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आपका हार्दिक स्वागत है, आपको यह चिट्ठा कैसा लगा? अपनी बहूमूल्य राय से हमें जरूर अवगत करावें,धन्यवाद।

May 13, 2008

" स्ट्रीट शॉट्स फ़्रोम जर्मनी"

" स्ट्रीट शॉट्स फ़्रोम जर्मनी"


दोस्तों संजीत जी ने और ज्ञान जी ने सुझाया और हम आज पारिवारिक पोस्ट लेकर हाजिर हैं। जैसा कि आप जानते हैं कि विनोद जी हिन्दी में अभी नहीं लिख सकते इस लिए ये पोस्ट हमारे अंग्रेजी वाले ब्लोग "चिर्पिंग्स" पर डाली है। विनोद जी फ़ोटो ब्लोग बनाना चाह्ते हैं। इस पहली पोस्ट के लिए भी उन्हों ने कुछ 20-25 फ़ोटोस निकाली और कहा इन्हें डाल दो। हमने कौशिश की पर तीन से ज्यादा लोड ही नहीं हो रही थी। उनके चेहरे पर निराशा देख हमें बहुत खराब लग रहा था पर क्या करते, दोनों टेकनॉलिजिकली चैलेंजड्।

हम सोच रहे थे क्या करें और साथ में अपनी पोस्ट पर आयी टिप्पणियाँ देख रहे थे। एक नाम दिखा अभिषेक ओझा -ये कौन है वैसे भी उनका धन्यवाद देने के लिए ईमेल पता चाहिए था सो हम उनके ब्लोग पर गये, जैसे ही उनका ब्लोग खोला विनोद बड़े एक्साइटिड हो कर बोले " देट इस इट, आई वान्ट टू मेक इट लाइक दिस"। ओझा जी ने कम से कम पंदरह फ़ोटो लगा रखे थे वो भी समोसे बनाने के लिए। अब ओझा जी को ढूंढना शुरु किया उनसे पूछ्ने के लिए कि भाई कैसे इत्ते सारे फ़ोटू डाले। अभिषेक जी का ईमेल पता भी नहीं मिला उनके ब्लोग पर, हार कर टिप्पणी के रुप में एस ओ एस छोड़ आये। पति देव से कहा सो जाइए कल सागर जी के आगे भी गुहार लगाते हैं। दूसरे दिन सागर जी ऑन लाइन न मिले।
हमारी हैरानी देखने लायक थी जब शाम को पतिदेव को दरवाजे पर खड़ा पाया( रात को दस बजे से पहले तो कभी नहीं आते) पूछने पर कुछ ऐसे ही अनमना सा बहाना था, फ़िर बोले हमारी पोस्ट बन गयी क्या। अच्छा तो ये बात थी…:) हमने कहा नहीं सागर जी आज नहीं मिले चलो खुद ही ट्राई करते हैं। अब हम दोनो यूं ही चिठ्ठों पर घूम रहे थे। मन में गाना घूम रहा था

" दो बेचारे, बिना सहारे, देखो घूम घूम के हारे, बिन ताले की चाबी ले कर( फ़ोटोस थी पर लोड करने का तरीका नहीं) फ़िरते मारे मारे…:)) ।"
तभी चिठ्ठाजगत में एक टेकनिकल पोस्ट दिखाई दी। ज्यादातर हम ऐसी पोस्ट नहीं खोलते, कुछ समझ ही नहीं आता न, पर आज पोस्ट का शीर्षक देख कर खोली, शीर्षक था "सर्च इंजन पर इमेज"। इमेज शब्द ने हमारी जिज्ञासा जगा दी थी और काम बन गया। जहां हम उल्लु हैं और रात को बहुत देर से सोते हैं विनोद हमसे एकदम उल्टे हैं। दस बजते न बजते उनकी आखें झपकने लगती हैं। पर कल तो सारी पोस्ट तैयार करते और फ़िर पोस्ट करते रात का एक बज गया, जनाब की आखों से नींद गायब थी। तो ये बनी विनोद जी की पहली पोस्ट " स्ट्रीट शॉट्स फ़्रोम जर्मनी" अभी अभी ऑफ़िस से फ़ोन आया और कुछ शर्माते हुए , कुछ झिझकते हुए पूछा गया " कोई टिप्पणी?"…हा हा , टिप्पणीयों को लेकर लिखी गयी सभी पोस्ट मेरे दिमाग में कौंध रही हैं।
याद आ रहा है कि जब मैंने पहली बार आलोक जी के ब्लोग पर लिखा था तो कैसे कॉलेज से यूं भागी आयी थी मानो जैल से छूटी कैदी और आते ही पी सी ऑन कर दिया था। इस बात को लेकर पिता पुत्र दोनों ने कितना मुझे चिढ़ाया था।

ये पहले ही वार में ब्लोग बाबा ने मेरे धीर गंभीर पति का ये हाल कर दिया- जय हो ब्लोग बाबा। चुपचाप जाके दूसरा पी सी खरीद आती हूँ , अब इस पर से मेरा साम्राज्य खत्म होता दिखता है। यारों क्या तुमरा भी था ऐसा हाल?

May 12, 2008

क्या आप ने इसे देखा है?

क्या आप ने इसे देखा है?








