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सुस्वागतम

आपका हार्दिक स्वागत है, आपको यह चिट्ठा कैसा लगा? अपनी बहूमूल्य राय से हमें जरूर अवगत करावें,धन्यवाद।

January 31, 2010

रण


पिछले पंद्रह दिनों से झेल रहे अथक तनाव से तंग आ कर सोचा कि आज सनीमा…:) देखा जाए। अखबार तो आज कल बहुत कम देख पाते हैं उस पर फ़िल्मों की रेटिंग वेटिंग देखने का तो सवाल ही नहीं उठता। खबरें भी जो पढ़ते हैं वो आधे घंटे तक भूल चुके होते हैं । खैर दिमाग पर जोर दिया तो याद आया कि आते समय रास्ते में 'रण' का पोस्टर शायद देखा था। बस पतिदेव से फ़र्माइश की गयी कि हमें रण देखना है। पतिदेव जरा भी उसके लिए उत्साहित नहीं दिखे। हमें जितना अमिताभ बच्चन पसंद हैं उसी अनुपात में पतिदेव को वो एक फ़ूटी आंख नहीं सुहाते।
खैर टिकटें आ गयीं। आज कल थियेटर में जा के फ़िल्म देखना अपने आप में नया ही अनुभव है। पहले हम थियेटर में फ़िल्म देखने जाते थे तो चिन्ता रहती थी कि पता नहीं टिकट मिलेगी कि नहीं। कहीं हाउसफ़ुल हुआ तो अपना सा मुंह लिये वापस आना पड़ेगा। फ़िर आये मल्टीप्लेक्सिस, एक ही बिल्डिंग में दो तीन थियेटर्। अब जरा तनाव कम होता था। एक पिक्चर की टिकट नहीं मिली तो दूसरे थियेटर की मिल जायेगी। और अब तो थियेटर भी 'वैल्यू फ़ॉर मनी' के साथ आते हैं, शॉपिंग मॉल में ही तीन तीन स्क्रीन्स, मतलब मॉल और मल्टिप्लेक्सिस एक साथ्। टिकट न मिले तो आप शॉपिग कर लीजिए, वो भी साफ़ सुथरे ए सी मॉल में। वो भी न मन हो तो आराम से खाना खाइए और वापिस आइए। वैसे टिकट न मिलने का तो अब सवाल ही नहीं उठता। शॉपिंग मॉल एक एक किलोमीटर की दूरी पर पटे पड़े हैं और ज्यादातर सब में कम से कम दो दो स्क्रीन्स्। पिछले दो सालों में टिकट न मिलने के कारण सिर्फ़ एक ही बार वापस घर आना पड़ा था,पता है कौन सी फ़िल्म के लिए-थ्री इडियट्स्। एक मॉल में तो चार स्क्रीन्स हैं और चारों में थ्री इडियटस चल रही थी और फ़िर भी टिकट नहीं मिला। उसके अगले हफ़्ते जब फ़िर से कौशिश की तो सबसे आगे वाली पंक्ति में बैठ कर गर्दन टेड़ी कर के देखना पड़ा था। सिर्फ़ दो ही फ़िल्में ऐसे सबसे आगे बैठ कर देखी हैं - एक 'अभिमान' और दूसरी 'लक्ष्य'।

आज कल तो जी शो के टाइम भी बड़े अजीब हो रहे हैं। पहले होते थे बारह से तीन, तीन से छ:, छ: से नौ और फ़िर नौ से बारह्। आज हम रण देखने गये, शो का टाइम था सवा आठ बजे से दस बजे तक्। सब जगह कटौती का जमाना है जी। टिकटों के दाम आसमान छू रहे हैं और फ़िल्म की लंबाई कम होती जा रही है। बहाने के रूप में इल्जाम दर्शक के माथे पर लगा दिया जाता है कि वो नहीं बैठ सकता अब इतने वक्त तक्।

