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February 29, 2008

पहिया चले चले है यारा, तुझको चलना होगा (भाग-2)

पहिया चले चले है यारा, तुझको चलना होगा (भाग-2)

इस हादसे के करीब एक साल बाद घर में सुतार लगे हुए थे, शनिवार का दिन, सुतार पतिदेव के साथ जा कर कुछ सामान ले कर आया , उसके एक घंटे बाद सुतार को कुछ और सामान चाहिए था सो पतिदेव लाने के लिए गये, नीचे जा कर देखा तो कार नदारत थी। बड़े हैरान, अरे अभी तो मैं यहां गैरेज में पार्क कर के गया था कार कहां चली गयी। पूछ्ताछ करने पर समझ आया कि कार आधे घंटे पहले ही चोरी हो गयी थी दिन दहाड़े दौपहर के तीन बजे और वो भी हमारी अपनी सोसायटी से। वॉचमेन और पड़ौसियों की नजरों के सामने चोर कार उड़ा कर ले गये और किसी को जरा भी शक नहीं हुआ कि कार चोरी हो रही है । फ़िर थाने पंहुचे, रपट लिखाई। पुलिस वालों ने झूठी दिलासा भी न दी, कहा ये लो एफ़ आइ आर की कॉपी, जाके इंश्योरेंस से हरजाना ले लो। लेकिन हमें तो पैसे नहीं अपनी कार वापस चाहिए थी। मैं और मेरे पति स्कूटर पर निकल पड़े अपनी कार को ढूंढने, ऐसा लग रहा था मानो घर का कोई सद्स्य चला गया हो। चोर बाजार, कालीना और जहां जहां कार के पुर्जे बिकते थे सब जगह जा कर चक्कर मार आए, कोई कहता दूसरे राज्य में चली गयी होगी और वहां बेच दी गयी होगी तो कोई कहता कि उसके टुकड़े टुकड़े कर के बेच दिए गये होगें, सुन सुन कर दिल छलनी हुआ जाता। तीन दिन तक हम इन सब कबाड़खानों के चक्कर लगाते रहे। हर दुकान के बाहर टंगा कार का द्रवाजा अपनी कार का लगता था। हमें यूं घूरते देख दुकानदार भी प्रश्नीली आखों से हम दोनों को घूरते, शुक्र की बात घूरने से आगे नहीं बड़ी। पर कितने दिन यूं ही सड़कें नापते, हार कर पतिदेव ने फ़िर से दफ़्तर जाना शुरु कर दिया और हमने कॉलेज्।
पतिदेव के पास तो इतना टाइम नहीं था लेकिन हमारी रोज की दिनचर्या बन गयी कि अपनी एक पड़ोसन को लेकर रोज दोपहर को पुलिस स्टेशन के चक्कर लगाते, "कुछ पता चला?" अपनी जिंदगी में पहली बार पुलिस वालों के साथ पाला पड़ रहा था। पुलिस वाले कहते " अरे मैडम, यहां तो आदमी गुम जाए तो नहीं मिलता, ये तो फ़िर गाड़ी है। ये हमारे सीनियर इंस्पेकटर साहब को देखो, इनकी सरकारी जीप घर के नीचे से चोरी हो गयी आज तक नहीं मिली तो आप की गाड़ी क्या मिलेगी"। हम सुन लेते, दिल पर चोट खा कर भी इक मुस्कान के साथ लगे रहिए की इल्तिजा कर के वापस आ जाते।
पुलिस वाले से अपनी बात करने के लिए हमें रोज कुछ इंतजार करना पड़ता था, सो पहली बार थाने में क्या चलता है देख रहे थे। देख कर हंसी भी आती थी और गुस्सा भी। हम अक्सर ये सोचा करते थे कि पुलिसवाले इतने संगदिल कैसे हो जाते हैं, किसी के दुख से इनका दिल पसीजता क्युं नहीं। अब हमारा एक्सीडेंट वाले मामले में ही देखिए, कैसे बेपरवाह से बैठे रहे। यहां रोज आधा घंटा बैठने के बाद ही हमारा नंबर आता था बात करने के लिए। कोई आता शिकायत लेकर की मैं दोपहर को सो रही हूँ और मेरा पड़ोसी ऊपर अपने घर में ठक ठक किए जा रहा है, ये मेरे मानव अधिकारों का हनन है इस लिए मेरी शिकायत दर्ज करो और उसे दोपहर में थाने में बंद रखो, कोई आता कि मेरी चुन्नी हवा से उड़ कर उसके घर चली गयी और वो वापस नहीं करती, मानती ही नहीं कि चुन्नी उसके घर गयी है, इस लिए चोरी की शिकायत लिखो, कोई युवा प्रेमी घर से भाग गये तो लड़की के माता पिता शिकायत करते कि इनका लड़का हमारी लड़की को भगा ले गया, जब की मामला बिल्कुल साफ़ प्यार का था। कुछ सीरियस मामले भी आते, जैसे कोई औरत शिकायत करती कि उसकी जान को उसके पति से खतरा है। फ़िर हम जैसे लोग भी पहुँच जाते, जिन्हें पुलिस एक बार कह चुकी थी कि कुछ नहीं होने का पर फ़िर भी रोज पहुंच जाते “कुछ खबर मिली”। वो तो हम पढ़े लिखे संभ्रात परिवार से थे, इस लिए पुलिस वाले जरा नम्रता से जवाब देते थे नहीं तो कब का पुलिस थाने आना ही बैन कर देते। एक महीना हम पुलिस स्टेशन और मदिरों के चक्कर काटते रहे और फ़िर उम्मीद छोड़ चुपचाप अपने काम में लग लिए।