काली साड़ी में मैं, मेरा बेटा आदित्य और इंदिरा








एम ए के दिनों में हमारी एक बहुत ही प्यारी सी सहेली थी इंदिरा शर्मा। बहुत ही स्नेही और मिलनसार्। हमें उसके घर जाना बहुत अच्छा लगता था। वो यू पी से थी। उसके घर जा कर हम कुछ न बोलें और सिर्फ़ उसे अपनी मम्मी और दो छोटी बहनों से बतियाते सुने तो भी पूरा दिन निकाल सकते थे। आक बातचीत में भी उनका शब्दों का चयन और बोलने का लहजा हमारे कानों में रस घोलता था और दिल को एक अजीब सा सकून मिलता था। इंदिरा ये बात जानती थी। उस्के घर हम कितने बजे भी जाएं वो कभी खाना खाएं बिना न आने देती, जानती थी कि हम वैसे खाने को तरसते हैं। कई घंटे वहां गुजर जाते थे। हमारी शादी के बाद भी ये सिलसिला जारी रहा। हमारी ससुराल उसके घर के पास ही थी। पर समय कब एक सा रहा है। हमारी शादी के दो साल बीतते बीतते वो अपने भाइयों के पास अमेरिका चली गयी और हमने भी अपना नीड़ कहीं और बसा लिया। आदित्य की जिम्मेदारी भी आ गयी। अब इंदिरा का आना साल में सिर्फ़ एक बार होता था, दिसंबर के अंत में या जनवरी के शुरु में। अमेरिका में छुट्टी लेने का वही सही समय है। पर हमारी बदकिस्मती ऐसी थी कि वही समय होता था आदित्य के युनिट टेस्ट या फ़ाइनल परिक्षाओं का। उन दिनों में हमारे पास कोई वाहन भी न था। तो बस जगह की दूरी और समय की कमी के चलते हमारा एक दूसरे से मिलना छूटता चला गया। और हमारी ये प्यारी सी सहेली कहीं खो गयी है। हम यहां उसकी तस्वीर लगा रहे हैं इस उम्मीद में कि हिन्दी भाषी होने के कारण शायद वो ब्लोगस पढ़ती हो या आप में से शायद कोई इसको जानता हो। अगर आप इंदिरा को जानते हैं तो कहिएगा कि इंदू अनिता आज भी तुम्हारा इंतजार कर रही है।

May 10, 2008

एहसास

एह्सास

मेरे एक नेट मित्र हैं देहली से राजेश जी, उनका लड़का विरल त्रिवेदी लगभग मेरे लड़के की ही उम्र का होगा। नयी पीढ़ी का नवयुवक जिसका आत्म चिंतन भी अंग्रेजी में होता है। किताबों से दूर, आत्मविश्वास और अपने अंदर के टेलेंट के बूते पर आगे बढ़ने का सलीका लिये एक आम बम्बईया पैदावार लगता है, है नहीं । नीचे लिखी तस्वीर उसी ने नेट पर से ढूंढ निकाली थी और इसे देख कर उसके मन से जो फ़ूटा वो आप भी देख सकते हैं। हम तो हैरान हुए ही उस अक्ख्ड़ सी शख्सियत के पीछे छुपे इस संवेदनशील मन को देख कर, सोचा आप से भी बांट लें। भविष्य में सकारात्मक संभावनाएं अभी बाकी हैं।


एहसास


तेरी गरम बाहों को आज भी ओढ़ कर सोता हूँ मैं


तेरी सासों की महक से आज भी मदहोश होता हूँ मैं


तेरे केसुओं को आज भी अपनी उंगलियों से सहराता हूँ मैं


तेरी रूह के आइने में खुद को आज भी देख पाता हूँ मैं



तेरे जिस्म का एहसास आज भी वैसा ही बरकरार है


तेरे बदन की खुशबु से आज भी दिल की दुनिया गुलजार है


तेरे हाथ को अपनी दो हथैलियों में रख कर


निगाहों से हाले दिल सुनाने का सिलसिला भी जारी है



मेरी बेजुबान आखें तेरी सिलवटों का आइना बनकर


मुझे रोज सहर में झिंझोड के जगा देती है


मैं महसूस करता हूँ ये सब, इन एह्सास को जी नहीं पाता


फ़िर भी, वो एह्सास है जो जिन्दा है आज भी , सांस ले रहा है


काश हम थोड़ी देर और साथ जी पाते, तुम और मैं


खैर, इन एहसासों का मैं शुक्रिया कैसे करुं


कि तुम्हें अब तक मुझसे जोड़ के रखनेवाले वो ही तो हैं


ये एहसास ही तो है, जो हमको जोड़े रखेगें…हमेशा।

May 07, 2008

कविताई शाम -भाग 2



कविताई शाम -भाग २




बहुत बोले कविताई शाम पर पिछली बार पर फ़िर भी कुछ कहना बाकी है। ये तो बताना भूल ही गये थे कि उस दिन विश्व हास्य दिवस था और कवि सम्मेलन भी हास्य कवि सम्मेलन था। और कुछ कवियों की खास कर अपने ब्लोगर भाइयों की कविताओं का जिक्र नहीं किया था, तो फ़िर उनकी नाराजगी तो झेलनी ही पड़ती न। इसके पहले कि हमें शिकायतों की मार सहनी पड़े हम ही उनमें से कुछ और लोगों का जिक्र कर देते हैं।




अंनत श्रिमाली को कवि तो नहीं कहा जा सकता पर वो बम्बई हर कवि सम्मेलन की जान होते हैं। वो एक अच्छे व्यंगकार हैं और सरकारी सेवारत हैं। एक बात जो और पता चली वो ये कि उनके पत्नी प्रेम के चर्चे बड़े मशहूर हैं , पत्नी से जुदाई सिर्फ़ उतनी ही सहन कर सकते है जब तक दफ़्तर में रहते हैं।




मेघा श्रिमाली जी भी उनका पूरा साथ देते हुए हर कवि सम्मेलन में उनके साथ रहती हैं। वो इतनी प्यारे व्यक्तित्व की स्वामी हैं कि हमें कोई आश्चर्य नहीं हुआ कि वो भी पति के साथ साथ हर कवि सम्मेलन में प्राण फ़ूंकती हैं।




सागर जी ने पिछ्ली पोस्ट पर पूछा था क्या हस्तीमल हस्ती जी वहीं हैं जिनकी लिखी गजल जगजीत सिंह जी ने गायी थी


