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March 18, 2009

ये दिल मांगे मोर

ये दिल मांगे मोर


18 मार्च हर साल आता है और चला जाता है। हर साल इस तारीख के मायने हमारे लिए बदल जाते हैं।किशोरावस्था में इस बात की उत्सुकता होती थी कि क्या होली 18 मार्च को पड़ी और कई बार ऐसा हुआ कि छोटीहोली या रंगपंचमी उसी दिन पड़ीं। उससे हमारी दिनचर्या में कोई फ़र्क नहीं पड़ जाता था लेकिन फ़िर भी बेबात केमन खुश कि देखाSSSS होली भी 18 मार्च की है। हम अभी तक इस बात का जवाब नहीं खोज पाये कि ऐसे में मनक्युं हर्षित हो जाता है। सिर्फ़ हमीं नहीं औरों के साथ भी ऐसा होते देखा है, अब हमारे पतिदेव जी को ही ले लिजीए।केलेण्डर आते ही झट से नवंबर के महीने का पेज पलटा जाता है देखने के लिए कि क्या दिवाली उनके जन्मदिन केदिन रही है। हैरानी की बात तो ये है कि हर दूसरे साल दिवाली उनके जन्मदिन के दिन ही होती है। क्या फ़र्कपड़ता है? बस ऐवेंही। आप के साथ भी ऐसा होता है क्या?

कई सालों तक ये तारीख हमको हर्षाती रही क्युं कि मार्च के दूसरे हफ़्ते तक सालाना परिक्षायें खत्म हो जाती हैं तोमार्च का मतलब होता था एक और साल का अंत और पढ़ाई से मुक्ति के कुछ और नजदीक। तब हम अपने घरकी बड़ी बूढ़ियों से बहुत रश्क करते थे कि देखो कितने आराम की जिन्दगी है, बस खाना बनाया और काम खत्म, आराम से दोपहर में सो लो शाम को घूम लो और किताबों की तरफ़ आंख उठा कर भी देखें तो कोई डांटने वालानहीं। उस जमाने में ये तारीख हमें अधीर कर जाती थी कि कितना कुछ है करने को और समय हमारे हाथ से एकसाल और फ़िसल गया। बात कभी अधीरता से आगे नहीं बड़ी। हम वही कछुए की चाल से चलते रहे। धीरे धीरे इसतारीख के मायने बदल गये। अब भविष्य के बदले भूतकाल को देखा जाने लगा, बचपन के दिन भी क्या दिन थे कितर्ज पर्।लेकिन फ़िर भी इस तारीख को देख तो लेते ही थे। पिछले चार पांच सालों में इस तारीख के अर्थ फ़िर बदलगये, अब भूतकाल देखते हैं भविष्य, रह गया है तो सिर्फ़ वर्तमान्। अब ये दिन आता है और चला जाता है औरघरवालों के आग्रह पर बाहर जा कर खाना खाने की रस्म अदायगी के साथ इसे यंत्रवत मना लिया जाता है।

इस साल भी ये दिन यूं ही आता और चला जाता अगर हमारे नवीनतम दोस्त पाबला जी अपनी जिन्दादिली सेइसमें प्राण फ़ूंकते। आप सबने पाबला जी से सुना कि कैसे द्विवेदी जी की बदौलत जनवरी के दूसरे हफ़्ते मेंपाबला जी से हमारी जान पहचान हुई वो भी फ़ोन और -मेल के जरिए और कैसे हमारी हालत ऐसी थी जैसे गलेमें हड्डी फ़स जाए। हमने बैल मुझे मार की तर्ज पर कॉलेज की वेबसाइट बनवाने का जिम्मा अपने ऊपर लेलिया था और 26 जनवरी को उसका उदघाटन होने का ऐलान हो चुका था। अगर मुझे खुद ये काम करना आताहोता तो कब का हो चुका होता लेकिन त्रासदी ये थी कि हम मित्रों पर निर्भर थे जिनके लिए ये काम बहुत छोटा थाऔर शायद इतना फ़ायदे का सौदा नहीं था।

हम पाबला जी के तहे दिल से शुक्रगुजार हैं कि उन्हों ने एक अनजान ब्लोगर की सिर्फ़ गुहार सुनी बल्कि तुरंतअपने तकनीकी ज्ञान की रस्सी फ़ैंकते हुए हिम्मत बंधायी कि डरिए मत अब हम गये है आप डूबेंगी नहीं।पाबला जी तो मुझे अपने लड़के गुरप्रीत से मेरा परिचय करा के दस मिनिट में विदा ले लिये ये बोल के कि आप काकाम मेरा लड़का देखेगा।मैं ये सोच रही थी कि हे भगवान द्विवेदी जी तो बोले थे पाबला जी वेबसाइट बनाना जानतेहैं और ये तो मुझे अपने लड़के के हवाले कर के चल दिये। इसके पहले पिछले दो महीने से हमारी दयनीय स्थितीका कारण था कि हमने अपने ही हिन्दी ब्लोगजगत के एक काबिल युवा ब्लोगर से जो वेबसाइट डेवेलपर भी है सेकाम करवाने की कौशिश की थी और औंधे मुंह गिर पड़े थे। खैर इस समय हमारे पास कोई दूसरा विकल्प था तोगुरप्रीत से बात करना शुरु किया। स्वभाविक था कि गुरप्रीत शुरु शुरु में काफ़ी रिसर्वड था, आखिरकार हम उसकेपिता के ब्लोगर दोस्त के रूप इंट्रोड्युस हुए थे और वो है मुश्किल से बाइस तैइस साल का नौजवान्, मेरे बेटे से भीछोटा। मैं तो उसे दादी अम्मा लगी होऊंगी और उसके भी मन में आशंका रही होगी कि ये बुढ़िया वेबसाइत के बारे मेंकुछ जानती भी है क्या? कैसे काम करुंगा इसके साथ? यू नो कम्युनिकेशन गेप्।

वेबसाइट बनाने के लिए हमारे पास अब सिर्फ़ एक हफ़्ता बचा था और अब ये वेबसाइट बनाने वाला बैठा था भिलाईमें और हम बोम्बे में। गुरप्रीत पर पहले ही से काफ़ी काम का बोझ था। तय ये हुआ कि हम दोनों रात को ग्यारहबजे के बाद बैठेगें और जी टॉक पर हम उसे समझायेगें कि हमें वेबसाइट में क्या चाहिए। चार दिन लगातार हमरात ग्यारह बजे से सुबह के चार बजे तक बैठे। चार बजे हम दो घंटे के लिए सोने जाते थे और साढ़े : बजे कॉलेजके लिए निकल जाते थे। हमारा तो काम हो रहा था इस लिए खुशी के मारे कोई थकान महसूस नहीं हो रही थीलेकिन गुरप्रीत के लिए जरूर महसूस होता था कि बिचारा पूरी पूरी रात हमारे साथ लगा हुआ है। जब भी उससेकहते कि भाई सुबह के चार बज गये अब सो जाओ कल देख लेगें वो कहता नहीं आंटी अभी तो जोश रहा है। उनचार दिनों में जिस तेजी से और जितनी बड़िया क्वालटी का काम उसने किया वो काबिले तारीफ़ है। इतने मेहनतीऔर इतना काबिल लड़के मैने बहुत कम देखे हैं। उस लड़के में सहन शक्ती भी अपार है। कितनी ही बार काम पूराहोने के बाद हम कह देते थे कि नहीं मजा नहीं आया या अब हमारे दिमाग में कोई दूसरा आइडिया रहा है जोज्यादा अच्छा लग रहा है, तो बेटा फ़िर से लग पड़ता था उस पेज को संवारने जब तक हम संतुष्ट हों। एक बार भीवो खीझा नहीं।

साथ साथ काम करने का एक और फ़ायदा ये हुआ कि हम दोनों धीरे धीरे दोस्त बन गये। मैं उसे स्नेह से बच्चाबुलाती हूँ और उसकी जुड़वां बहन को बिटिया। जब वो कोई ऐसी एन्ट्री करता जो हमें पूरी तरह से संतुष्ट करती तोहम उसे इनाम में आभासी ही सही लेकिन परांठे खिलाते। उसे पनीर के परांठे बहुत पंसद है। चार बजे वो कॉफ़ी ब्रेकले कर अपने लिए कॉफ़ी बना कर लाता तो एक कप हमें भी ऑफ़र करता। लगता मानों हम अलग अलग शहर मेंनहीं बल्कि एक साथ बैठ कर काम कर रहे हैं, जाहिर है कि काम के साथ साथ हम् ने उसे व्यक्ति के रूप में भीजानने की कौशिश की। बहुत ही हिचकते हुए उसने अपने बारे में जो बताया तो पता चला कि ये जनाब तो बहुत हीपहुंची हुई हस्ती हैं इस छोटी सी उम्र में विविध प्रकार का काफ़ी तजुर्बा हासिल किया है। मॉडलिंग की है, कई बड़ीबड़ी कंपनियों की वेबसाइट बनाई है, रेंप वाक किया है, डेटाप्रो में सीनीयर कस्टमर कंसल्टेंट का जॉब किया हैलेकिन आखिर में उसे अपना ही काम करना ज्यादा भाया और अब वो एक सफ़ल वेब डिजाइनिंग की कंपनी चलारहा है।
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From Daisy




उससे बाते करते हुए एक बात जो हमें पहली बार पता चली वो ये कि चांद पर जमीन खरीदी जा सकती है और इसछोटे से बच्चे ने चांद पर एक टुकड़ा खरीद रखा है और इस तरह ये अब्दुल कलाम, और बुश की जमात में गयाहै। हमसे पूछा कि आप को भी खरीदनी है क्या चांद पर जमीन। हमने दाम तो पूछा, मन भी ललचाया लेकिन फ़िरये सोच कर चुप हो गये कि पहले जरा ये सुपर प्रोग्रामर से पूछ लें कि हमारा अगला गंतव्य कहां रखा है, पता चलेहम ने जमीन ले ली चांद पे और हमारी सीट बुक्ड है धरती पर, फ़िर क्या करेगें जी?

