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March 01, 2010

होली रे होली तेरा रंग कैसा

होली मेरा और मेरे पतिदेव का सबसे प्रिय त्यौहार। कारण अलग अलग हैं। हमें याद आती है बचपन की होली, हल्की हल्की सर्दी में सुबह तीन बजे मैदान में होलिका दहन, जिसमें लोग गेहूँ की बालियां भूनते थे और एक दूसरे को गेहूँ के भुने दाने देते, गले मिलते और होली की बधाई देते। तब कुछ रहे होगें शायद दस बारह साल के। इतने अंधेरे में गली पार कर मैदान में जाने में डर लगता था, पर मन में उत्साह इतना होता था कि पापा का इंतजार नहीं होता था, मम्मी तो मैदान में आती नहीं थीं।


फ़िर सुबह सात बजते बजते बच्चे रंगों की पोटलियाँ, पिचकारियाँ संभाले मैदान में उतरने लगते, हंसी और किलकारियों से पूरा मौह्ल्ला गूंजने लगता। महिलायें जल्दी जल्दी नाश्ते और दोपहर के खाने बनाने में जुटी होतीं। द्स बजते बजते मौहल्ले के बड़े लोग होली के मैदान में उतरने लगते। मौहल्ले के हर घर में बड़ा सा आंगन और आंग़न में बड़ा सा हौद जिसमें एक रात पहले ही टेसू के फ़ूल डाल दिये जाते थे। रात भर में पानी बर्फ़ सा ठंडा हो कर पीला हो जाता। जो घर में आता उसका स्वागत हौदस्नान से किया जाता, कोई लिंग भेद भाव नहीं होता। हौदस्नान के बाद ठिठुरते हुए, गुजिया, भांग के पकौड़े, काली गाजर की कांजी और जलेबी का तो क्या कहना। देवर भाभी की होली, जीजा साली की होली का रंग तब और जमता जब ये रिश्ते नये जुड़े हों।

हर होली ये सब यादें मानस पटल पर कौंध जाती हैं पर बम्बई में ऐसी होली सिर्फ़ फ़िल्म स्टार खेलते हैं वो भी अगर किसी कंपनी से स्पोंसर्ड रहता है तो। जैसे कलरस चैनल पर होली खेली उनके आर्टिस्टों ने हिन्दुस्तान लीवर्स की तरफ़ से स्पोंसर्ड्। हम टी वी पर होली के नजारे देख कर संतोष कर लेते हैं। पहले पहले मन उदास होता था अब आदत पड़ गयी है। वैसे भी आजकल लोग रंगों से परहेज करने लगे हैं, रंग सुरक्षित जो नहीं। ऊपर से महानगर पालिका ने एलान कर दिया कि इस बार पानी की कमी है होली के लिए अतिरिक्त पानी नहीं दिया जाएगा। लेकिन इस बार हम ऊपापोह में थे कि होली खेली जाए कि नहीं। बहू की पहली होली है, सोचा थोड़ा शगुन तो करना ही चाहिए।



होली से एक दिन हमने पतिदेव को एक लंबी लिस्ट पकड़ाई, बाजार से क्या क्या सामान लाना है। लेकिन घर पर हर कोई डायटिंग की तलवार लिए मोटापे से जंग कर रहा है ऐसे में हम मोटापे के हाथ कैसे मजबूत कर सकते हैं। सो वो लिस्ट कचरे के डिब्बे के हवाले हो गयी। पता चला बहू को रंगों से बहुत डर लगता है और उसने बचपन से ले कर आज तक कभी होली नहीं खेली। हमारी बिल्डिंग के तमाम बच्चों की नयी प्यारी आंटी है लेकिन आज उन्हीं के डर से होली के एक दिन पहले ही वो अपने पिता के फ़ार्म हाउस पर जा रही थी। अब हम क्या कहते? खैर शाम को जब बेटा बहू जाने लगे तो हमने कहा होली इतना भी डरावना खेल नहीं और बिल्डिंग के बच्चे बहुत सभ्य हैं अगर तुम्हें नहीं खेलनी होगी तो जबरदस्ती नहीं करेगें। वो लोग चले गये।

छुट्टी का दिन था, हम ब्लोगजगत पर होली का नजारा देखते रहे और बारह बजते बजते जा कर सो गये। सुबह आराम से उठे कल का बासी अखबार फ़िर से पढ़ा, कुछ कॉलेज का बाकी बचा काम किया और फ़िर साढे नौ बजे टी वी लगा दिया। सब चैनलस पर होली के रंग बिखरे पड़े थे। नीचे से भी बच्चों के होली खेलने की आवाजें हवा में तैरने लगीं। दस बजते बजते हमारे पीछे से दो नर्म नर्म हाथों ने आ कर गालों को छू दिया। पलट के देखा तो बहू अपनी आखों में शरारत लिए हमें रंग लगा रही थी और कह रही थी बुरा न मानो होली है। रंग? नहीं जी ये तो खुश्बुदार सफ़ेद महीन था। देखा तो टेलकम पाउडर था। बेटा टेलकम पाउडर के चार डिब्बे लिए खड़ा था। पता चला वो तो रात को चार बजे ही आ गये थे होली घर पर मनाने ,लेकिन अपने तरीके से।


फ़िर तो हम चारों ने टेलकम पाउडर से खूब होली खेली, खुश्बुदार बिना कोई गंदगी मचाये। कोई कपड़े बदलने की जरूरत नहीं थी न मुंह साफ़ करने की। हा हा हा।
ये होली भी हमें ताउम्र याद रहेगी, टेलकम पाउडर और होली। सब सौंदर्य प्रसाधन कंपनियां सुन रही हैं न ?

आप सबको होली मुबारक