"प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है, नये परिंदों को उड़ने में वक्त तो लगता है"


विकास ने जो कविता(देश जला दो) सुनाई थी वो आप सब ने उसके ब्लोग पर पढ़ ही ली होगी।




बसंत आर्या आज कल अपने ब्लोग पर बहुत कम लिखते हैं। लिखना तो चाह्ते हैं पर वो बिचारे भी क्या करें, ये बम्बई के लोग उन्हें छोड़े तब न, दिन भर इन्कम टैक्स के दफ़्तर में ये लोगों की बजाते हैं और शामों को एक कवि सम्मेलन से दूसरे। हमारे यहां से भी अपनी कविता पढ़ निकल लिए थे दूसरी जगह जो पहुंचना था। बड़ी मुश्किल से उस दिन् की पढ़ी रचनाएं आप लोगों के लिए लाई हूँ आशा है आप को भी ये मजेदार लगेगीं।


"दुख वाली घडियाँ तो सब ने अकेले काटी सुख आया तो दौड़ के जमाने वाले आ गये

कली जब फूल हुई खिल के एक रोज तो फिर आस पास भवरे मडराने वाले आ गये

औ कवि गन जो कविता सुनाने वाले आये तो श्रोता गन तालियाँ बजाने वाले आ गये

कविता की मौत मंच पे हो गई उसी दिन जो घूम घूम चुट्कुले सुनाने वाले आ गये




इसे देख आह किया उसे देख वाह किया आज कल के मजनूँओं की बात ही निराली है

इसके संग जीने की तो उसके संग मरने की बात बात मे ही सारी कसमे भी खा ली है

तो सिर्फ कॉलेज नही जितने भी नॉलेज मे है बारी बारी पींगे सब से प्रेम की चढा ली है

और उनके भाई जब लाठी लेके आ गये तो हर एक से जाके खुद ही राखियाँ बंधा ली है


उंची रहे नाक और जम जाये धाक यह सोंच के किया मजाक एक रोज मन में

पत्नी से बोला तूने सुना तो जरूर होगा तीन रानियाँ थी दशरथ के भवन मे

सुनते ही पत्नी के दिल से धुँआ उठा और आग लग गई जैसे पूरे तन मन में

बोली गर दशरथ बनने की सोंचोगे तो मैं भी बन जाउंगी द्रोपदी एक छन में




शाश्वत रतन, अतुल सिन्हा, रविदत्त गौड़, डा सतीश शुक्ल, डा ब्रह्मदेव, कवि इक्बाल मोम राजस्थानी, जैसे कुछ और दिग्गज कवियों ने अपनी रचनाएं सुनाई। लेकिन चलते चलते मैं सोच रही हूँ कि नीरज जी की रचना मैं आप को यहीं पढ़वाती चलूं, मेरी टेकनिकल काबलियत पता नहीं कब तक परवान चढ़े तब तक नीरज जी का किया कविता पर किया हुआ नया प्रयोग देखें

नीरज जी
गर जवानी में तू थकेला है, सांस ले कर भी तू मरेला है
सच ब्यानी की ठान ली जब से , हाल तब से ही ये फ़टेला है
ताजगी मन में आ न पाएगी, घर भी चारों में तू सड़ेला है
रात गम की ये बेअसर काली, चांद आशा का गर उढेला है
लोग सीढ़ी है काम में ले लो, ये जो बात बचपन से पढ़ेला है
रोक पाओगे तुम नहीं नीरज, वो गिरेगा फ़ल जो पकेला है।
अच्छी लगी तो यहां वाह वाह कर दीजिए नहीं अच्छी लगी तो हम कहेगें मैं नहीं कहता ये नीरज कहता है…।:)
अंत में नीरज जी की टिप्पणी को ध्यान में रखते हुए उनके मोबाइल से खीचीं विनोद और अनिता की फ़ोटो। कविताई कीड़ा हमको भी काटा था, लेकिन पहले फ़ोटो क्युं नहीं दिखाई आप फ़ोटो देख कर समझ जाएगें…:)
हमारे कविता पढ़ने से पहले ही पतिदेव मुंह फ़ेर कर बैठे हैं मानों पहले से लोगों की प्रतिक्रिया जानते हों.॥:)

May 06, 2008

ब्लोगी कीड़ा काट गया




ब्लोगी कीड़ा काट गया




एक बार अजीत जी ने शिकायत की थी कि हमने अपने बारे में इतनी बक बक की बकलम खुद पर फ़िर भी अपने पतिदेव के बारे में कुछ नहीं कहा, यहां तक की उनका नाम तक नहीं बताया, एक और ब्लोगर भाई ने सोचा कि शायद हम इतने पुराने जमाने के हैं कि पतिदेव का नाम नहीं लेते(हा हा)। लेकिन विनोद जी के बारे में कुछ कहने का मौका तो होना चाहिए था, सो आज वो मौका मेरे हाथ लगा है।





हुआ यूं कि परसों रात विनोद जी को ब्लोगी कीड़ा काट गया। उन्हों ने इच्छा जाहिर की कि वो भी अब अपना ब्लोग बनाना चाह्ते हैं । मुसीबत ये हैं कि वो भी टेकनॉलोजी चैलेंजड हैं और समय की कमी से त्रस्त। पर इसके पहले की बात आयी गयी हो जाती हम ने सोचा कि मेरे ही ब्लोग पर एक पारिवारिक पोस्ट क्युं न हो जाए(आइडिया ज्ञान जी से चुराया है॥:))। विनोद जी के बारे में थोड़ा परिचय देती चलूं। विनोद जी काफ़ी विनोदी प्रकृति के हैं पर दूसरों से घुलने मिलने में थोड़ा वक्त लेते हैं, काफ़ी अच्छा लिखते हैं (ये सिर्फ़ मैं नहीं कहती),अच्छे चित्रकार हैं और फ़ोटोग्राफ़ी का खूब शौक है। बड़े घुमंतरु हैं, हर इतवार को जहां हम घर पर ही आराम करना चाहते हैं वहीं ये गाड़ी उठा के मीलों दूर के चक्कर लगाना चाह्ते हैं। रेलगाड़ी से सफ़र करना हो तो हम साथ में किताबों का बड़ा सा पुलिन्दा ले कर चलते हैं और विनोद पढ़ने के शौकीन होने के बावजूद रेलगाड़ी में किताब की तरफ़ नजर उठा कर भी नहीं देखते, खिड़की के बाहर के नजारे इन्हें ज्यादा लुभाते हैं।




