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December 28, 2007

गाजर मीठी है

गाजर मीठी है

1960 के दशक में बम्बई आने के बाद से और पिछले 25 सालों की नौकरी में शायद ही छुट्टियों में बाहर जाने का लुत्फ़ उठाया हो। कहते हैं सपनों में जीने का जो मजा है वो सपने साकार होने में शायद नहीं। सपने गधे के आगे टंगी गाजर के जैसे हैं जिन्हें पाने की आस में गधा चलता चला जाता है। पता नहीं गधा गाजर खाये तो उसे अच्छी लगे या नहीं। अगर उसे वो गाजर मिल जाये तो शायद सोचे अरे नाहक ही इतनी मेहनत की। खैर जो भी हो, अपनी हालत भी कुछ उस गधे जैसी ही थी। विनोद जी की एक कविता पढ़ी थी फ़ुरसतिया जी के ब्लोग पर, उसकी कुछ पक्तियां याद आती हैं जिन्हों ने हमारे दिल में घर बना लिया
जैसे तुम सोच रहे साथी,वैसे आजाद नहीं हैं हम-2
पिंजरे जैसी इस दुनिया में पंछी जैसे ही रहना है
भर पेट मिले दाना पानी, लेकिन मन ही मन दहना है
जैसे तुम सोच रहे साथी, वैसे संवाद नहीं हैं हम
जैसे तुम सोच रहे साथी वैसे आजाद नहीं हैं हम

आगे बढ़ने की कौशिश में, रिशते नाते सब छूट गये
तन को जितना गढ़ना चाहा, मन से उतना ही टूट गये
जैसे तुम सोच रहे साथी वैसे आबाद नहीं हैं हम
जैसे तुम सोच रहे साथी, ……………………………"


हमारी क्या हमारे माता पिता की भी वही हालत थी। इस भागती दौड़ती जिन्दगी में कभी कुछ फ़ुरसत के क्षण मिलते तो हमारे पिता अपने बचपन के किस्से सुनाते जिन्हें हम बड़े चाव से सुनते। कहानियां तो सभी घर में सुनायी जाती हैं और बच्चे बड़े चाव से सुनते हैं पर हमारे घर की कहानी में थोड़ा रोमांच था, थोड़ा दर्द्।

दरअसल हमारी दादी जी हमारे पिता(पहली संतान) को जन्म देते ही भगवान को प्यारी हो गयीं तो बाद में हमारे पिता का अपने ननिहाल से कोई संपर्क नहीं रहा।खैर वो कहानी फ़िर कभी, अभी तो हम बात कर रहे हैं अपने पिता के सपने की। उनकी बहुत इच्छा थी कि एक बार सपरिवार वैष्नो देवी के दर्शन कर सकें और लौटते हुए अपने ननिहाल ले जा सकें। एक बार वो गये भी पर हम साथ न जा सके। बस हम सब सपने ही देखते रह गये और पिता जी स्वर्ग सिधार गये और कुछ साल बाद माता जी भी पिता का ये सपना पूरा न होने का मलाल लिए चल दीं। माता का जाना हमें झक्झोर कर रख गया। हमने सब व्यस्तानों को किनारे करते हुए उसी साल माता के दर्शन का प्रोग्राम बना लिया। एक तरह से ये माता पिता को श्रद्धांजली देने जैसा था।

हमें इस बात का भी एह्सास न था कि माता का मंदिर कटड़ा में है जम्मु में नहीं। खैर माता के दर्शन कर लौटते वक्त हमने जम्मु के रास्ते लौटने का निश्चय किया। हमारे पिता का ननिहाल जम्मु में ही बसता है ऐसा सुना था उनसे। बचपन की सुनी उन कहानियों में से सिर्फ़ इतना याद था कि जम्मु में एक रघुनाथ का मंदिर है जिसके बाहर या नीचे उनके मामा की कैंटीन है या दुकान है(पता नहीं) और उनका सरनेम मनचंदा है। बस इतनी ही जानकारी के साथ हम उन्हें उस अनदेखे परिवार को अनजाने शहर में ढूंढने निकले। मन में ये भी उपापोह चल रही थी कि हम उनसे कभी मिले नहीं। उनमें से एक मामा जो शायद कश्मीर में रहते थे और साड़ियों की दुकान चलाते थे वो कभी बम्बई आये थे देखने की क्या बम्बई में दुकान खोली जा सकती है, जब कट्टरवादियों ने हिन्दुओं को कश्मीर से खदेड़ा था तब हम अपनी ससुराल में रहते थे तो उनसे मिलना न हो सका था।

खैर हॉटेल में सामान रख हम पहले रघुनाथ का मंदिर ढूंढने निकले वो तो आसानी से मिल गया काफ़ी प्रसिद्ध मंदिर है फ़िर हमने ढूंढना शुरु किया मंनचदा, कई दुकानों में पूछा कोई नहीं जानता था। मोबाइल से बम्बई अपने छोटे भाई को फ़ोन लगाने की कौशिश की, वो बरसों पहले हमारे पिता के साथ माता के मंदिर गया था, पर कश्मीर में तब सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए मोबाइल काम न करते थे, सिर्फ़ एस टी डी बूथ से फ़ोन कर सकते थे, वो भी न लगा। दरअसल रघुनाथ मंदिर का जो चित्र हमने अपनी कल्पना में खींचा था ये उससे बिल्कुल अलग था। दो तीन बार आतंकवादी हमले होने के बाद मंदिर की सुरक्षा बढ़ा दी गयी थी और उसके नक्शे में कुछ फ़ेर बदल कर दी गयी थी।

पूछ्ते पाछ्ते किसी ने बताया कि मंदिर में जाने का एक रास्ता पीछे से भी है सोचा ये भी आजमां लें। काफ़ी लंबा रास्ता पार कर जब हम उस दरवाजे पर पहुंचे तो महिला संतरी खड़ी थी, भारी चैकिंग होती थी। उसके सवालों का क्या जवाब देते कि किससे मिलना है। किसी तरह अंदर पहुंच ही गये। बायें हाथ को मुड़ते ही एक लंबा सा गलियारा दिखा जिसके अंत में कैंटीन नुमा कमरा दिख रहा था। हिचकिचाते से कदमों से हमने वो गलियारा पार किया। शुक्र है उस समय वंहा कोई ग्राहक नहीं था। कांउटर पर बैठे आदमी को हमने धीरे से प्रश्नीली आवाज में पूछा
"मंनचदा?",
उसने आश्चर्य से भवें ऊपर उठाईं, हमने झिकझिकते हुए कहा

धड़कने हमारी राजधानी से भी तेज दौड़ रही थीं कि पता नहीं क्या कहें कहीं मनचंदा नहीं हुए तो, अपनी निराशा के बारे में हम सोचना भी नहीं चाहते थे। अचानक उस व्यक्ती के चहेरे पर मुस्कान खेल गयी हालांकि आश्चर्य अभी भी बना हुआ था। हमारा परिचय पाते पाते उन्होंने हमें अपने अंक में ले लिया और आखें बरबस भर आईं। पता चला वो हमारे पिता के बीच वाले मामा थे। बातों का दौर शुरु हुआ, हमने अपने पिता के ननिहाल का ब्यौरा अब ठीक से सुनना शुरु किया। इतने में उन्होंने किसी को फ़ोन किया और जल्द ही एक 35/40 के आस पास का व्यक्ती आ गया। पता चला वो हमारे पिता का ममेरा भाई है (बड़े मामा का लड़का) और हमें घर लिवा लाने के लिए उनकी माता जी का विशेष आग्रह है। मना करने का तो सवाल ही न था।

हम अपने पिता के सबसे बड़े मामा के घर पहुंचे। मामा जी तो अब नहीं थे पर मामी जी ने हमारा स्वागत किया, उनकी उस नन्द की पोती का जिन्हें उन्हों ने कभी देखा नहीं था जो उनके शादी कर के आने से पहले परलोक सिधार चुकी थीं। मेरे पिता के मामा के पोते और उनके बच्चे और हम अजीब सुखद मिलन था, सब एक दूसरे को जिन्दगी में पहली बार मिल रहे थे। मामी जी (जिन्हें अब सब दादी कह रहे थे), पतोहू बहुएं, बच्चे इतने खुश थे हमें देख कर की हम ब्यां नहीं कर सकते। मामी जी की पोती जो दंसवी की परिक्षा में बैठ्ने वाली थी बुआ बुआ कर के हमसे ऐसे बातें कर रही थी जैसे घर के आंगन में फ़ुदकती गौरया। मामी जी ने अपनी उम्र की मजबूरी को दरकिनार करते हुए दूसरे दिन हमें सब रिशतेदारों से मिलाया ये सफ़र उनके लिए इतना आसान न था। पर सब रिशतेदार ऐसे खुश थे और हैरान थे जैसे हम हैरी पॉटर की किताब में से निकल आये हों।

हम देख सकते थे कि इन सब के स्नेह में बिभोर होता देख मेरे पिता कितना तृप्त महसूस कर रहे होगें और मानो हमसे कह रहे हों देखा मैं न कहता था मेरे ननिहाल जैसा कोई नहीं । हाँ डैडी आप की ननिहाल जैसा सच में किसी का ननिहाल नहीं हो सकता। कभी कभी गाजर मीठी भी होती है, सिर्फ़ उसके पीछे भागिए मत रुक कर खा कर भी देख लिजिए।

December 27, 2007

पन्नालाल

आठ साल पहले घर से बाहर जाते हुए एक 17 /18 बरस का मासूम सा नौजवान गैरेज में बैठा दिखाई दिया। हमें देखते ही बड़ी तत्परता के साथ गेट खोलने आगे बढ़ लिया। अक्सर हमारे चौकीदार के मित्रगण उससे मिलने आते ही रहते थे और चौकीदार की ऐसे कामों में मदद भी करते रहते हैं । हम जल्दी में थे कोई ध्यान नहीं दिया। शाम को लौटे तो उसी नौजवान को एक शर्मीले से अभिवादन के साथ गेट खोलते पाया। पूछने पर पता चला वो नया चौकीदार नियुक्त हुआ है।

नाम है पन्नालाल देखने में सुन्दर, पतला पर स्वस्थ बदन का,अभी मसें भी न भीगी थीं। हमारे और ज्यादा पूछ्ने पर डरते डरते बताया -गांव झरोनिया, जिल्हा इलहाबाद, दसंवी फ़ैल, पिता किसान, चार भाई। इससे ज्यादा कुछ बताता तब तक हमारी सोसायटी का दूसरा चौकिदार उसे हमारी प्रश्नावली से बचा कर ले गया। दूसरे चौकीदार को हम कुछ कह न पाए, कैसे कहते, उनकी उम्र होगी लगभग पचास पचपन की, पूरा नाम तो हम भी भूल चुके हैं उन्हें हम बुलाते हैं तिवारी जी, पता चला वो यू पी से हैं और एम ए पास हैं हिन्दी में । गांव में कोई नौकरी का जुगाड़ नही हो सका तो शहर चले आये और कोई नौकरी न मिली तो चौकीदारी ही कर ली, इस बहाने किराए का मकान तो नहीं लेना पड़ेगा। अब दोनों पंप रूम में खाना बनाते हैं और वहीं गैरेज में सो लेते हैं। शुरुवात में आज से आठ साल पहले दोनों की पगार 1000 रुपये प्रति माह थी अब बड़ कर 3000 रुपये प्रति माह है।

हमने जब सुना कि तिवारी जी एम ए पास है और चौकीदारी कर रहे हैं तो मन रो उठा। हमने उनको सुझाया कि वो दूसरी जगह कोई और नौकरी क्युं नहीं तलाश करते, पर उनका कहना था कि हिन्दी को कौन पूछता है और उनके पास कोई अनुभव भी नहीं था और फ़िर दूसरी नौकरी में किराए पर खर्च कर जितना पैसा बचा पायेंगे अब भी उतना ही बचाते हैं। हमने सुझाया कि सारा दिन यूं ही ऊंधते रहने से अच्छा है वो कुछ बच्चों की ट्युशन ले लें। उनके पास कोई तर्क नहीं था हमारी बात काटने का, इस लिए देखते हैं कह कर टाल गये। उनकी ड्युटी लगती थी रात की लिहाजा वो दिन में सोते हुए नजर आते थे, पर लोगों को ये भी शिकायत थी कि वो रात को भी घोड़े बेच कर सोते हैं। एम ए पास होने के बावजूद अगर उन्हें कोई बाहर का काम दे दिया जाए तो उन्हें पिस्सु पड़ जाते थे। बाहर का काम जैसे पानी, बिजली का बिल भरना, सबके टेलिफ़ोन के, बिजली के बिल जमा कर एक साथ भर कर आना, सोसायटी के बैंक के काम निपटाने। बम्बई की दौड़ती भागती जिन्दगी में इन सब कामों के लिए हम लोग चौकीदारों पर काफ़ी निर्भर करते हैं।

इसके विपरीत पन्नालाल जो पहले बड़ा शर्मीला सा बच्चा लगता था अब काफ़ी कारगर सिद्ध हो रहा था। बाहर के काम वो चुटकियों में समझ जाता था और बड़ी मुस्तेदी से करता था। धीरे धीरे वो कई ग्रहणियों का मुंहलगा पसंदीदा चौकीदार बन गया। और क्युं न होता वो इतना महनती जो था , लोगों की सब्जी, ब्रेड, इत्यादी खरीदने से लेकर शाम को बच्चे संभालने तक का काम वो करता था। हर मर्ज की दवा है पन्नालाल्। आप को घर में काम करने वाली बाई चाहिए पन्नालाल को बोल दिजिए, शाम तक कई बाइयां आप के घर पहुंच जांएगी, ऊंची बिल्डिंगों में अक्सर मधुमक्खी के छ्त्ते की परेशानी आये दिन होती रहती है, आप के घर मधुमक्खी ने छ्त्ता बना लिया है, पर आप उसे जला कर अपनी दिवार का पेंट खराब नहीं करना चाहते अभी अभी तो करवाया था, पन्नालाल के पास उसका भी हल है-बेगॉन स्प्रे, आप के पास 200 गमले हैं जिनकी गुढ़ाई, निराई करनी है, पन्नालाल हाजिर है। आप के घर का दरवाजा हवा से बंद हो गया है और आप बाहर अटक गये हैं पन्नालाल को बुलाइए। कारें धोते तो अक्सर चौकीदार हर सोसायटी में आप को मिल जाएगें पर आश्चर्य तो हमें तब हुआ जब सात साल पहले हम अपनी कार को मन चाहे ढंग से पार्किंग में लगा नहीं पा रहे थे, और पन्नालाल आया और बोला मैं लगा देता हूँ। उसके आत्मविश्वास को देखते हुए हम न नहीं कर पाए न पूछ पाए गाड़ी चलानी आती है क्या? उसने गाड़ी इतनी बड़िया पार्क की हम पूछे बिना रह नहीं पाए। बड़ी लापरवाह नम्रता के साथ उसने बताया कि वो गांव में जीप चलाया करता था। उस समय तो ठीक से समझे नहीं पर बाद में पता चला कि वो वहां जीप से सवारियां ढोने का काम किया करता था । उसके बाद कई दिनों तक हमें इस बात का प्रलोभन रहता था कि गाड़ी पार्क करने के लिए उसे दे दें। वो भी खुशी खुशी करता था पर इस प्रलोभन पर काबू पाया ये सुच कर कि हम कब ठीक से पार्क करना सीखेंगे। लेकिन टायर पंक्चर हो जाए तो उसे बदलने की जिम्मेदारी अभी भी उसी की है।

अजी ये तो कुछ भी नहीं, अवाक तो हम उस दिन रह गये थे जब पन्नालाल एक दिन हमारे पास आया और बोला

"मैने सुना है आप दूसरा मकान खरीदना चाहती हैं?
हमने हंस कर कहा।
हां है कोई नजर में?
बोला " हां "


