मेरी मृगनयनी
बिटिया से दीदी बनने में लगे पांच साल
दीदी से प्रेयसी बनने में लगे बीस साल
प्रेयसी से पत्नी बनने में लगे चौबीस साल
मां बनने में लगे पच्चीस साल
मां से सास बनी जब हुए चौप्पन साल
और अब दादी का संबोधन सुन रही हूँ-सत्तावन साल
:)
|
दुनिया में पहला कदम, स्वजनों से मिलती पहली बार, |
|
|
|
मेरे घर आयी एक नन्हीं परी
ओपरेशन थियेटर से बाहर आते ही सब की छवि अपने मन में उतारने को आतुर
कुछ सोच विचार करती मुंह में उंगलिया दबाये
उसे देखते ही मन ने कहा 'मृगनयनी'
माता पिता ने नाम रखा 'तानिशका'
हाथों से किताबें फ़िसल गयी हैं,
कंप्युटर और माउस धूल खा रहे हैं
पहली बार है कि कॉलेज छूटने की घंटी का इंतजार रहता है।
घंटी बजी और हम फ़ुर्रर
आप क्या कहते हैं?
कई बार कोई पोस्ट पढ़ते पढ़ते मन में हजारों सवाल उठने लगते हैं या कई यादें ताजा हो जाती हैं टिप्पणीई में अगर सब लिखने लगें तो पूरी पोस्ट ही वहां बन जाये। ऐसा ही कुछ आज मेरे साथ हुआ।
आज प्रवीण पांडे जी की पोस्ट पढ़ी, ' लिखना नहीं दिखना बंद हो गया था'
http://praveenpandeypp.blogspot.in/2012/05/blog-post_30.html
पोस्ट पढ़ते ही कई सवाल घुमड़ रहे हैं मन में और जवाब तो आप लोगों से ही मिल पायेगें। तो बताइये
1) क्या आप के भी ब्लॉग के ऐसे सक्रिय पाठक है जो खुद ब्लॉगर नहीं है पर आप के लिखे का इंतजार रहता है उन्हें?
2) क्या ये पाठक जन सिर्फ़ पढ़ते ही हैं या टिपियाते भी हैं? अगर नहीं टिपियाते तो आप को कैसे पता चलता है कि वो आप के पाठक हैं?
3) क्या ये पाठक आप के लिये पहले अजनबी थे या आप के अपने परिवेश में से ही हैं, जैसे आप के दोस्त, रिश्तेदार, सहकर्मी, बॉस, इत्यादी?
4) ऐसे पाठकों के प्रति आप उतने ही सहज रह पाते हैं जितने ब्लॉगर बिरादरी के पाठकों के प्रति?
5) क्या पोस्ट लिखते समय आप इस बात का ख्याल रखते हैं कि ये पाठक आप का लिखा पढ़ने वाले हैं और हो सकता है कल दफ़तर में ही मौखिक या टेलिफ़ोन पर ही टिपिया रहे हों?
6) कहीं इस एहसास से आप के लेखन में कमी या कृतिमता तो नहीं आयी?
बस यूँ ही ये सवाल उठ खड़े हुए मन में सो पूछ लिये। आप के जवाब का इंतजार रहेगा
ठप्पा लगवा लिए(भाग 2)सिंगापुर एअरपोर्ट से बाहर निकले तो देखा हमारे नाम की तख्ती ले कर कोई नहीं खड़ा। ट्रेवल ऐजेंट ने जो लोकल नंबर दिया था वो ढूंढ ही रहे थे कि एक महिला भागती हुई आयी, लेट होने के लिए माफ़ी मांगते हुए उसने जल्दी जल्दी वैन की डिक्की खोली और हमने सामान रखना शुरु किया। पता था विदेश में सब काम खुद करने पड़ते हैं ड्राइवर आ कर सामान नहीं रखेगा। गाड़ी में बैठे तो वो महिला ड्राइवर की सीट पर विराजमान हो गयी। तब पता चला कि ये आठ व्यक्तियों को ढोने वाली टोयेटा गाड़ी यही महिला चलायेगीं।