तीन महीने बीत गये। पतिदेव टूर पर गये हुए थे, रात के कोई नौ बजे थे कि हमारे दरवाजे की घंटी बजी, दरवाजा खोला तो दो छ: फ़ुट से भी लंबे भारी भरकम डील डौल वाले व्यक्ति खड़े थे। बोले
आप की गाड़ी चोरी हुई है?
हमने कहा, "हां"
बोले हम सी आई डी के आदमी हैं, एफ़ आई आर करवाया था
हमने कहा , " हां"
एफ़ आई आर की कॉपी दिखाई तो कुछ आश्वस्त हो कर बोले कि आप की गाड़ी मिल गयी है, जिन लोगों ने चुराई थी वो नीचे बैठे हैं।
हमारा मन बल्लियों उछलने लगा, हमने चोरों को देखने की इच्छा जताई, इस के पहले कभी चोर भी तो नहीं देखा था, पहले तो ना नुकुर करते रहे, पर हमारे जिद्द पकड़ने पर हमें ले चले, हमारी सोसायटी से थोड़ी ही दूरी पर जीप खड़ी थी जिसमें दो आदमी बैठे थे, देखने में एक्दम मध्यम वर्गीय, हमारे आश्चर्य को देखते हुए सी आई डी वाले हंसे और बताया कि दरअसल वो दोनों चोर इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर चुके हैं और अच्छे परिवारों से है, उनमें से एक की बीबी बैंक में मैनेजर थी तो दूसरे की बीबी स्कूल टीचर, ये दोनों बेकार्। इन दोनों ने नौकरी ढूंढने से ज्यादा फ़ायदेमंद कारें और स्कूटर चुराना समझा। दोनों उल्लासनगर से थे जो सिंधी इलाका माना जाता है, ये दोनों भी सिंधी थे।

सी आई डी वाले अक्सर सादे कपड़ों में बीअर बार वैगरह जैसी संदेहस्पद जगह पर नजर रखते हैं। उल्लासनगर की एक ऐसी ही बिअर बार में इन दोनों को बार बालाओं पर खूब पैसा लुटाते देखा गया, पुलिस ने जब खोजबीन की तो पता चला कि ये दोनों तो बेकार हैं और काम की तलाश में हैं। तो बस फ़िर क्या था सी आई डी वालों ने इन दोनों को धर दबोचा, पूछताछ शुरु की तो पता चला अब तक बम्बई के विभिन्न इलाकों से करीब साठ सत्तर गाड़ियाँ चुरा चुके हैं और बेच चुके हैं। हमारी कार चुराने से पहले ये एक हफ़्ते तक आकर हमारी कॉलोनी में यूं ही बैठते रहे और जायजा लेते रहे कि कौन सी कार उठानी ज्यादा फ़ायदेमंद रहेगी। अब क्युं कि हमारी सोसायटी में भी बहुतायत से सिंधी रहते थे और ये लोग संभ्रात दिखते थे किसी को इन पर शक नहीं हुआ। हमारी गाड़ी सबसे ज्यादा नयी होने के कारण उसी पर हाथ साफ़ किया गया, आनन फ़ानन में चेसी नंबर बदला गया और सीधा ले जाकर उल्लास नगर में एक सरदार को बेच दिया गया। जब पुलिस उस सरदार के घर पहुंची तो उसके लड़के की बारात निकलने वाली थी और उसने अनजाने में ही ली हुई इस चोरी की गाड़ी को सजाने के लिए खूब पैसा खर्च किया हुआ था। पंद्रह दिन के और कोर्ट कचहरी के चक्कर और दस हजार की चपत के बाद हमारी मैडम(कार) और सजधज के वो सरदार के घर से लौट आईं।