इस बीच पाबला जी से हमारी बहुत कम बात होती थी, लेकिन बीच बीच में वो कभी ऑनलाइन दिख जाते थे। एकदिन हमने उनसे कहा कि बलविन्दर जी गुरप्रीत ने बहुत अच्छा काम किया है। स्नेही गर्वित पिता ने छाती फ़ुलाकर कहाअनिता जी , मैं चैलेंज के साथ कह सकता हूँ कि माय सन इस बेस्ट ऐस फ़ार ऐस वेब डेवेलमेंटटेकनीक इस कंसर्ड हम मुस्कुरा रहे थे, कितना अच्छा लगता है जब किसी माता पिता को अपने बच्चों परगर्वित होते देखते हैं। बात भी एकदम सही थी। गुरप्रीत किसी कॉलेज के लिए पहली बार वेबसाइट बना रहा था, लिहाजा उसे कोई आइडिया नहीं था उसका। मैने आइडिया देने के लिए उसे बम्बई के ही कुछ कॉलेजों कीवेबसाइटस के लिंक दिये जो मेरे हिसाब से अच्छी बनी हुई थीं। उसने मुझे कहाआंटी आप चिन्ता मत कीजिए इनसे अच्छी ही बना के दूंगाऔर उसकी बात सौलह आने सच निकली। कॉलेज की वेबसाइट देख कर दिल गार्डनगार्डन हो गया, मेरा भी और मेरे आकाओं का भी। अगर उसमें कहीं कुछ कमी है तो हमारी वजह से कि हमने उसेवो डेटा अभी उपलब्ध नहीं करवाया। आप भी देखिए हमारे कॉलेज की वेबसाइट
http://amcollegemumbai.org/
वेबसाइट बनते ही बच्चा यूं परदे के पीछे छुप गया जैसे स्टेज पर कलाकार अपना रोल खत्म होते ही नेपथ्य मेंचला जाता है। लेकिन जब भी हमें जरुरत होती है बच्चा हाजिर हो जाता है , अब हमें पाबला जी की सिफ़ारिश कीजरुरत नहीं पड़ती। वेबसाइट का काम खत्म होने के साथ साथ अब हमारे मन में ये इच्छा प्रबल हुई कि पाबलापरिवार को जाने। जितना हमने जाना उतना ही हमें अच्छा लगा। घर का हर सदस्य ( डेजी को मिला के) स्नेह सेओतप्रोत है। ऐसा लगता ही नहीं कि हम इन से अभी दो महीने पहले ही मिले हैं,मिले भी कहां, अभी तो सिर्फ़बतियाये हैं

एक दिन हमने पाबला जी से कहा कि किसी और वेब डिजाइनर ने हमें अपने नये कार्य का एक नमूना भेजा है जोहमें काफ़ी अच्छा लगा, ये कैसे किया गया जरा बताइए। देख कर बाप बेटा दोनों हंस दिये। गुरप्रीत भी वहीं थाउसने मुझसे कहा आंटी अपनी कोई दो तीन फ़ोटो भेजिए। हमने अपने परिवार की दो तीन फ़ोटो भेजीं , आननफ़ानन में हमारी फ़ोटोस का ऐसा काया कल्प हो कर आया कि मैं तो क्या मेरे पूरे परिवार की आखें फ़टी की फ़टीरह गयीं। मेरा लड़का तो कहने लगाये दिल मांगे मोर’, हमने कहा बेटा जी ज्यादा लालच नहीं करना चाहिए, एकदो फ़ोटो में तुम्हें हीरो दिखा दिया तो शुक्र मनाओ। होली पर आप सब उनकी वो कारिस्तानी का नमूना देख चुके हैं।

पाबला जी के स्नेह की थाह नहीं ये हम देख रहे हैं आज, बाप रे, मुझ जैसी साधारण सी ब्लोगर को इतना मान देदिया, इतनी मेहनत से पोस्ट बना दी मय गुब्बारों के, हा हा , इस उम्र में गुब्बारे भी। रात को ठीक बारह बजेगुरप्रीत का फ़ोन आया हमें बधाई देने के लिए और उसके पांच मिनिट के बाद बलविन्दर जी का, द्विवेदी जी को इसबात का मलाल रह गया कि बारह बजे हमारा फ़ोन नहीं मिला। हा हा हा। इतना अच्छा जन्मदिन तो हमने कभी भीनहीं मनाया भूतकाल में वर्तमान काल में। ये तारीख तो अब हमारे लिए अपने मायने खो कर महज एक आमतारीख बनने जा रही थी। शाम होते होते हम खुद से कह रहे थे कि बेटा बहुत खुश हो लिए चलो अब काम पर लगो, लोगों ने विश कर दिया , तुमने खुशियों से अपना दामन भर लिया , चलो अब कलम उठा लो, तुम्हारी हमेशा कीसाथी। तभी फ़ोन दनदनाया और हम हैरान रह गये कि दूसरी तरफ़ द्विवेदी जी की सुपुत्री पूर्वा वल्लभगढ़ से हमेंजन्म दिन की बधाई देते हुए गा रही थीहैप्पी बर्थडे……’ अरे तुम्हें कैसे पता चला, हमने खुश होते हुए फ़िर भीसवाल दागा। जवाब मिला लो आप को क्या लगता है हमें दुनिया की खबर नहीं रहती क्या? अभी हम उससे बतियाकर हटे ही थे कि फ़िर से घंटी बजी,इस बार दरवाजे की घंटी थी, दरवाजा खोला , सामने एक आदमी लाल सुर्खगुलाबों का गुलदस्ता लिए खड़ा था, हाथ में चिट लिए कि इस पर साइन कर दिजीए। सरप्राइस, सरप्राइस, गुलदस्ता गुरप्रीत और रंजीत (उसकी जुड़वा बहन) की तरफ़ से था। आखों में खुशी के मारे आसूं हैं और कहने कोशब्द कम पड़ रहे हैं।
जरूर जिन्दगी में कोई अच्छे कर्म किए होगें जो अचानक यूं हिन्दी ब्लोगजगत में गये और इतने अच्छे अच्छेलोगों से मुलाकात हो रही है। भगवान करे पूर्वा , गुरप्रीत और रंजीत की झोली सदा खुशियों से भरी रहे और हमें यूंही सदा आप सब का प्यार मिलता रहे। आमीन

March 13, 2009

तेरा नाम क्या है बसंती?

तेरा नाम क्या है बसंती?


शेक्सपियर ने कहा “अरे नाम में क्या रखा है?”
लेकिन सोचने वाली बात तो ये है भई कि नाम के बिना हमारा क्या अस्तित्व? किसी भी व्यक्ति से पहली मुलाकात, पहला वार्तालाप, स्टेज से भाषण में उवाचे पहले शब्द, टेलिफ़ोन पर उवाचे दूसरे शब्द ( पहला शब्द तो हैल्लो होता है), घरों के बाहर लगायी नाम की पट्टियाँ, आदि आदि, कहां कहां हम अपने नाम का प्रयोग नहीं करते। मुझे तो लगता है कि हम जिन्दगी में जो शब्द सबसे ज्यादा बोलते हैं वो है ‘माय नेम इस ………”। “ मैं … … बोल रहा हूँ”।
फ़िर शेक्सपियर साहब ने कैसे कह दिया जी कि नाम में क्या रखा है?
हमारी एक सखी से इस बारे में बतिया रहे थे। अब वो ठहरी अंग्रेजी विभाग की, शेक्सपियर को झूठा पड़ता तो देख ही नहीं सकती थी न्। सो तड़ से बोली लेकिन कितने ही लोग हैं जो अपने नाम बदल लेते हैं, छुपा लेते हैं। किसी भी विषय पर बात हो रही हो और हम भारतीयों को हिन्दी फ़िल्में न याद आयें ये तो बड़ा मुश्किल है न जी। सो उदाहरण भी फ़िल्म इंडस्ट्री के आने लगे, बोलीं कि देखो कितने ही लोकप्रिय कलाकार हुए जिन्हों ने अपने नाम छुपा कर छ्द्म नाम से अपनी पहचान बनायी, दिलीप कुमार, अजीत, मीना कुमारी से ले कर अपने खिलाड़ी नंबर वन अक्षय कुमार तक।