खैर, हॉल में पहुंचे, हॉल लगभग खाली पड़ा था, कहीं भी बैठ जाओ। फ़िल्म मीडिया इंड्रसी को पार्श्व में रख कर बनायी गयी है। जैसे जैसे फ़िल्म आगे बढ़ रही थी हमारे दिमाग में एक नाम बार बार कौंध रहा था, ' आर्थर हैली' मेरा कॉलेज के जमाने में पंसदीदा लेखक्। हम याद करने की कौशिश कर रहे थे कि उसने मीडिया इंड्स्त्री के ऊपर भी कुछ लि्खा है क्या, याद नहीं आ रहा था, अब भी याद नहीं आ रहा।
वैसे फ़िल्म उतनी वैल रिसर्चड नहीं है जितने आर्थर हैली के उपन्यास हुआ करते थे, फ़िर भी ठीक थी। मुझे लगता है कि फ़िल्म कुछ इस लिए भी कमजोर पड़ गयी क्युं कि उसके अंत का अनुमान लगाना बहुत आसान था।
पर फ़िल्म की जान थे अमिताभ बच्चन और उनकी डायलाग डिलीवरी। फ़िल्म खत्म होती है तो लोग थियेटर के बाहर जाने लगते हैं और स्क्रीन पर रोलिंग नंबरिंग चलती रहती है। हमारी बड़ी बेकार आदत है कि हम पूरी नामावली देखते हैं। हमारे आसपास बैठे दर्शक हमें ऐसे देखते हैं मानों हम चिड़िया घर से आये हों, मानों कह रहे हों 'देखो देखो ये पागल नामावली देख रही है'खैर इस फ़िल्म में ये देख कर बड़ी हैरानी हुई कि हर गाना के लिए अलग लेखक, गीतकार और संगीतकार थे। पहले तो पूरी फ़िल्म के लिए एक ही संगीतकार की जोड़ी हुआ करती थी। हो सकता है ये नया चलन हो और हमें अब तक पता नहीं था। जो भी हो कम से कम इस चलन के चलते ज्यादा लोगों को रोजगार मिलेगा।

घर लौटते हुए पतिदेव पूछ रहे थे फ़िल्म देख के तुम्हें राजीव गांधी और वी पी सिंह के प्रधान मंत्री का किस्सा याद आ रहा है क्या?
आप बताइए आप को याद आता है क्या वो किस्सा?

January 24, 2010

आगरे का ठग

अचानक एक आदमी मेरे भाई के पास आया और एक्दम धीमे स्वर में कुछ कहा जो हमें सुनाई नहीं पड़ा। भाई ने साफ़ इंकार कर दिया। अब उस आदमी ने जरा तेज आवाज में कहा, आप मदद करने से भी इंकार कर रहे हैं? मेरे भाई ने हां कहते हुए सर हिला दिया। वो आदमी वहां से हट गया।
हमने पूछा 'क्या कह रहा था?'


भाई ने बड़े लापरवाह अंदाज में बतलाया कि कह रहा था कि 'मैं इंस्पेकटर हूँ, मैं आप को पैसे देता हूँ, आप जरा सामने वाली पेठे की दुकान से आधा किलो पेठा ला कर दे दीजिए, मैं ड्यूटी पर हूँ खरीद नहीं सकता'
हमारी सवालिया नजरों को देख भाई ने ज्ञान बांटते हुए बतलाया कि वो ठग होगा, सौ का नोट देगा और जब पेठा ले कर आ जायेगें तो कहेगा मैने तो पांच सौ दिये थे और आप मुझे कम पैसे दे रहे हैं, उसके और भी साथी होगें, वो सब जमा हो जायेगें और दवाब डालेगें कि उसके पैसे लौटाओ…॥'