उस दिन हमें पता चला कि वो इस्टेट एजेंसी का साइड बिसनेस करता है। हमारे घर के पास तीन चार इंजीरियंग कॉलेज हैं और कई छात्र बाहर से पढ़ने आते हैं। इन कॉलेजों में होस्टेल नहीं हैं और छात्र कॉलेज के पास किराए के मकान तलाश करते है तो पन्नालाल और उसके गांव से आये और साथियों ने मिल कर बिन दुकान के ये धंधा शुरु कर लिया। जून के महीने में ये चौकीदार सारा सारा दिन गेट के पास खड़े पाए जाएंगे, छात्रों के झुंड जो दलाली देने से बचना चाह्ते हैं इन लोगों से पूछ्ते हैं कोई मकान मिलेगा और ये कम दलाली में उन्हें मकान दिला देते हैं। इसी तरह से किस सोसायटी में कौन सा मकान बिक रहा है सब खबर रहती है। अक्सर जिस बिल्डिंग में दलाल की दुकान होती है उसका चौकीदार भी इनका दोस्त होता है जैसे ही कोई ग्राहक दलाल की दुकान से निकला ये उसे घेर घार कर कम दलाली में मकान दिलाने की कौशिश करते है।

पन्नालाल अपने हिसाब का बड़ा पक्का है, बिना पैसे लिए वो कोई काम नहीं करता, अगर उसकी लाई हुई बाई आपने रक्खी तो वो बाई से कमीशन लेता है काम दिलाने का, अगर आपने उसे नीचे से गुजरते ठेले वाले को रोकने को कहा तो जो कुछ भी खरीदो उसे नजराना देना पड़ेगा। है तो दसवीं फ़ैल पर अग्रेजी काफ़ी समझ लेता है। ऊपर लिखे सब काम वो पैसे ले कर ही करता है।

पन्नालाल की एक आदत हमें बहुत खराब लगती है वो अपने काम से काम नहीं रखता, बिल्डिंग में सबके घर में क्या चल रहा है उसे पूरी जानकारी रहती है। एक दिन जब हमारी डाक आयी तो हम उसके नाम का खत अपने पते पर देख कर चौंक गये। पता लगा कि हमारा इन्सयौरेंस का काम जो एंजेट देखता है उस पर पन्नालाल की कई दिन से नजर थी। एक दिन जिज्ञासावश उसने उस एंजेट को नीचे घेर लिया पूछ्ने के लिए वो क्युं आता है? हमारा एंजेट भी इलाहाबादी, तो साहब उसने इसको इंस्यौरेंस के बारे में जानकारी दी। अब इनके मन में भी आया की एक पॉलिसी ली जाए, समस्या सिर्फ़ मकान का पता किसका दें वो थी सो हमसे पूछे बिना हमारे पते पर पॉलिसी ले ली गयी, सोसायटी के सेक्रेटरी के पते पर बैंक एकाउंट खोला गया। गुस्सा तो हमें बहुत आया लेकिन उसकी अपनी जिन्दगी संवारने की ललक को देखते हुए हमारा गुस्सा उड़नछू हो गया। ये एक आदमी था जो अपने सपने साकार करने के लिए किसी बाधा को बीच में न आने देता था और एक बार मन में कुछ निश्चय कर लिया तो फ़ुर्ती से आगे बड़ता था।

एक दिन हम रात को लौटे तो देखा ये महाराज आराम से कुर्सी पर पांव फ़ैलाए गैरेज में टी वी देख रहे हैं। टी वी-- कई प्रश्न दिमाग में कौंध गये। पूछ्ने पर पता चला उसने खुद खरीदा है शायद सेकेंड हैंड, ब्लैक एंड वाइट, पर केबल कनेक्शन कहां से लिया, ये गुत्थी मैं आज तक नहीं सुलझा पायी। उसकी सिर्फ़ एक ही समस्या है। हमारी बिल्डिंग में एक रिटार्यड अकंल जी रहते हैं जिनका तीन चौथाई दिन नीचे घूमते या गैरेज में बैठ कर गुजरता है। अब जब से पन्नालाल टी वी लाया है तब से उन्होने घर पर टी वी देखना ही छोड़ दिया है। अब पन्नालाल को भी 25 साल की उम्र में जबरन आसाराम जी को सुनना पड़ता है और रामदेव बाबा को देखना पड़ता है।

दिन की ड्युटी में उसे ये नौकरी से अलग दूसरे धंधे करने में बड़ी तकलीफ़ हो रही थी, दिन भर सोसायटी में बंध जाए तो मकान कैसे दिखाए। उन दिनों हम खजानची थे सो हमको आकर बोला देखिए ये मेरे साथ बहुत ज्यातती है, मुझे ही क्यों दिन की ड्युटी पर रक्खा जाता है हमेशा। हमने समझाया कि तिवारी जी बाहर के काम करने में सक्षम नहीं इस लिए। पर ये तो उसकी काबलियत की सजा जैसे था। बात हमें जंच गयी और नियम बना कि आधा महीना वो रात की ड्युटी करेगा और आधा महीना तिवारी जी। तिवारी जी को बात पसंद न आयी क्युं कि दिन में काम ज्यादा रहता है पर आखिरकार मानना ही पड़ा। वो उसके साइड बिसनेस की चुगली भी नहीं लगा सकते थे क्योंकि हम खुद इस बात को बढ़ावा देते थे कि बिना नौकरी से बेइमानी किए अपने खाली वक्त में तुम ऐसा कुछ जुगाड़ करना चाहो तो करो। सोच रही हूँ इसे हिन्दी में पढ़ने के लिए धीरुभाई अंबानी की जीवन गाथा दे दूँ। सपने थोड़े और बड़े हो जाएगें।

इसी पन्नालाल का एक और पहलू भी है उसके इस चालाक, तेज तरार रूप से एकदम अलग। उसका बड़ा भाई बाजू वाली बिल्डिंग में चौकीदार है, वो तिवारी जी जैसा, लेकिन पन्नालाल उसकी बहुत इज्जत करता है, करनी भी चाहिए। पर इन्तहा ये है कि पन्नालाल को अपनी पत्नी का नाम तक नहीं पता और एल आई सी पॉलिसीस पर नॉमिनेशन में बड़े भाई का नाम लिखाया है। बहुत समझाया पर ये तो लक्ष्मण है न्। ये है आज का युवा, भारत के भविष्य का एक हिस्सा

December 22, 2007

घायल हुई सोने की चिड़िया

घायल हुई सोने की चिड़िया

कुछ दिन पहले संजीत जी ने अपनी पोस्ट पर "आज़ादी एक्स्प्रेस" के बारे में जानकारी दी थी। जहां एक तरफ़ ये जानकर दिल गर्वित हुआ कि हम एक स्वतंत्रता सेनानी के बेटे के दोस्त हैं, वहीं उनकी पोस्ट पर लॉर्ड मेकॉले के खत को पढ़ कर चौंक गये। इतिहास की किताबें बचपन में हमने भी पढ़ीं थीं , जानते थे कि भारत में मौजूदा शिक्षा प्रणाली का सूत्रधार करने वाला वही था। उसका कारण जो हमने पढ़ा था वो ये कि तब अग्रेजों को कई कर्लकों की जरुरत थी जो अंग्रेजी जानते हों और इस कमी को पूरा करने के इरादे से मौजूदा प्रणाली लायी गयी थी। ये भी कहा जाता है कि लॉर्ड मेकॉले के अनुसार संस्कृत और अरबी भाषाएं अंग्रेजी जितनी समृद्ध नहीं थीं। पर ये खत तो बता रहा था कि यहां तो माजरा ही कुछ और था। जैसे ही हमने अखबार में पढ़ा कि ये आजादी एक्सप्रेस 17-22 दिसंबर के बीच बम्बई में रहेगी हमने जाने का मन बना लिया, हांलाकी वी टी स्टेशन जहां ये गाड़ी रुकने वाली थी हमारे घर से बहुत दूर है।



हमारे पतिदेव ने भी साथ चलने में रुचि दिखायी। स्वाभाविक था, उनके पिता जी भारतीय सेना में लेफ़टिनेंट कर्नल रह चुके थे और अगर मेरे पति के जीवन में मुझसे मिलने की दुर्घटना न हुई होती तो आज वो भी भारतीय सेना का हिस्सा होते। ये निश्चय किया गया कि 21 को ईद की छुट्टी है तो उस दिन चलेगें। पतिदेव के ऑफ़िस में छुट्टी नहीं थी पर किसी तरह कौशिश करेगें, ये सोच 21 की शाम का प्रोग्राम बनाया गया।



21 की शाम हम किसी तरह लोकल ट्रेन में लदे फ़दे वी टी पहुंच गये। शाम के साढ़े पाँच बज चुके थे, हमारे पतिदेव को अचानक कांदिवली (बम्बई के दूसरे कोने में) जाना पड़ गया। सो हमने एक पुलिस वाले को पूछा "भैया, आजादी एक्सप्रेस कहां खड़ी है?" हमें लगा आदतन पुलिस वाला बोलेगा आगे पूछो। हैरानी तब हुई जब उसने बड़ी तत्परता के साथ बोला प्लेट्फ़ार्म नंबर 13, वहां पहुंच कर तो हमारी हैरानी का ठिकाना ही न रहा जब हमने देखा कि जितनी लंबी ट्रेन थी उतनी ही लंबी लाइन थी लोगों की अंदर जाने के लिए। हम लाइन में जाके खड़े हो गये, सोचा कि चलो इतनी लंबी लाइन है तो हमारे पतिदेव को उतना वक्त मिल जाएगा कि वो भी पहुंच जाएं।



हमारे पीछे खड़ा आदमी बहुत बातुनी था। कोई सुने या न सुने वो अपनी बात बोले जा रहा था-



पहले कहा था 22 दिसंबर तक ट्रेन रुकेगी अब कह रहे हैं आज लास्ट दिन है, और वो भी सिर्फ़ साढ़े छ बजे तक। जितने लोग घुस सके वो देख पायेगें बाकियों को वापस लौटना पड़ेगा। अब आज छुट्टी का दिन है भीड़ तो ज्यादा होगी ही न, इन्हें कम से कम रात के 8 बजे तक खुला रखना चाहिए, लोग इतनी दूर दूर से आते हैं"।



न चाहते हुए भी हम उसकी बातों पर ध्यान देने को मजबूर हो गये, घड़ी पर नजर डाली, पौने छ बज चुके थे। पतिदेव को फ़ोन लगाया तो पता चला कि वो तो अभी वी टी से बहुत दूर हैं। आखों से लाइन नापी, लाइन की रफ़्तार नापी और समझ गये कि अपना नंबर नहीं आने वाला। इतने एक बहुत ही सभ्रांत सा व्यक्ती आकर लाइन की लंबाई नाप गया। उसके गले में पहचान पत्र तो था लेकिन वो इतनी तेजी से हमारे सामने से निकल गया कि हम उसका नाम न पढ़ सके। अपने मनोरथ के विफ़ल होने की आशंका से मन ही मन कुढ़ रहे थे, खुद को ही कोस रहे थे कि थोड़ा जल्दी पहुंच जाते तो यहां तक आना अकारथ न जाता, पर जल्दी कैसे आ जाते जी वो मिश्रा जी( हमारे एक परिचित) जो आकर बैठ गये थे और उठने का नाम ही न ले रहे थे।



निराश हो कर हमने वहीं लाइन में खड़े खड़े संजीत को फ़ोन लगाया बताने के लिए कि भैया हम तो तुम्हारी बतायी ये आजादी एक्सप्रेस न देख सके। संजीत ने कहा आप फाये जी से मिलिए और हमारा नाम लिजिए। लो जी अब हम लाइन छोड़ ये मिस्टर फाये को कहां ढूढेगें, उन्होंने कहा अच्छा मैं उनको फ़ोन कर देता हूं । हमने कहा ठीक है लेकिन मन में सोच रहे थे "अरे भले आदमी मिस्टर फाये इतनी भीड़ में हमें पहचानेगें कैसे, तुमने भी हमें देखा नहीं तो मिस्टर फाये को क्या बताओगे?" खैर, तब तक लाइन कुछ और आगे रेंग गयी। हम नजरें इधर उधर दौड़ा रहे थे कि कोई अधिकारी दीख जाए तो शायद मिस्टर फाये का अता पता मिल जाए। तभी हमें कुछ दूरी पर वही सभ्रांत व्यक्ति खड़ा दिखायी दिया।



लाइन में अपनी जगह सुरक्षित कर हम लाइन छोड़ उसी व्यक्ती की तरफ़ बढ़ लिए और पूछा " मिस्टर फाये?"



उस व्यक्ती ने कहा, " अनिता कुमार?"



हमारे होठों पर मुस्कान तैर गयी। हम समझ गये संजीत जी ने अपना काम कर दिया। हमने कहा " जी, संजीत का…।"



वो बोले हां अभी अभी फ़ोन आया, आप मनोवैज्ञानिक हैं?



हमने हां में सिर हिलाते हुए सोचा लो उससे क्या फ़र्क पड़ता है।



और आप लॉर्ड मेकॉले का खत देखना चाह्ती हैं?



जी



आप अकेली हैं?



जी



ठीक है तब आइए



पूरी ट्रेन की लंबाई पार कर बारहवें डब्बे से हम पहले डब्बे के पास पहुचें जहां से ट्रेन के अंदर घुसना था। रास्ते में उन्होंने बताया कि उनके परिवार में से भी किन्ही दो महिलाओं ने मनोविज्ञान में एम फ़िल कर रखी है, हमने धीरे से बताया कि हम भी एम फ़िल हैं तब तक हम प्रवेश द्वार तक पहुंच गये। कुछ क्षण वो असंमजस में खड़े रहे फ़िर बोले कि आप अदंर जाइए और मजे से देखिए।



पहली बार हमने किसी अधिकारी को अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए इतना संकोच महसूस करते देखा। उनके चेहरे के भाव बता रहे थे कि हमें लाइन में बीच में घुसने की छूट दे कर वो खुद को गुनहगार मह्सूस कर रहे थे और लाइन में लगी जनता से आखों ही आखों में माफ़ी मांग रहे हो। हमें भी इतनी शर्म महसूस हुई, मन हुआ कि दौड़ कर वापस अपनी जगह पर जा कर खड़े हो जाए पर घड़ी की सुइयां आगे खिसक रही थीं और हम ये अवसर खोना नहीं चाहते थे। बाद में हमें पता चला कि उन्हों ने लाइन में खड़े सभी व्यक्तियों को अंदर जाने की इजाजत दे दी और किसी को निराश हो कर वापस नहीं लौटना पड़ा।



ट्रेन के अंदर एक अलग ही दुनिया थी। एक अभूतपूर्व अनुभव्। लॉर्ड मेकॉले का खत खुद अपनी आखों से देखा। एक एक शब्द पढ़ कर एह्सास हो रहा था कि ये तो बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक था। देखिए कैसे उसने हमारा देश जो सोने की चिड़िया कहलाता था उसे घायल करने का प्लान बनाया- "दमित देश"॥ये शब्द पढ़ कर आज भी मन खौल उठा, कितना अचूक निशाना था उसका, अगर अंग्रेजी को इतना महत्व देने का षड्यंत्र न रचा होता तो आज कितने ही मेधावी युवा हीन भावना से ग्रस्त न होते और बेरोजगार न होते। अग्रेजों के दमन की तस्वीरें जहां मन को अवसाद से भर गयीं वहीं भारतीयों की वीरता की तस्वीरे देख सीना गर्व से चौड़ा हो गया। गांधी जी की कुछ बहुत दुर्लभ तस्वीरें भी देखने को मिलीं और आजादी के बाद भारत के प्रगती की ओर अग्रसर होते कदम देख बहुत अच्छा लगा। अपने तिरंगे का इतिहास भी मुझे वही पता चला।



इतने बड़िया आयोजन के लिए सरकार की तारीफ़ करनी पड़ेगी। खास कर बच्चों के लिए ये यात्रा काफ़ी ज्ञानवर्धक रही। मुझे तो लगता है कि सरकार को सब स्कूल के बच्चों को ये दिखाना अनिवार्य कर देना चाहिए। अंत में सबसे महत्त्वपूर्ण धन्यवाद देना है संजीत को, जिसकी मदद के बिना ये अनुभव लेना हमारे लिए मुमकिन न था। आज पता चला ब्लोगिंग सिर्फ़ शौकिया ही सही पर इसके भी कई फ़ायदे हैं। समीर जी जब बम्बई आये थे तो उन्होंने कहा था कि ब्लोगिंग का एक फ़ायदा ये है कि आप किसी भी शहर में चले जाइए आप को कोई न कोई ब्लोगर मित्र मिल जाएगा और शहर उतना अन्जाना नहीं लगेगा। यहां तो ब्लोगर मित्र ने हमें हमारे ही शहर में मदद दिला दी, क्या बात है। मेरे ख्याल से अब अंग्रेजी में भी ब्लोग लिखना शुरु कर दूं ताकि दोस्तों का दायरा और बढ़ जाए। संजीत जी थैंक्यु , और मैं मिस्टर फाये कैसे भूल सकती हूं। एक घंटे बाद जब हम ट्रेन से बाहर निकले तो प्लेट्फ़ार्म सूना पड़ा था। हम फाये जी का धन्यवाद करना चाह्ते थे पर वो कहीं नजर नहीं आये। संजीत से उनका लोकल नंबर लिया लेकिन लगा नहीं सो मेसेज छोड़ दिया और पतिदेव की कार की ओर बढ़ लिए जो अब तक पहुच गये थे।

