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September 28, 2007

एक शाम-आय आय टी(मुम्बई) के नाम

एक शाम-आय आय टी(मुम्बई) के नाम


कुछ दिन पहले घूमते घामते मैं किसी विकास कुमार के ब्लोग पर पहुँच गयी। ब्लोग में विकास जी ने अपने स्कूल के दिनों की चर्चा करते हुए एक खेल के बारे में लिखा था, “कविताओं की अन्ताक्षरी”, बिल्कुल ऐसे ही जैसे गानों की अन्ताक्षरी”। इसे खेलने के लिए हिन्दी वर्णमाला को ध्यान में रखते हुए कई कविताएं कन्ठ्स्थ करनी पढ़ती थीं। उन्हों ने साथ में एक लिन्क भी दे रक्खा था उन कविताओं के संकलन का जो उन्हों ने बचपन में याद की थीं। ये पढ़ते ही हमारी आखें चमक उठीं। अभी अभी ‘हिन्दी दिवस समारोह’ मनाया गया था हमारे कोलेज में , ज्यादातर छात्र मराठी भाषी हैं इस लिए उतने बढ़े पैमाने पर नहीं मना पाए जितने बढ़े पैमाने पर मनाने की इच्छा थी। पर हमारे छात्र भी गीतों के, कविताओं के रसिया हैं। मन में ख्याल आया कि अगर हमें इस खेल के बारे में पहले से पता होता तो शायद ‘हिन्दी दिवस’ का समां कुछ और ही बधंता। वैसे इस बार की खास बात ये थी कि हमने आलोक पुराणिक जी के व्यंग लेख (अपनी पसंद के) प्रदर्शित किए थे( उनकी अनुमति से)और छात्रों की हंसी रुकने का नाम नहीं ले रही थी। हमारे कोलेज के ज्यादातर छात्रों के पास घर पर क्मपुयटर की सुविधा नहीं है फ़िर भी वो आलोक जी के ब्लोग का नाम नोट कर रहे थे। तो अगर कहीं कविताओं की अन्ताक्षरी का आयोजन होता तो छात्र कितना आनंद उठाते, और हिन्दी साहित्य से छात्रों का सान्निध्य अपने आप बढ़ जाता ये सोच कर ही हम मुस्कुरा लिए।


विकास जी की पोस्ट के नीचे एक लिन्क था उनके एक वाणी नाम के समूह का। बिना एक क्षण गवाये हम उस समूह के सदस्य बन गये। बाद में हमें पता चला कि विकास जी आय आय टी (मुम्बई) के छात्र हैं चौथे वर्ष में । हिन्दी को प्रोत्साहन देने के लिए ही उन्होंने आय आय टी में ये समूह बनाया है और इस में 100 से ज्यादा सदस्य है लेकिन सब आय आय टी (बम्बई) के छात्र्। मैं शायद अकेली सदस्या हूँ जो
बाहर से हूँ( ये मुझे बाद में पता चला)। विकास जी हिन्द युगम के लिए कविताओं को अपनी अवाज़ से और आनंदमय बनाते हैं। इस समूह की एक खासियत ये भी है कि सदस्य बनते ही इ-मेल्स आने लगते हैं और कोई भी सदस्य किसी और सदस्य से जो कुछ भी कह्ता है वो बाकी के सभी सदस्य देख सकते हैं। तो सदस्य बनते ही हमें इनकी आपसी बातचीत से पता चला कि गणेश विसर्जन के दिन वाणी समूह ने एक काव्य संध्या का आयोजन किया है। मेरी तो बाछें खिल गयीं। इधर कई वर्षों से प्रत्य्क्ष कवि सम्मेलन का मज़ा नहीं लूट पाए थे, टी वी पर ही प्रसारित होते कवि सम्मेलन देख कर ही संतोष कर लेते थे। विकास जी से फ़ोन पर बात हुई, हमें ना जानते हुए भी उन्हों ने न सिर्फ़ सहर्ष आने का न्यौता दिया बल्कि निर्णायक का पद भी सौंप दिया।