लोग कहने लगे आप बहुत भाग्यशाली हैं जो आप को कार वापस मिल गयी। उन्हीं दिनों दो और जन की कारें बम्बई के अलग अलग इलाकों से गायब हुई थीं पर वो किस्मत के इतने धनी नहीं रहे। 1990 से लेकर 2000 तक ये गाड़ी हमारे साथ रही( कल हम गलत लिख गये थे, गाड़ी 90 के दशक के अंत में नहीं शुरुवात में आयी थी)। शुरुवाती धुंआदार रिश्ते के बाद हमने 1999 तक स्टीरिंग व्हील को हाथ भी नहीं लगाया। कॉलेज हमारे घर से 15 मिनट की दूरी पर ही था ,सुबह पतिदेव छोड़ आते थे (जैसे अनूप जी अपनी पत्नी को छोड़ने जाते हैं,)और दोपहर में हम ऑटो से घर आ जाते। 99 में मकान बदलने से काफ़ी परेशानी हो गयी। अब हमारा घर कॉलेज से 15 किलोमीटर दूर हो गया। घर से भी जल्दी निकलना पड़ता था, बसों में जाने की आदत छूट चुकी थी। पतिदेव ने सलाह दी कि हम फ़िर से कार चलाना शुरु करें, डरने से काम नहीं चलेगा। लालच ये दिया गया कि वेन पर हाथ साफ़ कर लो और फ़िर नयी कार ले लेना, पतिदेव तब तक दूसरी ले चुके थे। तो हम एक बार फ़िर ड्राइविंग स्कूल गये। ड्राइविंग मास्टर को अपनी पुरानी आप बीती सुनाई और हिदायत दी कि वो क्लच ब्रेक का इस्तेमाल न करे।मास्टर अच्छा था, बड़िया सिखाया और फ़िर हमने वेन से दोस्ती की। वेन को नाम दिया "हर्बी", वो हर्बी की ही तरह अपनी मर्जी से चलती थी,जब मन किया रुक जाती थी और थोड़ा मनाओ, बातें करों तो चल पड़ती थी, रोज सुबह पूछ्ना पड़ता था , मैडम आज क्या मूड है चलेगीं क्या? बस कॉलेज तक जाना है। ऐसे ही मेरी सहेली ने अपनी कार को नाम दिया था
" मानकुट्टी" ये तमिल भाषा का शब्द है जिसका मतलब है हिरन का छोटा बच्चा। उसकी कार मारुती 800 थी। मेरी कार से थोड़ी कम नटखट्। कॉलेज से निकलते समय अगर हमारी कार चलने से आनाकानी करती तो हम धमकाते "देख चल पड़, नहीं तो तुझे यहीं छोड़ मानकुट्टी के साथ चली जाऊंगी", और आप यकीन नहीं मानेगें कि कार चल पड़ती अलबत्ता थोड़ी ज्यादा अवाज करते हुए जैसे प्रोटेस्ट कर रही हो।

सन 2000 के मध्य में हमने ऑल्टो ले ली और वेन बेच दी, जिस दिन वेन हमारे घर से गयी हमारे घर किसी ने खाना नहीं खाया। हम सोच रहे थे कि आखिरकार मशीन ही तो है इससे इतना मोह क्युं? पूरब और पश्चिम का गीत दिमाग में कौंध जाता था, "इतना आदर इंसान तो क्या, पत्थर भी पूजे जाते हैं"।
वेन के साथ हमारे रिश्ते ने हमें अपने ही धर्म के मतलब समझा दिए । ये हिन्दू धर्म ही है जो निर्जीव चीजों में भी आत्मा देखता है शायद इसी लिए दशहरे के दिन कार जैसी निर्जीव चीजों की भी पूजा होती है।हम सोचते क्या वो सचमुच उतनी निर्जीव है, भावनाओं से मुक्त जितनी दिखती है। कभी अपनी कार से बतिया कर देखिए, उसकी भाषा समझ सके तो आप देखेगें कि वो बराबर जवाब देती है।

पहिया चले चले है यारा, तुझको चलना होगा

पहिया चले चले है यारा, तुझको चलना होगा

दो दिन पहले ममता जी के ब्लोग पर उनके सायकिल सीखने के संस्मरण पढ़े,…पढ़ कर याद हो आया अपना बचपन्।

बचपन में पापा की बड़ी सी सायकिल बहुत चलाई जब वो स्टेंड पर खडी होती थी। बहुत अच्छा लगता था सायकिल चलाना, पर असलियत में कभी सीख ही नहीं पाए। बाद में भाई ने दुपहिया स्कूटर सिखाने की कौशिश की, पीछे से स्कूटर को यूं पकड़ा मानो सायकिल का कैरिअर पकड़ा हो, जैसे ही हमने स्कूटर को बैंलेस करने के लिए रेस दिया, स्कूटर भाई के हाथ से छूट कर कंपाउड की दिवार के आगोश में ऐसे समाया जैसे बच्चा मां की गोद में समाता है। हम कराहते ही रह गये, हाय! 'हमारा बजाज'। भाई ने सिखाने से तौबा कर ली।



फ़िर 90 के दशक अंत में पहली चौपहिया गाड़ी 'मारुती वेन' घर आ गयी। लगा अब मेरे भी दिन फ़िरे, चौपहिया में बैलेसिंग का कोई चक्कर नहीं। पतिदेव की सलाह पर फ़टाफ़ट ड्राइविंग स्कूल में भरती हो गये, रोज आधे घंटे की क्लास, जिसमें से 15 मिनिट सिगनल खुलने के इंतजार और 15 मिनट सीखने का भ्रम। यूं कहिए कि बस एक छोटा सा चक्कर लगा कर वापस आ जाते थे।