December 05, 2007

राहुल गांधी की शादी

राहुल गांधी की शादी


शाम को घूमने निकले तो नये मॉल की तरफ़ निकल लिये। कित्ता बड़ा मॉल था जी, पांच मंजिला और कित्ती सारी दुकानें, अपने अपने साजो सामान से लैस, सजी धजी जगमग जगमग करती। अंदर घुसने को भी तीन तीन दरवाजे, दरवाजों पर संतरी। किसी तरह से सकुचाते सकुचाते हम सब से नजदीक के दरवाजे से अंदर घुस लिए। सतंरी ने पर्स तक खंकाल लिया, उसमें सिर्फ़ चिल्लर और कुछ मूंगफ़लियां थीं। इत्ती शर्म महसूस हुई, भला क्या सोचेगें संतरी भैया, कहां कहां से उठ के आ जाते हैं ऐसे ट्ट्पूंजीए लोग, चवन्नी , अठन्नी लिए हुए, यहां क्या मूंगफ़लियां बेचेगें। पता होता कि ये संतरी महाराज चेकिंग करने वाले हैं तो कुछ रुपये न डाल लेते पर्स में । खैर, उससे आखं चुराते हम आगे बढ़ लिए। सामने ही आलोक पुराणिक जी अपनी दुकान पर पूड़ियां छानते नजर आ गये। हमारी तो जैसे जान में जान आई, उधर ही बढ़ लिए, वैसे वो हमको नहीं जानते जी, हम उनकी पूड़ियों का ऑर्डर घर से देते हैं न जी।


आलोक जी ये बड़ी बड़ी सुनहरी पूड़ियां छान रहे थे, बिल्कुल वैसी जैसी बचपन में हमने करोल बाग के स्टेंडर्ड की दुकान की खाई थीं । पूड़ी और आलू की सब्जी इतनी तेज कि मुंह से सी सी न निकले तो नाम बदल दो। देखते ही मुहँ में पानी आ गया। हम इंतजार करने लगे कि कोई आके हमसे ऑर्डर ले ले। बगल वाली टेबल पर ही राहुल गांधी बैठा था, बड़ा अनमना सा, मुंह लटकाए।


आलोक जी ने नौकर से हमारा ऑर्डर लेने को कह अपनी चिरपरिचित मुस्कान बखेरते हुए राहुल को पूछा क्युं गुरु आज ये मुर्दनी कैसी। सब खैरियत तो है। अपने भी कान उधर लग गये(आदत से मजबूर, क्या करें)। पहले तो राहुल ने ना नुकुर की फ़िर एक लंबी सांस लेकर बोले


पता है यार मेरी उमर कित्ती हो गयी है?


आलोक जी थोड़ा अचकचाए, फ़िर बोले, हां तुम निक्कर पहन कर आते थे मेरी दुकान पर पूड़ियां खाने राजीव जी के साथ, ह्म्म्म्म्म, तो अब 32/33 के तो होगे। क्युं?नहीं यार मुझे लगता है मेरी शादी कभी न होगी.


अरे! ऐसा क्युं लगता है, अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है, अटल जी को देखो, अभी तक नहीं फ़सें।


मजाक मत करो यार, मैं सीरियस हूं।


अरे तुम इतने सुन्दर गबरू जवान हो, एक क्या हजार मिलेगीं।


नहीं यार मुझे लगता है मुझे तो कोई इम्पोर्ट करनी पड़ेगी, सोचता हूं एक इटली का चक्कर लगा ही आऊं।


अब आलोक जी थोड़ा झुंझुलाए। छालना नौकर के हवाले करते हुए उठ पड़े और राहुल की टेबल पर आते हुए बोले ऐसी क्या बात है, यहां भी एक से बढ़ कर एक हैं कभी हमारी मीडिया की क्लास में आओ, ये लो हमारा लुच्चई चश्मा, इससे सब बराबर दिखता है। रखो, रखो मेरे पास और भी हैं।


राहुल अब भी ठंड़े से बैठे रहे, चश्मा जरूर उन्हों ने जेब के हवाले कर दिया, बोले कोई फ़ायदा नहीं।


आलोक जी जरा चिंतित होते हुए बोले भई बात क्या है, कुछ बताओगे भी , आखिर दोस्त हैं तुम्हारे।


यार क्या बताऊं लड़कियां तो यहां भी एक से बढ़ कर एक हैं पर कौन मां बाप मेरी मां से पंगा लेगा?


क्युं सोनिया जी नहीं चाह्तीं कि तुम्हारी शादी हो?


वो तो कुछ नहीं कहतीं पर हमारी पार्टी वाले ही मेरी जान के दुश्मन हैं। आश्चर्य से आलोक जी ने पूछा वो कैसे?


यार तुम्हें दीन दुनिया की कोई खबर है नहीं, कभी दुकान से बाहर जाकर देखा है? जगह जगह पोस्टर लगे हैं


<pसोनिया>" गांधी को बहुमत दो"


"सोनिया गांधी को बहुमत दो"

अब बताओ कौन देगा अपनी बेटी मुझे।


गंभीर मुद्रा धारण करते हुए आलोक जी ने हुंकार भरी, "हुम्म! ये तो सोचने वाली बात है"।


तब तक राहुल दो प्लेट पूड़ियां चट कर चुके थे, पता नहीं चल रहा था कि आसूं तरकारी के तीखेपन के कारण हैं या अपनी हालत पर रो रहे हैं।


इतने में बाहर से युनुस जी की दुकान से मधुर सगींत के स्वर पूरे मॉल में फ़ैलने लगे, "खोया खोया चांद, खुला आस्मान्…।" आलोक जी की आखें चमक उठीं। राहुल के कान में फ़ुस्फ़ुसाते हुए बोले एक आइडिया है, तुम ममता बहन को कोनटेकट करो, बंगालने भी एक से बढ़ कर एक होती हैं अब सोहा अली खान को ही ले लो, खोया खोया चांद देखी कि नहीं , भैया, चांद तो वो थी, खोये खोये से हम थे, क्या लगी है। और फ़िर बंगाल में तो अभी ऐसे पोस्टर भी नहीं लगे जैसे तुम बता रहे हो। वैसे भी बहां कब कौन लेफ़्ट है और कौन राइट, पता ही नहीं चलता, तुम्हारा मामला फ़िट …


राहुल ने हैरानी से पूछा पर तुम तो राखी सावंत और मल्लिका शेरावत…॥ उसकी बात काटते हुए आलोक जी बोले अजी वो सब बहुत पुरानी बाते हो गयीं आज कल तो सोहा, विध्या बालन और प्रियंका का जमाना है।


अब वेटर बिल ले कर आ गया तो हम को उठना पड़ा, पता नहीं राहुल ने खोया खोया चांद देखी की नहीं।

December 01, 2007

एक यादगार शाम- भाग 2

एक यादगार शाम- भाग 2

हम अभी तक पहली ब्लोगर्स मीट का आनंद आत्मसात कर रहे थे कि विकास का मेल आ गया कि एक बार फ़िर सब लोग मिल रहे हैं शुक्रवार को शाम सात बजे के करीब और आज तो गानों का दौर चलने वाला है, आप आइये। हम अभी सोच ही रहे थे कि जायें या नहीं कि मनीष जी का स म स आ गया। तो लगभग शुक्रवार के दो बजे के करीब हमने जाने का मन बना लिया। पिछ्ली बार हम देख आये थे कि वहां आस पास खाने पीने की सुविधा कुछ खास नहीं थी (शायद महिला होने के नाते इन सब बातों पर ध्यान ज्यादा जाता है) और हम घर से जा रहे थे इस लिए सोचा कि कुछ ले जाया जाये। पिछ्ली बार बाजार से कुछ ले गये थे तो प्रमोद जी (जो अभी अभी पीलिया की बिमारी से उठे हैं) ने कुछ नहीं लिया था।

हम वहां पौने आठ बजे पहुंचे, गीतों की महफ़िल तो सवा 6 बजे से जम चुकी थी। प्रमोद जी भी उसी समय पहुंचे और अनिल जी देर से आये। हमारे आने से गीतों के श्रंखला कुछ समय के लिए टूटी। विकास को आज भी मेजबान का रोल निभाना था, सो बड़े धड़ल्ले से उसे चाय का इंतजाम करने को कहा गया। बिचारा पता नहीं कहां कहां घूम कर चाय का जुगाड़ किया और आधे पौने घंटे बाद दो चाय से भरी पेप्सी की बोतलें और नाशता लेकर हाजिर हुआ। पर चाय पीते ही महफ़िल में फ़िर जोश आ गया और अब एक कुर्सी सिंहासन की तरह बीचम बीच रखी गयी, विमल जी सिंहासनासीन हुए और प्रसिध कवि नीरज जी(अलीगढ़ वाले) की आवाज और शैली की नकल करते हुए गाना शुरु किया। आप सुने तो लगे नहीं कि नीरज जी नहीं गा रहें। उसके बाद तो महफ़िल ने राजधानी की रफ़्तार पकड़ ली। गाने में और टेबल को तबले की तरह बजाने में विमल जी का साथ दे रहे थे विकास। क्या गला पाया है दोनों ने, बहुत ही सुरीले और बुलंद आवाज, सुनने का मजा आ गया।
विकास को शिकायत थी कि हमने अपनी पोस्ट में उनकी फ़ोटो नहीं डाली, अरे जब हमारे केमरे की कमान उन्होंने संभाली थी पिछ्ली बार तो उनकी फ़ोटो मेरे केमरे में कैसे आ सकती थी। खैर, इस बार अपने केमरे से रिकॉरडिंग हम खुद कर रहे थे इस लिए हम उनकी शिकायत दूर कर देते हैं। वैसे उस दिन की कई तस्वीरें युनुस जी के ब्लोग पर हाजिर हैं.

जैसे जैसे वक्त आगे खिसका प्रमोद जी, मनीष जी, अनिल जी सब ने तान छेड़ी, न गाने वालों में सिर्फ़ शायद सिर्फ़ हम थे। हमारे लिए सब कुछ नया था। इनके छात्र जीवन के गीत, अवधी गीत, उत्तर प्रदेश और बिहार की मिट्टी से जुड़े गीत, लेकिन सब इतने मधुर कि कब हमारे चलने का वक्त हो चला पता ही नहीं चला।



सवा नौ बजे से हमने घड़ी देखना शुरु कर दिया था। महफ़िल में रंग में भंग डालते हुए हमने 9.30 बजे जोर दिया कि सब गीतों को छोड़ खाना खाएं। हमने वहां खाना नहीं खाया, पर जब घर पर खाना खाने लगे तो इतने शर्मिन्दा हुए कि अरे हम तो सब्जी में नमक डालना ही भूल गये थे और किसी ने एक शब्द नहीं कहा इस बारे में और इतनी बेस्वाद सब्जी ऐसे ही खा ली। उस पे तुर्रा ये की युनुस जी ने तो खाने की तारीफ़ भी कर दी। हम यहां उन सब से क्षमा मांग रहे हैं कि आप को इतना बेस्वाद खाना झेलना पड़ा।

दस बजते न बजते हम वहां से निकल पड़े पिछली बार की तरह्। रास्ते में हमें सिन्ड्रेला की कहानी याद आ रही थी और हंसी आ रही थी कि उसकी डेड लाइन बारह बजे की थी और हमारी 10 बजे की हो गयी। हम अपने आप को सिन्ड्रेला बिल्कुल नहीं समझ रहे जी। कुल मिला कर दूसरी शाम पहली शाम से भी ज्यादा आनंदमय रही। एक बार फ़िर मनीष जी का धन्यवाद देना चाहूंगी जिनकी बदौलत ये दो शामें बहुत खुशगवार रहीं। आशिष महर्षि और हर्ष नहीं आ पाये इस बाद का उन्हें भी अफ़सोस है और हमें भी, खैर अगली बार। अब अगली बम्बई ब्लोगर्स मीट हमारे घर पर रखने का इरादा बना रहे हैं , नीरज जी आप को भी बहुत याद किया दोनों दिन हमने





वीडियो देख कर आप मनीष जी और युनुस जी किस आनंद से सुन रहे हैं इसका अंदाजा लगा सकते हैं।

हम तहे दिल से सागरचंद जी का शक्रिया अदा करते हैं जिनकी तकनीकी सहायता के बिना ये पोस्ट बनाना हमारे लिए संभव न था।

November 29, 2007

एक यादगार शाम

एक यादगार शाम

कोई डेढ़ हफ़्ता पहले अपने मेल बोक्स में युनुस जी का नाम देख कर हम चौंक गए। चौकें इसलिए कि 6 महीने पहले जब नया नया ब्लोग जगत में घूमना शुरु किया था तो युनुस जी के ब्लोग पर अक्सर गये थे( भला इस देश में गानों का रसिया कौन नहीं?), कई बार टिप्पणी भी छोड़ी पर कभी पता नहीं चल पाया कि उन्होंने हमारी टिप्पणी देखी भी कि नहीं। हम थे नये नये एकदम अनाड़ी, तकनीकी ज्ञान न के बराबर होने के कारण उनके ब्लोग पर टिप्पणी छोड़ना हमारे लिए नाकों चने चबाने के जैसा होता था। हम नियमित रुप से वहां जा कर गानों का मजा लूट आते थे। बाद में जब हमने लिखना शुरु कर दिया तो युनुस जी को कभी हमारे ब्लोग पर आते नहीं देखा इस लिए लगा कि शायद उनको हमारे बारे में जानकारी नहीं होगी।
खैर उनके मेल से पता चला कि मनीष जी बम्बई आ रहे हैं और उनको बम्बई के ब्लोगरों के साथ मिलवाने क जिम्मा युनुस जी ने अपने ऊपर ले लिया है। मनीष के आने की खबर हमें पहले से थी, उन्होंने कई दिन पहले मेल करके बता दिया था और हमने मिलने का वादा भी किया था। पर युनुस जी का मेल से पता चला कि और ब्लोगर भाइयों से भी इस बहाने मिलने का मौका मिल सकता है तो हम बहुत खुश हो गये। युनुस जी को तुरंत अपनी सहमती जताते हुए हमने अपना फोन नबंर भेज दिया।

मनीष जी शायद 26 को बम्बई पहुंच गये, और हमारी बदकिस्मती ये कि हमारा नेट क्नेक्शन टूटा हुआ था 23 से और अभी तक ठीक नहीं हुआ था। 27 को हमने विकास से बात की, फ़िर मनीष जी और युनुस जी से बात हुई, पता चला कि उसी शाम मिलने का प्रोग्राम बन रहा है, शाम को 7 बजे। हमारे ये कहने पर कि हम पहुंच जायेंगे, मनीष को थोड़ा अचरज हुआ (और शायद खुशी भी)। कहे बिना रह न सका कि मै तो छोटे शहर से हूँ, जहां महिलाएं रात में अकेले निकलने में हिचकिचाती हैं, अब हम सोच रहे थे कि जायें या न जायें पर सब से मिलने का लालच ज्यादा हावी हो गया और हमने कहा तुम चिन्ता मत करो हम आयेगें। अब उसे क्या बताते कि कॉलेज के जमाने में हमारी मेनेज्मैंट क्लास ही शाम को 8 बजे खत्म होती थी और हम रात को दस बजे घर पहुंचते थे। शुक्र है कि आज भी बम्बई में महिलाओं के लिए रात में सफ़र करना सुरक्षित ही है काफ़ी हद्द तक, हालांकी धीरे धीरे हालात बिगड़ रहे हैं।

शाम को पौने आठ के करीब हम वहां पहुचें और बाकी के लोग भी उसी समय पहुंचे, सब ट्रेफ़िक की बदौलत्। युनुस जी, अभय जी, विमल जी, प्रमोद जी एक साथ आये और अनिल जी थोड़ी देर के बाद आये और हम अलग दिशा से आये थे। मनीष और विकास तो पहले से ही मौजूद थे।