समाजशास्त्र विभाग वाली मैडम भी चर्चा में उतरीं और बोलीं कि विदेश गये भारतीयों को देखो, साल बीतते न बीतते उनकी काया पलट हो जाती है। जैसा देस वैसा भेस का अनुसरण करते हुए वो लोग न सिर्फ़ अपने कपड़े पहनने का ढंग बदल लेते हैं बल्कि अपने नाम का भी विदेशीकरण कर डालते हैं। सुमित सैम हो जाता है तो प्रमिला प्रोम हो लेती है।
अजी विदेशों की बातें छोड़ दें तो यहां भी अच्छे खासे नाम छोटे करने के चक्कर में अपना रंग रुप खो बैठते हैं जैसे आदित्य बन जाता है आदि, और आनंद बन जाता है अंडू, …॥

लेकिन जी शेक्सपियर गलत ही था। नाम में तो बहुत कुछ रखा है। नाम है तो जहान है। आप की कमाई के आकड़े आप के नाम पर भी निर्भर करते हैं, स्वीडन में हुई एक शोध के अनुसार जिन अप्रवासी नागरिकों ने अपने नाम बदल डाले उनकी सालाना आय में 114% की वृद्धी हुई। नाम बदलने के तीन साल पहले की आय और नाम बदलने के बाद तीन साल की आय में तुलना करने से ये वृद्धि देखी गयी।
ऐसा क्युं? वैरी सिम्पल।
ये तो जग जाहिर बात है कि जब कोई साक्षात्कार के लिए जाता है तो उसे नौकरी मिलेगी कि नहीं ये उसके कुर्सी पर बैठने से पहले ही निश्चित हो चुका होता है, बाकी का साक्षात्कार तो औपचारिकता निभानी होती है। केनडिडेट की शक्ल, हाव भाव, पोशाक ही निर्णय लेने में मदद करती है, और वो कहते हैं न जी ‘फ़र्स्ट इंप्रेशन इस ड लास्ट इंप्रेशन’, आदमी स्वभाविक रूप से इतना कंजूस है कि बाद में साक्षात्कार के दौरान अगर लगे तो भी अपना दिमाग खपाना नहीं चाहता और अपने पहले इंप्रेशन के साथ ही जाना चाहता है।

मेरे लेक्चर नुमा जवाब से बोर हो कर मेरी सहेली बोली ‘हां वो सब तो ठीक लेकिन नाम का क्या?,
लो जी साक्षात्कार के दरवाजे तक तो आप तब पहुंचेंगे न जब आप को कोई बुलायेगा। आप के बायोडेटा पर सबसे पहले आप का नाम पढ़ कर ही वो आप की शक्शियत की जो तस्वीर बनायेगा वही तो निर्णायक होगा कि आप को इंटरवियु के लिए बुलायेगा कि नहीं ।

मैं सोच रही हूँ कि अगर मेरा नाम अनिता न हो कर अनिता देवी /अनिता रानी /अनितामति हो तो मेरी शक्शियत के बारे में लोग क्या सोचेगें, वैसे अनिता के साथ कुमार लगा देख कर भी लोग जरा अटपटा ही महसूस करते हैं जैसे अरविंद जी ने लिखा। ये सिर्फ़ नेट पर ही नहीं हुआ ऐसा मेरे साथ कई बार जाति जिन्दगी में भी हुआ, कहीं नया फ़ॉर्म भरना है तो कलर्क ये सोच कर कि हम ई की मात्रा लगानी भूल गये हैं हमारी भूल सुधारने के इरादे से कुमार को कुमारी बनाने की चेष्टा करते हैं और हमें उन्हें रोकना पड़ता है। तो जी ये कुमार उपनाम का किस्सा कुछ यूं है कि शादी के बाद जब उपनाम बदलने की बात आयी तो समस्या ये थी कि हमारे पति देव दक्षिण भारतीय हैं , उनका उपनाम ऐसा है कि अक्सर लोग उसका कचूमर बना देते हैं , मेरे रिश्तेदारों के लिए तो वो उपनाम बिल्कुल ही टंगटिवस्टर होता। तो पूरी जिन्दगी या तो अपने उपनाम के भ्रष्ट रुप सुनते या लोगों को सुधारते रह जाते, इस लिए हम दोनों ने सोचा कि क्युं न एक उपनाम कानून अपना लिया जाए और कुमार एक ऐसा उपनाम है जो भारत के हर प्रदेश में पाया जाता है तो बस हम कुमार हो लिए।

March 08, 2009


गांव वाले घर में अम्मा

आप सबकी तरह ब्लोग जगत ने मुझे भी बहुत से दोस्त दिए हैं भिन्न भिन्न प्रदेश, व्यवसाय,और उम्र के। आप सब से मिल कर मेरी सोच मेरी जिन्दगी बहुत समृद्ध हुई है। अपनी जिन्दगी में इतनी संतुष्ट मैं पहले कभी न थी,खैर उसके बारे में फ़िर कभी। अभी तो आइए मिलिए बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी, मेरे एक मित्र योगेश समदर्शी से। इस समय मेल टुडे में सीनियर इंफ़ोग्राफ़र, गाजियाबाद निवासी हैं। लेकिन मूलत: लेखक, कवि, पत्रकार,और समाजसेवी है। बहुत जल्द इनका एक कविता संकलन प्रकाशित होने वाला है ' आई मुझको याद गांव की'
अब हमारा गांव से नाता उतना ही है जितना किसी बच्चे का चांद से। गांव या तो फ़िल्मों में देखे या प्रेमचंद की कहानियों में। समदर्शी जी की यूं तो सभी कवितायें मुझे अच्छी लगीं लेकिन एक कविता यहां आज 'नारी दिवस' के उपलक्ष्य पर आप सब के साथ बांट रही हूँ (उनकी अनुमति ले कर )

गांव वाले घर में अम्मा


सुबह सवेरे जग जाती थी, गाय धू कर दूध बिलोकर.
गांव वाले घर में अम्मा, सब कुछ थी कुछ भी न होकर.
दूध मलाई और पिटाई, तक उसके हाथों से खाई.
रोज सवेरे वह कहती थी, उठो धूप सर पे है आई.
उपले पाथ रही अम्मा को, याद करूं हूं अब मैं रोकर.
गांव वाले घर में अम्मा, सब कुछ थी कुछ भी न होकर.


बापू, चाचा, ताऊ दादा, सबकी एक अकेली सुनती.
गलती तो बच्चे करते थे, पर अम्मा ही गाली सुनती.
रोती रोती आंगन लीपे, घूंघट भीतर लाज संजोकर.
गांव वाले घर में अम्मा, सब कुछ थी कुछ भी न होकर.
काला अक्षर भैंस बताती, लेकिन राम चौपाई गाती.
पूरे घर के हम बच्चों को, आदर्शों की कथा बताती.
सत्यवादी होने को कहती, हरिश्चंद्र की कथा बताकर.
गांव वाले घर में अम्मा, सब कुछ थी कुछ भी न होकर.


पढीं लिखीं बहुंओं को अम्मा, बस अब तो इतना कहती है.
औरत बडे दिल की होवे है, इस खातिर वह सब सहती है.
पेड भला क्या पा जाता है, अपने सारे फल को खोकर.
गांव वाले घर में अम्मा, सब कुछ थी कुछ भी न होकर.



यूं तो आज नारी सशक्तिकरण की कई बातें हुई होगीं, वो अपनी जगह सही भी हैं लेकिन इस कविता को पढ़ कर मुझे लगा कि ये गांव की अम्मा भी उतनी सशक्त है जितनी मैं शहरी अम्मा। आप क्या कहते हैं?

March 07, 2009

और ट्रेन से कूद गये


और ट्रेन से कूद गये


कॉलेज के आखरी दिनों में लोकल ट्रेन के सफ़र के मजे लूटने का अवसर मिला। लोकल ट्रेन बम्बई का आइना है, जिन्दगी है। लोकल ट्रेन की अपनी एक दुनिया है। पूरी ट्रेन में सिर्फ़ दो डिब्बे महिलाओं के लिए आरक्षित होते थे। अब आम तौर पर तीन होते हैं और पिछ्ले कुछ सालों से तो महिलाओं के लिए अलग ट्रेन ही चल पड़ी हैं –पूरी ट्रेन आरक्षित्, कभी सुना किसी और देश में महिलाओं का इतना ख्याल रखा जाता हो कि पूरी की पूरी ट्रेन उनके लिए आरक्षित।