हॉल में घुसते ही सामने एक लड़का बैठा दिखाई दिया, बड़े अट्पटे से बाल बनाए हुए, लोग धीरे धीरे आ रहे थे। थोड़ी देर में हम क्या देखते हैं, आलोक ने उसी अट्पटे बालों वाले लड़के को मंच संचालन का भार सौंप दिया। नाम है उसका मोन्टी, एक बार जो मोन्टी ने बोलना शुरु किया तो बस हम तो देखते ही रह गये, कमाल का सेंस ओफ़ हुम्यर है जनाब उसका, साफ़ जाहिर था कि वो एक मंजा हुआ रंगमंच का कलाकार होगा और बड़िया कवि भी । चुटकी लेने में उसने किसी को नहीं छोड़ा । हमें इतना मज़ा आया कि दूसरे दिन हम कोलेज में भी उसके सुनाये चुट्कले दूसरों के साथ बाटँ रहे थे।
हालांकि ऐसी कोई बन्दिश नहीं थी पर 90% छात्रों ने स्वरचित कविताएं सुनायी। ज्यादातर कवि प्रथम वर्ष के छात्र थे पर कविताओं की गुणवत्ता इतनी बड़िया थी कि लगा हम जैसे प्रतिशिष्ठ कवियों को सुन रहे हैं। पिछ्ले 25 सालों में सैकड़ों बार निर्णायक की भूमिका निभायी है पर ये काम कभी इतना मुश्किल नहीं लगा जितना इस शाम्। सब एक से बड़ कर एक, किसके नम्बर काटें और कहाँ काटें निश्चित करना इतना कठिन कभी नही था। आशिश ने अपनी कविता में मित्रता का गुणगान कर और छ्त्तीसगड़ का स्तुतिगान प्रस्तुत कर ऐसा भाव विभोर किया की सब के पांव थिरक उठे। नीरज ने समुद्र की लहरों से प्रेरित हो कर छोटी सी लहर के अस्तित्व के संघर्ष को जितने मार्मिक रूप से प्रस्तुत किया वो सराहनीय था। हर रस की कविता का आंनद उठाने को मिला।
बहुत जल्द इन सबकी रचनाएं वाणी के ब्लोग पर होंगी। मोन्टी की लच्छेदार बातों का लुत्फ़ तो आप नहीं उठा पायेगें पर इनकी कविताओं का स्वाद तो चख ही पायेगें।

मेरे घर के पिछवाड़े प्रकाश पुंज है और मुझे उसकी झलक अब मिली वो भी हिन्दी की बदौलत । गर्व से मेरा माथा ऊँचा हो रहा है ये सोच कर कि ये हमारे देश का भाविष्य हैं, कौन रोक पायेगा भारत को विश्व नेता बनने से? हमने आय आय टी से सिलिकॉन वैली तक का सफ़र के बारे में सुना है ,पर अब जानते है कि तकनीकी क्षेत्र में ही नहीं साहित्य और कला के क्षेत्र में भी हम नये आयाम हासिल करने वाले हैं।वो दिन दूर नहीं जब हिन्दी का प्रचार ऐसा होगा कि लोग फ़क्र से कहेगें मेरा बेटा हिन्दी माध्यम से पढ़ा है। तब शायद हमारे ‘हिन्दी दिवस’ का रूप एकदम अलग हो। क्या ये सपना हमारे जीवन काल में ही…………।
आमीन