वो आदमी अभी भी हमसे कुछ दूरी पर पेठे की दुकान के पास ही खड़ा था। देखने में पढ़ा लिखा किसी मिडिल क्लास परिवार का सदस्य लगे। पता नहीं क्युं हमें उस पर बहुत गुस्सा आ रहा था। मन ही मन सोच रहे थे ये आदमी इस तरह ठगी कर के अपना गुजर बसर करता है? ठग है तो अक्ल भी तेज होगी और शरीर से भी काफ़ी हष्ट पुष्ट है तो कोई ढंग का काम क्युं नहीं करता। पता नहीं लोग मेहनत की रोटी क्युं नहीं खा सकते, इत्यादी इत्यादी। अब हम चारों की नजरें उसका पीछा ऐसे कर रही थीं मानो हम शेरेलोक होम्स के वंशज हैं। हम चारों आपस में कह रहे थे देखा अब उस यात्री को उल्लु बना रहा है। एक आदमी ने उसका अभिवादन किया तो हमने उस आदमी को भी उसके गैंग का मेम्बर समझ लिया। थोड़ी देर बाद वो आदमी वहां से गायब हो गया। हमने सोचा अब वो अपना भाग्य आजमाने प्लेटफ़ार्म के किसी दूसरे हिस्से में चला गया है।


है। इंडीकेटर की तरफ़ देखा तो पता चला पंजाब मेल अब दो बजे आयेगी। पेट में चूहे कूद रहे थे, सुबह जल्दी में नाश्ता भी नहीं खाया था। निर्णय ये लिया गया कि हममें से दो जन पहले खा कर आयेगे और दो जन बाद में। मैं और मेरी भतीजी पहले चले रेलवे कैंटीन की तरफ़्। वही एक जगह थोड़ी साफ़ लग रही थी। जा कर कूपन लिए और खाना मिलने का इंतजार करने लगे। वेटर ने कहा बैठिये एक दस मिनिट लगेगें पर हम खड़े खड़े भतीजी से बतियाते रहे। इतने में हमने देखा वही ठग कैंटीन में घुसा और बेमतलब इधर उधर घूमने लगा। हमने भतीजी से कहा
' लो ये यहां भी आ गया'


उसने हमारी बात सुन ली, वो हमारे पास खिसक आया और बोला 'मैडम आप गलत समझ रही हैं'।इसके पहले कि वो और कुछ कहता हमने आवाज में तल्खी लाते हुए कहा कि हम आप से कुछ नहीं कह रहे और हमें आप से कोई बात नहीं करनी'। गुस्से के मारे हम आप से तुम पर उतर आये और तीखी आवाज में उससे कहा ' तुम यहां से कट लो' , उसने फ़िर कुछ कहना चाहा पर हम कुछ सुनने को तैयार नहीं थे और जोर से कहा ' तुम यहां से कट लो' , अब पता नहीं उसे बम्बइया भाषा आती थी कि नहीं पर वो हमसे कुछ दूर चला गया। तब तक हमारा खाना भी आ गया और हम एक टेबल पर जम गये।

कुछ ही देर में उस ठग के आसपास चार पांच कोटधारी जमा हो गये जिनके कोट पर नाम की पट्टी लगी हुई थी। हम खा रहे थे और देख रहे थे कि ये आदमी अब क्या कर रहा है। वो ठग काउंटर के पीछे गया और जिस वेटर ने हमें खाना दिया था उसे अपने नाखुन दिखाने को कहा, वेटर ने चुपचाप हाथ आगे कर दिये। वो चार पांच आदमी भी अब अंदर की तरफ़ प्रवेश कर चुके थे और अब ये ठग हर चीज का मुआयना कर रहा था और जो कुछ कहता जा रहा था दूसरे लोग नोट करते जा रहे थे। हम सोच में पड़ गये कि अगर ये ठग है तो क्या इतना पावरफ़ुल है कि कैंटीन के कर्मचारी भी इससे कुछ नहीं कह रहे? करीब पंदरह बीस मिनिट वो कैंटीन के एक कोने से दूसरे कोने तक मुआयना करता रहा और बाकी के लोग उसके साथ साथ घूमते रहे। फ़्रीजर खोल के उसने आइसक्रीम निकाली, ऊपर उठा कर देखा और फ़ेंकने के आदेश दिये। करीब साठ कप आइसक्रीम के फ़ेंके गये।