पिछले कई सालों में लोकल ट्रेन की तादात बड़ायी गयी, रेल के डिब्बे बड़ाये गये लेकिन फ़िर भी इन ट्रेनों में भीड़ शैतान की आंत सी बड़ती ही जाती है। पहले ये भीड़ सुबह और शाम ज्यादा होती थी और दोपहर और रात को काफ़ी कम हो जाती थी। अब तो क्या दिन क्या रात, चौबिसों घंटे भीड़ का वही हाल है। लेकिन इस भीड़ के सकारत्मक परिणाम भी हैं। असहनीय भीड़ और गाड़ी का हर स्टेशन पर सिर्फ़ एक मिनिट के लिए रुकना, हर बम्बईवासी को रेल से यात्रा करते हैं चुस्त और फ़ुर्तीला बना देता है। आप कभी शाम को वी टी स्टेशन पर चले जाएं और नजारा देखें। दूर से आती ट्रेन को देख औरतें अपनी अपनी साड़ियों की प्लीटस उठा कर कमर में खोंस लेती है, बैग जेबकतरों से बचाने के लिए पेट के आगे कर कस कर पकड़ लिए जाते हैं , सारे थैले और हाथ का सामान एक ही हाथ में कर लिया जाता है और दूसरा हाथ खाली रक्खा जाता है। सहेलियों से चल रही बातचीत बीच में ही बंद, आखें निशाने पर टिकी हुई, धीमी पड़ती रेल जैसे ही कुछ हाथ की दूरी पर रह जाती है, दौड़ कर डिब्बे के अंदर कूदा जाता है और सीट पकड़ी जाती है, मिशन कम्पलीट्। खिड़की के पास वाली खिड़की मिल जाए तो सोने पर सुहागा। इस दम घोंटू भीड़ में यही खिड़की सांस लेने का एक मात्र सहारा बनेगी अगर कोई उसके सामने आ कर न खड़ी हो गई तो। जो इतनी फ़ुर्ती नहीं दिखा पातीं वो फ़िर दो सीटों के बीच में खड़े होने की जगह तलाशती हैं या फ़िर तीन लोगों के लिए बने तख्ते पर जरा सा खिसक कर तिल भर बैठने की जगह की याचना करती नजर आती हैं। याचना कहना ठीक न होगा, वो तो बात पुरानी हो गयी, अब तो साधिकार आदेश दिया जाता है “खिसको”। ज्यादातर कामकाजी महिलाओं का पूरा जीवन इन ट्रेनों में सफ़र करते ही बीतता है, ट्रेन और वक्त कुछ नहीं बदलता, अरे जब दफ़तर के टाइम वहीं है तो ट्रेन का टाइम कैसे बदलेगा। लिहाजा वही चेहरे वही लोग सुबह शाम मिलते रहते हैं। धीरे धीरे दोस्तियां होती चली जाती हैं, कुछ महिलाएं तो एक ही दफ़तर में काम करती है तो पहले से ही दोस्त होती हैं। जब दोस्तियां होती हैं तो गप्पें भी होती है और परिवार के दुख सुख भी बांटे जाते हैं, दूर रहने वाली महिलाएं ट्रेन में ही बैठ कर सब्जी छील काट रही होती हैं, (पूरी तैयारी के साथ आती है), फ़ल, फ़ूल, सब्जी, कंघा, बिन्दी,रुमाल, साड़ी, समोसे, चकली, चिक्की सब बिकने के लिए आता है ट्रेन में ही। इस भीड़ में भी ये सामान बेचने वाले कैसे अपने घूमने के लिए जगह बना लेते हैं अपने आप में एक अचंभा है। उस पर भी जो बात मुझे हैरान करती है वो ये कि अगर एक लड़का बिंदियाँ बेच रहा है और एक ग्राहक ने बिंदियों का डिब्बा पकड़ रखा है और चुन रही है तो वो लड़का उस डिब्बे को उसी के पास छोड़ कर डिब्बे के दूसरे हिस्से में बैठी ग्राहक के पास दूसरा डिब्बा ले कर चला जाएगा, बिना डरे कि अगर इस महिला ने उसमें से कोई पैकेट मार लिया तो या स्टेशन आया और नीचे उतर गयी तो? इतने सालों से देख रहे हैं रेल के डिब्बों के इन दुकानदारों और ग्राहकों का एक दूसरे पर विश्वास्। कभी कोई गड़बड़ नहीं होती।

एक और बात जो रेल यात्रा के बारे में विशिष्ट हुआ करती थी वो था स्त्रियों का सम्मान्। अगर कभी ट्रेन छूट रही हो या किसी और कारण से अगर महिला पुरुषों के डिब्बे में चढ़ जाती थी तो पुरुष पूरे सम्मान के साथ उसे बैठने की जगह दे देते थे। अगर डिब्बा ठसाठस भरा हो और स्त्री पुरुष डिब्बे में प्रवास कर रही हो तो भी कोई किसी प्रकार की कोई बत्तमीजी या छेड़खानी नहीं करेगा, स्त्री तो खैर सिमटेगी ही, आस पास खड़े मर्द भी सिमटते रहते थे। सत्तर के दशक तक अगर कभी देर रात में महिलाओं का डिब्बा खाली हो तो महिला पुरुषों के डिब्बे में प्रवास करने में ज्यादा सुरक्षित महसूस करती थी। रात के कितने भी बजे हों , महिलाओं के लिए बम्बई एकदम सुरक्षित था। हमें बड़ा फ़क्र था इस बात का कि हमारी बम्बई के मर्द कितने शालीन हैं और औरत को एक मांस का टुकड़ा भर नहीं समझते।


अस्सी का दशक आते आते छुटपुट घटनाओं का जिक्र आने लगा, जैसे रात के एक बजे एक महिला रेलेवे प्लेट फ़ॉर्म पर सिगरेट खरीदने के लिए रुकी तो वहां खड़े हवलदार ने उसके साथ बत्तमीजी की। पुलिस ने कहा कि जो महिला रात के एक बजे स्टेशन पर हो और सिगरेट खरीद रही हो उसका चरित्र कैसा होगा? वो महिला एडवर्टाइजिंग जगत से जुड़ी हुई थी देर से आना उसके काम का हिस्सा था। ये पहला मौका था जब हम सकते में आ गये कि ये किस्सा हमारी बम्बई में? फ़िर तो जैसे महिला अत्याचार की खबरों की बाढ़ सी आ गयी। रिंकू का केस (जिसमें उसके पूर्व प्रेमी ने परिक्षा कक्ष में से परिक्षा देते सब छात्रों को चाकू की नोक पर बाहर खदेड़ दिया था और फ़िर रिंकू को आग लगा दी थी) , जूहू का केस जहां एक लड़की पर तेजाब फ़ैंका गया था, चलती लोकल ट्रेन में दोपहर के समय एक मानसिक विकलांग लड़की के साथ एक शराबी का सबके सामने बलात्कार, हमें अंदर तक झंझोड़ कर रख गया। आज भी जब अखबारों में खबरे पढ़ते हैं दुध मुंही बच्चियों का बलात्कार, दोस्तों के दोस्तों को पैसे के लिए अगवा करने, मारने के किस्से तो लगता है क्या ये वही बम्बई है जहां हम रात के दो दो बजे तक अपने पति के साथ बेधड़क घूमा करते थे।

बहुत पहले चूहों को ले कर एक प्रयोग किया गया था जिसमें चूहों के बरताव को परखने के लिए एक बड़े से डिब्बे में एक एक कर चूहे छोड़े गये। उस डिब्बे में धीरे धीरे इतने चूहे छोड़े गये कि कोई भी चूहा दूसरे चूहे से अछुता न रह सका। उस डिब्बे में सब चूहों के लिए पर्याप्त खाना पानी होते हुए भी जैसे जैसे चूहे बड़ते गये वो आक्रमक होते चले गये और एक दूसरे को काटना शुरु कर दिया। कई चूहे मारे गये। ये सिलसिला तब तक चला जब तक उस डिब्बे में सिर्फ़ इतने ही चूहे बचे जितनों के लिए आरामदायक जगह थी। सोचती हूँ कहीं यही हाल मुंबई का तो नहीं हो रहा। दूसरी तरफ़ ऐसा भी लगता है कि सिर्फ़ बड़ती आबादी बड़ते अपराध का एक अकेला कारण नहीं हो सकती। और भी बहुत से कारण है।

पैसा कमाने की मशीनें

मुझे दूसरे शहरों का तो पता नहीं लेकिन बम्बई में हर कोई जल्द से जल्द पैसा कमाने की मशीन बन जाना चाहता है। कोई मजबूरी से, कोई सिर्फ़ अपने आप को सिद्ध करने के लिए, कोई दोस्तों में अपनी साख बनाने के लिए, कोई भविष्य के लिए अनुभव संचित करने के लिए तो कोई सिर्फ़ इस लिए कि पैसा कमाने के अवसर आसानी से मिल जाते हैं। किसी ने सच कहा है कि बम्बई नगरी किसी को भूखों नहीं मरने देती, कोई न कोई जुगाड़ हो ही जाता है। बम्बई सपनों का शहर है। सपना देखने की हिम्मत करो पूरी शिद्दत के साथ पूरा करने की कौशिश करो और बम्बई तुम्हारे सपने साकार करने में जी जान से जुट जाएगी। ये बात आज भी उतनी ही सच है जितनी कल थी, बल्कि आज कुछ ज्यादा ही सच है। पैसा कमाने के रुप बदल गये हैं लेकिन मूल आदर्श आज भी वही हैं।