यहां उनकी खीचीं कुछ फ़ोटोस दिखा रही हूँ। अपने आस पास फ़ैली आम सी दिखनी वाली चीजें भी उनके कैमरे की आँख से कुछ अलग ही दिखने लगती हैं इसका ये नमूना है। ये फ़ोटोस परसों रात को खीचीं गयी हैं और सिर्फ़ हॉल में रखी वॉल युनिट की हैं।


















वॉल युनिट






वॉल युनिट पर रखे गणपती जी











फ़ूलदान के फ़ूल
























अगर
आप को ये पोस्ट पसंद आयी तो पारिवारिक पोस्ट का सिलसिला आगे बढ़ायेगें।




May 05, 2008

कविताई शाम

कविताई शाम


ह्म्म! अब कुछ पल सुस्ताने बैठी हूँ तो कल शाम को याद कर खुद ही हैरान हूँ। मैं जिसका हिन्दी प्रेम सरस्वती नदी की तरह कई परतों के नीचे दफ़न था और जिसके घर के सदस्यों के लिए हिन्दी साहित्य काला अक्षर भैंस बराबर है, उसके घर पर हिन्दी कवि सम्मेलन का आयोजन हुआ। ये चमत्कार नहीं तो और क्या हो सकता है। ये मुमकिन हुआ बतरस की बदौलत्। जैसा हमने बताया था कि पिछ्ले कुछ महीनों से हमने इसकी गोष्ठियों में जाना शुरु किया है। हमारे घर से काफ़ी दूर पड़ता है फ़िर भी हम हिम्मत कर ही डालते हैं। ऐसी हिम्मत वेस्टर्न मुम्बई में रहने वाले नहीं कर पाते( है न यूनुस जी?…J)। खैर पिछली बार हमने ठिठाई दिखाते हुए मई महिने की बतरस हमारे घर रखने का प्रस्ताव रखा और ये बतरस के सदस्यों का बड़प्पन और न्यायप्रियता ही है कि उन्हों ने हमारा प्रस्ताव तुंरत मान लिया। त्रिपाठी जी को डर था कि हमारा घर इतना दूर और कवि सम्मेलन का आयोजन रात के समय होने के कारण शायद बहुत से लोग नहीं आये और शो कहीं फ़्लोप न जाए।

आख़िर वो दिन आ ही गया, मानसिक तनाव अभी बरकरार था। हमारे एरिआ में लोड शैडिंग होती है तो रोज 4-5 शाम को लाइट नहीं होती, मकान है आठ्वें माले पर, आने वालों में कई बुजुर्ग्। पर हमारी किस्मत देखिए शायद रविवार होने के कारण कल बिजली भी नहीं गयी। हॉल धीरे धीरे भरना शुरु हुआ और एक घंटे में कम से कम 45 लोग आ चुके थे। और लोगों का आना अभी जारी था। अब आश्चर्यचकित होने की बारी त्रिपाठी जी की थी।


ऊपर से अरविंद शर्मा राही जी( ये कवि भी हैं और बिल्डर भी) के कहने पर लोकल टी वी चैनल वाले आ गये पूरा प्रोग्राम रिकॉर्ड करने और तीन टेकनिशियन और कैमरा स्टेंड ने मिल कर चार लोगों की जगह कब्जे में ले ली तो युवा कवियों ने हॉल के साथ सटी सीड़ियाँ हथियाई देख हमें अपने कैम्पस के दिन याद आ रहे थे। आने वाले कवियों में से कुछ को हम ब्लोगजगत की वजह से पहचानते थे जैसे बसंत आर्या, विकास और अलोक (आय आय टी से), नीरज गोस्वामी जी का जब फ़ोन आया कि वो भी आ रहे हैं तो हमें सुखद आश्चर्य हुआ। इनके अलावा आने वालों दिग्गजों की लिस्ट भी काफ़ी लंबी

थी, जैसे दवमणि पांडेय( ये कवि भी हैं, फ़िल्मों के लिए गाने लिखते हैं और फ़िर भी टाइम बच जाए तो इन्कम टैक्स ऑफ़िस में काम कर लेते हैं बसंत आर्या जी के साथ),
देवमणि जी की सुनाई कविता की चार पंक्तियाँ-


"हर खुशी मिल भी जाए तो क्या फ़ायदा
गम अगर न मिले तो मजा कुछ नहीं
जिन्दगी ये बता तुझसे कैसे मिलें
जीने वालों को तेरा पता कुछ नहीं"


"यूं ही तो लोग कहते नहीं उनको किंग खान
शाहरुख ने बादशाहत का रुतबा दिखा दिया
चक दे की हाकियों से जो भी कमाया माल
क्रिकेट की चियर गर्ल्स पर वो सब लुटा दिया॥"


कपिल कुमार( ये 76 वर्षिय युवा हैं जो एक्टर, गीतकार और मॉडल हैं),
कनक तिवारी( ये कवियत्री तो हैं ही साथ साथ में इंजिनियरिंग कॉलेज में कम्युनिकेशन स्किल्स पढ़ाती हैं, हिन्दी फ़िल्म राइटरस एसोसिएशन की सदस्या हैं, दो अखबारों में एडिटर रह चुकी हैं और भी न जाने क्या क्या),