अब हमें लगने लगा कि कहीं न कहीं हमसे भूल हुई है। इस कदर बतमीजी से बात करने पर आत्मग्लानी हो रही थी। हमने खाना आधे में छोड़ा, उठे और बिलिंग काउंटर की तरफ़ बढ़ गये जहां वो ठग अपने गैंग के साथ खड़ा बिलिंग क्लर्क की क्लास ले रहा था। उसकी हमारी तरफ़ पीठ थी। हमने धीरे से उसका ध्यान अपनी तरफ़ खींचने के लिए खंखारा, उसके साथियों ने उसे हमारी उपस्थिती का भान कराया। वो मुड़ा, सवालिया नजरों से देखा, हमने कहा, 'आय एम सॉरी, मुझे आप से ऐसे बात नहीं करनी चाहिए थी'
मुस्कुराहट उसकी आखों तक खिच गयी। उसने कहा कोई बात नहीं आप की भी गलती नहीं।


हमने डेमेज कंट्रोल करते हुए कहा अब हम आप की बात सुनने को तैयार हैं, क्या नाम है आप का? वो मुस्कुराते हुए हमारी टेबल पर चला आया और बतलाया कि उसका नाम अनुपम मिश्रा है और वो डिवीजनल कमर्शिल इंस्पेकटर है। अब ये तो हद्द ही हो गयी वो रेलवे का कर्मचारी है और हमने उसे ठग समझ लिया। हमने हंसते हुए कहा कि भाई ये तो कमाल ही हो गया ये तो ब्लोग जगत में किस्सा बताना पड़ेगा। हमने पूछा आप जानते हैं ब्लोग क्या होता है? मिश्रा जी और उनके साथियों ने नकारत्मक अंदाज में सर हिला दिया। उनके साथी भी अब हमारी बातचीत ध्यान से सुनने लगे। हम तुरंत मास्टरनी के रोल में आ गये लेकिन सिर्फ़ कुछ सेकेंडस के लिए। उन्हें ज्ञान जी के ब्लोग की भी जानकारी दी और कहा कि पढ़ा कीजिए। वेटर से हमने एक नेपकिन मांगा ताकि उनका नाम हम भूल न जायें, उन्हों ने तुरंत बड़े उत्साह से बिलिंग क्लर्क से एक कागज ले कर दिया, फ़िर अपनी मंडली से पेन भी ले कर दिया और बड़े सब्र से अपना पूरा परिचय लिखवाया,
श्री अनुपम मिश्रा, डिवीजन कमर्शिल इंस्पेकटर, एन सी आर आगरा।


अपने आसपास खड़ी मंडली की तरफ़ एक दंभ भरी नजर डालते हुए बड़ी मासुमियत से पूछा “मैडम ये आप का लेख कौन से अखबार में छपेगा?” तब हमें पता चला कि हम कित्ते बेकार मास्टरनी हैं। हमने फ़िर से हिन्दी ब्लोगजगत का पूरा पाठ पढ़ाया, और पूछा लेकिन आप ने हमारे भाई से पेठा लाने को क्युं कहा? उन्होंने बताया कि कानूनन पेठे वाले को वो पेठा 45 रुपये किलो के हिसाब से बेचना चाहिए लेकिन वो बेच रहा है 60 रुपये किलो के हिसाब से, यही पकड़ना चाह्ते थे। फ़िर बड़े बेचारगी भरे स्वर में बोले अभी पिछले महीने ही इसे पंदरह हजार रुपये का फ़ाइन किया है लेकिन फ़िर भी ये वही किये जा रहा है। अंदर की बात बतायें अंदाज में बोले दरअसल रेलवे प्लेटफ़ार्म पे दुकान चलाने का ठेका ये मिनिस्टरी से लेते हैं इनकी पहुंच बड़ी दूर तक है। और भी ढेर सारी जानकारी अपने महकमे के बारे में देते रहे और हमें लगा हम ज्ञान जी का ब्लोग पढ़ रहे हैं।


जब तक हम रेलवे कैंटीन से बाहर आये, मटर छीलने वाली महिलायें जा चुकी थीं पर हमारी गाड़ी का समय हो गया था शाम चार बजे। अंतत: पंजाब मेल आयी शाम को छ: बजे। गाड़ी को आता देख् मन हुआ ताली बजा कर स्वागत करें पर फ़िर रुक गये कि एक दिन के लिए काफ़ी तमाशा हो लिया। मिश्रा जी अगर ये ब्लोग पढ़ रहे हों तो हम उनसे एक बार फ़िर क्षमा मांगते हैं।