मनीष के कमरे में महफ़िल सजी। हमारे हिसाब से असली मेजबान तो विकास था(पिछ्ले चार साल से वहां रह रहा है तो आई आई टी उसका घर हुआ कि नहीं), मनीष और हम सब तो मेहमान, इस लिए और कुछ अपनी उम्र का फ़ायदा उठाते हुए हमने विकास को मेजबानी के काम पर लगा दिया। चेहरे देखते ही मैं युनुस जी, अनिल जी और मनीष को पहचान सकी, बाकी किसी के चेहरे मैंने देखे हुए नहीं थे। बड़े शर्म के साथ कहना पड़ रहा है कि प्रमोद जी और विमल जी के ब्लोग भी मैने कभी देखे नहीं थे, तो उनको पहचानने का सवाल ही नहीं उठता था। आशा करती हूं कि प्रमोद जी और विमल जी माफ़ कर देगें।


परिचय का दौर शुरु हुआ। प्रमोद जी से मनीष और विकास काफ़ी डरे डरे से थे, उनका व्यक्तितव है ही ऐसा रौबीला, हम भी उनसे सभंल कर बोल रहे थे। अभय जी बता रहे थे कि किसी जमाने में वो और भी रौबीले लगते थे। मनीष के साथ हमारा जो पहले पत्र व्यवहार हुआ था उस के बल पर हमने सोचा था कि वो कॉल सेंटर में काम करते हैं, पर असलियत एकदम अलग थी, वो तो सरकारी नौकरी में कार्यरत हैं। वो बहुत ही स्नेही, शिष्टाचारी, और इन्टेलिजेंट हैं, मुझे उनसे मिल कर बहुत अच्छा लगा। युनुस जी एकदम दोस्ताना तरीके से मिले। उन्होंने माना कि हमारी टिप्पणियां उन्होंने देखी थीं। अपनी व्यस्त जीवन शैली का हवाला दिया। हमारे मन में जो छ्वी थी कि शायद वो रिर्सव्ड नेचर के हैं वो बिल्कुल बदल गयी। उन्होंने ऐसा लगने नहीं दिया कि पहली बार मिल रहे हैं।

अभय जी का ब्लोग मैंने देखा हुआ था, और उनकी कानपुर यात्रा का विवरण पढ़ा हुआ था और अनिल जी अक्सर मेरे ब्लोग पर आ जाते हैं तो उनका ब्लोग भी मैंने देखा हुआ था। विमल जी से हम पहली बार मिल रहे थे। परिचय के दौर में सब इतनी विनम्रता से अपने बारे में बता रहे थे कि आप को लगे जैसे ये कुछ करते ही नहीं जब कि सब के सब अपने अपने क्षेत्र के महारथी हैं। जैसे अभय जी को जब हमने पूछा आप क्या करते हैं तो बोले मुंशीगिरी करता हूँ मजदूर आदमी हूँ, हा हा हा। पता चला वो टी वी के सिरियल लिखते हैं, यानी के क्रिएटिव राइटर।

हर कोई ब्लोग पर कैसे आया से लेकर तकनीकी तकलीफ़ों तक बातों का दौर चला। विकास ने जिम्मा उठाया कि वो तकनीकी ज्ञान देने के लिए एक ब्लोग बनायेगा। काम भी उसने बड़ी तेजी से किया, आज जब नेट कनेक्शन ठीक हुआ तो हमने देखा उसने ब्लोग बुद्धी नाम से ये चिठठा शुरु कर दिया है।

हम तो सोच कर आये थे कि युनुस और मनीष जी हो और गाने की बातें न हो ये हो नहीं सकता और हो सकता है कि किसी दुर्लभ गाने की कोई चर्चा हो पर बाकी बातों में गपियाते वक्त कैसे उड़ गया कि पता ही नहीं चला। साढ़े नौ बजे हमने उठना चाहा तो प्रमोद जी और युनुस जी बोले अरे अभी तो ठीक से जान पहचान भी नहीं हुई, हम फ़िर बैठ गये। हमारा भी मन कहां था जाने के लिए, सिर्फ़ दूर जाना है इस ख्याल से उठ रहे थे। खैर अब सबको चाय की तलब लगी थी सो हम लोग चाय की तलाश में कमरे से निकल लिए। करते करते दस बज गये और अब हम ने सबसे विदा ली, पर उसके पहले विमल जी और उनका साथ देते अभय जी और अनिल जी का गाना सुना। सुन कर मजा आ गया। लगा महफ़िल तो अब जमने लगी है पर हमें जाना पड़ेगा। सब इतने स्नेह से मिले कि इन तीन घंटों में बड़े अपने से लगने लगे। हमारा वापस आने का बिल्कुल मन नहीं कर रहा था, पर मजबूरी थी ।
अभय जी की पोस्ट से पता चला कि हम झील के किनारे चांदनी रात का लुत्फ़ उठाने से वंचित रह गये। आशा करते हैं कि ऐसा मौका फ़िर आयेगा जब हम सब फ़िर एक बार फ़िर मिलेगें। एक बात जो हमने पूछी नहीं पर हमारे मन में घुमड़ रही है कि बम्बई में और भी महिला ब्लोगर्स तो होगीं हिन्दी में लिखने वाली, अगर उनसे भी संपर्क हो पाए तो कितना अच्छा हो।

मनीष जी धन्यवाद, आप की बदौलत मुझे दूसरे ब्लोगर भाइयों से मिलने का मौका मिला, फ़िर कब आ रहे हैं? बाकी सब ने हमसे वादा किया है कि घर पर आयेगें, हमारा घर दूर होने के बावजूद, आशा करते हैं कि वो अपना वादा भूल नहीं जायेगें।

November 19, 2007

तो

तो

मेरी दिवारों में बड़ी बड़ी खिड़कियां है,
दिखती है उनसे आस पास फ़ैली,
बच्चों की किलकारियां,
अलसायी दुपहरिया की गप्पें,
सीती,पिरोती, पापड़ बेलती कलाइयों की खनकती चूड़ियां,
दिवारों के इस पार पसरा पड़ा है अजगरी सन्नाटा,
बड़ी बड़ी अलमारियां, किताबें ही किताबें,
दोस्त हैं मेरी, पक्की दोस्त,
सवाल पूछूं तो जवाब देती हैं
कभी कभी खुद भी पूछ लेती हैं,
कहानी, कविता सुनाती हैं ,
दुनिया की सैर कराती हैं,
मेरे संग मस्ती की तान छेड़तीं तो……।

नाक तक भरे रेल के डिब्बे,
गाती, बुनती मैथी धनिया साफ़ करती
ये अनजानी रोज की हमसफ़र मुसाफ़िरनें,
उनकी चुहलबाजी में शरीक होने को मचलता मेरा मन,
आस पास फ़ैले हजारों नाम गूंजते हैं
इन कानों में,
कोई मेरा भी नाम पुकारे तो………

दोस्ती की पहल करने को
बैठने की जगह देखड़ी हो जाती हूँ,
वो थैंक्यु कह बैठ जाती है
और खो जाती है अपनी रंग रलियों में
बिना नजर घुमाए
मैं बगल में दबी किताब को ,
किताब मुझको देखती है,
अगर किताब कुछ बोल पड़ी तो………


November 15, 2007

साधारण सी

साधारण सी

शब्द कैसा गाली के जैसे तीर सा जा लगता है। आजकल असाधारण का चलन है। आप जो भी हो, जो भी करे असाधारण होना चाहिए। वो दिन लद गये जब लोग किस्मत का लिखा मान साधारण सी जिन्दगी जी लेते थे। आज आप अगर महत्त्वकांशी नहीं हैं, हर क्षेत्र में अव्वल नही हैं और साधारण सी जिन्दगी जीना भी चाहें तो लोग आपको हिकारत की नजर से देखेंगे।

मैने अक्सर माओं को बड़े दीन भाव से स्कूल की टीचर से कहते सुना है," मेरा बच्चा बहुत ही जहीन है, बस इच्छा शक्ती की कमी है, जिस दिन इसमें कुछ कर दिखाने की इच्छा जाग गयी, ये सबसे आगे होगा"?, टीचर अगर सह्रदय है तो बड़े सब्र से मां के मुख से बच्चे के गुणगाण सुनेगी और मानेगी कि उसका बच्चा साधारण है, और कुछ नहीं तो सुशील तो है ही, और हाँ कुछ बच्चे अपनी प्रतिभा देर से दिखाते है…लेट बलूमर्स । न जाने कितनी बार टीचरों ने ये बातें सुनी होगीं।

टीचर होने के नाते मैने भी कितनी मांओं को ढाढस बंधाया। अपना टीचर होने का फ़र्ज निभा रही थी, इसमें बोलने वाली कौन सी बात है जी? लेकिन एक दिन ये पहाड़ मुझ पर भी टूटा, मैं खुद ऐसी मांओं की पक्ती में खड़ी थी और इन सब बातों की निर्थरकता को जानते हुए भी दोहरा रही थी किसी और टीचर के सामने। वो टीचर शायद सिर्फ़ इस लिए मेरी बातों को काट नही रही थी क्योंकि मैं प्रोफ़्शन के हिसाब से उसी बिरादरी की थी। मेरा उन टीचरों को सलाम्।
मुझ पर ये पहाड़ तब टूटा जब मेरा लड़का-आदित्य(मेरी इकलौती संतान) बारहवीं में थाउसके नाजुक कधों पर मां-बाप, नाना-नानी, दादी और जाने कितनों के सपनों का भार था, जो उससे उठाए नहीं उठ रहा थासमाजिक मुल्यों के चलते उसके दिमाग में ये बात घर कर गयी थी कि सब अच्छे लड़के सांइस लेते हैं, चाहे चले या चलेसांइस ले तो ली पर अब वो रसहीन लग रही थी और बेकार का बोझ लग रही थीबहुत समझाया कि देखो बेटा तुम्हारे मां-बाप भी तो आर्ट्स ले कर अच्छा खासा जीवनयापन कर रहे हैं, सांइस छोड़ दो पर नहीं जी, उसकी इच्छा को आदर देते हुए जैसे तैसे साइंस कॉलेज में दाखिला करा दियाऔर तब शुरु हुआ फ़ेल होने का चक्कर, एक के बाद एक तीन साल निकल गयेये वहीं के वहीं

फ़ैल होने का सिर्फ़ यही कारण नही था कि वो रसहीन लग रही थी, दूसरा कारण ये था कि जनाब को बहुत ही अनुशासन प्रिय स्कूल से नया नया छुट्कारा मिला था और नये नये दोस्त, दोस्तनियां, लेक्चर बंक करने के चान्स, कॉलेज के वार्षिक उत्सव में हिरोगिरी करने के और दोस्तों से वाहवाही लूटने के मौके।

एक महत्त्वकांशी महिला जिसने कभी हार का मुंह न देखा हो अपने जीवनकाल में वो आज असहाय सी अपने जीवन के सबसे अहम भाग में हार पर हार झेल रही थी। खुद अपनी ही नजरों में गिरती हुई,सेल्फ़-एस्टीम चकनाचूर, हर पल हजार मौतें मरती हुई, मैं सबसे कन्नी काटने लगी। स्टाफ़-रूम से उठ कर लायब्रेरी में किताबों के बीच ज्यादा वक्त गुजारती हुई, डरती थी कोई मेरे लड़के के बारे में न पूछ ले। यार दोस्तों, रिश्ते नाते दारों से भी दूर रहने लगी, मानों खुद को काल कोठरी की सजा दे दी हो। मेरी कॉलेज के जमाने की सहेलियां छूट गयीं, जिन्हें मैं बता न सकी कि मै क्युं न मिलने के बहाने ढूढती हूँ। दूसरों के बच्चों को डाक्टर, इंजीनियर की डिग्रीयों की तरफ़ अग्रसर होते देख मेरे मन पर अमावस की रात का ढेरा होता था। तबियत खराब रहने लगी। तीन साल गुजर गये इसी तरह्। लगता था जमीन फ़ट जाए और मै उसमें समा जाऊँ।

जब तीसरे साल भी वो फ़िर फ़ैल हो गया तो मैंने जोर डाला कि अब वो पढ़ाई छोड़ किसी काम धंधे की तलाश करे और साथ साथ में डिस्टेंस मोड से ग्रेजुएशन करें। इन तीन सालों में अगर कुछ अच्छा हुआ था तो सिर्फ़ इतना कि उसने एन आई आई टी से तीन साल का कंप्युटर प्रोग्रामिंग का डिप्लोमा कर लिया था। अब तक वो भी अंदर से काफ़ी टूट चुका था। उसने फ़ौरन मेरा प्रस्ताव मान लिया बिना किसी हील हुज्जत के। अब कोई अफ़सरी तो मिलनी नहीं थी। छोटे से दफ़्तर में प्रोग्रामर की नौकरी मिली और शुरु हुआ मालिक द्वारा उसके शोषण का दौर्। जिन्दगी की पाठ्शाला में दाखिल हो गया था। डिस्टेंस मोड के तहत आर्ट्स में दाखिला ले लिया था।

ये वो स्टेज थी जहां हम ने मान लिया था कि मनोविज्ञान की किताबों में जो पढ़ा था कि अगर हम चाहें तो किसी को भी प्रसीडेंट बना दें या भिखारी बना देँ(वाट्सन), सिर्फ़ कोरी किताबी बातें हैं। न चाह्ते हुए भी किस्मत पर विश्वास होने लगा था। खैर, हमने बिल्कुल पूछना बंद कर दिया कि अब पढ़ रहे हो या नहीं। जनाब पास होने लगे।

एक दिन हमने सुझाया कि तुम कॉल सेंटर में क्युं नहीं ट्राई करते, सुना है वहां ग्रेजुएशन की जरुरत नहीं पड़ती। शोषण तो सब जगह ही है। जाने में उसे हिचकिचाहट थी क्युं कि उसका भी आत्मविश्वास मार खाया हुआ था। हम समझते थे, एक बार फ़िर खुद के जख्म छुपा कर उसका मनोबल बढ़ाने में जुट गये। आखिरकार उसने कॉल सेंटर में पदादर्पण किया और अच्छी अंग्रेजी, कॉलेज के जमाने में उत्सव आयोजकों की मंडली में रह कर सीखी नेतागिरी, प्रंबधक बनने के गुण, मिलनसारिता और भी कई गुणों के कारण कई पदाने आगे बढ़ गया और आज प्रोजेक्ट मैनेजर की पोस्ट पर कार्यरत है। हर पदान पर कम से कम 300-400 लोगों के साथ कड़ी प्रतिस्पर्धा रहती थी, नया पद पाने के लिए। साथ साथ में ग्रेजुएशन भी खत्म कर एम बी ए करना शुरु कर दिया जो अब खत्म होने के कगार पर है।

उसका आत्मविश्वास कई गुना बड़ कर लौट आया है और मैने एक बार फ़िर जीना शुरु कर दिया है। उसकी मानसिक परिपक्वता अक्सर मुझे हैरत में डाल देती है, और अब मुझे उसके भविष्य की कोई चिन्ता नहीं। आज मुझे उस पर नाज है। मैं फ़िर से स्टाफ़ रूम में बैठ्ने लगी हूँ और फ़्री पिरीयड में गुनगुनाती हूँ, मेरी सहेलियाँ अकसर इस गुनगुनाने में मेरा साथ देती हैं। मैं भूल गयी हूँ कि कभी ये ही मेरी तरफ़ सहानुभूती की नजर से देखती थी मानों मुझ में ही कोई कमी हो।

ओह! पोस्ट इतनी लंबी हो गयी कि फ़ुरसतिया जी को भी मात दे गयी,समीर जी सॉरी, सॉरी के डेढ़ घंटे में शायद फ़िट न हो तो छोड़ दिजिएगा या स्पीड रीडींग्…। मैं सिर्फ़ ये कहने की कौशिश कर रही हूं कि हर मां बाप अपने बच्चे को स्टार के रूप में देखना चाह्ते हैं और बच्चा स्टार बन भी सकता है अगर मां बाप या टीचर उसके रास्ते में न आये तो। मेरी कहानी का सुखद अंत तभी हुआ जब मैने हार के निश्च्य किया कि मैं अपने साधारण से बेटे को असाधारण बनाने की कौशिश नहीं करुंगी क्योंकि मै खुद बहुत साधारण सी हूँ। अब हम दोनों साधारण बन कर बहुत खुश हैं…॥:)