अक्षय जैन से मैं आप को पहले भी मिलवा चुकी हूँ । सत्तर को पार कर चुके जैन साहब एक बहुत ही डायनमिक शख्शियत के मालिक हैं,मूलत: मार्क्सवादी पर फ़िर भी मार्क्सवादियों और आर एस एस को उनकी अवसरवादिता पर लताड़ने से नहीं झिझकते। उनके बारे में लिखने जाऊँ तो कई पन्ने लग जाएं यहां मैं उन्हीं की म्युसिक एलबम "आगे और लड़ाई है" के कुछ अंश सुनाती हूँ
"जिस घर में मिट्टी मुलतानी
जिस घर में मटके का पानी
जिस घर में तुलसी की पूजा
जिस घर में मीठा खरबूजा
जिस घर में दादी के किस्से
उस घर के न होवें हिस्से
घर से बड़ा न कोई मंदिर
तीरथ ऐसा न कोई दूजा
जाप करो तुम लाख हजारों
घर से बड़ा न कोई पूजा"


जाफ़र रजा-
ये तो नवी मुम्बई के ही शायर निकले। उन्हों ने अपनी नयी गजलों की किताब दूसरा मैं की एक प्रति हमें भेंट की, उसी में से कुछ शेर सुनाती हूँ-


“कदम कदम पे दिले-गमजदा दुखाया गया
तमाम उम्र मेरा सब्र आजमाया गया
कसम तुम्हारी अभी तक खबर नहीं मुझको
सलीब-ओ-दार पे कब कब मुझे चढ़ाया गया
तेरी निगाह से गिरना मेरा बिखर जाना
वो कत्ल था कि जिसे हादसा बताया गया” ।


पूर्ण मनराल- इनका नाम हमने ही नहीं सुन रखा था, इन की भेंट की किताब में इनका परिचय देख लगता है कि आप सब इनसे परिचित ही होगें। पत्रकारिता, रेडियोस्टेशन से जुड़े हुए शासकिय सेवारत।


खन्ना मुजफ़रपुरी, राकेश शर्मा, रितुराज सिंह, रवीन्द्र मौर्या, राजेन्द्रनाथ शर्मा, मनीष ठाकुर, सविता अग्रवाल, तारा सिंह, और भी बहुत सारे। कुमार शैलेन्द्र,हस्तीमल हस्ती ये वो कवि हैं जिनकी कविता कई दिनों तक जहन में छायी रहती है।


कुमार शैलेंद्र जी की कविता की कुछ पक्तियाँ देखिए
"कबिरा बैठा लिए तराजू
तौल रहा दुनियादारी
जो भीतर से जितना हल्का
बाहर से उतना भारी"।


हस्तीमल हस्ती जी पेशे से सुनारे हैं , दुकानदार हैं। अब उनकी कविता की चार लाइन देखिए
"ये नहीं कहता मैं कि खवाब न लिख
अपने कांटों को तू गुलाब न लिख
जिससे लिखता है प्यार की चिठ्ठी
उस कलम से कभी हिसाब न लिख।


राकेश शर्मा जी को सुनिए
" दिल देता जो हुकुम हम वही करते हैं
चाहत पर कुर्बान जिन्दगी करते हैं
इस दर्जा नफ़रत है हमें अंधेरों से
घर को अपने फ़ूंक कर रोशनी करते हैं।"


नीरज जी की कविता नीरज जी की ही आवाज में सुनाने का मन है लेकिन क्या करें ये टेकनॉलोजी चैलेंजड होना बीच में आ जाता है। कौशिश जारी है( संजीत , मुस्कुराओ मत,हमें सुनाई दे रहा है, कौशिश करने वालों की हार नहीं होती। तुम देख लेना एक दिन हम गायेगें “ जीत जायेगें हम , बस थोड़ी कसर है “…J) आखिर नीरज जी ही हमारी मदद को सामने आये और आज अपने मोबाइल से खीचीं तस्वीरें हमें में भेज दीं। ये तस्वीरें जो आप देख रहे हैं वो नीरज जी के ही सौजन्य से हैं । नीरज जी धन्यवाद्।


कविताओं के दौर के बाद खाना, समय कैसे उड़ा और कब एक बज गया पता ही न चला।
यहां एक किस्से का जिक्र करना बहुत जरुरी है। नीरज जी खाना खाए बिना जा रहे थे, हमारे हजार आग्रह करने के बाद भी वो टस से मस नहीं हुए। और भी कुछ लोग बिन खाए गये हमें इतना बुरा नहीं लगा पर नीरज जी तो ब्लोगर मित्र हैं, इनका इस तरह से जाना हमें बहुत खराब लग रहा था। हमने अंतिम ब्रह्म शस्त्र चलाते हुए कहा कि अगर आप खाए बिना गये तो आप की शिकायत कलकत्ते पहुंचा दी जाएगी, शिव भैया फ़िर देखना आप को कितना गुस्सा करेगें। आप यकीन नहीं करेगें नीरज जी चुपचाप खाने की टेबल की तरफ़ बढ़ लिए और मिठाई का टुकड़ा मुंह में डाल शिव भैया के नाम का मान रख लिया। शिव भैया, ऐसी पक्की दोस्ती कैसे की जाती है जरा हमें भी गुर सिखाए दो प्लीज्।
इस कवि सम्मेलन का एक अप्रत्याशित परिणाम भी निकला, पर उसके बारे में कल बताएगें। लेकचर के पचास मिनिट खत्म हो गये हैं और मुझे खर्राटे सुनाई दे रहे हैं…J

May 04, 2008

पानी बचाय के ना रखबेया, तब ना हम लेबै सराध में पानी...