हमें इस बात का अंदाजा नहीं था कि जिस कार में वो ट्रेनिंग वाला हमें सिखाता है उसमें उसके पास भी क्लच और ब्रेक है। ये भी नहीं पता था कि हमारे पास भी ब्रेक है, हम समझते थे जैसे घर में पंखे का स्विच ऑफ़ कर दो तो पंखा धीरे धीरे घूमते घूमते अपने आप रुक जाता है क्युं कि उसको अब करेंट नहीं मिल रहा , कार का भी वही फ़ंडा है, आप को गाड़ी रोकनी है तो बस एक्सिलेटर से पांव हटा दीजिए, इंजन को पेट्रोल नहीं मिलेगा और गाड़ी अपने आप थोड़ी दूर लुड़क कर बंद हो जाएगी। जब तक हम सीख रहे थे ट्रेनिंग स्कूल में ऐसा होता भी था। अब गाड़ी चलाते वक्त रोड को देखते या बाजू में बैठे इंस्ट्र्क्टर को। एक महीने बाद आया लाइसेंस के लिए टेस्ट। खुली रोड पर कार चलाने को कहा गया। इंस्पेकटर आगे हमारे पास बैठा। कार शुरु की, थोड़ा आगे गये तो एक बड़ा सा नारियल के झाड़ का पत्ता राह रोके खड़ा था। हमने न आव देखा न ताव, गाड़ी बढ़ा दी उस पत्ते के ऊपर,आखिरकार पत्ता ही तो था । पत्ता इतना बड़ा था कि गाड़ी बंद पड़ गयी। इंस्पेक्टर ने हमारे इंस्ट्र्क्टर की तरफ़ मुखातिब होकर पूछा गाड़ी चलाना सिखाया है या टेंकर?…।:) खैर लक्ष्मी जी की कृपा से हमें लाइसेंस तो मिल गया अब हमें लगा कि अपनी गाड़ी पर भी थोड़ा हाथ साफ़ करना चाहिए।

किसी तरह छोटे भाई को साथ चलने को तैयार किया। नयी नवेली चमकती गाड़ी ले कर निकल पड़े एक अनजानी सी सुनसान सी रोड की तरफ़्। जैसे जैसे उस रोड पर आगे बड़ते गये वो रोड संकरी होती गयी। हम सोच ही रहे थे कि गाड़ी वापस मोड़ लेनी चाहिए कि अचानक सामने से बेस्ट की लाल बस आती दिखाई दी, लगा मानों हम पर ही चढ़ी चली आ रही है, घबरा कर हमने स्टीअरिंग व्हील को तेजी से बाएं घुमा दिया और पैर एक्सीलेटर से हटा लिया। भाई चिल्लाता ही रह गया ,'दीदी ब्रेक, दीदी ब्रेक' तब तक तो गाड़ी को जोर से भींच कर अपने आगोश में ले लिया एक बिजली के खंबे ने। दो महीने पुरानी गाड़ी मुस्कुराती वेन के बदले V शक्ल में बदल गयी।

खंबा मेरे और मेरे भाई के बीचों बीच से निकल गया था। बड़ा हजूम जमा हो गया, आखिर उस विरान सी सड़क पर ऐसे हादसे रोज रोज थोड़े ही न होते हैं। हम दोनों गाड़ी से तो सही सलामत निकल आए पर ये जो बड़ा ह्जूम जमा हो गया था उसमें कई युवा लड़के थे जो आपस में बतिया रहे थे, "अरे, नयी गाड़ी लगती है यार, एक एक टायर हजार हजार रुपये का बिकेगा"। हम समझ चुके थे कि अगर हम गाड़ी छोड़ कर जरा भी इधर उधर हुए तो गाड़ी कहां गयी ये भी पता नहीं चलेगा। हम गाड़ी के पास खड़े रहे और भाई ने जाकर जीजा जी को फ़ोन किया। उन्हें आने में आते आते वक्त तो लगना ही था, गाड़ी के एक तरफ़ हम खड़े रहे और दूसरी तरफ़ भाई, साथ में वो हजूम भी। शुक्र्गुजार है उस ह्जूम के जिन्होंने हमारे खड़े रहते गाड़ी को हाथ लगाने की हिम्मत न की, नहीं तो हम दोनों क्या कर लेते?


खैर, पतिदेव पास के पुलिस स्टेशन गये एक्सीडेंट की रिपोर्ट लिखवाने, पता चला कि पुलिस वालों को तो एक्सीडेंट होते ही खबर लग गयी थी, थाने से 10 मिनट की दूरी पर तो हुआ था हादसा, लेकिन आए नहीं, इंतजार कर रहे थे कि अगर किसी को मरना वरना है तो मरखप्प जाए कौन हॉस्पिटल वगैरह ले जाने की जहमत उठाए और फ़िर जिनको रिपोर्ट लिखानी है वो खुद आयेगें थाने।


कार की ऊपर की बॉडी नयी मंगानी पड़ी गुड़गांव से। तब जाके पता चला कि कार में ब्रेक नाम की भी कोई चीज होती है और गाड़ी सिर्फ़ एक्सीलेटर से पांव हटा लेने से अपने आप नहीं रुकती। छ: महीने बाद गाड़ी बन कर फ़िर से नयी नवैली बन कर आयी तो हमने हाथ लगाने से साफ़ इंकार कर दिया। पतिदेव जोर देते रहे कि हमें फ़िर से सीखना चाहिए, इस बार किसी और ड्राइविंग स्कूल से पर हमने तौबा कर ली और फ़िर दस साल तक कार को हाथ नहीं लगाया।


अररररे कहां चले रुकिए रुकिए सफ़र अभी जारी है, क्या कहा? अच्छा ठीक है भाग दो कल के लिए उठा रखते हैं, पर आप कल आइएगा जरूर्…हम इंतजार करेगें……:)