November 12, 2007

एक रंगीन शाम

एक रंगीन शाम

कई महीनों से सत्यदेव त्रिपाठी जी के संदेश आ रहे थे मोबाइल पर कि हम 'बतरस' में आमंत्रित हैं, पर हमारे घर से उनके घर की दूरी हमारी जाने की इच्छा पर घड़ों पानी डाल देती थी। इतनी बार बुलाए जाने पर भी हमारे न जाने पर त्रिपाठी जी ने कभी बुरा नहीं माना।
ओह! पहले आप को त्रिपाठी जी के बारे में तो बता दें। सत्यदेव त्रिपाठी जी एस एन डी टी युनिवर्सटी में हिन्दी विभाग में रीडर की पोस्ट पर कार्यरत हैं। लगभग हमारी ही उम्र के और हमारे जितना ही अध्यापन का अनुभव्। नाटकों में उनकी विशेष रुची है। उनकी कविता कहानियां तो छ्पती ही रहती हैं। हम अलग अलग संस्थानों में काम करते हैं इस लिए कभी कभार ही मिलना होता है। उन के यहां हर महीने के पहले इतवार को एक साहित्यिक गोष्टी का आयोजन होता है जिसमें इस शहर के कई साहित्यकार भाग लेते हैं। गोष्टी का विषय पहले से निश्चित किया रहता है( जैसे दिसंबर में होने वाले आयोजन में हिन्दी में दलित साहित्य पर चर्चा होगी)। इस गोष्टी समूह का नाम रखा है 'बतरस'।

हां तो इस बार नवंबर के पहले इतवार को होने वाली बतरस में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया था। कवि सम्मेलन- हम खुद को रोक नहीं पाये और किसी तरह से घर की बाहर की एड्जस्ट्मेंट्स करते हुए पहुंच ही गये। ढेर सारे कवि, एक से बड़ कर एक रचनाएं , सोच रहे थे कि साथ में टेप रिकार्डर लाए होते तो कितना अच्छा होता।

खैर, कवि सम्मेलन खत्म हुआ, त्रिपाठी जी का धन्यवाद कर बाहर निकलने लगे तो त्रिपाठी जी बोले 'अरे जैन साहब अनिता जी वाशी की तरफ़ जा रही हैं' और आखों में मुस्कान लिए बोले 'और कार ले कर आयी हैं' जैन साहब जिन्हें हमने अभी अभी सुना था और एक और श्रोता हमारे साथ हो लिए। जैन साहब ने अपनी कविताओं का छोटा सा सकंलन हमें भेंट किया। दिवाली की व्यस्ताओं के चलते वो कार में ही पड़ा रहा । आज हम उसे पढ़ रहे हैं ।

सोचा जो कविताएं हमें अच्छी लग रही हैं वो आप को भी सुनाएं।

गाय

हम तुम्हारा दूध पीते हैं
मांस जो खाते हैं
तुम्हारी हड्डियों पसलियों केबेल्ट, बटन जो बनाते हैं
तुम्हारी नस नस को नोचते हैं
हम अपनी खातिर
तुम्हारे तन का हर तरह उपयोग जो करते हैं
तो भी हम इन्सानों को इस बात का बहुत दु:ख है
कि तुमको काटते समय तुम्हारी चीख का कोई उपयोग नहीं हो पाता
(पंखकटा मेघदूत-1968 से)

एक और देखिये-
तेरे भाग में नहीं लिखा है ,एक वक्त का खाना,
राजा चुन कर तुम्हीं ने भेजा, तुम्हीं भरो हर्जाना,

अख्बार
हर जगह इश्तहार था हर आदमी बाजार था
कितना आसान था खरीदना निष्ठा, प्रतिभा,विद्रोह, जीवन
एक मँजे हुए दलाल की भूमिका में
अख्बार था।

एक थोड़ी लंबी सी है, सुना दें थोड़ी छोटी कर के?
सरकार
सरकार के पास हजारों ट्न कागज है
सरकार के पास लाखों टन झूठ है
इससे भी ज्यादा बुरी खबर है
सरकार समाजवादियों से नहीं डरती।
पढ़े-लिखे लोगों की सेहत का बहुत ख्याल रखती है सरकार
कितना उन्हें हवाई जहाजों में उड़ाया जाये
कितना उन्हें दूरदर्शन पर दिखलाया जाये
कितने नुक्क्ड़ नाट्क और कितना मुक्तनाद
उनसे करवाया जाये
किससे लिख्वाया जाये इतिहास, बनवायी जाये पेंटिग्स
और किसके लिए खोले जायें राज्यसभा के दरवाजे
कोई कंजूसी नहीं करती है हमारी सरकार
खूब ठोंक बजा कर तय करती है उनका कद
और लगाती है वाजिब दाम………।


कैसी लगीं…॥:)

November 06, 2007

दिवाली की रात

दिवाली के उपलक्ष्य में दिवाली की शुभ कामनाओं के साथ अपनी एक पुरानी रचना फ़िर से प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसमें एक राजस्थानी परंपरा को नमन किया गया है। ये कविता लिखी गयी थी जब मैं ने मकान बदला था



दिवाली की रात



कहने को चार दिवारें अपनी थीं



काले चूने से पुती हुईं



पहली दिवाली की शाम



न दिया न बाती



न जान न पहचान


ठंडा चुल्हा, घर में बिखरा सामान,



अन्जान बाजारों में ढूढंती पूजा का सामान,



दुकानों की जगमग, पटाखों का शोर,



सलीके से सजी दियों की पक्तियां,



मेरे घर से ज्यादा मेरे मन में अंधेरा भर रही थीं,



अकेलेपन की ठिठुरन, बोझिल कदम,



लौटते हुए माँ लक्ष्मी से बार बार माफ़ी मांग रही थी,



प्राथना कर रही थी,



इस ठंडे अंधेरे घर की तरफ़ नजर डाले बिना न निकल जाना



लौटी तो देखा, दरवाजे पर दो सुन्दर से दिये



अपनी पीली पीली आभा फ़ैला रहे हैं,



दो सुन्दर सी कन्याएं सजी संवरी



हाथों में दियों की थाली लिए खड़ी



मुस्कुरा कर बोलीं



ऑटी दिवाली मुबारक


आश्चर्यचकित मैं,



हंस कर बोलीं



हमारे यहां रिवाज है



अपना घर रौशन करने से पहले



पड़ौसियों का घर जगमगाओ



शत शत प्रणाम उन पूर्वजों को



जिन्हों ने ये रस्मों रिवाज बनाए



शत शत प्रणाम उन बहुओं को



जिन्हों ने ये रिवाज खुले मन से अपनाए

















November 05, 2007

बातें

बातें

बचपन में(तीसरी/चौथी क्लास में रहे होगें) हमने एक दिन अपनी मां से शिकायत की कि क्लास में कोई हमसे बात नहीं करता, मां ने पहले तो अनसुना कर दिया पर जब हमने दो तीन बार कहा तो एक दिन मां पता लगाने हमारे स्कूल चली आयीं। टीचर को क्लास के बाहर बुला कर पूछा कि भई बात क्या है, टीचर मां को क्लास के अंदर ले आयीं , हम बेन्च पर खड़े थे, सजा मिली हुई थी, टीचर बोली देखो, इत्ता बात करती है कि हमें सजा देनी पड़ी , बेन्च पर खड़ी है और फ़िर भी बतिया रही है।

बातों का सिलसिला आज तक जारी है। वो कहते है न कि अगर मन पंसद काम मिल जाए तो जिंदगी भर काम नहीं करना पड़ता, तो हमारा भी यही हाल्। क्लास में बातें करते हैं और उसके लिए पैसा भी पाते हैं। पर घर पर बहुत परेशानी हो जाती है। ले दे कर घर में हैं कुल तीन प्राणी, हमें मिला कर, उसमें भी बेटा जी तो अपने दोस्त यारों के साथ मस्त, तो बाकी बचे पतिदेव। वो बहुत मितभाषी हैं। ज्ञानी जन कह गये कि धीर गंभीर व्यक्तितव का रौब पड़ता है, और जो हर समय बक बक करे, उसे लोग बेवकूफ़ समझते हैं ( याद है न शोले की बसंती)।

पता नहीं लोग क्युं बाते करने के इतने खिलाफ़ हैं जी। किसी भी दफ़्तर में चले जाइए, अगर बॉस अपने आधीन लोगों को गप्पे लगाते देख लेगा तो आग बबुला हो जाएगा, उन्हें कामचोर समझेगा। खास कर महिलाएं गप्पबाजी के लिए बहुत बदनाम रहती हैं (जब की तथ्य ये है कि मर्द भी उतनी गप्पबाजी करते है जितनी औरतें)। पुराने जमाने में तो फ़ैक्टरियों, दफ़्तरों में दिवारों पर तख्तियां लगी होती थी,'कीप साइलेंस'।

लेकिन हम तो कहते है जी बातें बड़े काम की चीज होती हैं। बातें करने के लिए भी तो अक्ल चाहिए होती है, सवेंदना चाहिए होती है। मन में कुछ कुलबुलाए नहीं तो आप क्या बोलेगे। और मान लिजिए कि दुनिया के सारे लोग सिर्फ़ काम पड़ने पर ही बोले तो क्या ये साहित्य बनता था, ये गीत , ये कविताएं बनती थी? कितने अलौकिक आनंद से वंचित रह जाते हम सब्। पर नहीं जी , हमारे तर्क सुनता कौन है्।

लेकिन आज मैं अपने आप को बहुत हल्का मह्सूस कर रही हूँ, क्यों , क्या मैं ने बाते करना कम कर दिया? ना जी ना , वो तो हो ही नही सकता न, हाँ आज मेरे हाथ एक ऐसी साइनटिफ़िक रिपोर्ट लगी है जिसे पढ़ कर मन बाग बाग हो गया। इस रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में मनोवैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया गया था और पाया कि अगर दिन में कम से कम 10 मिनट लोगों के साथ बतियाने में गुजारे जाएं तो आप की यादाश्त और दूसरी मानसिक शक्तियां/मानसिक सामर्थ्य बड़ता है। इस प्रयोग में ये भी पाया गया
कि समाजिक अकेलेपन का हमारी भावनात्मक सेहद पर बुरा असर पड़ता है और मानसिक शक्तियों का हॉस होता है।

एक और भी ऐसी ही स्ट्डी याद आ रही है जो इसराइल के एक अनाथाश्रम में की गई थी कई साल पहले। उस अनाथाश्रम के साथ ही मेंटली रिटार्डेड(मानसिक रूप से कमजोर) महिलाओं का वार्ड था। एक बार उस अनाथाश्रम में अनाथ बच्चों की संख्या इतनी बड़ गयी कि आया कम पड़ने लगीं, एक आया के जिम्मे बीस बीस बच्चे, वो भी नवजात्। ये निर्णय लिया गया कि कुछ बच्चों को मेंटली रिटार्डेड महिलाओं की देख रेख में छोड़ दिया जाए। समाज में इस निर्णय की घोर निन्दा हुई, पर प्रबंधको के पास कोई और चारा न था। साल के अंत में सब बच्चों का मुआयना किया गया। जो अनाथाश्रम में थे उनका भी और जो इन महिलाओं के साथ थे उनका भी। परिणामों ने सबको आश्चर्यचकित कर दिया। जो बच्चे महिलाओं की देख रेख में थे उनका मानसिक और भावनात्मक विकास अनाथाश्रम में आयाओं के साथ पल रहे बच्चों से ज्यादा था। पता है क्युं? क्युं कि जो बच्चे मेंटली रिटार्डेड महिलाओं के पास रखे गये थे वो महिलाएं उन बच्चो के साथ बतियाती रह्ती थीं, क्या बतियाती थी ये महत्वपूर्ण नहीं था।वो बच्चे उनके लिए खिलौनों के जैसे थे, हर कोई खेलने को ललायित्। बच्चे हर समय कुछ न कुछ समझने की कौशिश कर रहे होते थे। जब कि आया चुपचाप आकर दूध की बोतलें बच्चों के मुहँ से लगाती जाती थी और बच्चे सारा दिन अपने बिस्तर पर पड़े पड़े सर के ऊपर घूमते पखें को देखा करते थे। जब तक वो रोएं न कोई गोद में उठाने वाला नहीं न कोई बात करने वाला। उठाए भी गये तो कुछ क्षण के लिए।

कुछ महीने का बच्चा भी अगर कमरे में अकेला पड़ा हो और आप उस कमरे में जाए तो तेजी से हाथ पांव चलाने लगता है, मानों कहता हो मुझसे बात करो, और अगर आप बात करें चाहे कितनी भी बेतुकी, या कुछ बेतुकी सी आवाजें निकालें गले से, तो वो और जोर से हाथ पांव चलाने लगता है, चेहरे पर मुस्कान खिल उठती है, आखों मे चमक, और वो भी कुछ आवाजें निकालने लगता है मानों आपसे बाते कर रहा हो। ये खेल बच्चे के मानसिक विकास में तेजी लाते हैं। हमें जहां तक हो सके बच्चों को चाहे वो कोई भी उम्र के हों बतियाने से नहीं रोकना चाहिए।

रोकना तो बड़ों को भी नही चाहिए, क्या तुम सुनोगे मेरी बातें ?…॥:)

फ़िरंगी के पन्नों से

फ़िरंगी के पन्नों से

अपने वादे के अनुसार मैं यहां फ़िंरगी उपन्यास का एक पन्ना प्रस्तुत करने जा रही हूँ,
आशा है आप को पंसद आयेगा।सगुन अनुकूल होने पर दूसरों का भविष्य केवल मौत था, दल में चाहे कितने ही लोग हों, या वक्त कितना ही लगे। अगर दिखाई पड़े कि राह्गीर संख्या में ज्यादा हैं तो सूझ-बूझवाला सरदार मकड़ी के उस जाले पर हाथ रखेगा और खामोशी से एक धागा खींचेगा। सुबह होते न होते ही दिखाई पड़ेगा कि नुक्क्ड़ पर राह्गीरों का एक और दस्ता अपने ढ़ंग से चल रहा है। धीरे-धीरे उनके साथ मेल मिलाप होगा। दल भारी होता चला जाएगा।तीन दिन बाद शायद और बड़ा हो जाए। तब किसी एक रात को धरती का
सन्नाटा तोड़ते हुए,'झिरनी' उठेगी,"साह्ब खान, तंबाकू खाओ"।