मित्रों आप सब अब सत्यदेव त्रिपाठी जी को जानते हैं जिनके बारे में हम अक्सर जिक्र करते हैं । हैं तो विद्वान लेकिन अभी तक ब्लोग की दुनिया से रुबरु नहीं हुए। हमारी सोहबत में इस ब्लोग नशे का थोड़ा सा रस्वादन किया है बस्। वो हर हफ़्ते "आज समाज" नामक समाचार पत्र के लिए फ़िल्म रिव्यु लिखते हैं। कभी कभी हमें भी पढ़ने का मौका मिल जाता है। उनके अनुरोध पर उनका लिखा एक फ़िल्म रिव्यु यहां पेश कर रही हूँ, आशा करती हूँ आप को भी ये उतने ही पसंद आयेगें जितने हमें आये।

बिन पानी सब सून...
पानी बचाय के ना रखबेया, तब ना हम लेबै सराध में पानी...
बिन पानी सब सून’ पर लिखने के लिए बात करते हुए आदरणीय विश्वनाथजी ने कहा - ‘पानी’ को आप किस रूप में देखते हैं, लिखिए। और मेरे अध्यापक ने शायद फ़ौरन ‘हाँ’ कर दी - तीस साल के अध्यापन के दौरान छिटफुट दोहों के अलावा कभी रहीम को ठीक से पढाने का मौका जो नहीं मिला... तो सोचा होगा कि इसी बहाने कुछ कह पायेंग़ॆ...
और सोचते हुए सबसे पहले रहीमदास की वह लोकवृत्ति ख्याल में आयी, जिसने उनसे न ही लोकजीवन व लोकसंस्कृति के ‘टिपिकल’ (खास व अछूते) प्रसंगों को दोहों का माध्यम बनवाया (काश, कुछेक उदाहरण दे पाता !) , वरन लोक के शब्दों का भी सहज-सटीक प्रयोग कराया। ‘पानी’ ऐसा ही लोक का- लोगों का, बहुजन का शब्द है । विशिष्ट जन का तो ‘जल’ है, जहां जलपान होता है। आमआदमी तो ‘पानीकानौ’ व ‘मीठा-पानी’ करता था। देवताओं को आज भी ‘जल’ देते हैं, पित्रों को पानी देते हैं, मित्रों को पानी पिलाते हैं और शत्रुओं को पानी पिला-पिलाकर मारते भी हैं...। हम पानी पीते-पिलाते हैं, तो समाज में होते हैं, वरना तो कहते हैं - उसके यहां कोई पानी तक नहीं पीता...। सो, लोक-जीवन का मानदण्ड है - पानी। लोक के लिए प्रयुक्त पानी के शब्द-युग्मों में दाना-पानी, रोटी-पानी...और ‘हुक्का-पानी’...। फिर तो उसका हुक्का-पानी बन्द होने लगा, जिसने कोई समाज विरोधी काम किया हो। इस तरह वह इज्जत-पानी हो गया- भाई, इज्जत-पानी बनाये रखना...।
और तब यह इज्जत राष्ट्र तक पहुंच गयी, जब हमारे भोजपुरी कवि के मरणासन्न बूढे पात्र ने अपने बेटे से कहा - ‘पानी बचाय के ना रखबेया, तब ना हम लेबै सराध में पानी’। देखिए, ‘इज्जत’ शब्द निकल गया। अकेले पानी ही वह काम करने लगा। मेरी समझ से पानी के इज्जतविषयक अर्थ का यह चरम है, जो हमारे लिए सबसे मह्त्त्वपूर्ण है। इज्जत के वजन पर ही पद-पानी, पत-पानी भी चलते हैं। पद-पानी तो समझा जा सकता है, पर ‘पत-पानी’ में ‘पद’ से ‘पत’ का भेद मात्र भाषा-शास्त्र का नहीं है। इसके पीछे छिपा समाज-शास्त्र काफी बारीक है, पर यहां बताने का अवकाश (स्कोप) नहीं...।
इज्जतदार के लिए तो पानीदार कुछ कम भी कहते हैं (गोकि उसमें थोडा अलग व ज्यादा अर्थ भी भर उठा हैं - ‘आदमी ‘पानीदार’ है’ में कुछ-कुछ ‘कौल का पक्का’, ‘बात पर मर-मिटने वाला’ का भाव भी आ जाता है। ‘वो तो एक पानी पर रहता ही नहीं’, में यह अर्थ साफ़ देखा जा सकता है) , पर ‘बेइज्जत’ के लिए ‘बेपानी’ तो धडल्ले से चलता है। काफी व्यंग्यात्मक भी हो गया है। हम अपने मित्र ‘नीरन’ को ‘नीर-न’ के विच्छेद के साथ विनोद में बेपानी कह्ते हैं । पानी का चढना तो पानी ही रह गया, पर ‘पानी उतरने में’ तो इज्जत ही उतरती है। और पानी उतरने से ज्यादा पानी उतारा जाता है। इसीलिए ‘भरे बाज़ार उनका पानी उतर गया’ से ज्यादा सटीक व प्रचलित है- ‘उसने भरे बाज़ार उनका पानी उतार दिया’। और जिसका ‘पानी उतर गया’, वो समाज में ‘पानी-पानी’(शर्मसार) हो जाता है। वो फ़िर कैसे सर उठाकर चलेगा ?
