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November 30, 2008

कुछ ख्याल

परसों से बहुत से चिठ्ठों पर मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के बारे में ढेरों पोस्ट लिखी गयीं, कविताएं लिखी गयीं। किसी में नेताओं के प्रति आक्रोश(और वो सही भी है)था तो किसी में हम हिन्दूस्तानियों की बेबसी पर मौन आसूँ थे, कहीं युद्ध का ऐलान था तो कहीं 'हम सब एक हैं' के (खोखले) नारे थे। हम भी तीन दिन से टी वी से चिपके बैठे थे। उन तीन दिनों में जिन्दगी मानों थम सी गयी थी, ताज के बाहर तैनात मीडियाकर्मियों के साथ साथ हमारे भी दिन और रात में कोई फ़र्क नहीं रह गया था।
बहुत से ख्याल , बहुत सी भावनाएं गुजरीं मन से इन तीन दिनों में। पता नहीं क्युं इस युद्ध के लाइव कवरेज को देखते हुए मन में एक बार भी ब्लोग पर कुछ लिखने का ख्याल नहीं आया। न ही इस बात का ख्याल आया कि दूसरों ने क्या कहा वो पढ़ा जाए। सच कहूँ तो कंप्युटर का ही ख्याल नहीं आया और आप सब के जैसे ही मैं भी ब्लोगजगत की लती उस समय एक बार फ़िर टी वी लती हो गयी।

पहला ख्याल जो मन में आया वो ये कि ये अठ्ठारह बीस साल के छोकरों से लड़ने के लिए हमारे सबसे बेहतरीन सैन्य बल (जिसको मारकोस कहा जा रहा था) बुलाने की जरुरत पड़ गयी, क्या दुनिया हम पर, हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर हंस नहीं रही होगी, ओसामा बिन लादेन की विद्रुप हंसी हमारे कानों में सीसे सी पिघल रही थी।
जैसे जैसे वक्त गुजर रहा था मन मन की बेचैनी बढ़ती जा रही थी कि अब तक नहीं निकाल पाये उन चूहों को। माना कई कारण थे, निर्दोष लोग बंधक थे, ये चूहे गुर्रिला वार में दक्ष थे, हमारे कमांडोस के पास ज्यादा जानकारी उपल्ब्ध नहीं थी,(इन चूहों के पास ताज होटल के अंदर का पूरा नक्शा था, सैनिकों को ये बात पता चली उनके छूटे हुए सामान में से एक सीडी से। अगर उन्हों ने ताज के अंदर का नक्शा बना लिया था तो क्या ताज के मालिकों से हमारे सैनिकों को ताज का अंदर का नक्शा नहीं मिल सकता था। या सब लोग क्रिकेट के मैच के जैसे टी वी पर मैच देखने बैठ गये थे।) बताइए, अपने ही देश में हमारे कमांडोस को जरूरी जानकारी देने वाला कोई नहीं था, सब आसूँ बहाने में और जो शहीद हो गये उनकी जयजयकार करने में व्यस्त थे। कमांडोस तो आये रात को दो बजे जब की रात दस बजे से ये साफ़ हो गया था कि आंतकवादी ताज में छुपे बैठे हैं, क्या किसी को इस बात का ख्याल आया कि ताज के अंदर के नकशे की जरूरत पड़ सकती है और कमांडोस के आने से पहले उसे तैयार रखना चाहिए। ऐसे में याद आ रहा था इसराइलों का इन्टेबी जाना और दुश्मन को दुश्मन के ही घर पर मार कर अपने देशवासियों को छुड़ा लाना। दूसरे ही पल ये भी सोच रहे थे कि हमें क्या पता कि वहां क्या क्या किया गया, हमारी जानकारी तो मीडिया से मिली जानकारी पर ही आधारित है, शायद वो सब किया भी गया हो।

टी वी देखते देखते एक और ख्याल जो मन में उठा वो था जब नरीमन हाउस पर विजय पा ली गयी। वहां आस पास के लोगों ने सड़कों पर उतर कर इस जीत का जशन मनाया, गदगद हो कर सैनिकों का धन्यवाद किया गया, उन पर फ़ूल बरसाये गये। हम भी फ़ूले नहीं समा रहे थे और अपने कमांडोस पर उतना ही गर्व महसूस कर रहे थे जितना वहां की जनता जता रही थी। लेकिन हमने देखा कि कमांडोस इस सारी वाहवाही से अनछुए चुपचाप जाकर बसों में बैठ गये वापस ताज की तरफ़ जाने को। ये थे असली हीरो- जान पर खेल कर भी अपने काम को अंजाम तक पहुंचाने के बाद भी किसी तारीफ़ की अपेक्षा नहीं। मन में ये भाव कि इसमें बड़ाई क्या है, हमने अपना काम किया है जैसे सब करते हैं , हां ! काम ठीक ठाक संपन्न हो गया इस बात का संतोष है। एक कमांडो ने तो प्रेस फ़ोटोग्राफ़र को फ़ोटो लेने से भी मना कर दिया। हमारे जहन में कौंध रही थी इसके विपरीत उभरती सौरव गांगूली की हवा में कमीज लहराती फ़ोटो मानो पता नहीं सिर्फ़ अपना काम ही नहीं किया कोई जंग जीती हो। यहां जंग जीते हुए लोग ( जो शायद सौरव की ही उम्र के होगें) कितने संयत थे। फ़िर भी जनता का दिया धन्यवाद बड़ी विनम्रता के साथ हल्के से अभिवादन के साथ स्वीकार कर रहे थे।