आइए आपका परिचय रामासी भाषा से कराया जाए।जो सच्चा 'बोरा' या 'औला' है, यानी जो पक्का ठग है, वह बोली सुन कर बता देगा कि सामने वाला दल ठ्गों क है या 'बिट्टो' या 'कुज' अर्थात ठ्ग नहीं। सच्चा ठ्ग अपरिचित ठग को देख्ते ही बोल पड़ेगा'औले खान, सलाम' या 'औले भाई, राम-राम'।बोरो की भाषा में उनके विचरने के क्षेत्र का नाम है' 'बाग' या 'फ़ूल'। रुमालधारी खूनी का नाम है 'भूकोत' या 'भुरतोत'। जहां खून किया जाता है उस जगह का नाम 'ब्याल' या 'बिल'। जाल में मनपंसद मंडली फ़ंसते ही एक आदमी चला जाएगा 'बिल' पसंद करने, जाने से पहले दलपति कहेगा 'जा कटोरी मांज ला', यानी 'जगह तय कर आओ। उसका नाम है 'बिलहो'। उसकी रिपोर्ट मिलते ही वहां से दौड़ेगा 'लुगहा' यानी कब्र खोदने वाला।
कब्र दो किस्म की हो सकती है- कुरवा यानी चौकोर या गव्वा यानी गोलाकार्।उधर दस या बीस मील दूर कब्र बन रही है इधर शिकारी और शिकार में दोस्ती हो जाती है। अगर मंडली अमीर दिखे तो 'सोथा' फ़ौरन उनके इर्द गिर्द मँडराने लगेंगे। उनका काम है मंडली को दोस्ती के दायरे में लाना, उनमें विश्वास जगाना, उनका मनौरंजन करना।
'चँदूरा' या दक्ष ठग उनकी इस काम में सहायता करते हैं। मुसाफ़िर अगर 'लट्कनिया' यानी गरीब है तो भी खातिर में कोई कमी नहीं। 'खारुओ' के पास ,यानी ठगों के गिरोह के लिए राह पर सभी बराबर्। वहाँ 'फ़ाँक' यानी बदाम की चीजों की भी काफ़ी कद्र है।इधर जितना वक्त गुजरता जाएगा, एक दल उतना पिछड़ता जाएगा। वे हैं 'तिलहाई' या गुप्तचर्। पीछे 'डानकी' यानी पुलिस वाले लगे हैं कि नहीं देखने।वध-स्थान पर पहुँच कर भी वे मौके की प्रतीक्षा करेंगे। मनपंसद जगह पर वे 'थाप' बिछाएँगे, यानी तबूं गाड़ेगे। देखेंगे कि जगह 'निसार'(निरापद) है,या 'टिक्कर'(खतरनाक)?
सारी सूचनाएं लेने के बाद रात को एक दावत होगी, उसके बाद किस्सा-कहानी। दल में अगर कोई 'नौरिया' यानी नाबालिग है, तो उसे वहां से दूर भेज दिया जाएगा।'सोथा' अपने बगल में बैठे आदमी को धीमी आवाज में संदेश देगा'चुका देना' या 'थिवाई देना' यानी किसी तरह इन्हे समझा बुझा कर इन्हे बिठा दो। वे बैठ गये तो बगल में वे भी बैठ जाऐगे, दोनो ओर दो, पीछे एक और्। बीच में बटोही। किस्सा जारी है।बटोहियों की आँखों में नींद उतर आई है। ऐसे ही समय सुनाई पड़ा, कोई कह रहा था, "पान का रुमाल लाओ"मतलब रुमाल तैयार करो। उसके बाद ही दूसरा हुक्म 'तमाकू लाओ'। सोते हुए आदमी का खून करना मना है। इसलिए बटोही अगर सो रहे हों तो एक आदमी चिल्ला उठेगा,'सापँ-सापँ', वे हड़बड़ा उठ बैठेंगे और फ़िर नींद की गोद लुढ़क जाएँगे-अबकी बार हमेशा के लिए।


'मुकोत' लमहे भर में उसके गले में फ़ाँसी लगा देगा। बगल में बैठा आदमी एक धक्का देकर उसे जमीन पर गिरा देगा। उसका नाम है' चुभिया'। एक आदमी दोनों हाथ पकड़े रहेगा। उसका नाम है 'चुभोसिया'। क्या हो रहा है इसके पहले ही बटोही आखिरी सांस ले लेगा। दलपति कहेगा-'ऐ बिचाली देखो' यानी 'बाहरा' अर्थात लाशों का इंतजाम करो। देखना कोई 'जिवालु' यानी जिन्दा आदमी न रह पाए।

एक दस्ता लाशों को ढो कर कब्र कि ओर ले चलेगे, वे है 'मोजा'। एक दस्ता उनके घुटनों को तोड़ ठोड़ी से मिलाएगा, पेट और सीने पर चाकू चला काम पक्का करेगा, वे है 'कुथावा'। हाथों- हाथ हैरतअंगेज फ़ुर्ती से लमहे भर में खून के सारे निशान मिटा दिए जाँएगे। उस दस्ते को कहेंगे 'फ़ुरजाना'। देखते ही देखते कब्रों के ऊपर उनकी भोज-सभा बैठ जाएगी।
गुड़ का भोज्।

November 03, 2007

फ़िरंगी

फ़िरंगी



हाल ही में एक उपन्यास पढ़ा,"फ़िरंगी", सुरेश कांत जी ने लिखा है और 1997 में ग्रंथ अकादमी , नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ था। ये उपन्यास मैं ने दूसरी बार पढ़ा है, और उतने ही मजे से पढ़ा जैसे पहली बार पढ़ा था। आज कुछ इसी के बारे में।



उपन्यास जितना रोचक है उतना ही आखें खोलने वाला।अक्सर उपन्यासों में लेखक किसी एक या अनेक पात्रों से आरम्भ करता है और फ़िर कहानी उन्ही के जीवन की घट्नाओं के इर्द गिर्द घूमती रहती है, पर इस उपन्यास में कोई कहानी नहीं सिर्फ़ किस्से हैं पर ऐसा नहीं लगता कि कड़ी टूट गयी है।



ये किस्से उन्नीसवीं सदी के तीसरे दशक के है जब अग्रेजों का राज था,पर कंपनी राज तेजी से अपने ढलान पर था। जब भारत में रेल गाड़ियां नहीं चलती थीं और लोगों को पैदल या घोड़ों वगैरह पर एक जगह से दूसरी जगह जाना होता था। लोग कभी अकेले, दुकेले या काफ़िले बना कर सफ़र करते थे।अपना काफ़िला न हो तो किसी और दल के साथ जुड़ जाते।



यात्रा कई कई दिनों तक चलती और खतरों से खाली न होती।घर से निकला हर यात्री अपनी मंजिल तक नहीं पहुंचता, वह खो जाता है, लापता हो जाता है। खतरे तो आज भी वैसे ही बरकरार हैं, हां टाइम जरूर कम लगता है। लापता तो आज भी हो जाते है, यात्रा करते हुए क्या, घर के बाहर खेलते हुए बच्चे भी गायब हो जाते है(निठारी कौन भूल सकता है)पर ये कहानी कुछ और ही प्रकार के लापता होने की है।



उन दिनों लोगों का गुम हो जाना बिल्कुल खामोशी से दब जाता था। उनके खो जाने की राह पर कोई सुराग नहीं रह जाता था। झुंड के झुंड सिपाही लापता हो जाते थे। उत्तर भारत में तीर्थ को गया दक्षिण का बड़ा सा दल फ़िर कभी अपने गावँ न लौटता। गुम हो जाना उस समय विशाल भारत में प्रतिदिन का नियम था। एक अग्रेंज इतिहासकार ने हिसाब लगाया तो पाया हर साल 40,000 लोग गुम हो जाते थे, अपने सामान, जानवरों, अंगरक्षकोंके साथ, कुछ इस तरह कि पता ही न लगता कि उन्हें धरती खा गयी या आसमान निगल गया।



दरअसल हर किस्सा एक ठ्गी कि दास्तां है, सच्ची घट्नाएं जो इतिहास के पन्नों में कहीं दफ़न हैं।



स्लीमैन नामक एक अग्रेंज जिलाधीश पर ठगों को समझने का गहरा जनून था, सरकारी सेवा से हट जाने के बावजूद उसने ठगों कि दुनिया को गहरे पैठ कर समझा और फ़िर ठगों के राजा फ़िरंगी ठग को साधा, इतना आसान न था उस शातिर दिमाग को साधना पर स्लीमैन भी कुछ कम न थे। आखिरकार अपने काम में सफ़ल रहे पर क्या ठ्गों का नामों निशां मिटा सके, ना, वो तो बीजरक्त के रक्त जैसे फ़िर उठ खड़े हुए और आज भी मौजूद है हमारे बीच। उल्टे अब तो ख्तरा बढ़ गया है, पहले तो इन ठ्गों से खतरा सिर्फ़ यात्रा के दौरान होता था लेकिन अब तो ये बम्बई की बाहरी परिधी के पास बसी कॉलोनियों पर भी हमला करते पाए जाते हैं । पहले इनकी करतूतों की खबर किसी को
कानो कान न होती अब तो ये कच्छा बनियान गैंग के नाम से मशहूर हैं। ये ठग तब भी पूरे भारत में फ़ैले थे और आज भी पूरे देश में फ़ैले हैं। हां , इनके काम करने के तरीके अलग अलग हैं। और उसी पर आधारित है इनके प्रकार-



खूनी ठग, जो झिरनी उठाते थे, धतुरिए, तस्माठग, मेख-फ़ंसा ठग, भगिना(जो नाव में सफ़र करने वालों का शिकार करते थे),ठेंगाड़े,और भी न जाने क्या क्या।



स्लीमैन बताते हैं कि ये खूनी ठ्ग एक अलग ही भाषा बोलते थे, न तो वह हिन्दी थी, न उर्दू, अरबी-फ़ारसी, तमिल-तेलूगु, किसी भी भाषा के साथ उसका कोई मेल न था, मेखफ़ंसा और भगिना की भाषा के साथ भी नहीं, ठगों की भाषा का नाम था 'रामासी', और इनका कत्ल करने का हथियार होता था महज एक रुमाल जिसमें एक चांदी का सिक्का बंधा होता था। स्लीमैन ने रामासी सीख ली थी , इसी वजह से वो ठ्गों के राजा फ़िरंगिया को वश में कर पाए।



एक बात और जो जहन में आती है वो ये कि आदमी की प्रवत्ती नहीं बदलती, उस वक्त भी ये ठग यात्रिओं का विश्वास जीत कर अपना काम करते थे, चाहे कितना भी वक्त लगे, धैर्य इनमें खूब था, एक नंबर के ड्रामेबाज और आज भी सुनते है ट्रेनों में किसी ने चाय, कोल्ड ड्रिंक या बिस्कुट खिला कर लूट लिया। छुटपन में जब ट्रेन से सफ़र करते तो आस पास के सहयात्रियों से सहज ही मित्रता गांठ लेते, उसके लिए अपने पिता से डांट खाते, हमारी मां को भी लगता कि इसमें हर्ज ही क्या है, पर हमारे पिता से अगर सहयात्री पूछ बैठ्ता भाईसाह्ब कहां जा रहे हैं तो जवाब मिलता तुमसे मतलब्। बहुत खराब लगता था पर आज इस उपन्यास को पढ़ कर लगता है कि कितने सही थे वो और
कितने अपने परिवार की सुरक्षा को ले कर कितने सजग्। अब कई बार अकेले बम्बई से इन्दौर जाना होता है, और हम देख कर हैरान है कि अब हम भी वही करते हैं जो हमारे पिता जी किया करते थे, खास कर इस उपन्यास को पढ़ने के बाद्।

यहां मुझे याद आ रहा है एक और वाक्या- अगर इन्दौर सड़क से जाया जाये तो महाराष्ट्रा और मध्य प्रदेश की सीमा पर एक इलाका आता है(नाम तो याद नहीं आता) एकदम उजाड़, छोटी छोटी पहाड़ियां सड़क के दोनो ओर्। दिन में तो ठीक, पर रात में वहां दोनों पुलिस की गश्त तैनात रहती है। इन्दौर से आने वाली सब गाड़ियां वहां रुक जाती हैं , एक काफ़िला बनता है गाड़ियों का, फ़िर आगे आगे पुलिस की गाड़ी और पीछे पीछे ये काफ़िला, और काफ़िले के पीछे एक और पुलिस की गाड़ी चलती है सरहद पार कराने। क्या मजाल कि कोई लाइन तोड़ आगे भागने की कौशिश करे, ये ठ्गों का दल सड़क किनारे की पहाड़ियों के पीछे ताक में बैठा रहता है , कोई कार या ट्र्क भी अकेला पड़ा नही कि घेर लिया, बस्।

पोस्ट बहुत लंबी हो गयी है, आप लोग सोचेगें हम सुनने क्या बैठे मैडम तो लेक्चर ही देने पर उतर आईं, तो साहब यहीं इति श्री करती हूं। अगर आप लोग सुनना चाहे तो इन ठ्गों के तौर तरीके, रीति रिवाज और पारवारिक जीवन के बारे में वर्णन करुंगी और ठगी को कैसे अंजाम दिया जात था के किस्से सुनाउगीं।

October 25, 2007

कंगारू

कंगारू
टी 20 इंटरनेशनल जीतने की खुशी में ताज इंटर्कॉटिनेट्ल में एक रात्री भोज का आयोजन हुआ। धोनी की तरफ़ से खास न्यौता आया, आखिर पुराने छात्र हैं हमारे, हाँ ये बात और है कि वो कभी क्लास में न नजर आये और उनका नाम हमारी ब्लैक लिस्ट में था। पर आज हमारे मन में कोई शिकायत नहीं थी, आखिरकार टी 20 जीत देश का नाम रौशन किया था, और फ़िर ताज जैसे महंगे हॉटेल में भोज, वो भी एकदम मुफ़्त्।

हॉटेल पहुंचे तो देखा कई राजनेता, फ़िल्लम इस्टार, मिडिया वाले और न जाने कौन कौन धोनी को बगल में पोस्टर सा चिपकाये फ़ोटू खिचवाये रहे हैं। सिर्फ़ आखों से अभिवादन का आदान प्रदान हुआ, धोनी के चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान, मानो कहते हो, देखा तुम तो कहती थी ऐसे ही चला तो वी टी स्टेशन पर चने बेचते नजर आओगे, वैसे भी अंग्रेजी आती नही, अगूंठा छाप कहीं के, उस फ़ट्फ़टिया की ड्राइवरी करते नजर आओगे, अब कौन से चने के झाड़ पर बैठे है हम्। फ़ीकी सी हंसी के साथ हमने हां में सिर हिलाया। समझ गये कि ये वक्त रिश्तों के सेतु संवारने का नहीं।

इधर उधर नजर दौड़ाई तो एक तरफ़ कौने में ऑस्ट्रेलियन खिलाड़ी गंभीर चेहरे लिए किसी गहरी मत्रंणा में डूबे नजर आये। कोई उनकी तरफ़ ध्यान न दे रहा था, न वो किसी की तरफ़ ध्यान दे रहे थे। उनके बगल वाली खाली टेबल हमें सबसे सुरक्षित लगी धोनी के फ़ारिग होने का इंतजार करने के लिए। फ़िर हमारी कान लगाने की पुरानी आदत जायेगी थोड़े न।

रिक्की पोटिंग - जो हुआ बहुत बुरा हुआ, इनका तुक्का दूसरी बार कैसे चल गया। समझ नहीं आ रहा, ये लोग तो हार स्पेशलिस्ट हैं, जीती हुई बाजी एन वक्त पर छोड़ देना इनकी फ़ितरत है, कहां गयी इनकी संस्कृती अतिथी दैवो भव:, पहले आप्। सच्ची बहुत बतमीज हो गये हैं।दुनिया में हमारी क्या साख रह जायेगी।

मैथ्यु- मेरी बीबी का तो ऑलरेडी स म स आ चुका है- तलाक, तलाक , भला उसकी भी कोई इज्ज्त है कि नहीं, क्या मुहं दिखाय अपनी सहेलियो को, उसका पति एक टुच्ची सी बच्चों वाली टीम से हार गया।

साइमंड- मौका मिलने दो, हनुमान बन इनकी लंका में आग न लगाई तो मेरा नाम भी बंदर, सॉरी, साइमंड नहीं।

रिक्की- चुप यार, हमेशा कन्फ़्युजड रहता है, अबे अपुन इन्डियीन टीम से हारे हैं, श्री लकंन टीम से नहीं ( हालाकिं अब ये रोज होगा ऐसा ख्तरा बड़ता जा रहा है)और ये हनुमान कौन है?