हमारे जमाने में कॉलेज सुबह नौ बजे शुरु होता था और चार बजे तक रहता था। आज कल के जैसे कॉलेज फ़ैक्टरी नहीं थे जिसमें सुबह साढ़े सात बजे एक शिफ़्ट, फ़िर दोपहर एक बजे से दूसरी शिफ़्ट और शाम को पांच बजे से तीसरी शिफ़्ट् चलती है। हम अक्सर आज कल के बच्चों पर तरस खाते हैं बेचारे जैसे पैदा ही फ़ैक्टरी से फ़िनिशड प्रोडकट बनने के लिए हुए है। कॉलेज जाओ, फ़िर क्लासेस और फ़िर और होमवर्क। अब बताइए किसी और को पैसा कमाने का कोई और तरीका नहीं सूझा तो बच्चों को ही परेशान कर रहे हैं। पहले कोई क्लासेस जाता था तो शर्म महसूस करता था , आज कल तो शान से कहा जाता है मैं फ़लां फ़ंला क्लास में जाता हूँ।

अजी मजे तो हमारे जमाने में थे। सुबह छ: बजे उठ कर एक घंटा समुद्र की हवा खाने के बाद भी आराम से कॉलेज पहुंच जाते थे एक दो क्लास बैठे तो बैठे, न बैठे तो न बैठे। हमारे दिन अक्सर कॉलेज की केन्टीन में गुजरते थे, वहीं बैठ कर नोटस लिखे जाते, खाया पिया जाता, अब बताइए बिना खाए कोई पढ़ सकता है क्या। केन्टीन भी ऐसी कि उठने का मन ही न करे। केन्टीन में न बैठे तो फ़िर लायब्रेरी हमारा दूसरा घर थी। सबके बैठने के लिए पर्याप्त जगह, एकदम शांत्। उस जमाने में जिरोक्स का चलन नहीं था। हम लोग कार्बन पेपर का इस्तेमाल कर नोटस बनाते थे। किताबें महंगी होने के कारण लायब्रेरी से ले कर पूरी पूरी किताब नकल की जाती थी। हमारे भावी पतिदेव ने कितने ही नोटस हमारे लिए इस तरह से बनाये। लगे कि नोटस प्यार की गहराई का मापक बन गया।


सत्तर के दशक में आया टी वी मुंबई


टी वी देहली में तो कई बरसों से था लेकिन बम्बई आया 1970 में या 1971 में। टी वी आने से पहले रोजमर्रा के जीवन में मनोरंजन के साधनों में तीन ही प्रमुख थे –फ़िल्में, रेडियो और उपन्यास्। हर नुक्कड़ पर सरकुलेटिंग लायब्रेरी दिखाई देती थी, (आज कल सायबर कैफ़े दिखते हैं , सरकुलेटिंग लायब्रेरी तो कब की लुप्त हो चुकीं) छुट्टियों में इन लायब्रेरियों पर छात्र छात्राओं की भीड़ लगी रहती थी। हिन्दी माध्यम से स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के कारण जब कॉलेज में आये तो अपनी भी अंग्रेजी लालू प्रसाद यादव से तोला भर बेहतर थी। छुट्टियों में इन्हीं लायब्रेरियों से ले ले कर पी जी वुडहाउस और जेम्स हार्डली चेस की पूरी श्रखंला पढ़ी और आज भी हमें पी जी वुडहाउस बहुत पंसद है। रेडियो पर भी सीमित स्टेशन ही बजते थे, शाम को पांच बजे से रात के साढ़े ग्यारह बजे तक विविध भारती या आल इन्डिया रेडियो या बुधवार के बुधवार बिनाका गीत माला सुना जाता था। कालेज से भाग कर मैटिनी शो को जाना हमारे ऐबों में से एक था। एक किस्सा याद आ रहा है, इजाजत हो तो आप के साथ बांटते चलें। बॉबी फ़िल्म लगी थी और कॉलेज में उसकी बड़ी धूम थी। सहेलियों, दोस्तों के साथ कॉलेज बंक कर के वो पिक्चर देखने का प्रोग्राम बना। हम लोग कुल आठ जन गये बारह से तीन का शो देखने। पकड़े न जाएं इस डर से जूहू के थिएटर छोड़ दूर गोरेगांव में जा कर पिक्चर देखी जाती थी। शो छूटने के बाद घर आते आते साढे चार बज गये, घर पहुंचे तो देखा मम्मी बहुत गुस्से में थी। हमने सोचा मारे गये आज तो किसी ने आ कर बता दिया होगा कि हम पिक्चर गये थे, बच्चू अब खैर नहीं। मम्मी ने कहा , इतनी देर से कैसे आईं? हमारी तो घिग्गी बंध गयी पर इससे पहले कि हम मुंह खोलते , वो बोलीं । तुमने बहुत परेशान कर रखा है, इतना देर से आती हो हम लोग पिक्चर जाने के लिए तैयार बैठे हैं सिर्फ़ तुम्हारे इंतजार में, अब अगर लेट हो गये तो सबका मजा खराब हो जाएगा, जल्दी से तैयार हो कर आओ। हमारी सांस में सांस आयी , धीरे से पूछा , कौन सी पिक्चर? जवाब आया ‘बॉबी’। हमें अत्यधिक खुशी जाहिर करने का नाटक करना पड़ा और जल्दी जल्दी तैयार हो कर चल दिये बॉबी देखने छ: से नौ। आज कल के बच्चों के नसीब में ऐसे एडवेन्चर कहां?

सत्तर के दशक में टी वी अभी नया नया आया था,इरले बिरले लोगों के घर पर ही होता था। अरे टी वी तो दूर टेलीफ़ोन भी एक बिल्डिंग में एक दो ही हुआ करते थे। शाम होते ही जिसके घर टी वी होता था वहां जमा होने लगते थे, खास कर इतवार को। टी वी वाले उस दिन जल्दी खाना बना लेते थे। मुश्किल से एक दो चैनल हुआ करते थे। मुझे याद है तबुस्सम जी का फ़ूल खिले हैं गुलशन गुलशन, छायागीत, कमलेश्वर जी का परिक्रमा जैसे साहित्यिक प्रोग्राम एकदम हिट प्रोग्राम हुआ करते थे। टी वी पर कवि सम्मेलन सुनने के लिए मैं तो क्या पूरा परिवार पूरे हफ़्ते इंतजार करता था। बहुत लंबा होता जा रहा है, आप लोग अब उकता रहे होगें , तो लिजिए एक और याद के साथ इसे यहीं खत्म करती हूँ। एक बार कमलेश्वर जी को हमारे कॉलेज में आमंत्रित किया गया था। तब तक हम जूहू से फ़िर चेम्बूर वासी बन चुके थे पर आखरी साल था इस लिए कॉलेज वही था। लोकल ट्रेन से नया नया सफ़र करना शुरु किया था, कौन सी ट्रेन कहां जा रही है समझ में न आता था। जिस दिन कमलेश्वर जी का आना सुनिश्चित था,हम बांद्रा पहुचें वहां से ट्रेन बदल कर विले पार्ले जाना होता था। हमारे रोज के प्लेट फ़ार्म पर एक खाली गाड़ी देख कर हम चढ़ गये। गाड़ी थोड़ा देर से चली। जब गाड़ी चलने लगी तो हमें एहसास हुआ कि हम तो गलत गाड़ी में बैठे हैं। अब सीधा सा उपाय ये था कि हम अगले स्टेशन पर उतर कर वापसी की गाड़ी ले लेते। लेकिन हमने अपने मन में सोचा लेकिन इस सब में तो कम से कम आधा घंटा देर हो जाएगी और कमलेश्वर जी का शुरुवाती भाषण हम मिस कर देगें, वो हमें गवारा न था। बस आव देखा न ताव, चलती गाड़ी से कूद गये। शुक्र है कि प्लेट फ़ार्म पर ही गिरे, नहीं तो ……।

March 06, 2009

होली के दिन भी क्या दिन थे ,


होली के दिन हम बहुत उदास रहते थे। बम्बई की होली में वो बात नहीं जो अलीगढ़ की होली में थी। वहां तो सुबह तीन बजे उठ कर होलिका जलायी जाती थी और उसी आग में गेहूं की नयी बालियां भूनी जाती थी , होली की मुबारकबाद देने का सिलसिला वहीं से शुरु हो जाता था, लोग एक दूसरे को भुनी बालियों के कुछ दाने देते और गले मिलते। लोगों के बड़े बड़े मकान जहां आगंन में हौद बना होता था। रात को ही उसमें पानी भर कर टेसू के फ़ूल छोड़ दिये जाते थे। सुबह तक पानी पीला रंग लिए बर्फ़ के जैसे ठंडा होता था। घर पर जो भी आता उसे उस हौद में एक बार तो जरूर ढकेला जाता था। देवर भाभी की होली तो देखते ही बनती थी। लोग झूठमूठ का ना नुकुर करते, होली न खेलने के कई कारण गिनाते लेकिन दरवाजे पर खड़ी टोली घ्रर में घुस कर सबको रंग डालती। सबसे बड़ा अभागा वो होता जिसके घर कोई जबरदस्ती करने न पहुंचता। रंगों में सराबोर होने के बाद खाने पीने का दौर चलता, कांजी की गाजर और वड़े, खोये की गुजिया, भांग के पकौड़े, ठंडाई, और भी न जाने क्या क्या।