आगरा कैंट ( भाग 1)



मौसी के यहां से शादी का कॉर्ड आया तो हम समझ गये थे कि इस बार जाना अनिवार्य है। उत्तर भारत में शादियों का मौसम जाड़ों में ही पड़ता है और हर बार या तो छुट्टी न मिलने के कारण या गरम कपड़े न होने के कारण हम शादियों में शामिल न हुए। पिछले साल दिल्ली में एक शादी में जाना जरूरी हो गया था। हम गरम कपड़ों से लदे फ़दे बारात में शामिल होने गये तो देखा वहां तो एक भी महिला ने शॉल तक न ओढ़ा था। फ़ैशन का ऐसा बोलबाला था कि महिलाओं ने बैकलेस चोलियां पहन रखी थीं। इस बार भी आगरा में शादी के रिसेप्शन पर पहुंचे तो देखा औरतें इतनी कड़ाके की ठंड में भी महीन साड़ियां पहने घूम रही हैं जब कि मर्द सूट पहने घूम रहे हैं। हम सोच रहे थे शायद जाड़ा मियां औरतों पर ज्यादा मेहरबान है इस लिए उन्हें परेशान नहीं करता।


खैर, बरसों के बिछडे रिश्ते नातों से मिलते मिलाते, नाना प्रकार के व्यंजन चखते, कॉफ़ी पी कर निपटे तो रात का एक बज चुका था। यूं तो शाम से ही क्लार्क शिराज के लॉन पर कोहरा रुई के फ़ाहों सा गिरता बरसात सा मजा दे रहा था, लेकिन जब घड़ी की सुइयों ने आलिंगन लेना चाहा तो कोहरे ने ऐसा पर्दा खींचा कि साथ वाली टेबल पर बैठे मेहमान भी न दिखाई दें। सड़क और कोहरे के मिलन का नजारा इतना मनोरम कि कोई भी ड्राइवर उन्हें छेड़ने को तैयार नहीं था। बड़ी मुश्किल से एक बजे होटल पहुंचे और आते ही टी वी लगाया तो पता चला कि सभी रेलगाड़ियां देर से चल रही हैं। वही कोहरा जिसे देख, छू कर हम पुलकित हो रहे थे अब भयावह लगने लगा। हमें दूसरे दिन पंजाब मेल पकड़ वापस बम्बई लौटना था। आगरा कैंट से गाड़ी छूटने का सही समय आठ बज कर पचास मिनिट था। पता चला गाड़ी दोपहर बारह बजे आगरा कैंट पर आयेगी। लिहाफ़ की गरमाइश के नरम चंगुल से जब तक हम खुद को आजाद कर पाये, दस बज चुके थे। हड़बड़ा कर भाई के कमरे का दरवाजा खटखटाया, देखा तो वो पहले ही खुद को लिहाफ़ से आजाद कर चुका था और रेलवे इंक्वाइरी से पता लगा चुका था कि गाड़ी बारह बजे ही आगरा कैंट पहुंचेगी। खैर, हम जल्दी जल्दी तैय्रार हुए, सामान रात को ही बांध चुके थे। ग्यारह बजे तक कोहरा काफ़ी छ्ट चुका था सो दूसरे भाई ने विदा ली। वो कार से इंदौर जा रहा था। हम लोग जब तक सामान उतरवा कर होटेल के बाहर पहुंचे, पौने बारह बज चुके थे, कहीं कोई ऑटो नहीं दिख रहा था और हमें चाहिए थे तीन ऑटो। जैसे तैसे ऑटो मिले,स्टेशन पहुंचे तो बारह बजने में पांच मिनिट थे। सामान इतना कि हम सब से मिल कर भी उठाया न जाए। पास बैठे कुली को आवाज लगायी, मोलभाव किया गया, ट्राली लाने को कहा गया। कुली आराम से बैठा रहा। हमारा पारा चढ़ रहा था, एक तो पांच मिनिट में ट्रेन आने का समय और बुढ्ढा कुली और वो भी अपनी जगह से हिलने को तैयार नहीं। जितना हम जल्दी करने को कहें कुली उतने ही आराम से चलते हुए कह्ता रहा कि कोई जल्दी नहीं गाड़ी बारह बजे नहीं आयेगी। खैर प्लेटफ़ार्म पर पहुंच कर हमारी जान में जान आयी। कुली ट्राली से सामान उतारने लगा, तब तक हमारा पारा नीचे उतर चुका था और अक्ल काम करने लगी थी। प्लेटफ़ार्म की गंदगी देखते हुए हमने उससे कहा कि हम और पैसे देने को तैयार हैं लेकिन वो सामान ट्राली पर ही रहने दे और जब गाड़ी आये तो गाड़ी में चढ़ा दे। कुली ने संतुष्ट मुस्कान के साथ दो खाली कुर्सियों के पास ट्राली खड़ी कर दी और आश्वासन दिया कि गाड़ी आने तक वो हाजिर हो जायेगा।