February 27, 2008

ग्राहक सेवा

कल अंग्रेजी में एक लेख पढ़ा था जिसे पढ़ कर मुझे और मेरी सहेलियों को बहुत मजा आया, आप सके साथ बांट रही हूँ, देखिए आप को कैसा लगता है, हिन्दी में भी अनुवाद दे रही हूँ हालांकि उसमें वो मजा नहीं आयेगा जो अंग्रेजी में आयेगा……


ग्राहक सेवा
जिस जमाने में भारत में सार्वजनिक शौचालय की बहुतायत नहीं थी, एक अंग्रेज महिला ने भारत आने का मन बनाया।उसने एक छोटे से स्कूल के मास्टर धर्मशाला में अपने रहने के लिए बुकिंग कर लिया। लेकिन उसके मन में एक चिन्ता बनी हुई थी कि इस धर्मशाला में शौचालय है कि नहीं। अंग्रेजी में शौचालय को WC कहते हैं। उसने स्कूल मास्टर को एक खत लिख कर पूछा कि धर्मशाला में WC है कि नहीं। अब स्कूल मास्टर की अंग्रेजी भी जरा कमजोर थी, उसे समझ नहीं आया कि ये WC क्या है। तो वो गांव के चर्च के पादरी के पास चला गया, उसे भी नहीं मालूम था, दोनों ने बहुत दिमाग लगाया और इस नतीजे पर पहुंचे कि महिला “Wayside Chapel” के बारे में पूछ रही होगी। उस दोनों के दिमाग में ही नहीं आया कि WC का मतलब शौचालय हो सकता है। तो अब स्कूल मास्टर जी ने खत का जवाब लिखा

आदरणीय मैडम

मुझे आप को ये बताते हुए अति प्रसन्नता हो रही है कि WC घर से 9 मील दूर है, ये हरे भरे पाइन के पेड़ों से घिरा हुआ है, और यहां 229 आदमी एक साथ बैठ सकते है, ये इतवार और गुरुवार को खुला रहता है। ऐसी उम्मीद है कि गर्मियों के महीनों में यहां बहुत लोग आयेगें आप से निवेदन है कि आप जल्दी आने की कृपा करें। वैसे यहां खड़े होने की काफ़ी जगह है, त्रासदी की हालत तभी होगी अगर आप को रोज जाने की आदत हो तो।

आप को शायद ये जान कर अच्छा लगे कि मेरी बेटी की शादी WC में ही हुई थी क्योंकि वो अपने भावी पति को वहीं मिली थी। वो बहुत ही भव्य आयोजन था। हर सीट पर कम से कम दस आदमी बैठे थे और उनके चेहरों के हाव भाव देखने लायक थे। वहां हर कोण से फ़ोटो लिए जा सकते हैं। दुख की बात ये है कि मेरी पत्नी अपनी बिमारी के कारण अब वहां ज्यादा नहीं जा पाती। पिछली बार वो एक साल पहले गयी थी और इस वजह से बहुत पीड़ा झेल रही है।
आप को जान कर खुशी होगी कि कई लोग वहां अपने अपने खाने के ड्ब्बों के साथ आते हैं और पिकनिक मनाते हैं। कुछ लोग आने से पहले अंत समय तक इंतजार करते हैं। मैं आप को सलाह दूंगा कि आप वहां गुरुवार के दिन जाएं क्योंकि गुरुवार के दिन वहां संगीत का भी इंतजाम किया गया है और सब अच्छे से सुनाई देता है, यहां तक कि छोटी से छोटी आवाज भी बराबर सुनाई देती है।
और सबसे अच्छी बात तो ये है कि अब वहां एक घंटा भी लगा दिया गया है जो किसी के भी WC में घुसते ही बज उठता है। हम बहुत जल्द वहां एक बाजार लगाने वाले हैं जहां आरामदेह कुर्सियां मुहैया कराई जाएगीं जिसके लिए बहुत दिनों से लोग मांग कर रहे हैं। मैडम, मैं खुद आप को वहां ले जाऊंगा और ऐसी कुर्सी पर बिठाऊंगा जहां से सब आप को देख सकें।
शुभकामनाओं के साथ

आप का
स्कूलमास्टर
पत्र पढ़ते ही वो अंग्रेज महिला बेहोश हो गयी………और कभी भारत नहीं आयी………J


UNDERSTANDING CLIENT REQUIREMENTS


In the days when you couldn’t count on a public toilet facility, an English woman was planning a trip to India. She registered to stay in a small guest house owned by the local schoolmaster. She was concerned as to whether the guest house contained a WC. In England, a bathroom is commonly called a WC which stands for “Water Closet”. She wrote to the schoolmaster inquiring of the facilities about the WC.

The school master, not fluent in English, asked the local priest if he knew the meaning of WC. Together they pondered over possible meanings of the letter and concluded that the lady wanted to know if there was a “Wayside Chapel” near the house…..a bathroom never entered their minds.

So the schoolmaster wrote the following reply:

Dear Madam

I take great pleasure in informing you that the WC is located 9 miles from the house. It is located in the middle of a grove of pine trees, surrounded by lovely grounds. It is capable of holding 229 people and is open on Sundays and Thursdays. As there are many people expected in the summer months, I suggest you arrive early. There is, however, plenty of standing room. This is an unfortunate situation especially if you are in the habit of going regularly.