यहां बम्बई में आये तो पता लगा यहां तो कोई किसी के घर में नहीं घुसता, सबके कमरे खराब हो जायेगें न, दरवाजे पर भी नहीं जाते, घर के बाहर भी खराब होने का डर रहता है, सिर्फ़ नीचे बिल्डिंग के अहाते में खड़े हो कर आवाजे लगायी जाती हैं। जो आ जाए वो ठीक जो नहीं आये उन के साथ कोई जोर जबरदस्ती नहीं जी सब के अपने मानवाधिकार हैं। अगर आप किसी के दरवाजे पर चले भी गये तो वो फ़ट से दरवाजा बंद कर लेगें और फ़िर कितना भी घंटी बजाओ, नहीं खोलेगे। तब अगर मन नहीं तो दक्षिण भारतीय कह देगें , हमारी तरफ़ होली नहीं खेली जाती और हमें ये बिल्कुल पसंद नहीं। आप अपना सा मुंह ले कर वापस आ जाएं। किसी के घर कोई पकवान नहीं बनते। लोग रंग खेलने के बाद भूख लगती है तो जाके बाजार में कोई दुकान ढूंढते हैं और वहां से बड़ा पाव या फ़ाफ़ले और जलेबियां लायी जाती है। फ़ाफ़ले एक गुजराती व्यजंन है जो बेसन से बनाया जाता है। गुजिया को यहां करंजी कहा जाता है और वो भी महाराष्ट्रियन के घर बनती हैं, मावे की जगह घिसे हुए खोपरे और चीनी के साथ्। मावे की गुजिया का स्वाद अभी तक जीभ पर है फ़िर करंजी का स्वाद कैसे चढ़ेगा जी। जूहू पर लोग अपनी अपनी सोसायटी में होली खेलने के बाद समुद्र में नहाने चले जाते थे, खूब शौर मचाते हुए। इसमें आदमी औरत सभी शामिल होते थे। सारा रंग समुद्र के हवाले कर के ही लोग शाम तक घरों को लौटते थे। अब तो खैर वो बात नहीं रही। सत्तर के दशक से ही होली के दिन जूहू बीच पर गुंडों का राज होने लगा और महिलाओं के लिए समुद्र स्नान एक सपना बन कर रह गया। सत्तर के दशक में हम जब जूहू छोड़ वापस चेम्बूर और फ़िर नवी मुंबई की तरफ़ बढ़े तब तक जूहू तट काफ़ी गंदा हो चुका था। जगह जगह लोग खुद को हल्का करने को बैठे दिख जाते थे और रेता पर चलने का आनंद हवा हो रहा था। अब तो सुना है कि रेता के व्यापारी वहां से रेता चोरी कर बाजार में बेच रहे हैं और वहां बहुत कम रेता बची है। दुकाने भी बेतहाशा बड़ गयी हैं । वेश्यावृति , शराबखोरी, गुंडा गर्दी अब जूहू पर आम बात है। अगर कोई रिश्तेदार आ कर कहता है कि समुद्र देखना है तो हम जूहू का रुख नहीं करते। धीरे धीरे होली का त्यौहार अब फ़िल्मों में ही सिमट कर रह गया है। चालिस की दहलीज पार करते करते लोग होली को भूल जाते हैं। रंगों में मिलावट के चलते बच्चों को भी अब रंगों से खेलने के लिए मना किया जाता है। हमारी संस्कृति का एक और तनाव मिटाने वाला, लोगों को एक सूत्र में बांधने वाला सबब खतरे में है।

March 05, 2009

भारत में बसे अप्रवासी भारतीय

भाग 2

कल अनूप जी ने अपनी टिप्पणी में कहा कि मुझे अपने मायके वालों के बारे में अच्छा सोचना चाहिए। हम कहां इंकार कर रहे हैं जी। बंबई आये थे किशोरावस्था में, तब तक आस पास के पुरुषों को देखा जाना नहीं था, आप कह सकते हैं कि अभी तो आखें भी न खुली थीं। बोम्बे आने के बाद फ़िर वापस उत्तर की तरफ़ कभी जाना नहीं हुआ। हम तो देश में रहते अप्रवासी भारतीय हैं जी। फ़िर बंबई में तो अपने मायके के प्रांत वाले बहुत कम नजर आये, उनके बारे में जो भी जाना और जो भी मन में इमेज बनायी सब मीडिया से मिले मसाले की बेस पर था। असली में तो अपने प्रांत वालों को जान रही हूँ अब ब्लोग जगत में आने के बाद्। पुरानी सब तस्वीरें धुल पुछ कर साफ़ हो चुकी हैं और नये रंग भरे जा चुके हैं। ऐसा न होता तो थोड़े हम वो लिख रहे होते जो अब लिख रहे हैं। अब तो हम कहते हैं मेरे प्रांत वाले " जय हो" …:)

खैर देखिए बोम्बे की एक और झलक


घर से बाजार और बाजार से मॉल :

कुछ चार पांच साल पहले तक चेम्बूर की वो मेन मार्केट जिससे गुजर कर हम रोज स्कूल जाते थे खाऊ गली के नाम से जानी जाती थी, लेकिन अब वहां कपड़ों की, मोबाइल इत्यादी की दुकानें बहुतायत में आ गयी हैं। हां सब्जी मार्केट अभी भी वहीं हैं , मेन रोड से एक गली अंदर, और सब्जी के साथ चाट पकौड़ी की दुकानें भी उसी गली में आ गयी हैं। बम्बई का ये रंग भी हमारे लिए निराला था। अलीगढ़ में सुबह सुबह (और बाद में इंदौर में भी हमने यही चलन देखा) सब्जी वाले सब्जी का टोकरा उठाये गली गली घूमते थे, रोज के ग्राहक हों तो आ कर घर के किवाड़ भी खटखटाते थे कि मां जी सब्जी ले लो। बम्बई में शाम के पांच छ: बजते ही औरतें लिप्सटिक पाउडर लगा तैयार होती हैं, कभी अकेली या कभी किसी पड़ौसन के साथ सब्जी लेने भाजी मार्केट जाती हैं। भाजी ले कर एक दो घंटे के बाद लौटना और फ़िर कभी वहीं मार्केट से चाट पकौड़ी खा कर आना या फ़िर भाजी ला कर वहीं बिल्डिंग के अहाते में बैठ कर भेल खाना । यहां बम्बई आकर जब पहली बार हमसे किसी ने कहा भेल खा लो तो हम समझे शिव जी को जो फ़ल चढ़ाया जाता है उसकी बात हो रही है, पर जब भेल बन कर हमारे सामने आयी तो एक निवाला न खाया गया। भेल बनती है मुरमुरे, सेव, उबले आलू, बारीक कटे प्याज, हरी मिर्च और तीखी , मीठी चटनी से। गिलगले सेव और मुरमुरे हमारे गले से नीचे न उतरे। अब की बात और है, अब तो हम भी आप को भेल या सेवपुरी खिलायेगें। चेम्बूर छूटे तो कई साल हो गये लेकिन आज भी जब उस मार्केट से गुजरते हैं तो पारस की दुकान की सेवपुरी खाये बिना नहीं आते।
वैसे अब बिल्डिंग में शाम को वैसी रौनक नहीं होती, बिल्डिंग के बीच का मैदान जहां बच्चे खेलते थे और मांए किनारे बैठी बच्चों को खेलता देखती थी अब कार पार्क में बदल गया है। बच्चे अपने अपने घरों में टी वी या कंप्युटर के आगे जम गये हैं। चीखने चिल्लाने की आवाजें बच्चों के गलों से नहीं निकलतीं टी वी के एंकरों के गलों से निकलती हैं । आज की पीढ़ी बेहद मेहनती कामकाजी महिलाओं की पीढ़ी है। उनके पास कहां टाइम है कि सब्जी बाजार जा कर सब्जी वाले से तोल मोल कर चुन चुन कर सब्जी लायें और फ़िर आराम से टी वी का प्रोग्राम देखते हुए काटें। आज तो जगह जगह मॉल खुल गये हैं, साफ़ सुथरे, एअरकंडीशनड, टोकरी तक उठाने की जहमत नहीं करनी पड़ती। कार से उतरो, ट्रॉली लो, चुनी चुनाई, कटी कटाई, पेक्ड सब्जी खरीदो, कोई मोल तोल नहीं, वहीं साफ़ सुथरे रेस्टॉरेंट में बैठ कर खाओ पिओ और देर रात घर पर आओ। पहले महिलाएं सब्जी खरीदने रोज जाती थीं, एक टहलना भी हो जाता था। आज कल महिलाएं पूरे हफ़्ते की सब्जी एक साथ ला कर फ़्रिज के हवाले कर देती हैं । दो तीन दिन का खाना बना कर फ़्रिज के हवाले कर दिया जाता है और फ़िर जय माइक्रोवेव की जो उस खाने को तरोताजा दिखा देता है। अभी परसों ही एक मॉल में हम गये और सब्जी खरीद वहीं खाना खाने बैठ गये। हमारे मेज के पास ही लकड़ी का जंगला लगा कर एक चौकोर बनाया गया था और उसमें कुछ प्लास्टिक के झूले रखे थे जैसे अक्सर पहले बच्चों को पार्क में खेलते हुए देखते थे। हम सोच रहे थे क्या जमाना आ गया है , अब पार्क का काम भी मॉल करेगें? हमारा लड़का आर सी एफ़ के बड़े बड़े बागों में खेल कर बड़ा हुआ और ये बच्चे बिचारे ये भी नहीं जान सकते कि पींग लगाना किसे कहते हैं, पींग लगा कर हवा से बाते करना तो दूर की बात है। जानते है उन पिद्दी से झूलों पर ए सी की बासी हवा और ट्युब लाइटों की चकाचौंध में आधा घंटा खेलने की कीमत थी मात्र 40 रुपये। दो साल का बच्चा झूलों की तरफ़ बरबस खिचा चला जाए तो उसे खीच कर अलग कर दिया जाता कि पहले जा कर पैसे ले कर आओ। वो झूलों के सामने लहराते हरे हरे नोट उस बच्चे के मानस पटल पर छप गये होगें और वो अब ताउम्र उन के पीछे भागता रहेगा। मां बाप पास ही बैठे पिज़ा खा रहे थे।
पहले महिलाएं छोटे छोटे स्तर पर किए बजत से भी खुश होती थीं, कईयों को बाइयों के काम पसंद ही नहीं आते थे, आज हाल ये है कि हर घर में दो दो नौकरानियां आम बात है। घर की सफ़ाई अभियान एक बड़ा काम होता था , घर की महिला को उपलब्धी की अनुभूती होती थी, आज घर सिर्फ़ एक नीड़ है रात्री विश्राम के लिए। जिन्दगी जीने के लिए हैं सफ़ाई कटाई कर के बर्बाद करने के लिए नहीं ।