तो हो गया न उसके लिए ‘बिन पानी सब सून’। इसीलिए ‘पानी रखने’ याने बचाये व बनाये रखने की बात रहीमदासजी ने कही है - ‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून’। और उदाहरण देते हुए बताया- ‘पानी गये न ऊबरहिं, मोती मानस चून’। यह ‘मानस’- मानुष- मनुष्य ही है, जिसका पानी (इज्जत) चले जाने के बाद फिर वह उबर नहीं पाता । उसका जीवन सूना (शून्य) हो जाता है। कुछ विद्वान ‘मानस’ को ‘मानसरोवर’ से भी जोडते हैं। पर मानसरोवर में तो पानी का अर्थ पानी ही रह जायेगा (यूँ मानसरोवर में पानी नहीं होता, सलिल होता है - ‘मानस सलिल सुधा प्रतिपाली’) , जो पानी के बिना सूख कर सूना हो जाने वाले उस चूने में भी है। पर मोती का पानी !! सुनार तो नकली गहने पर भी पानी चढाकर असली बना देते हैं। पर सोहनलाल द्विवेदी ने अपनी कविता ‘नन्हीं बूँद’ में बताया कि वह पानी (शायद स्वाती नक्षत्र के पानी) की बूंद ही होती है, जो समुद्र में पडे सीपी में जाकर मोती बन जाती है। बूँद सीपी में टपकी तो मोती, और आँख में अटकी, तो मोती - ‘अटका तो मोती है ; टपका, तो पानी है’।
ये विशिष्ट हैं, वरना तो पानी के बिना कुछ भी बना नहीं रह जाता। सब कुछ सूख जाता है - ‘धान-पान अरु केरा, तीनो पानी के चेरा’ की तरह। इसलिए मनुष्य की बात न होगी, तब तो दोहा बहुत सामान्य हो जायेगा। यह विशिष्ट है मानुष के लिए और उसके पानी (इज्जत) के लिए । कविता मनुष्य की होती है। मनुष्य के लिए होती है। प्रकृति तो उसमें उदाहरण बनकर आती है- चूने-मोती के पानी की तरह।
लेकिन रहीम पुराने जमाने के थे। आज सबकुछ बदल गया है। मनुष्य के पानी (इज्जत) की आज कोई कद्र नहीं रही। कद्र तो मनुष्य मात्र की ही नहीं रही...।
तो किसकी रही॥? बशीर बद्र के शब्दों में सुनिए -
‘घरों पे नाम थे, नामों के साथ ओहदे थे; बहुत तलाश किया, कोई आदमी न मिला’।
तो ओहदे के (वैभव) की कद्र रह गयी है। इसके सामने आदमी ही कुछ नहीं रहा, तो उसके पानी का क्या ? तमाम बेपानी लोग ही बडे-बडे ओहदों पर आसीन हैं। या यूं कहें कि बडे होने के लिए बेपानी होने के रास्ते से ही गुज़रना होता है। प्रमाण देने की कोई ज़रूरत नहीं - जिस नेता, जिस पूंजीपति, जिस अफ़सर, जिस धर्मगुरु...आदि-आदि पर उंगली रख दो, सब बेपानी ही मिलेंगे - ‘जिसकी पूँछ उठायी, उसको मादा पाया’ । हाँ, अपवादस्वरूप कोई पानीदार मिल जाये, तो मैं मूसलों ढोल बजाऊं ! वरना आज की आम हक़ीकत तो यही है कि जयप्रकाशजी के बाद दुष्यंतकुमार के शब्दों में अब ‘इस अँधेरी कोठरी में एक रोशनदान ’ भी नहीं रहा...।
और जग जाहिर है कि इस मनुष्य के पानी की कद्र दृश्य मीडिया और पाठ्य मीडिया के दैनिकों में नहीं रही॥। सप्ताहिकों-मासिकों में है, पर कितनी व कैसी तथा क्यों, की बात न ही करें, तो अच्छा...। और मैं क्या, आप सभी जानते हैं कि ‘नवनीत’ का यह आयोजन भी रहीम के उस पानी के लिए नहीं है, जीवन में काम आने वाले पानी के संकट की करंट समस्या से बावस्ता है। अब आप पूछेंगे कि फिर अब तक मैं क्यों भटका रहा था आपको ? तो जिस तरह साहित्य की पंक्ति को माध्यम बनाया गया इस भौतिक समस्या को रखने के लिए, उसी तरह इस उक्ति के माध्यम से साहित्यिक बात कह देने का यह भी माध्यम है...। हिसाब बराबर हो गया । अब आगे चलें ...
इन दिनों भीषण गर्मी है। इसमें पानी का टोटा है। सो, इस वक्त यह विषय मीडिया के लिए मौसमी (सीज़नल) है। मीडिया का टेक्स्ट है। आज (दो मई को) ही खबर छपी है कि पानी की बेह्द कमी होने से एक गाँव में लडकों की शादियां नहीं हो रही हैं। लोग वहां की स्त्रियों को पानी ढोते हुए देखते हैं और अपनी बेटियां व्याहने की हिम्मत नहीं करते...।
वरना पानी की मूल समस्या तो बारहो महीने है। सूखे-दुर्भिक्ष-अकाल पहले भी पडते थे, लेकिन आज भी सारी प्रगति व साधन-सम्पन्नता के बावजूद खेतों में पानी नहीं है। पम्पिंग्सेट-इंजन-ट्रैक्टर के लिए किसान कर्ज़ ले रहा है। वापस नहीं कर पा रहा है। आत्महत्याएं कर रहा है...। सनातन आश्चर्य का विषय है कि दो 70% पानी के बावजूद सृष्टि की 30% धरती प्यासी रहती है...। मैदानों में पानी लाने के प्रावधान में सारे संसाधन व सारी तकनीक क्यों फ़ेल हो जाती है? नहरें निकली तो हैं...पर जब जरूरत होती है, तभी वे सूखी क्यों रहती हैं? और ख़ुदा-न-ख़ास्ते जब पानी आता हैं, तो इस क़दर कि या तो खडी फ़सलें डूब जाती हैं या फिर खाली खेतों में बुवाई महीनों लेट हो जाती है...। पानी से बिजली बनती है और बिजली की बेतरह कटौती गाँवों में ही होती है। छोटे शहरों के लघु उद्योग बिजली के बिना बन्द हो रहे हैं। कानपुर के उद्योग जब उजड रहे थे, तो लखनऊ में बिजली मंत्री के घर में आपूर्त्ति की आधी दर्जन स्कीमें जोर-शोर से काम कर रही थीं। उन लघु उद्योगों को मुम्बई जैसे महानगरों में शरण लेनी पडती है....