It may be of some interest to you that my daughter was married in the WC as it was there that she met her husband. It was a wonderful event. There were 10 people in every seat. It was wonderful to see the expressions on their faces. We can take photos in different angle. My wife, sadly, has been ill and unable to go recently. It has been almost a year since she went last, which pains her greatly.

You will be pleased to know that many people bring their lunch and make a day of it. Others prefer to wait till the last minute and arrive just in time. I would recommend your ladyship to plan to go on a Thursday as there is an organ accompaniment. The acoustics are excellent and even the most delicate sounds can be heard everywhere.
The newest addition is a bell which rings every time a person enters. We are holding a bazaar to provide plush seats for all since many feel it is long needed. I look forward to escorting you there myself and seating you in a place where you can be seen by all.

With deep regards

The schoolmaster


The woman fainted reading the reply…..and never visited India!!!!!

February 26, 2008

खत में लिखो

आज मनीषा पांडेय जी के ब्लोग 'कबाड़खाना' पर एक बहुत ही मार्मिक कविता पढ़ी। इसी तर्ज पर एक गीत हमारे कॉलेज में भी गाया जाता है, गीतकार हैं शहनाज शेख और गीता महाजन।ये गीत एक महिला सघंटन 'आवाज़े-ए-निस्बाँ' के लिए तैयार किया गया था जो बम्बई में बहुत अच्छा काम कर रहा है। मैं ये गीत कई बार सुन चुकी हूँ और गा चुकी हूँ पर अब तक उकताई नहीं , हर बार ये गीत मुझे उतना ही द्रवित करता है जितना पहली बार किया था, आशा है आप को भी पसंद आयेगा, वैसे सुनने का अलग ही मजा है।वैसे दोस्तों आज पहली बार हमने किसी दूसरे ब्लोग से लिंक जोड़ने की कौशिश की है, पता नहीं सही हुआ है या नहीं ये तो आप लोग ही बताएं

खत में लिखो

मैं अच्छी हूं घबराओ नको, ऐसा खत में लिखो

कुणी मेलयाने तुझको लिखा मैं निकली रोडावर (रोडावर=सड़क पर)

गर तुझको शक है मुझ पर, नहीं निकलूंगी बाहर

मैं पानी को जाऊँ क्या नको, ऐसा खत में लिखो (कुणी =किस ) (मेल्याने= मरे हुए ने)



सौ रुपये का हिसाब मांगे तो मैंने घर में क्या खाई

पानी को तीस,लाइट बीस, पच्चीस का राशन लाई

दी पच्चीस दूधवाले को , ऐसा………………॥


पिछ्ली बार आए, कुछ नहीं लाए, अबकी लाना टेप

बेबी बड़ी हुई ऐकन को,ऐसा खत ……………… । (ऐकन=सुनने को)


बाबा को आया बुखार खांसी, प्राइवेट में गई उसको लेकर (बाबा=बच्चा)

सौ रुपया दिया, इंजेकशन लिया, असर न हुआ बच्चे पर,

मैं जे जे को जाऊँ क्या नको, ऐसा ………………। (जे जे = हॉस्पिटल का नाम है)