September 13, 2007

आती क्या खंडाला


अर्पणा (जो ओर्कुट पर खुद को ऐपी कह्ती है) मुझे ठेल रही थी 10 सेप्टेंबर को खंडाला में होने वाले जमावड़े में आने के लिए। 40+ ऐंड रोकिंग कमयुनटि का ये दूसरा आयोजन था ऐसे जमावड़े काइस कम्युनटी की सदस्य होने के बावजूद मेरा वहाँ जाना कम ही होता है और मैं वहाँ से बहुत कम लोगों को जानती हूँअर्पणा मुझे समझा रही थी कि ज्यादातर लोग एक दूसरे को नहीं जानतेबम्बई से सब इंतजाम करने का जिम्मा उठाया था विजय ने, जो ओर्कुट पर खुद को भूत कहलवाता हैहमने उससे कभी बात नहीं की थी, पहली बार जब उसका स्क्रेप आया तो हमने ये कह कर रिजेक्ट कर दिया कि भूतों से हमें बहुत डर लगता है और हम सिर्फ़ जिन्दा लोगों से ही बात करते हैंबाद में पता चला कि वो 40+ रॉकर है तो जान में जान आयीखैर ऐपी के बहुत जोर देने पर हमने पतिदेव के सामने बात उठाईहमें पक्का विश्वास था कि एक लम्बा लेक्चर सुनना पड़ेगा ओर्कुट के खतरों के ले करवैसे भी मैं और मेरे पति ज़रा झेपू किस्म के बंदे हैपर मेरी हैरानी का ठिकाना रहा जब सिर्फ़ उन्होंने अपनी सहमति दिखायी बल्कि खुद भी साथ चलने को तैयार हो गयेउसी कम्युनटी में हमारे एक और मित्र हैं उदय जी-60 साल के, रिटायरड पर अभी भी प्रोफ़ेसरी का काम करते हैं, एकदम जिन्दादिल इन्सानइधर बहुत दिनों से उनसे बात नहीं हुई थीअचानक उनका स्क्रेप गया, “आती क्या खंडाला”, पढ़ते ही मेरी हंसी छूट गयीउनको तो मैंने जवाब दिया, “ क्या करूं आके मैं खंडालापर अब जाने का मन बना लिया


बम्बई और पूना दोनों तरफ़ के रॉकरस की एक्साइट्मेट देखते ही बनती थीवहीं नेट पर रोज सब इन्तमाजात की जानकारी, लोगों के सुझाव, जो नहीं रहे थे उनकी निराशा, सब था वंहाआखिर वो इतवार ही गयानवी मुम्बई से हम तीन जन चढ़ने वाले थे, एक और सद्स्य हैं 40+ के जो इस बार के जमावड़े में नहीं सकते थे, पर उन्हों ने अपनी पत्नी को प्रोत्साहित किया था कि वो जरुर जाएँ, सो नीतू जी हमारे एरिआ से आने वाली थीं, हम उनको नहीं जानते थे, खैर! क्या शखसिय्त है जनाब ये नीतू जी की, मजा गयामिलते ही बोलीं कि आते आते उन्हें एक पंडित जी दिखाई दिए, धोती कुर्ते में लैसउन्हों ने भूत को पिछ्ले जमावड़े में ऐसे ही देखा था तो सोचा भूत है, उन्हें देर हो गयी है इस लिए इन्तजार कर रहा होगावो दूर से ही चिल्लायीं, “ हाय भूत”, अब वो पंडित जी का चेहरा देखने लायक थाअपनी गल्ती का एहसास होते ही नीतू जी बगलें झांक रही थींहंस हंस कर हमारे पेट में बल पड़ गयेइतने में बस गयीबस में बैठे ये अन्जान लोग ऐसे मिले जैसे हम बरसों पुराने मित्र होंहमारी झिझक एक मिनट में उड़न छू हो गयीचुहलबाजी, अन्ताक्शरी के दौर चल पड़े, गरमा गरम समोसों के साथपूना के रास्ते में दो तीन लंबी सुरंगो से गुजरना पड़ता है, किसी ने सुझाया कि सुंरग में गाने की आवाज ऊँची कर दी जाए और उसकी प्रतिध्वनी सुनी जाएबस फ़िर क्या था, सुंरग टूट कर हमारी बस पर नहीं गिरी यही गनिमत हैइतना सिली आइडिया, पर कितना आंनद आया ऐसी बचकानी हरकत करने में