चेम्बूर से जूहू तक
एक साल चेम्बूर वास के बाद स्थानंतरण हुआ सीधे जूहू में। यहां की तो दुनिया ही निराली थी। साफ़ सुथरी सड़कें, चार फ़्लेटों वाली पूरी बिल्डिंग में हमारे परिवार का साम्राज्य्, ढेर सारे नौकर, थोड़ी ही दूरी पर धर्मेंद्र, मनोज कुमार जैसे नामी फ़िल्मी कलाकारों के घर, इत्यादि। लेकिन तब तक मॉल संस्कृती नहीं आयी थी। सांताक्रूज में स्कूल में, और बाद में कॉलेज में गुजराती जनसंख्या बहुतायत में मिली। गुजराती भाषा बहुत ही मीठी भाषा है, गुजराती बहुत ही मिलनसार, जहीन और विनोदप्रिय वृति की जिन्दादिल कौम है, व्यापार और उधोग में तो इनकी कोई सानी नहीं। हमने न सिर्फ़ गुजराती पढ़ना लिखना बोलना सीखा बल्कि दसवीं में गुजराती को एक विषय के रूप में भी पढ़ा। गुजराती साहित्य भी बहुत समृद्ध है। गुजराती व्यजंनों के तो हम अब भी दिवाने हैं।

पर ये सिर्फ़ यादें हैं। गुजरात के दंगों और मोदी की सरकार आने के बाद गुजरातियों का जैसे चरित्र ही बदल गया हो। एक जमाना था जब मैं और मेरे पति गुजरातियों की जिन्दादिली और आत्मियता के इतने कायल थे कि हमें लगता था कि अगर बम्बई के बाहर कहीं जा कर बसा जा सकता है तो सिर्फ़ गुजरात में। लेकिन आज ये कहना मुश्किल है। कट्टर हिन्दूवाद ने मुझ जैसे न जाने कितने हिन्दुओं के सपनों का खून बहाया है जो किसी हाशिए पर नहीं दिखता।
खैर, जूहू किनारे रहने का एक लाभ ये था कि रोज शाम को अपनी सहेलियों के साथ या परिवार के साथ जूहू बीच पर घूमने जाते थे। यूं तो सुबह शाम जब भी खिड़की से बाहर झांकते समुद्र बाहें फ़ैलाये बुलाता नजर आता था, लहरों का संगीत दिन रात हमें तरंगित किए रखता था, लेकिन सुबह या देर शाम को ठंडी ठंडी रेत पर नंगे पांव घूमने का अपना एक अलौकिक आनंद है। अगर आप सुबह सवेरे चार पांच बजे समुद्र किनारे पर निकल जाएं तो विनोद खन्ना, रेखा वगैरह भी घुड़सवारी करते दिख जाते थे। बम्बई की ये खास बात है कि यहां लोग इन फ़िल्म कलाकारों को परेशान नहीं करते, एक हल्के से अभिवादन के साथ अपने अपने काम पर लगे रहते हैं। सिर्फ़ बम्बई के बाहर से आये लोगों को उन्हें देखने का , मिलने का पागलपन सवार होता है। मुझे याद आ रहा है एक बार घर पर मम्मी पापा नहीं थे, रात का समय था, अचानक नौकर ने आकर कहा कि कोई साहब आप से मिलना चाहते हैं। वो किसी फ़िल्म का प्रोडक्शन वाला था और हमारी बिल्डिंग में लगे ढेर सारे नारियल के पेड़ो के साथ शूटिंग करना चाहता था। उनके लिए इमेरजेन्सी थी क्युं कि राजेश खन्ना को बुलवा लिया गया था और ऐन मौके पर जहां पहले शूटिंग करनी थी वहां नहीं कर सकते थे। अब क्युं कि बहन भाइयों में हम ही सब से बड़े थे और मम्मी पापा घर पर नहीं थे हमसे इजाजत मांगी गयी। कोई मारधाड़ का सीन करना था। हमने इजाजत दे दी लेकिन सिर्फ़ हमारे बाग के इस्तेमाल की, घर में नहीं घुसने दिया। राजेश खन्ना उस समय का चढ़ा हुआ सितारा था, प्रोडक्शन वाले हैरान थे कि राजेश खन्ना का नाम सुन कर हमने वैसे रिएक्ट नहीं किया जैसा एक कॉलेज की लड़की से उम्मीद की जा सकती थी। खैर शूटिंग तो हमने भी देखी ऊपर से और जब इनाम के तौर पर कहा गया कि आप राजेश खन्ना से बात कर सकती हैं तो हमने साफ़ इंकार कर दिया ये कहते हुए कि जब तक बात करने के लिए कोई मुद्दा न हो तब तक किसी से ऐसे ही मिलना बेकार है। जिस कॉलेज में हम पढ़ते थे वहां हमारे साथ कई फ़िल्मी कलाकारों और गायकों के बच्चे पढ़ते थे तो हमें इन लोगों से मिलने की ललक क्युं होती भला।

March 04, 2009

जरा बच के, ये है मुंबई मेरी जान

पिछले हफ़्ते संजीत ने कहा कि आप बम्बई में इतने सालों से रह रही हैं , जरा अपने अनुभवों में झांक कर बताइए तो क्या क्या बदलाव दिखते हैं आप को बंबई( नहीं , नहीं मुंबई) में , मुंबई की जीवन शैली, संस्कृति, इत्यादी में। संजीत हमें जनादेश नामक ई-पेपर के लिए लिखने के लिए आमंत्रित कर रहे थे। अब संजीत हमारे खास मित्रों में से हैं उनकी बात को कैसे टाला जा सकता था। वैसे भी किसी पेपर में जगह पाने का ये हमारा दूसरा मौका था। पहले शैलेश भारतवासी ने सितंबर 2008 में हमारा परिचय मुंबई संध्या नामक पेपर में करवाया था।

सो कल दोपहर को किसी तरह से मन बना कर बैठ गये लिखने। अभी खत्म भी नहीं हुआ था कि संजीत जी नजर आ गये (हमारे चैट बॉक्स में…।:)) हमने कहा कि भाई ई – मेल में रफ़ ड्राफ़्ट भेज रहे हैं, देखिए ये आप की अपेक्षाओं के अनुरूप बन रहा है कि नहीं, साथ में ये भी कह दिया कि अभी तो जो मन में आया हम लिखते गये, कल पढ़ कर थोड़ा छोटा कर देगें और लेख पूरा भी कर देगें। हमें पक्का यकीन हैं कि संजीत हमेशा की तरह चैट बॉक्स और मोबाइल दोनों पर बतिया रहे होगें। आज आकर अपना ई-मेल देखा तो पता लगा कि लेख तो छप भी गया। हम खुश भी हैं और एम्बेरेस्ड भी। खुश इस लिए कि संजीत जी को और अम्बरीश जी ने लेख पसंद कर लिया, एम्बेरेस्ड इस लिए कि बिना सुधार किए लेख प्रकाशित होना ऐसे ही है मानों बिना तैयार हुए कलाकार का मंच पर उतरना।

