम्हारे सर्कस में जो इत्ता काम किया क्या पैसा वसूल न हो गया। ये पढ़ कर कि जब भी इन लोगों ने सावित्री को दोबारा बहलाने फ़ुसलाने की कौशिश की उसने इनको घास भी न डाली, और जब ये लोग जोर जबर्दस्ती पर उतर आये तब उसका प्रेमी उसका साथ देने आ खड़ा होता। लगा बिल्कुल हिन्दी फ़िल्म की कहानी है जी सिर्फ़ नायक नायिका मानव जाती के न हो कर हाथी और हथिनी हैं। राजेश खन्ना की एक पिक्चर आयी थी 'हाथी मेरे साथी' जहन में कौधं गयी। अंत भला तो सब भला सोच कर हम इस खबर को भूलभाल गये।

आज अख्बार में फ़िर सावित्री की तस्वीर छपी है। पता चला कि सर्कस के कर्मचारी और जंगल के रखवाले सावित्री पर नजर रखे हुए थे, एक शाम वो गंगाजलघाटी के जगंल में एक तालाब पर पानी पीती दिखायी दी, उसका प्रेमी भी उससे कुछ ही दूरी पर वंही पानी पी रहा था। बस फ़िर क्या था, इन जालिमों ने सावित्री की घेराबंदी कर डाली और ढोल, नगाड़े बजा बजा कर इतना शोर मचाया कि उसका प्रेमी डर गया और पीछे ह्ट गया, दूर से सावित्री को पुकारता रहा। अकेली पड़ गयी अबला सावित्री को ये निर्दयी घेरघार कर सर्कस वापस ले आये। सर्कस का मालिक चंद्र्नाथ बैनर्जी खुश, कहता है मेरी बिटिया लौट आयी है। बिटिया या नोटों की थैली, लौट आयी है या अगवा कर ली गयी है? उसका महाउत कहता है, मैं जानता था वो अपने प्रेमी से उकता जाएगी और लौट आयेगी, जंगल में रहने की आद्त जो नहीं उसे। सावित्री को पूछा क्या किसी ने? अगर सच में सावित्री अपनी मर्जी से आयी है तो फ़िर ये सर्कसवाले दिन रात उसकी चौकसी कयुँ कर रहे हैं और जंगल के अधिकारी ये वादा क्युँ कर रहे हैं कि वो जंगल में उस प्रेमी पर नजर रखेंगे, बैनर्जी के नोटों की खातिर ना। क्या अनेक हिन्दी फ़िल्मों की याद नहीं आ रही, दुनिया की किसी और प्रजाती में ऐसी विसंगती देखी, होठों पर रह्ते है प्रेम के तराने और कर्मों में सर्वोपरी रहता है माल। अपने स्वार्थ के लिए, स्वाद के लिए, मौज के लिए दूसरों की जिन्दगियों पर राज करने का अधिकार हमें किसने दिया?

October 05, 2007

मैं

मैं
मैं मास्टर चाबी हूँ,
जब असल चाबी कहीं इधर उधर हो जाती है,
मैं काम आती हूँ,
मैं वो थाली हूँ,
जिस में सहानुभुती के कुछ ठीकरे
बड़े सलीके से सजा कर परोसे जाते हैं,
मैं वो लकड़ी हूँ,
जो साँप पीटने, टेक लगाने के काम आती हूँ,
कुछ न मिले, तो हाथ सेंकने के काम आती हूँ,
मैं ऑले में सजी धूल फाकँती गुड़िया हूँ,
जिस पर घर वालों की नजर मेंहमानों के साथ पड़ती है,
मैं पैरों में पड़ी धूल हूँ,
जो ऑधीं बन कर अब तक तुम्हारी आखों में नहीं किरकी,
मैं कल के रस्मों रिवाज भी हूँ, और आज का खुलापन भी,
मैं ‘आजकल’ हूँ,
जिसके ‘आज’ के साथ ‘कल’ का पुछल्ला लगा है,
जिसे जब चाहा ‘आज’ के आगे रख दिया,
मैं आकड़ों का हिस्सा हूँ,
पर कैसे कह दूँ कि हाड़ माँस नहीं,