बेबी को मैं ने इस्कूल डाला, खूब अच्छा पढ़ती है

औरतों ने भी है पढ़ना लिखना, आवाज़े-ए-निस्बां का मन है

मैं पढ़ने को जाऊं क्या नको, ऐसा………………।


आवाज़े-ए-निस्बां है महिला मंडल, जाती मैं उस मीटिंग को

तेरी बहन को शौहर जब पीटे, जाती सब धमकाने को

उसको मदद मैं करुं क्या नको, ऐसा……………।


मंहगाई इतनी रोजगार भी नहीं, तेरे जैसे जाते दुबई को

घर भी कितने टूट जाते हर दिन, दुख होता मेरे मन को

तू आजा जल्द मिलने को, ऐसा………………।


गया तू जबसे बिगड़ा है माहौल , फ़साद का डर है मुझको

धर्म के नाम पे कैसे ये झगड़े, अमन से रहना है सबको

ये बस्ती में समझाऊं क्या नको, ऐसा………॥


सऊदी जाके, दुबई जाके कितने दिन हम टिकेगें

इसी समाज को हमको बदलना, बच्चों के लिए अपने

मैं मोर्चे में जाऊँ क्या नको, ऐसा…………॥


कोणी मेल्या ने तुझको लिखा, मैं निकली रोडावर

मीटिंग में जाती, मोर्चे में जाती, सुधरने जिंदगानी को

तू भी आजा साथ देने को, ऐसा……………

February 14, 2008


हैप्पी वेलेन्टाइनस डे टू एवरीबडी

क्लास में जाते ही पीछे से एक लड़की की आवाज आई, " हैप्पी वेलेन्टाइनस डे मैडम", हम थोड़ा चौकें। अब तक हमारे जेहन में वेलेन्टाइन्स डे का ख्याल नहीं आया था( याद आ गया होता तो सुबह ही पतिदेव को विश कर देते, सोचा क्लास खतम होते ही फ़ोन करना होगा…:))।
लेकिन अब बात निकली ही थी और क्लास समाजिक मनोविज्ञान की ही थी तो वेलेन्टाइनस डे को लेकर बहस शुरु हो गयी।
नवभारत टाइम्स के देहली एडिशन में स्वतंत्र कुमार जी का विस्तृत लेख छपा था इसी विषय पर। उनका लेख पढ़ते पढ़ते मुझे अपने स्टुडेंटस की दलीलें याद आ रही थीं और दिख रहा था कि कितना फ़र्क है आज की युवा पीढ़ी की सोच में और प्रौढ़ होती(स्वतंत्र कुमार जी क्षमा चाह्ती हूँ)पीढ़ी में।
मेरे आश्चर्यचकित चेहरे को देख मेरी छात्रा ने कहा कि "कौन कहता है कि वेलेन्टाइन सिर्फ़ स्त्री पुरुष में होने वाले प्रेम को इंगित करता है, ये सभी तरह के प्रेम को दर्शाने का पर्व है। मैं तो सुबह अपने माता पिता को भी विश कर के आई हूँ"।
दूसरे छात्र उससे सहमत थे। हमने कहा कि कहीं ये नयी सोच वेलेन्टाइन का बाजारीकरण करने वालों की देन तो नहीं। आर्चीस अपने ग्रीटिंग कार्ड ज्यादा से ज्यादा बेचने के चक्कर में प्रमोट कर रहा हो कि जिस किसी से प्रेम करते हो उसे आज के दिन एक कार्ड और एक गुलाब का फ़ूल दो। हो भी सकता है ये बाजारीकरण की देन हो पर फ़िर भी सकारत्मक है, आखिरकार किसको बुरा लगता है अगर कोई आके कहे कि मुझे आपसे लगाव है फ़िर कहने वाला चाहे कोई बच्चा ही क्युं न हो? बस सच्चे मन से कहा हुआ होना चाहिए।

"लगभग सभी पारंपरिक समाजों में शादी एक पारिवारिक मामला रहा है। शादी का मकसद था बच्चा पैदा करना और पारिवारिक संपत्ति का संरक्षण। इसमें प्यार की कोई भूमिका नहीं थी और तत्कालीन अर्थव्यवस्था को देखते हुए संभव भी नहीं था। परिवार के बड़े-बूढे़ अपने अधिकारों ओर निर्णायक शक्तियों का प्रयोग शादी के आयोजनों में करते थे। वैलंटाइंस डे जैसे त्योहार इन लोगों को सीधे-सीधे अपने प्रभाव और सत्ता में दखल लगते हैं। वैसे भी इन त्योहारों में उनके लिए तो कुछ रखा नहीं है इसलिए भी उनकी तरफ से विरोध होना स्वाभाविक है।" स्वतंत्र कुमार(नवभारत टाइम्स)

क्या आप स्वतंत्र कुमार जी की बातों से सहमत हैं? इतिहास गवाह है कि बच्चे तो बिन शादी भी पैदा हुए, हाँ! ये बात और है कि राजकुमार नहीं कहलाए। जहां तक मेरी समझ जाती है ये उस वक्त की बात कर रहे हैं जब पारिवारिक संपत्ति पति के नाम होती थी, तब क्या पति सिर्फ़ इस लिए शादी करता था कि पत्नी आ कर संपत्ति की रखवाली करेगी। बिन प्यार सफ़ल ग्रहस्त जीवन की कल्पना मैं नहीं कर पा रही हूँ। बड़ी सफ़ाई से ये मान लिया गया कि घर के बड़े बूढ़े वैलेन्टाइनस जैसे त्यौहार का विरोध करेगें क्युं कि उसमें उनकी कोई भूमिका नहीं, भूमिका कैसे नहीं भाई, वे भी मनायेगें इस त्यौहार को।

पिछ्ले साल तक वैलेन्टाइन का विरोध करने वाले कई प्रदर्शनकारी दिखाई दे रहे थे, इस साल वो किसी और मसले में उलझे हुए हैं। विरोध यह कह कर किया जाता था कि ये हमारी संस्कृती का अतिक्रमण है। मुझे तो शेखर सुमन और रेखा द्वारा अभिनीत फ़िल्म का ख्याल आता है जहां वसंत उत्सव मनाना हमारी संस्कृती का हिस्सा बताया गया था। प्रेम का विरोध तो हम भारतियों ने कभी नहीं किया। हां! स्वतंत्र जी की इस बात से हम सहमत है कि प्रेम की अभिव्यक्ति मनुष्यता को मजबूत करती है, जरुरत है तो सिर्फ़ इस बात का ध्यान रखने की कि कहीं ये किसी को दुख न पहुंचाए। आज के कलियुग में अगर हम संतोषी माता की कल्पना कर सकते हैं तो प्रेम की देवी की क्युं नहीं, वैसे भी ३६ करोड़ देवी देवता हैं एक और सही, तो चलो साथियों

प्रेम से बोलो हैप्पी वैलेंटाइनस डे
सारे बोलो हैप्पी वैलेंटाइनस डे

February 10, 2008

तुमने मूंगफ़ली खायी?