मन्ने तो लागे है जी कि ये सारा किया धरा शाहरुख खान का है। जिधर जाता है जीत उसके पीछु पीछु लग लेती है। अब बताओ, इन्ने कोई काम न हे जो किरकिट देखन साउथ अफ़्रिका आ गये।
हाँ सही कह रहे हो बंधु, क्यों न शाहरुख को अपनी टीम का चियर लीडर का अनुबंध दिया जाए। ये चियर लिडरनियां तो जी जरा लकी न निकलीं। लेकिन रिक्की भाई एक बात एकदम क्लीयर कर दियो, ये शाहरुख चक दे इंडिया न बोले।

क्लार्क- हाँ, मन्ने तो लागे है ये चक दे इंडिया गाना ही अपनी वाट लगाये है। मैं जब भी इनको घेरु हूँ, वो डी जे चक दे चक दे लगा दे और पूरा स्टेडियम खड़ा हो जावे। अब ये तो भई ज्यासती है ने हम बिचारे 11 और ये लोग 11000, कोई न्याय है भला, दिल तो करता था इस चक दे को चक्कु से चॉक ही कर दूं।
ब्रिट ली गंभीर मुद्रा में अब तक गिटार के तार ठीक कर रहे थे, बोले - मुझे लगता है ये दीपिका पदुकौन को स्टेडियम में आने से रोकना होगा।
रिक्की अचकचाए कौन दीपिका, और सुन्दर कन्या को आने से क्युं रोकना होगा, सुन्दर नजारे न हुए तो पूरी रात मैदान में कैसे कटेगी।
ब्रिट- तुम देखे न भैया, उसकी एक शर्मिली सी मुस्कुराहट पर धोनी कैसे घूम जाता था, बॉल सीधा स्टेडियम की छ्त को छूती दीपिका के पैरों पर गिरती। भई, इनका तो इश्क का तोहफ़ा हो गया खेल खत्म होने से पहले, इधर छ्क्का मान लिया गया।
एड्म- सही कहते हो, शोनाली का नाम भी उस लिस्ट में जोड़ो, श्रीसंत को देखा, उसे देख कैसे बलियों उछ्लता है।
रिक्की- दरअसल एक दो को छोड़ सब छ्ड़े छांट भर लिए है टीम में। खेलते तो है क्रिकेट पर जेन्टलमैन वाली कोई बात नहीं रह गयी। दे आर ऑल आउट टू इम्प्रेस गर्ल्स्। मंत्रणा चल ही रही थी कि खाना आ गया।

रिक्की- आइडिया

बाकी सब- क्या , क्या,

रिक्की- क्युं न अपनी सरकार से सिफ़ारिश करे कि इन्हे वो कंगारू गेहूं भेज दें, वो लाल वाले।
रिक्की ने आखँ मारी, सब हस पड़े, सही है गुरु, क्या सोचा है, ये मारा चौका। कगांरु गेंहू का के ये कंगारू और कगांरुओ से निपटना हमे आता है( मानो कहते हो हारी बाजी को जीतना हमें आता है …हम सिंकदर हैं …।) ही ही ही

(मेरे एक छात्र के अनुसार पहली पंक्ती परिक्षा में जो लिखी जानी चाहिए वो है"नीचे लिखे सारे उत्तर काल्पनिक है, किसी भी किताब से किसी भी प्रकार की कोई भी समानता महज इत्तेफ़ाक है, इरादतन नहीं)

तो हम भी यही कहना चाह्ते हैं कि ऊपर लिखी सब घटनाएं कोरी काल्पनिक हैं ,किसी को दुख/ठेस पँहुचाने का मेरा कोई इरादा नहीं, ये सिर्फ़ मजे के लिए लिखा गया है।




October 22, 2007

आलोक जी का रावण

आलोक जी का रावण

आलोक जी के रावण को देख एक दृश्य मेरे जहन में कौंध रहा है, आप भी देखिए।रावण ज्ञानद्त्त जी के सैलून जैसे ड्ब्बे में सफ़र कर रहा था, फ़र्क सिर्फ़ इतना था कि ज्ञानदत्त जी अकेले सफ़र करने का मजा लूट सकते हैं साथ में सिर्फ़ अर्दली और रावण लालू की तरह लंबी चौड़ी ताम झाम साथ में लिए सफ़र कर रहा था, नौकर चाकर, प्रेस वाले , कुछ कंपनियों के सेल्समेन, कुछ सुरक्षा कर्मी और पता नहीं कौन कौन्।

सफ़र करते हुए वो अपने मोबाइल के बिल बाँच रहा है और मंदोदरी ड्रेसिंग टेबल पर बैठी गिन गिन कर अपने सफ़ेद बाल नोच रही है। बालों की लहलहाती ख्रेती तेजी से गायब हो रही है, मंदोदरी परेशान है। बाल तो रावण भी अपने नोच रहा है, आलोक जी ने सही कहा, रावण बिचारा लोन कन्या के गच्चे में आ गया। दरअसल हुआँ यूं कि लोन कन्या की आवाज सीता जी से इतनी मिलती थी कि रावण को लगा वहीं है, सोचा, अगर पाचँ द्स मोबाइल लेने से मामला फ़िट हो जाता है तो सौदा महंगा नहीं। अब बिल आया तो पता चला कि मामला तो कुछ और ही था।वो राम ने कोई लोचा कर दिया था फ़िर से।पहले भी एक बार ऐसी खुराफ़ात की थी उसने किसी बंदर को भेज दिया था। सब अच्छे पतियों की तरह रावण ने भी फ़ाइनेंस मिनिस्टर, होम मिनिस्टर का पद भार मंदोदरी को दे रखा था, अब परेशानी ये कि मंदोदरी के सवालों के क्या जवाब देगें, सवाल करने पर आ जाए तो बड़े बड़े वकीलों के भी कान काट दे। एक तो ये पेचीदा बिल, ऊपर से उनका भुगतान करने के लिए अशोक वाटिका गिरवी रख चुके थे, अब मंदोदरी को क्या बताते, इश्क में बाल कहां तक नुचे।

मामले को सभांलने के इरादे से मंदोदरी का मनुहार करते हुए अपने ज्ञान का बखान करते हुए बोले तुम क्युं अपने बाल यूं नौचती रहती हो, बालों को रंग क्युं नही लेती, तपाक से लॉरइल वाला सेल्समेन शुरु हो गया- महारानी साहिबा महाराज ने क्या पते की बात कही है, ऐसे ही थोड़े चहु दिशाओं में महाराज के ज्ञानी होने के डंके बजते। अब देखिए बाल रंगने के कितने फ़ायदे हैं, इत्ते सालों से वही काले बाल देख देख कर आप बोर नहीं हो गयीं , अब ये सफ़ेद बाल तो आप का पेंटिग का कैनवास है, रोज जिस कलर की साड़ी पहनो उसी रंग के बाल रंगो, न्यु लुक एवेरी डे, मैचिंग सैंडल( कहाँ मिलते हैं समीर जी बता देंगे), मैचिंग पर्स, मैचिंग लिपस्टिक, मैडम एश्वर्या भी नहीं नहीं सीता भी पानी भ्ररेगी आप के सामने।
बात तो महारानी को अच्छी लगी पर अभी भी एक परेशानी की शिकन माथे पर थी, बोली लेकिन मैने तो सुना है कि बाल रंगने से बाल गिरने लगते है, ऐसे तो मै बहुत जल्द गंजी हो जाऊंगी। रावण ने सोचा मामला हाथ से निकला जा रहा है, फ़टाक से बीच में कूद पड़े, अरे प्रिय तुम तो मुझे हर हाल में अच्छी लगती हो( बस मोबाइल के बिल के बारे में न पूछना) गजीं भी हो गयीं तो क्या हम फ़िर भी नुक्कड़ के फ़ूलचंद से तुम्हारे लिए सर पर सजाने को गुलाब लाएगे, बालों मे खोस न सके तो क्या सेल्वटेप है न चिपकाने को, जहां चाह वहां राह्। इनफ़ेक्ट, जुलियस सीजर के ताज सा गुलाबों का मुकुट कैसा रहेगा।
बीच में दूसरा सेल्स मेन टपक पड़ा, महारानी जी महाराज बिल्कुल सही कहते हैं, जिसकी बीबी गंजी उसका भी बड़ा नाम है, मेरी कंपनी की क्रीम लगा दो लाइट का क्या काम है। इनफ़ेक्ट महाराज मैं तो निवेदन करुंगा की आप ऐसा कानून ही बना दें कि लंका में समस्त प्रजा आज से अपने सर मुंड्वा दे, जो भी दानव दानवनियां लंबे बालों वाले पाये गये वो देश द्रोही माने जाएगे और उन्हें देश निकाला दे दिया जाएगा, आखिर लबें बाल तो वानरों की निशानी है, देखा नहीं था वो बदंर, कित्ता तुफ़ान मचा कर गया था पुरी लंका बर्बाद कर गया था। हनुमान के उत्पात की याद आते ही महाराज का खून खौलने लगा। उस सेल्समेन ने सोचा लौहा गरम है एक हथौड़ा और मार ही दें सेफ़्टी के लिए, महारानी की तरफ़ मुड़ कर बोला और फ़िर महारानी साहिबा महाराज को ही देखिए बाल आगे से यूं जा रहे है जैसे लो टाइड में समुद्र का पानी पीछे खिसक लेता है अब ये आधे अधुरे बाल महाराज की पर्सनलिटी के साथ शोभा नहीं न देते, या तो है या नही है, ये क्या अयौध्या के मंत्रियों की तरह कभी कहते है हम सहमत भी है और नही भी। पर्सनलिटी तो हमारे महाराज की है, एक बार जो स्टेंड ले लिया बस ले लिया अब जीतेगे या मरेगें और महारानी जी आप इस टुच्चे रंगरेज की बातों में न आइएगा, ये तो कल सीता को भी कह रहा था कि बाल हरे रंग लो फ़ैशन का फ़ैशन और आस पास के पेड़ों के साथ मैच करेगा सो अलग्। असली फ़ैशन तो गंजेपन में है, आप को अपनी क्रिएटिविटी दिखाने का पूरा मौका मिलता है, जब ट्व्टी ट्व्टी चले तो लंका का झंडा अपने सर पर पेंट कराइए चियर लीडरनियां भी आपको सरगना बना लेंगी, और जब मैच न हो तो हमारी क्रीम से सर की मालिश कराइए, ये बाल नौच नौच कर जो सर में दर्द रहता है एकदम दूर हो जाएगा और आपके चांद की चमक देख महाराज बोल उठेंगेये चांद सा रौशन ट्कला, फ़ूलों का रंग सुनहरा, ये झील से गहरी आखें, कोई राज है इनमें गहरा…इतने में रावण का मोबाइल बज उठा…हैल्लो, हैल्लो, रावण, लोन रिक्वरी वाले थे, रावण बोला सॉरी रोंग नम्बर्॥दिस इस टकलु हिअर्…ढूंढो बेटा अब रावण को, और आजा बेटा राम अपनी सब चालाकियों के साथ, यूं नहीं पिजंरे में उतरने वाले हम, सुसाइड कर तू।

October 19, 2007

दादी रॉक्स

दादी रॉक्स


अभी टी वी पर चैनल घुमाते घुमाते सोनी पर चल रहे कार्यक्रम बूगी बूगी पर जा पहुँची। मम्मी एपीसोड चल रहा था। शुरु के एक दो नृत्य तो अच्छे लगे(बाकी भी अच्छे लगे), 25 वर्ष से ले कर 29 वर्ष की महिलाएँ अपने नृत्य के जौहर दिखा रही थीं। फ़िर अपने जौहर दिखाने आयी एक 45 वर्षिय महिला, डील डौल भी काफ़ी हरा भरा और अदाएँ बिखेरी मॉइकल जैकसन की नकल की। अन्दाजा लगाना मुश्किल नहीं कि कैसा लग रहा होगा वो भी टी वी पर जिसे लाखों लोग देख रहे होगें। अच्छा, उस प्रोग्राम की एक और खासियत ये है कि जो भी कलाकार मंच पर होता है उसके साथ आये उनके स्वजनों पर कैमरा केन्द्रित किया जाता है, इस बार भी ऐसा ही हुआ। जो महिला नाच रही थी उनके साथ आयी एक वृद्धा बड़ी मजे ले कर उनका नृत्य देख रही थीं। जावेद जी के पूछ्ने पर पता चला वो वृद्धा उस महिला की माता जी हैं और वो भी बूगी बूगी में नाचने की तमन्ना रखती हैं। जावेद जी ने बड़ी शालीनता से उनकी ये मनोकामना पूर्ण करने के लिए उन्हें आमंत्रित किया मंच पर आने के लिए, बिना किसी हिचक के वो न सिर्फ़ मंच पर आ गयीं बल्की मॉइकल जैकसन की भी छुट्टी कर दी। जावेद ने जब उन्हें कैमरे में देख अपने पति को फ़्लांइग किस्स देने को कहा तो बेझिझक दादी जी ने वो इच्छा भी पूरी कर दी।

आप कहेंगे , हाँ तो आप क्युं इतना बखान कर रही हैं। वो इस लिए कि मैं पूरी तरह से कनफ़्युजड हूँ जी, पता नहीं मैं कौन सी सदी में जी रही हूँ , क्या मैं पिछ्ड़ गयी हूँ और मुझे पता भी नहीं चला कि जमाना कितना आगे निकल गया है। मेरे मानस पट्ल पर दादी नानी की जो आम तस्वीर है और जो मैं अब देख रही हूँ उसमें जमीन आस्मान का अंतर है। मेरी नानी ने पाँच बेटियों में से तीसरी की शादी की तो हल्के रंग की साड़ियाँ पहनना शुरु कर दिया था और अतिंम बेटी की शादी तक पहुंचते पहुंचते तो सफ़ेद साड़ियाँ पहनना शुरु कर दिया था। (यहाँ मै बता दूँ कि मेरे नाना की मृत्यु नानी के जाने के कई साल बाद हुई थी) उन्हें दामाद के सामने रंगीन कपड़े पहनने में शर्म आती थी। खैर वो तो बहुत पुराने जमाने की बात है जी। मेरी माँ ने मेरी शादी के बाद लिपस्टिक लगाना छोड़ दिया था, सिर्फ़ इस लिए कि मैं लिपस्टिक नहीं लगाती थी। अब नवविवाहिता बेटी अगर इतनी सादी रहे तो मैं कैसे होंठ रंग लूं। मैने लाख समझाया कि ये अपनी अपनी पंसद की बात है और इसमें कोई बुराई नहीं पर उन्होंने एक न सुनी। फ़िर जब कुछ साल बाद मेरे बालों में चांदी झिलमिलाने लगी, सबने कहा (पति को छोड़ कर) बाल रंग लो, पर हम इसके लिए तैयार न हुए, तो मेरी माता जी ने भी बाल रंगने छोड़ दिए, तर्क वही की बेटी के बाल सफ़ेद और मेरे काले, कैसा दिखेगा भला। ये
बात सिर्फ़ मेरी माँ और दादी की नहीं थी, मैने तो अपने परिवेश में सभी दादी नानियों को यूं ही देखा है, अपने रखरखाव से बेखबर, ममता से ओतप्रोत, हमेशा दूसरों की फ़िक्र करतीं, जीवन के मुल्य देती, धीर, गंभीर, जिन्हें देखते ही नतमस्तक हो आशिर्वाद लेने को मन करे। इन्हें घर में आयोजित कीर्तनों में भाग लेते हुए नाचते गाते देखा पर कभी भी पब्लिक में नहीं। किसी शादी ब्याह में बहुत जोर देने पर दादी तो नहीं पर माँ एक ठुमका भर लगा देतीं और बैठ जातीं, वो भी इस बात का ध्यान रखते हुए कि उम्र या रिश्ते के लिहाज से कोई बड़ा मर्द तो वहाँ नहीं। माँ का दर्जा पाते ही कब हमने अपने पराये (ऑटो ड्राइवर से लेकर सब्जी वाले, वॉचमेन, अर्द्ली, छात्र) सबको बेटा बुलाना शुरु कर दिया पता ही नहीं चला ।

मैं ये नहीं कह रही कि बूगी बूगी में नाच रही महिलाएं सभ्रांत नहीं थीं, वो संभ्रात थी,(छोटे शहरों से थीं)। वहाँ आयी सभी महिलाओं के परिवार(मायका और ससुराल दोनों) इतना गौरव महसूस कर रहे थे। कौन कहता है कि औरतों को मन की करने की छूट नहीं। मैं यहाँ कोई सवाल नहीं खड़े कर रही , सिर्फ़ अपना आश्चर्य प्रकट कर रही हूँ, सिर्फ़ बदलते समाजिक मुल्यों की बात कर रही हूँ। क्या कोई मुझे बताएगा कि मैं कित्ते साल पीछे छूट गयी हूँ?