और मुम्बई में पानी की कटौती आ-ए-दिन होती रहती है। कविता बनायी गयी है-
‘भाई वही है सच्चा प्रेमी, इतना आँसू रोज़ बहाये।
पत्नी जिसमें कपडा धो ले, बच्चा जिसमें खूब नहाये’॥
पर वही बात कि यह सब किसके लिए...और कहाँ॥ ? तो चालों-झोपडों व निम्नमध्यवर्गीय इलाकों में...। वरना जहाँ मंत्री-संत्री व बडे धनी-धरिकार लोग रह्ते हैं, वहाँ इतने पानी से कुत्ते नहलाये जाते हैं, जितने से एक चाल का गुज़ारा हो जाये...
इनकी करतूतें ऐसी भी हैं कि नदी की नदी बेच दे रहे हैं। वहाँ बहुराष्ट्रीय कंपनियां कोकाकोला बना रही हैं और आस-पास की सारी ज़मीनें बंजर होती जा रही हैं। ऐसे विद्रूप आजादी मिलने के बाद की योजनाओं के तहत गाँवों में भी हुए, जब गाँव के सार्वजनिक तालाब पट्टे पर किसी को दे दिये गये और पानी की अपासी से वंचित हो रहा है पूरा गाँव। इन हालात को लेकर कहावतें बनी हैं - नदी हमारी पानी उनका...और पानी उसको मिलेगा, जिसकी जेब में पैसा होगा...।
ये तो व्यवस्था की सीधी विडम्बनाएं हुईं...। इनके चलते ही हो रही है- प्रकृति के साथ छेडखानी, जो आधुनिक मनुष्य निरंतर कर रहा है। इससे यह समस्या दिन-ब-दिन विकराल होती जा रही है। ऋतुएं अपनी प्रकृति तक बदल रही हैं। बेमौसम बरसात हो रही है, तो बरसात में सूखे पड रहे हैं। अब लडकियां सावन में गाती हैं- ‘अरे रामा रिमझिम बरसे पानी, बलम घर नाहीं रे हरी,,,’ और उधर तपती धूप इस रोमैंटिक गीत का मज़ाक उडा रही होती है...। लेकिन अपने हित में प्रकृति को काटने-पाटने के इस रास्ते पर मनुष्य इतना आगे बढ चुका है कि लौटना नामुमकिन है - ‘हिम्मत है न बढूँ आगे को, साहस है न फिरूँ पीछे...’ की स्थिति है।
उदाहरण के लिए इतने सारे पम्पिंग सेट्स लग गये हैं, जिनसे एक तनिक पानी की ज़रूरत पर दस तनिक पानी निकल रहा है और धरती के भीतर पानी की सतहें नीचे से नीचे होती जा रही हैं। जब एकाध नलकूप (ट्यूप्वेल) लगे थे, तो ही आस-पास के कूएं सूखने लगे थे और उनसे पानी निकालना भारी हो गया था। तभी नहीं सोचा गया - खेती व देश की प्रगति का जज़्बा जो सवार था...। कैसे कहें कि यह ठीक न हुआ ? आज तो कूएं रहे ही नहीं। चौतरफ़ा हैंडपम्प हो गये हैं। उनमें भी मोटर लग गये हैं। पानी की आबादी के साथ बर्बादी वहाँ भी हो रही है। जलस्तर इससे भी नीचे जा रहा है...।
सो, ‘बिन पानी सब सून’ तो हो ही रहा है, किंतु इसका एक दूसरा पक्ष भी सामने आ रहा है, जिसे ‘बहुपानी सब सून’ भी कहा जा सकता है... भूमंडल का तापमान बढ रहा है... क्या प्रकृति के साथ छेडखानियों के चलते ...? और इससे ग्लेशियर पिघल रहे हैं। यह बढ तो रहा ही है... जितना ज्यादा बढेगा पिघलना, समुद्र का जलस्तर भी उतना ही बढेगा॥। विशेषज्ञों का अनुमान है कि यदि दो फिट भी बढा, तो दुनिया के मुम्बई जैसे तमाम शहर नष्ट हो जायेंगे...
कुल मिलाकर मुझे लगता है कि बिन पानी सब सून व बहुपानी सब सून के लिए बहुत दूर तक जिम्मेदार हैं - ऊपर बताये गये वे बेपानी लोग, जिनके पास सत्ता की शक्ति या फिर शक्ति की सत्ता है। उन्हें अपने देश व लोगों के पानी की पडी नहीं है। उनका बेपानी होना, देश के पानी पर भारी पड रहा है । और अब तो रहीमजी जैसे लोग रहे नहीं कि ‘रहिमन पानी राखिए...’की सीख दें...। अभी पिछले दिनों ही भोजपुरी के वे कवि चन्द्रशेखर मिसिर भी दिवंगत हो गये, जो अपने श्राद्ध का पानी न लेने की धमकी देकर भी पानी बचाकर रखने-रहने की बात कहते थे- पानी बचाय के ना रखबेया, तब ना हम लेबै सराध में पानी...। वैसे मैं जानता हूँ कि उनकी आज कोई सुनने वाला भी नहीं रहा, पर कहने वालों का न रहना भी बहुत साल रहा है...। इससे तो सचमुच ही और भी सब ‘सून’ होता जा रहा है - अफ़ाट शून्य...।
ऐसे में ‘नवनीत’ के इस तरह के आयोजन भी काफ़ी राहत दिलाते है - ‘कुछ नहीं’ के बीच ‘कुछ’ की याद का यह अहसास भी क्या कम है...!!
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बहुत जल्द आप त्रिपाठी जी को अपने ब्लोग पर लिखता पायेगें।