पांच की सुबह साढ़े सात बजे जैसे ही हवाई जहाज से बाहर निकले ऐसा लगा जैसे कई सुइयां एक साथ आ कर गालों में गढ़ गयी हों। ये था ठंडी हवा का झोंका जो 4 डिग्री तापमान का गुलदस्ता सजाए हमारे स्वागत को आगे बढ़ आया था बिल्कुल अरबी स्टाइल में। किसी के स्वागत को ठुकराना असभ्यता होती है इस लिए हमने भी मुस्कुरा कर इस झोंके का स्वागत किया। आखिरकार 25 साल बाद हमारा मिलन हो रहा था।

अब देखिए कहने को दिल्ली हमारे घर से कोई ज्यादा दूर नहीं बस दो घंटे का हवाई सफ़र और एक रात का ट्रेन का सफ़र, फ़िर भी हमें 25 साल लग गये इस सफ़र को तय करने। ऐसा नहीं था कि हमने इसे याद नहीं किया। हर जाड़ों में हम इस ठिठुरन को तरसे थे, बम्बई के चिपचिपाते एक सरीखे मौसम में उत्तर की गजब की ठंड और गजब की गर्मी को भी तरसे हैं। जाड़ों में ओवरकोट की जेबों में चिलगोजे, अखरोट और मूंगलियां भर ले जाना, पैदल स्कूल जाना और रास्ते भर ये सब चरते जाना। रातों को सर तक खिचें लिहाफ़ों में दुबकना, गोभी के, मूली के परांठे सुबह शाम याद आये हैं।

एअरपोर्ट पर जो हमको लेने आने वाले थे वो कुछ लेट हो गये, हम तो खुश हो गये। घूम घूम कर हम जाड़े की छुअन से पुलकित हो रहे थे, ठंडक अंग अंग में प्राण भर रही थी और हम उस एक एक क्षण में कई बीते साल जी रहे थे, हमारे पति और भतीजी जो हमारे साथ बम्बई से आये थे हैरान हमारा चेहरा ताक रहे थे।

हम देहली तीन दिन रहे पर इन तीन दिनों में पिछ्ले कई सालों की कसर निकालने की कौशिश की। लिहाफ़ों में दुबके, स्वेटर मौजे पहन कर सोये, आलू के, गोभी के पराठें खाए खूब करारे घी में सिके हुए( हम इन तीन दिनों के लिए सब एतियात भूल गये), मूली इतनी मीठी मानों स्वर्ग से आयी हों। बस एक चीज का ही मलाल रहा। पूरी दिल्ली घूम लिए उत्तर से दक्खिन, पुरब से पश्चिम, पर हमें कहीं मूगंफ़ली का ठेला न दिखायी दिया। पता नहीं इस बार मूगंफ़ली की फ़सल अच्छी न हुई या सब की सब गंगा जी के किनारे चली गयी( याद है न ज्ञान जी ने अपनी पोस्ट में कहा था कि जब पुराने वाले दफ़तर में थे तो रोज मूंगफ़ली की पुड़िया खाते टहलते थे।) हम तो इन जाड़ों में दो दानों को भी तरस गये। एक मलाल और रह गया- मेट्रो में सफ़र का आंनद न लूट सके। खैर अगली बार सही।

फ़िर भी हमारा दिल्ली जाना बहुत ही बड़िया अनुभव रहा,बड़िया बड़िया जाड़ों के साथ साथ, जाड़ों की मधुर धूप सी आलोक पुराणिक जी से जो भेंट हो गयी। ब्लोग की दुनिया में हमने पदार्पण उनके ब्लोग पढ़ कर ही किया था, इस लिए वो हमारे लिए खास हुए न।अच्छे मेजबान की भूमिका निभाते निभाते आलोक जी के पांव दर्द करने लगे होगें इतने चक्कर लगाने पढ़े उन्हें चाय का इन्तजाम करने में । लेकिन बातें करते करते दो ढाई घंटे कैसे गुजर गये पता ही न चला, आलोक जी का तो पता नहीं कि बोर हुए कि नहीं पर हमारी बातें तो अभी और बाकी थीं। आलोक जी को मिल कर लौट रहे थे कि जयपुर से नीलिमा जी ने फ़ोन कर हमें अचंभे में डाल दिया। लती को अपनी खुराक न मिले तो जो हालत उसकी होती है वही हालत हमारी थी दिल्ली में। सब सुखद अनुभवों के बावजूद हम आप सब को मिस कर रहे थे, ऐसे में नीलीमा जी का फ़ोन मानों दर्द निवारक गोली का काम कर रहा था। नीलीमा जी धन्यवाद्।

February 01, 2008

प्यार हुआ इकरार हुआ

प्यार हुआ इकरार हुआ


दोस्तों आखिर वो दिन आ ही गया जब दो ब्लोगर जोड़े गाने वाले हैं

आज कल तेरे मेरे प्यार के चर्चे हर जबान पर,

सब को मालूम है और सबको खबर हो गयी…।:)



नहीं नहीं अभी नहीं अभी करो थोड़ा इंतजार


कुछ दिन पहले मैंने अपनी पोस्ट पर बताया था कि एक ब्लोगर जोड़े (युनुस जी और ममता जी) ने दो ब्लोगर जोड़ों को (अनिता और विनोद जी, बोधिसत्व और आभा जी ) को घेर घार कर उन्हें बीते दिनों को याद करने पर मजबूर किया( वैसे भूले ही कब थे?) और पूछा क्या तेरा भी था ऐसा हाल जैसा आज है अपना हाल( तीनों जोड़ों की खासियत ये है कि तीनों प्रेम विवाह के बंधन में बधें हैं)।

पूरा यहाँ पढ़ें... रेडियोनामा