October 16, 2007

अम्मा- मेड टू ऑर्डर

अम्मा- मेड टू ऑर्डर

जाल तंत्र पर हमारे एक मित्र हैं।मुश्किल से 23/24 साल के होंगे, मूलत:उत्तर प्रदेश के किसी गावँ से हैं पर आज कल देहली में रहते हैं, दाल रोटी के जुगाड़ के चक्कर में।देहली से ही उन्होंने मॉस मिडिया का कॉर्स किया हुआ है, खुद को अति महान पत्रकार मानते हैं। हम अक्सर उनसे अपनी रचनाओं पर टिप्प्णी करने को कहते थे। तब तक हमने ब्लोगिंग करना नहीं शुरु किया था और अपनी रचनाएँ दूसरी कविताओं की साइट पर प्रकाशित किया करते थे। ये जनाब से भी ऐसे ही कहीं मुलाकात हुई थी। हमारी कोई भी रचना इनकी नाक के नीचे नहीं आती थी, हर रचना में कोई न कोई कमी, पता नहीं क्या क्या टेकनिकल खामियाँ निकालते थे, ये मीटर में नहीं बैठती, यहाँ शब्दों का चयन ठीक नहीं, क्रिएटिव राइटिंग के फ़न्डास से ले कर हिन्दी व्याकरण तक सब समझाते थे। हम नतमस्तक हो सब सुन लेते थे। अपने कॉलेज के ग्रंथालय में भी क्रिएटिव राइटिंग की किताबें पूछ्ने लगे, नहीं मिली, वो बात अलग है। इनकी हर मीन मेख का हमारे पास एक ही जवाब होता कि भैया अपुन तो दिल से लिख्ते है, तुम्हारे बताए कोई नियम जानते ही नहीं तो लिख्ते वक्त वो जहन में कैसे आयेगें? और ये कहते सिर्फ़ दिल से लिखना काफ़ी नहीं होता। खैर, फ़िर पता नहीं क्युं ये कुछ एक महीने से गायब थे, पता लगा कि नौकरी बदल रहे हैं।
कल अचानक ऑन लाइन दिख गये, और हमारे बुलाने के पहले स्क्रीन पर टपक पड़े, बोले आजकल आप के लेखन में काफ़ी सुधार हुआ है। हमने सोचा क्या बात है, इनके मुहँ से ऐसे शब्द्। खैर इसके पहले कि हम धन्यवाद के आगे कुछ और कहते ये फ़िर गायब हो गये। आज शाम फ़िर प्रकट हुए और बोले, हम्म, मैने आप की कविता 'खुली वसियत' पढ़ी है, आप ऐसे कैसे लिख सकती हैं। हम हैरान, भई क्या लिख दिया ऐसा ओब्जेक्शेबल्। पहले तो लम्बी बहस कर डाली कि हमें कोई अधिकार नहीं मृत्यु शैया पर इलाज से इंकार करने का, फ़िर अचानक बोले, मैने अपनी अम्मा को लम्बी चिठ्ठी लिख दी है। अरे भई, बीच में तुम्हारी अम्मा को लिखी चिठ्ठी कैसे आ गयी। बोले इस टेलिफ़ोन के युग में हमने अपनी अम्मा को आपकी कविता का हवाला देते हुए खत लिख दिया है कि तुम तो ऐसा सोचना भी मत। माँ बिचारी ने परेशान हो कर बेटे को फ़ौरन फ़ोन लगाया कि बात क्या है, साथ ही समझाया कि बिट्वा जो आता है उसे जाना भी पड़ता है। बिट्वा भाव विहल हो मातृ प्रेम में डूबे बोले माँ तू मेरे से पहले नहीं मर सकती। भावनाओं में डूबे कुछ भी ऊलूल जलूल तर्क दिए गये, मैं जब छोटा था, असहाय था तूने मुझको संभाला, जिन्दा रखा, मैं चाहता तो मैं भी मर सकता था, तुझको कितना दु:ख होता, तेरी खातिर मैं तब जिन्दा रहा, बड़ा हुआ, और अब दुनिया को झेल रहा हूँ। अब तुझे भी मेरे साथ इसे झेलना है जब तक मैं झेलूं। माँ के कुछ बोलने से पहले ही ये अपने रौ में बोलते चले गये कि मैं चाहता हूँ मेडिकल क्षेत्र में इतनी तरक्की हो कि कोई मरे ही नहीं और शुरुवात मेरी माँ से हो। हम ने कहा,'आमीन'।
इनकी बातें सुन इनकी माँ जो कभी गांव से बाहर नहीं निकली और जिन्हों ने शायद स्कूल का कभी मुँह नहीं देखा, बोली, बिट्वा हमने तो सुना है कि आज कल के डागदर सीसे की नलियों में बच्चा बनाई देत हैं तो उन डागदरां के बोले एक नयी माँ काहे नहीं बनवा लेते? वैसे हम द्शहरा पर तोके मिलने को दिल्ली आईं। भई वाह, क्या कल्पना है-टेस्ट टुयब माँ, सारे अनाथालयों की छुट्टी, और बात भी कितनी स्टीक, अगर बिन औलाद के माँ बाप को ये अधिकार दिया मेडिकल सांइस ने कि इस तरह से बच्चे की चाह पूरी कर लो तो बच्चों को भी वही अधिकार मिलना चाहिए कि अगर किसी कारणवश अगर वो अपनी माँ खो दें तो भी मां के वात्सलय से वंचित न रहें। अब मामला जरा रोचक हो गया था, हम जानना चाहते थे कि बिटवा ने क्या जवाब दिया? जवाब सुन कर हमारी हसीं नहीं रुक रही थी। बड़ी मासुमियत से जनाब बोले कि वो तो बाबा को पूछ्ना पड़ेगा, आज कल धान की फ़सल कट रही है तो बाबा व्यस्त हैं । हमें भी इंत्जार है कि बाबा का कहीं? खैर हमने कहा कि क्या आप को इस कविता में कुछ कमी नजर आयी हो तो कहिए, बोले हाँ, कमी तो है, ये वसियत शब्द का चयन ठीक नहीं, वो 5 मिनिट तक तर्क देते रहे कि वो शब्द क्युं ठीक नहीं, फ़िर जाते जाते बोले वैसे आप मेरी बातों पर ध्यान मत दिजिएगा और जैसा लिख रही हैं वैसा ही लिख्ती रहिए। उफ़्फ़! अट्लास्ट, जनाब को कुछ तो पसंद आया। लेकिन अब हम इनकी टिप्प्णियों के बारे में नहीं इनकी माँ के बारे में सोच रहे थे। इनके बारे में भी सोच रहे थे कि ये बेटे का रूप उस टिप्प्णीकार से कित्ता ज्यादा सुहाना है।

October 13, 2007

नवरात्री के रंग

नवरात्री के रंग

लो जी श्राद्ध खत्म और नवरात्री आयी- कलकत्ता के पंडालों में, गुजरात के गरबे में, तमिलनाडू की गुड़ियों के त्यौहार में और न जाने कहाँ कहाँ। तो जी हम कैसे पीछे रहते। हमारा बम्बई तो वैसे ही न सिर्फ़ कॉसमोपोलिट्न है, मेरे अनुमान से 85% महिला जनता यहाँ काम पर जाती हैं।लाजिमी है कि त्यौहार भी वहीं मनाये जाए जहाँ हमारा ज्यादा से ज्यादा जीवन बीतता है।

कोल्हापुर में एक देवी का मन्दिर है, जिसकी बड़ी मानता हैवहाँ दसों दिन देवी का श्रंगार अलग अलग रगों के परिधानों से किया जाता हैमहाराष्ट्रा टाइअम्स नवरात्री से कुछ दिन पहले ही रोज इसकी सूची छापता है जो कुछ इस प्रकार है


तारीख देवी का रुप रंग

12/10/07 अंबा पोपटी (मतलब तोता रंग)
13/10/07 चामुंडा नारंगी
14/10/07 अष्टमुखी पीला
15/10/07 भुवनेश्वरी आस्मानी नीला
16/10/07 उंपागललिता गुलाबी
17/10/07 महाकाली ग्रे
18/10/07 जगदंबा हरा
19/10/07 नारायणी जामनी
20/10/07 रेणुका नीला
21/10/07 दुर्गा लाल

अब हमारे ग्रुप की सरगना (रमा) ने ये निश्चय लिया कि हम सब इसी सूची के अनुसार कपड़े पहनेगेऔर मर्द टीचर्स को भी यही नियम मानने होगेंजिस रंग के कपड़े नहीं हैंखरीदो, नियम तोड़ने वाले को सबको नाशता कराना पड़ेगाहमारे कॉलेज में डिग्री सेक्शन में ही साठ टीचर्स हैंलिस्ट नॉटिस बॉर्ड पर चिपका दी गयीक्या मजाल कि मर्द टीचर्स इसे मानेहम मन ही मन मुस्कुरा रहे थे- मर्दाना शर्ट वो भी पोपटी रंग कीहा, हा, हादेखें फ़ोटो, पर ठहरिए जी अभी महिला टीचरों पर भी आफ़त आनी थीये निश्चय लिया गया कि सिर्फ़ ये रंग के अनुसार कपड़े पहनने हैं , बल्कि महिलाएं सिर्फ़ साडियां ही पहनेगीअब जी जब सुबह सुबह 6:३० बजे घर से निकलना हो तो कहाँ साड़ी लपेटने का वक्त होता है, पर रमा के आगे कोई बोल नही सकताउसके पास हर बात की काट मौजूद रहती है












अब जी मेरे पास तो पोपट रंग की साड़ी थी ही नहीं, और नवरात्री के एक दिन पहले तक तो श्राद्ध थे, मन के अंध विश्वासों के चलते हम कुछ खरीदने वाले नही थे। हमने हरा रंग पहना और सब से कहा मेरा तोता अंग्रेजीस्तान से आया है, ठंडी के मारे रंग हल्का पड़ गया है, ही ही ही। खैर नाश्ता खिलाने से तो बच गये।

कॉलेज पहुँचे तो देख कर हैरान कि जुनियर कॉलेज के टीचर्स, नॉन टीचींग स्टॉफ़ (यहां तक की केटीन बॉय भी) सब तोते बने हुए। मर्द टीचर्स भी खुशी खुशी त्यौहार मनाने को हमारे साथ रंग बिंरगी होने को तैयार्। परिक्षाए चल् रही हैं बच्चे भी परीक्षा की चिन्ता के बीच हम सब को देख मुस्कुराए बिना न रह सके।

चलूं अब कल के लिए नारंगी रंग की साड़ी देखनी है। ओजी भाई लोग जो इस को पड़ रहे हैं इस नियमावली के अनुसार ही रंग पहनना, नहीं तो देवी माँ को प्रसन्न करने का मौका तो खो ही दोगे, सजा भी भुगतनी पड़ेगी-एक दिन में कम से कम बीस कमेंट्स्। बोलो क्या मंजूर- कल भगवा वस्त्र पहनेगे या बीस ब्लोग पढ़ेगें। हा हा हा अगली बार एक और छ्टा नव रात्री की

October 09, 2007

खुली वसीयत

खुली वसीयत



इसके पहले कि तालू से चिपके,

ये पटर पटर चलती जबां,

सुन मेरी वसीयत बेटा बैठ यहां,
कुछ बातें तुझसे कहनी हैं,
जो मेरे मरने से पहले और मरने के बाद तुझे निभानी हैं,

जब जीवन धारा सूखने लगे, जबां न चले,
करवट मौह्ताजी हो, आखँ न खुले,
तुझसे मेरी विनती है,
इन रिसती सासों को सुइयों नलियों कि सजा न हो,



किसी की रोजी रोटी की तिक्कड़म का सामान न हो,
खिसका देना खटिया मेरी उस खिड़की के पास,
नजरों से आलिंगन कर लूं अपनी अमराई का अंतिम बार,
मेरे गालों को चूमे मन्द मन्द ब्यार, ओड़ूं सावन की फ़ुहार,
दवाइयों की बदबू,ठ्डे लोहे के बिस्तर,ए सी की बासी हवा,
इन अटकी सासों को मत देना ये सजा,

छूटे सासें ,कटे सजा तो मेरी खुशियों में शामिल होना,
किसी अच्छे से होटल में सपरिवार स्वनिमत्रंण देना,
निर्जीव मिट्टी की खातिर जीवित पेड़ों की ह्त्या,
ये पाप न मेरे सर देना,
ये हरियाली भविष्य की धरोहर,मेरे लिए हुआ पराया,
न जलाना, न गाड़ना, न चील कऊऔं को खिलाना,
मुझसे न हो मैली हवा, माटी , ये नदिया,
किसी मेडिकल कोलेज में दे देना दान,
शिक्षक थी, शिक्षक हूँ,निभाऊँ मर कर भी शिक्षक धर्म
मेरे अंगों को चीर फ़ाड़ के जाने बच्चे मर्ज का मर्म,



जिस सखा से जीवन भर बतियाई हूँ,
उल्हाने दिए और मुस्काई हूँ,
उससे मिलने को पंडित के श्लोकों कि दरकार कहाँ,
न सहेजना दिवारों पर मेरे निशां,
तू मेरी जीवंत निशानी है, फ़ोटो में वो बात कहाँ,
न याद कभी करना मुझको, आगे बढ़ना सिखलाया तुझको,
ले चली हूँ बस मैं इन एहसासों को, इस मन्थन को,
जिसने जीवन भर सताया मुझको,
अब मेरी बारी आयी, सजाए-मौत देने की इनको

October 07, 2007

प्यार तेरा यही अंजाम


प्यार तेरा यही अंजाम

अभी हाल ही में एक खबर छपी थी, कलकत्ता से करीब 175 कि मी दूर कुमारबाजार में एक सर्कस चल रहा था-ओलंपिक सर्कस। सर्कस में एक हथिनी थी सावित्री। 29 अगस्त की मध्य रात्री में एक 26 वर्षिय जगंली हाथी आया, सावित्री को देखा, पहली ही नजर में दोनों को एक दूसरे से प्यार हो गया। आनन फ़ानन दोनों ने फ़ैसला लिया और सावित्री अपने प्रेमी के साथ भाग गयी पास ही के जंगल में। जंगल में मंगल का माहौल था, दोनों प्रेमी साथ साथ बहुत खुश थे। सर्कस का मालिक अपने लाखों रुपयों के नुकसान को रो रहा था जो उसने सावित्री को खरीदने में खर्चे थे जब वो बच्ची थी। हम मन में सोच रहे थे कि बचपन से लेकर जवानी तक उसने तुम्हारे सर्कस में जो इत्ता काम किया क्या पैसा वसूल न हो गया। ये पढ़ कर कि जब भी इन लोगों ने सावित्री को दोबारा बहलाने फ़ुसलाने की कौशिश की उसने इनको घास भी न डाली, और जब ये लोग जोर जबर्दस्ती पर उतर आये तब उसका प्रेमी उसका साथ देने आ खड़ा होता। लगा बिल्कुल हिन्दी फ़िल्म की कहानी है जी सिर्फ़ नायक नायिका मानव जाती के न हो कर हाथी और हथिनी हैं। राजेश खन्ना की एक पिक्चर आयी थी 'हाथी मेरे साथी' जहन में कौधं गयी। अंत भला तो सब भला सोच कर हम इस खबर को भूलभाल गये।

आज अख्बार में फ़िर सावित्री की तस्वीर छपी है। पता चला कि सर्कस के कर्मचारी और जंगल के रखवाले सावित्री पर नजर रखे हुए थे, एक शाम वो गंगाजलघाटी के जगंल में एक तालाब पर पानी पीती दिखायी दी, उसका प्रेमी भी उससे कुछ ही दूरी पर वंही पानी पी रहा था। बस फ़िर क्या था, इन जालिमों ने सावित्री की घेराबंदी कर डाली और ढोल, नगाड़े बजा बजा कर इतना शोर मचाया कि उसका प्रेमी डर गया और पीछे ह्ट गया, दूर से सावित्री को पुकारता रहा। अकेली पड़ गयी अबला सावित्री को ये निर्दयी घेरघार कर सर्कस वापस ले आये। सर्कस का मालिक चंद्र्नाथ बैनर्जी खुश, कहता है मेरी बिटिया लौट आयी है। बिटिया या नोटों की थैली, लौट आयी है या अगवा कर ली गयी है? उसका महाउत कहता है, मैं जानता था वो अपने प्रेमी से उकता जाएगी और लौट आयेगी, जंगल में रहने की आद्त जो नहीं उसे। सावित्री को पूछा क्या किसी ने? अगर सच में सावित्री अपनी मर्जी से आयी है तो फ़िर ये सर्कसवाले दिन रात उसकी चौकसी कयुँ कर रहे हैं और जंगल के अधिकारी ये वादा क्युँ कर रहे हैं कि वो जंगल में उस प्रेमी पर नजर रखेंगे, बैनर्जी के नोटों की खातिर ना। क्या अनेक हिन्दी फ़िल्मों की याद नहीं आ रही, दुनिया की किसी और प्रजाती में ऐसी विसंगती देखी, होठों पर रह्ते है प्रेम के तराने और कर्मों में सर्वोपरी रहता है माल। अपने स्वार्थ के लिए, स्वाद के लिए, मौज के लिए दूसरों की जिन्दगियों पर राज करने का अधिकार हमें किसने दिया?