ये कहते हुए जरा झिझक सी महसूस हो रही है पर इमानदारी से बताएं तो हम भी चैनल बदल बदल कर देख रहे थे कि कौन सा चैनल सबसे अच्छी जानकारी दे रहा है (हालांकि इस बात की चिन्ता भी थी कि कहीं इस लाइव कवरेज से कमांडोस को अपना काम करने में दिक्कत तो नहीं आ रही)। हमारा वोट गया 'इन्डिया टी वी' के नाम्। इन्डिया टी वी के केमरामैन महेश, रिपोर्टर सौरभ शर्मा, प्रकाश, सरिता सिंह का काम काबिले तारिफ़ रहा। और इसी चैनल के सचिन चौधरी जो कमांडोस के साथ ताज के अंदर थे और वहां से मोबाइल द्वारा रिपोर्टिंग कर रहे थे, इस बात का ध्यान रखते हुए कि ऐसी कोई जानकारी न दी जाए जो कमांडोस के लिए मुश्किल पैदा कर दे, काबिले तारिफ़ था। पहली बार हमारा ध्यान इन मीडियाकर्मियों की तरफ़ गया जो अपनी जान का खतरा उठाते हुए बिना खाये पिए, बिना सोये रिपोर्टिग करते रहे और फ़िर भी दर्शकों का ध्यान इस बात की ओर खीचते रहे कि मीडियाकर्मी जो ताज के बाहर डटे हुए थे उन्हें तो रिप्लेसमेंट मिल जाएगी लेकिन जो कमांडोस अंदर दो दिन से पोसिशन संभाले बैठे हैं वो भी बिन कुछ खाये, सोये उन चूहों को खोज रहे हैं, बंधकों को छुड़ा रहे हैं। सबसे ज्यादा हैरानी तो हमें तब हुई जब इन्डिया टी वी के रिपोर्टर ने पकड़े हुए आंतकवादी के साथ हुई अपनी बातचीत दर्शकों तक पंहुचा दी। इतनी जल्दी ये रिपोर्टर उस आंतकवादी तक कैसे पहुंच गया, पुलिस ने उस आंतकवादी से बात कैसे करने दी इस रिपोर्टर को। सुना है सरकार ने अब इंडिया टी वी से जवाबतलब किया है कि उन्हों ने ऐसा क्युं किया। हम सरकार से पूछते हैं कि किसी को भी इस आतंकवादी के पास पहले जाने ही क्युं दिया गया।


इस आतंकी हमले में मरने वालों में जहां एक तरह कई नामी गिरामी लोग थे तो दूसरी तरह कई आम आदमी भी थे। दूसरों के जैसे हम भी उन सब के लिए उदास हैं, उनके परिवार के दुख में शामिल हैं। लेकिन मेरे ख्याल उन आतंकवादियों की तरफ़ भी जा रहे हैं, जिन्हें मैं गुस्से में चूहे कह रही हूँ। थे तो वो मुश्किल से बीस बीस साल के बच्चे, क्या देखा था उन्होंने जिन्दगी में। जिस तरह की ट्रेंनिग( शारीरिक और मानसिक) वो ले कर आये थे यकीनन वो काफ़ी वक्त से उन आकाओं के साथ रहे होगें जो अपने स्वार्थ के लिए, अपने अहं के लिए आतंकवाद को जन्म देते हैं, उनके लिए ये बच्चे सिर्फ़ बलि के बकरे से ज्यादा कुछ न थे और ये बरगलाये हुए बच्चे इस बात से बेखबर थे। मुझे पक्का यकीन है कि इन में से कोई भी बच्चा न आई एस आई के या अल कायदा के सरगनाओ का बेटा रहा होगा। ये दिन थे इनके किसी कॉलेज की कैंटीन में गाने गाते हुए लड़कियों के निहारने के, भविष्य के सपने बुनने के, ये दिन थे इनके माता पिता के अपने बच्चों को परवान चढ़ता देख हर्षाने के, लेकिन हुआ क्या? इतनी जांबाजी से मरे तो भी दुनिया भर में थू थू हुई और इनके आकाओं ने सिर्फ़ इतना ही कहा होगा इनके मां बाप से ' सब किस्मत की बात है, ये अल्लाह की खिदमत करने गये हैं' ,अगर अल्लाह की खिदमत करना इतना ही सबब का काम है तो मुल्ला जी खुद क्युं नहीं ये पुण्य कमाते।

बड़े दुर्भाग्य की बात है कि हर तरफ़ (ये धर्म के ठेकेदार हो या नेता) इंसानी कौम अपनी मौज के लिए, अपने स्वार्थ के लिए आने वाले भविष्य की कौमों को खा रही है। हम सोच रहे हैं कि जानवरों में ज्यादा मानवता है या इंसानों में।