October 04, 2007

बाम्बे टू गोवा

नेट परिवार के मेरे दोस्तों को मेरा नमस्कार, आदाब ,हैलो…मुझे भूल तो नहीं गये थे…। मैं एक बार फ़िर हाजिर हूँ एक और सस्मंरण ले कर। इसके पहले कि आप कहें अरे ये तो ट्रेवल और टूरिस्म का ब्लोग लगता है, मैं आप को बताना चाहुंगी कि अब लंबे अंतराल तक कोई सस्मंरण नहीं आने वाला, अजी, इतनी घुमतंरू नहीं हूँ। वो तो बस जय हो गांधी बाबा की जिनकी बदौलत एक छुट्टी मिल गयी, एक हमने मार ली और चले बोम्बे टू गोवा…


गोवा मैं पहली बार आयी हूँ, ये संस्मरण गोवा से लिख रही हूँ पर पोस्ट तो बोम्बे लौटने पर ही कर पाउँगी। ये ब्लोगिंग का चस्का भी बड़ा लती है ये अब जान पा रही हूँ। कोकण रेलवे से सफ़र करने का ये मेरा पहला अनुभव था। बम्बई, नहीं पनवेल से लेकर थेविम तक कहीं भी एक सूखा पत्ता नहीं मिला, सब हरा ही हरा, इतनी हरियाली कि बस नजारा देखते ही बनता था, सारे रास्ते हम खिड़की के शीशे से मुँह चिपकाए बैठे रहे। और मजेदार बात ये कि ये हरियाली सोशल फ़ोरेस्टरी का कमाल नहीं था, सब प्राकृतिक छ्टा थी, पूरी की पूरी पर्वत श्रखंला बड़े बड़े पेड़ों से पटी पड़ी थीं, प्राण देयी छोटे बड़े नदी नाले, झरने अपने पूरे यौवन पर थे।


सुरंदिर, टैक्सी ड्राइवर, हमारा तीन दिन का साथी, थेविम से सीधा कालनगुट ले गया। बम्बई से चलने से पहले हम बार बार प्रार्थना कर रहे थे कि जब हम गोवा पहुँचे खूब बारिष हो , खैर बारिष तो नहीं हो रही थी पर बादल छाए से थे, हवा ठंडी, और धूप बिल्कुल नहीं लग रही थी, सब मिला कर मौसम था सुहावना। हॉटेल का कम्ररा एकदम समुद्र तट पर्। मुझे अपने कॉलेज के दिन याद आ गये।


कॉलेज के जमाने में मेरे घर और समुद्री किनारे के बीच सिर्फ़ कुछ नारियल के पेड़ थे, सुबह शाम आती लहरों का सगींत कानों में गूँजा करता था। लहरों की धुन से समुद्र के मिजाज पता चलते थे, कभी धीर गंभीर, छोटी छोटी लहरों से तटों को छेड़ता तो कभी उंमग भरा नाचता ठ्ठियाता तेजी से किनारों की तरफ़ बढ़ता और फ़िर पीछे ह्ट जाता, मानों हू तू तू खेलता हो।


कालनगुट की बालू हमारे जूहू बीच की बालू से ज्यादा मोटी है और रंग भी सुनहरा, बहुत सुन्दर्। साफ़ इतना जितना जूहू 30 साल पहले हुआ करता था, अब तो वहाँ दुकाने ही दुकाने और चलते फ़िरते खोमचे, भीड़ भाड़ और पानी इतना गंदा कि पावँ डालने को मन न करे। बरसों से जूहू जाना छोड़ दिया। कॉलेज के दिनों में तो मुझे याद है कि होली खेल कर लोग सीधा जाते थे समुंद्र में नहाने, कोई अपना घर गंदा नहीं करना चाहता था, आखिरकार घर में दाखिल होने के लिए ड्रांइगरूम से जो गुजरना पड़ता था। पर अब वहाँ गुंडागर्दी इतनी बढ़ गयी है कि होली के दिन लड़कियाँ तो क्या लड़के भी जाने से कतराते हैं। सो यहाँ गोवा में नंगे पांव गीली रेत में घूमने का मजा आ गया।