वहाँ पूना वाले भी ऐसे मिले जैसे बरसों से जानते होंकुल मिला कर हम 30 जन थेकुछ के जीवन साथी ऑर्कुट के सद्स्य होते हुए भी आये थेतो कोई अपने छोटे बच्चों को भी लाई थींहॉट्ल से घाटी का द्र्श्य इतना मनोरम था कि बस मन करता था कि बरसाती झरने को ही देखते रहोवहाँ एक बड़े से कमरे का इन्तजाम किया गया था



शुरु हुआ कुछ गेम्स खेलने का दौर- सबसे पहले एक दूसरे परिचित होने के लिए ये खेल खेला गया कि सब जन एक घेरा बना कर बैठ जाएं फ़िर एक जन शुरुवात करेगा, अपना नाम बोलेगा और साथ में कोइ विशेषण लगाए, फ़िर दूसरा जन पहले वाले का नाम और विशेषण बोले और फ़िर अपना नाम और विशेषण, यानि कि 30स्वें जन को बाकी 29जन के नाम और विशेषण बताने थे और फ़िर अपना नाम और विशेषण, इनाम भी रक्खा गया था(जो हमें मालूम नहीं था) बिना एक भी गल्ती किए जो सब नाम और विशेषण दोहरा देदिन के पहले ही गेम में इनाम जीतते हुए हमें बहुत अच्छा लगा, और हमारे हर्ष का ठिकाना रहा जब इनाम में शुभा(पूना से आई रॉकर) ने अपने हाथों से पेन्ट किया हुआ एक कप हमें दिया जिस पर 40+ कम्युनटी का पह्चान चिन्ह पेन्ट किया हुआ थाफ़िर शुरु हुआ सगींत और डांस का प्रोग्राम। 40 साल से ले कर 65 साल के सभ्रांत स्त्री पुरुष थिरक रहे थेकजरारे, बिड़ी जलई ले, नच बलिए, और जाने कौन कौन से गीतों की धुन परउस समय पहली बार नाच जानने का रंज हो रहा था, अब सीखूंगी


नीरज जी पूना से सपत्नी आए थेउनकी पत्नी भी जरा झेंपू टाइप की थीं हमारे जैसे, सो उन्होंने हमारे साथ बैठ्ने ने ही अपनी भलाई समझीबातों बातों में पता चला कि नीरज जी और नीरु जी( उनकी पत्नी) दोनों अलिगढ़ से हैं, सुन कर मेरी तो बाछें खिल गयीं, बचपन की यादें ताजा हो आयीं, नीरू जी भी उसी स्कूल से पढ़ी हैं जिससे हम पढ़े थे, बस फ़िर क्या था हम यादों में अलिगढ़ घूम आयेतब तक नीरज जी पार्टी की जान बन चुके थे, ऐसा मधुर गला पाया है कि बस सुनते ही रहो



शाम के 6.30 बज चुके थे किसी का भी लौटने का मन था, पर लौटना तो था हीबस जैसे जैसे बम्बई के नजदीक पहुँच रही थी स्मिता प्लान बना रही थी कि हम सब साथ साथ एक पिक्चर देखने चलें और फ़िर खाना, मोबाइल नंबर लेने का दौर चलाघर पहुँचते ही हमने कम्पुय्टर ऑन कर दिया, पतिदेव बोले अरे अभी तो आई हो लेकिन हम ऑलरेडी उन लोगों को मिस कर रहे थे, लो क्या देखती हूँ, व्रंदा जो हमसे थोड़ा पहले उतरी थी उस का दोस्ती का पैगाम ऑर्कुट पर आया पढ़ा है, और शंकर जो पूना से आए थे उन्हों ने फोटोस अपलोड कर दी हैंऔर भी कई लोग अपने अपने संस्मरण लिख चुके थेमैं सोच रही थी हम सब 50 के है या 15 के