हम खुद मानते हैं कि लेख बहुत लंबा है( शुक्रगुजार हैं अम्बरीश जी के कि फ़िर भी उसे अपने पेपर में स्थान दे दिया) और हम जानते हैं कि ब्लोगर भाइयों के पास समय की बहुत कमी होती है इस लिए उस लेख का लिंक देने के साथ साथ उसे टुकड़ों में यहां पेश कर रहे हैं, जैसा आप को सुविधाजनक लगे वैसे ही पढ़ें । सिर्फ़ एक सवाल उठ रहा है मन में, संजीत मेरे लेख के साथ देवानंद की तस्वीर क्युं लगाई गयी है भई, क्या मैं वैसे ही हिलती नजर आ रही हूँ इस लेख में या उतनी ही पुरातत्व विभाग की सेंपल नजर आ रही हूँ? इसे यहां देख कर तो देवानंद भी कन्फ़्युज हो रहा होगा …।:)

http://janadesh.in/

पहला भाग

जरा बच के , ये है मुंबई मेरी जान

फ़ागुन आयो रे, संग रंगों की बहार लायो रे। बचपन से हमें हर साल मार्च का बड़ी बेसब्री से इंतजार रहता है। जनवरी में नया केलेण्डर आते ही हम सबसे पहले मार्च का महीना खोल कर दो तारीखों पर गोल निशान लगा देते हैं। एक तारीख तो लाल रंग में ही लिखी रहती है- होली का दिन और दूसरी कभी लाल तो कभी काली लिखी रहती है, वो तारीख हमें याद दिलाती है उस दिन की जब भगवान ने इस रंगबिरंगी खूबसूरत दुनिया से हमारा परिचय कराया था और हम इस दुनिया में ऐसे रमे कि अभी तक जाने का नाम नहीं ले रहे । होली मेरा सबसे प्रिय पर्व है। होली की मस्ती किसी और त्यौहार में कहां, बस एक ही खराबी है इस त्यौहार में, ये हमें बरबस यादों के सफ़र पर ले चलता है और हम सम्मोहित से इसके साथ चलते चलते यादों में खो जाते हैं।


जोर का झटका धीरे से


कुछ तेरह चौदह साल की रहे होगें साठ के दशक में जब बड़े बेमन से अलीगढ़ के मोहल्ले से निकल बम्बई आये थे और आते ही एक सांस्कृतिक झटका खाया था। मुंबई सैंट्रल से पापा सीधे चेम्बूर ले गये जहां हम सबको अस्थायी तौर पर एक किराए के मकान में रहना था। टैक्सी जब उस इमारत के सामने जा कर खड़ी हुई तो हम हैरान, परेशान सकुचाते से उस बिल्डिंग की सीढ़ियां चढ़ रहे थे। बिल्डिंग अंग्रेजी के यू अक्षर सी बनी हुई तिमंजली इमारत थी। बिल्डिंग को एकदम बीच से दो भाग में विभक्त करते हुए सीढ़ियां और सीढ़ियों के दोनो तरफ़ बने हुए ढेर सारे कमरे। हर कमरे में एक एक या किसी किसी में दो तीन परिवार्। तीन तीन कमरों के लिए साझा गुसलखाने और पखाने। जी हां, हम बात कर रहे हैं मुंबई की प्रसिद्ध चाल की। अलीगढ़ के स्वत:पूर्ण घर से निकल कर ये चाल का एक कमरा और किचन एक साल के लिए हमारा घर बन गया। पहली बार जब मां ने कहा जाओ बाहर लगी तार पर कपड़े सुखा आओ। हमने बड़े जतन से फ़टक फ़टक कर कपड़े सुखाना शुरू ही किया था कि हमारे पास वाले कमरे से एक मोटी सी औरत बाहर निकली और बोली तुम यहां कपड़े नहीं सुखा सकती ये मेरी तार है। मैंने कहा कि लेकिन ये तो हमारे कमरे के बाहर है। उसने एक अर्थपूर्ण मुस्कुराहट के साथ हमारा ज्ञान बड़ाते हुए कहा तुम्हारी तार वो सीढ़ियों के सामने लगी है। मतलब ये कि अगर हमें कपड़े सुखाने हैं तो हमें गीले कपड़ो की टोकरी ले कर छ: कमरे पार कर सीढ़ियों के सामने सुखाने जाना होगा। शर्म के मारे हम कपड़े वहीं छोड़ सीधे अपने कमरे में लौट गये । कमरे में एक ही खिड़की होने के कारण हवा की आवाजाही के लिए दिन में लोग दरवाजे खुले रखते थे। हवा को तो पता नहीं आती थी कि नहीं लेकिन गलियारे में हर आने जाने वाला कमरे में झांक सकता था। सबको पता होता था कि किसके घर क्या पका, क्या बात हुई,इत्यादि इत्यादि। मुंबई की बात हो और फ़िल्म कलाकारों की बात न हो ये तो हो ही नहीं सकता न। फ़िल्मी कलाकारों से मेरा पहला पाला बड़ी जल्दी पड़ गया यहीं इसी बिल्डिंग नंबर 29 में( जी हां इन चालों के कोई नाम नहीं होते , वो सिर्फ़ नंबर से जानी जाती हैं।) आधी रात के बाद अक्सर सामने वाले कमरे से खूब जोर जोर से चीखने चिल्लाने की, रोने की, गालियों की आवाजें आती थीं, हम डर जाते थे। आसपास पूछने पर पता चला कि केदार ( जो फ़िल्मों में एक्स्ट्रा का काम करता है) शराब के नशे में अपनी बीबी को मारता है। ऊपर तीसरे तल से उतरते हुए अक्सर एक आदमी सीढ़ियों में दिखाई दे जाता था। वो इतना मोटा था कि अगर वो सीढ़ियाँ उतरता हो तो कोई और पास से नहीं गुजर सकता था, जगह ही नहीं बचती थी। लेकिन वो और उसका पूरा परिवार दिल के बड़े अच्छे थे। नाम था उसका मूलचंद , अमिताभ बच्चन वाली डॉन पिक्चर में खैइके पान बड़ा रस वाला वाले गाने में वो भांग घोटता नजर आता है अपनी बड़ी सी तोंद के साथ्। खैर धीरे धीरे हमें उस चॉल में रहने की आदत पड़ने लगी। कपड़े सीढ़ियों के सामने सुखाने लगे। घर के नाम पर एक कमरा, लकड़ी की बनी परछती जिसे मेजेनेन फ़्लोर कहा जाता है, और छोटी सी किचन । आदमी एक ऐसा जानवर है जो हर परिस्थिती के अनुसार खुद को ढाल सकता है। हमने भी किया। किसी जमाने में पूरा कमरा अपना हुआ करता था, अब हमने उस परछती को , जिसमें खड़े भी नहीं हुआ जा सकता था सिर्फ़ बैठा जा सकता था को ही अपनी दुनिया बना लिया। स्कूल तो हम अलीगढ़ में भी पैदल जाया करते थे, गलियों में से, जहां गली के दोनों तरफ़ दुकाने कम और घर ज्यादा दिखाई देते थे। तिमंजले मकान तो किसी किसी के ही होते थे। बम्बई में भी स्कूल पैदल ही जाना होता था लेकिन लगता था रास्ता खत्म ही नहीं होता। मेन मार्केट में से गुजरना, गाड़ियों की चिल्ल पों, रोड के दोनों तरफ़ दुकाने ही दुकाने और फ़िर दुकानों के आगे दुकानें। फ़ुटपाथ? फ़ुटपाथ तो जी वो नेमत है जो सिर्फ़ पैसे वालों को ही नसीब होती है, सिर्फ़ पोश इलाके में ही फ़ुटपाथ दिखते हैं ।

जहां एक तरफ़ सांस्कृतिक झटका खाया था कि जगह की कमी के कारण लोग अपनी और एक दूसरे की प्राइवेसी का हनन ऐसे ही करते हैं जैसे रोजमर्रा का दातुन कर रहे हों( क्या आप यकीन करेगें कि कई लोग तो दातुन भी बाहर गलियारे में खड़े हो कर करते थे) वहीं कुछ विशिष्ट अनुभव भी आते ही हुए। अलीगढ़ में हमने हिन्दी और अंग्रेजी के सिवा और कोई भाषा न सुनी थी। बम्बई आते ही बम्बई के सर्वप्रांतीय चरित्र से परिचय हुआ। हांलाकि चेम्बूर का इलाका विभाजन के समय आये सिंधियों और पंजाबियों का गढ़ है( उस समय सरकार ने इन सिंधी और पंजाबी शरणार्थियों को बसाने के लिए ही शहर से दूर ये बिल्डिंगे बनायी थी जिनमें हमें बिल्डिंग नंबर 35 तक की तो खबर है , इससे ज्यादा और भी होगीं तो पता नहीं)पर यहां आर सी एफ़, भारत पेट्रोलियम, केलिको, जैसी कई बड़ी बड़ी कंपनियों की फ़ैक्ट्रियां होने की वजह से हर प्रांत के लोग नजर आते हैं । हमने पहली बार मुलतानी, सिंधी, तमिल, मराठी, बंगाली जैसी भाषाएं सुनी और लोग देखे। सिंधी और मुलतानी तो पंजाबियों जैसे ही थे लेकिन बाकी के लोगों के रहन सहन में बहुत अंतर था। उस जमाने में उत्तर भारतीय तो कोई इक्का दुक्का ही दिखता था। मुझे याद है कॉलेज में सिर्फ़ हिन्दी के प्रोफ़ेसर ही हिन्दी भाषी हुआ करते थे बाकी सब दूसरे प्रांतों से।