इंडिकेटर पर अब दिखा रहा था कि पंजाब मेल और एक घंटा लेट है और एक बजे तक आने की संभावना है। कुर्सियां थीं दो और हम थे चार। मेरी भाभी और मैंने कुर्सी पर हक जमाया और भाई बिचारा ट्राली पर ही जगह बना कर बैठ गया। हमसे कुछ ही दूरी पर दो महिलायें आराम से अखबार जमीन पर बिछा कर मटर छीलने में व्यस्त हो गयीं। मन तो हुआ उनसे जा के पूछें 'भई, आगरा में मटर क्या भाव हैं?' हमने भी आगरा आने से पहले पांच किलो मटर छील कर फ़ीजर के हवाले किए थे। पिछले साल तो मटर पंदरह रुपये किलो तक मिल गये थे पर इस साल पच्चीस से कम न हुए।




उनसे कुछ अलग हट कर दो और महिलायें खड़ी सोच रही थीं कि जमीन पर बैठा जाये या यूं ही खड़ा रहा जाये। कहते हैं केला हमें तुरंत एनर्जी देता है। इन महिलाओं ने भी सोचा कि पहले केला खा लिया जाए फ़िर इस समस्या के बारे में सोचा जायेगा। उनमें से एक महिला पास के ही ठेले वाले से दो केले ले आयी, एक उसने दूसरी महिला को दिया और एक वो खुद के लिए छीलने लगी। तभी जोर का शोर उठा और हमने पलट कर देखा तो एक मोटा सा बंदर उस महिला के हाथ से केला छीन रहा था, आसपास खड़े लोग चिल्ला रहे थे 'दे दो, दे दो'। महिला ने घबरा कर केला फ़ेंक दिया जिसे जमीन पर गिरने से पहले बंदर ने लपक लिया। तब तक एक बंदरिया भी बंदर के पास चली आयी। मोटे बंदर ने पूर्ण शिष्टाचार निभाते हुए उस एक केले का आधा टुकड़ा बंदरिया को दिया और आधा खुद खाने लगा, वो भी ऐसे वेसे नहीं बकायदा थोड़ा थोड़ा छीलते हुए ऐसे की हाथ गंदे न हों। बस उस महिला का शुक्रिया अदा नहीं किया इस लिए उसे आधा जैंटलमेन कहा जा सकता है। हमें अपने बचपन में खाया बंदर का थप्पड़ याद आ गया और हाथ बरबस गाल पर चला गया।


हम सोच रहे थे कि बंदर को मटर अच्छे नहीं लगते क्या या उसे छीलने में बेकार में ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है? हम फ़ल वाले ठेले वाले की तरफ़ खिसक आये और पूछा क्युं भाई बंदर तुम्हें परेशान नहीं करते। फ़ल वाला मुस्कुराया, करते हैं न ग्राहकी भी नहीं करने देते इसी लिए तो ये डंडा रखना पड़ता है। उसने ठेले के नीचे से एक मोटा सा डंडा निकाल कर ठेले के साइड में बजाया। हमारे सामान में भी कुछ खाने पीने का सामान था। हमने बंदर के डर से अपनी शॉल उतार कर सामान पर ओड़ा दी।


कल बतायेगें आप को आगरे के ठग के बारे में