दुसरे दिन हम निकल पड़े देखने सेंट फ़्रासिस चर्च, मगेंश मन्दिर(शिव जी का मन्दिर, लता मगेंशकर मूलत: वहीं से हैं), शांता दुर्गा मन्दिर, इत्यादि।खैर इन सबकी अपनी छ्टा थी ही, पर सबसे सुन्दर थी माण्डवी नदी। शहर के बीचोंबीच बहती, पानी से लबालब भरी। पिछ्ले साल हरिद्वार गये थे,गंगा के दर्शन करने, गंगा सिर्फ़ फ़िल्मों देखी थी, अब देखने का बड़ा मन था। वहाँ जा कर बड़ी निराशा हुई, गंगा के नाम पर बस थोड़ा सा पानी तल में, आधी गंगा तो हमने पैद्ल चल कर पार कर ली थी और उसके आगे जाने का कोई मतलब न था, बस लक्ष्मण झूले के नीचे थोड़ा सा पानी, जिसमें आटे की गोलियां डालो तो पता नहीं कहाँ से मछ्लियाँ आ जाती थी। सिर्फ़ एक ही घट्ना रोमांचकारी रही, जब हम आटे की गोलियां डाल मछ्लियों का आना देख रहे थे तो सामने से एक गाय आ गयी उसे रास्ता देने को हम एक तरफ़ सिमट लिए पर पता नहीं उसके मन में क्या कि आगे जाने के बदले उसने अपना चेहरा हमारे कंधे पर रख दिया, मानों गले मिल रही हो ,हमारी तो चीख निकलते निकलते रह गयी, कुछ क्षण ही गुजरे थे फ़िर गाय हमारी तरफ़ ऐसे देखते हुए आगे बड़ ली मानों हमारे डर जाने पर हंसती हो, आस पास के लोग हंस ही तो रहे थे हमारी हालत देख कर्। खैर हम बात कर रहे थे माण्ड्वी की और पहुँच गये गंगा पर्।


माण्ड्वी नदी देख कर लगा इसे कहते हैं नदी, लबालब भरी हुई। जब हम पंजिम से पानोलिन की तरफ़ चले तो माण्डवी हमारे साथ साथ यूँ चली जैसे कोई जिद्दी बच्चा माँ का पल्लु थामे रिक्शा के साथ साथ भागे दूर तलक साथ चलने की जिद्द करता हुआ। अगर हम कार का दरवाजा खोल बाहर निकलते तो सीधा पांव नदी में डालते। काफ़ी दूर तलक हमारे साथ आयी वो नदी। हमने सुना था कि गोवा अपने समुद्र के कारण मशहूर है पर मेरे हिसाब से तो समुद्री तटों के साथ साथ गोवा के भीतर बड़े बड़े पेड़ों से ढकी पहाड़ियाँ इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगा देती हैं। शुक्र है कि भ्रष्ट नेता की या हीरानन्दानी जैसे लालची बिल्डर की नजर इन पहाड़ियों पर नहीं पड़ी, नहीं तो बम्बई की तरह यहाँ के लोग भी अपने बच्चों को पहाड़ियों की सिर्फ़ तस्वीर दिखाते।


हम जैसे शाकाहारियों के लिए थोड़ी दिक्कत आती है पर अगर प्रकृति से हो प्यार तो गोवा से हो कैसे इन्कार्। कहते हैं केरल भगवान का अपना देश है इस लिए भगवान ने वहाँ प्राकृतिक छ्टा भरपूर फ़ैलायी है , गोवा भी कर्नाटका की सीमा से लग कर है, तो यहाँ भी।…पर मुझे तो लगता है खुदा ने दोनों हाथों से जी भर कर नेमतें लुटाई है पूरे कोकण प्रदेश पर्। अब सुना है छ्त्तीसगढ़ भी इतना ही सुन्दर है तो अगली बार वहाँ, और ज्ञानदत्त जी ने कहा गंगा उनके घर के पिछ्वाड़े ही बहती है तो पहले पूछ लेगें कित्ता पानी है अब गंगा में, मुझे याद आ रहा है बचपन का एक खेल्…बोल मेरी मछ्ली कित्ता पानी।…॥

बहुत ज्यादा कंप्यूटर पारंगत नहीं हूँ पर फ़ोटू लगाने की भरपूर कौशिश करुंगी।