बाद में हमने देखा कि सिंगापुर में ज्यादातर गाड़ियां महिलायें ही चलाती हैं फ़िर वो चाहे वैन हो या ट्रॉम या बस या कुछ और्। बम्बई में हमें बताया गया था कि सिंगापुर का मौसम बम्बई जैसा ही है, दिन में 31 डिग्री तो रात में 24 डिग्री। इसी बात को ले कर हम टूर कैंसल कर देना चाह्ते थे पर दोस्तों का इसरार था। पर यहां आते ही देखा कि भरी दुपहरी में भी जरा भी गर्मी नहीं लगती।वहां की सरकार ने इतने पेड़ लगा रखे हैं सब जगह कि पहले बैंगलोर की तरह उसे गार्डन सिटी कहा जाता था और अब सिटी इन गार्डन कहा जाता है। इसी तरह से कहीं कोई धूल मट्टी उड़ती नहीं दिखती। मिट्टी को या तो
पेड़ों की जड़ों ने पकड़ रखा है या फ़िर घास ने। उसी दिन नाइट सफ़ारी देखने गये पर मजा नहीं आया, दूसरे दिन सिटी के सर्शन कराने के लिए एक चाइनीस गाइड उपस्थित था। उस से पता चला कि सिंगापुर में सभी मल्टिपल जॉब्स करते हैं जैसे वो टूरिसम पढ़ाता भी था और गाइड का काम भी करता था। शहर के दर्शन करते हुए हल्की बूंदाबांदी शुरु हो गयी। हमारा गाइड मिस्टर जैकी बहुत परेशान हो गया। उसे बारिश बिल्कुल अच्छी नहीं लगती थी, वो भगवान से कह रहा था कि बारिश बंद हो जाये और हम भगवान से कह रहे थे कि भगवन आप हमें इस तरह मत चिढ़ाओ, ये भी कोई बारिश है। उस दिन तो नहीं पर दूसरे दिन भगवान ने हमारी सुन ली और खूब जम कर बारिश हुई।
|
यहां बारिश ने हमें चिढ़ाया |
चाइनीस मंदिर
|
इन्हें जलती हुई सिगरेट का भोग लगाइये तभी प्रसन्न होगें |
चाइनीस मंदिर देखते हुए एहसास हुआ कि चाइना और हमारी संस्कृति में कितनी समानता है। जैकी बता रहा था कि चाइना में अनगिनत देवी देवता है और ऐसी मान्यता है कि आदमी मरने के बाद पाताल में जाता है और वहां उसके कर्मों के अनुसार निश्चित होता है कि वो आगे नरक में जायेगा या स्वर्ग में। पाताल के दरबान को भी देवता मानते हुए उन्हें पुराने जमाने में ओपियम का भोग लगाया जाता था आजकल लोग सिगरेट जला कर सिगरेट का भोग लगाते हैं। लेकिन अजीब बात ये थी कि चाइनीस मंदिर में बहुत सारे चमगादड़ छत से लटके दिखायी दिये। जैकी ने बताया कि चाइना में चमगादड़ों को शुभ माना जाता है और ये चमगादड़ खून नहीं पीते, शाकाहारी हैं। खैर हम तो उस कमरे से भाग लिये, पता नहीं कब उनका मन बदल जाये।
बर्ड पार्क
|
शो की पहली परफ़ोर्मेंस देने को आते ये लंबी टांगों वाले पक्षी |
उसके अगले दिन ड्राइवर ने कहा कि आप को बर्ड पार्क ले जायेगें। हम सोच रहे थे कि हम क्या बच्चे हैं जो हमें चिडियाघर दिखाने ले जा रहे हैं। पर जब हम वहां पहुंचे तो हैरान रह गये ये देख कर कि कोई पिंजरे नहीं है। ओपन ऑडिटोरियम में शो होते है। बर्डस का शो देख कर हमारा बचपन लौट आया।
हमें डर था कि शाकाहारी होने के कारण हमें काफ़ी दिक्कत सामने आयेगी, लेकिन ऐसा कुछ भी न हुआ। वंहा तो पूरा भारत बसता है। महज छ: डालर में एक वक्त का खाना आराम से खाया जा सकता है। दुकाने रात को ग्यारह बजे तक भी खुली रहती हैं और मुस्तफ़ा सेंटर तो चौबिसों घंटे खुला रहता है। सेल्समैन बता रहा था कि अकसर भारतीय सैलानी सुबह साढ़े तीन बजे शॉपिंग करने आते हैं। लेकिन हमें तो वंहा सब कुछ बहुत मंहगा लगा। सो हमने कुछ नहीं खरीदा सिर्फ़ बेटे की फ़रमाइश पर उसके लिए 'गेलेक्सी नोट' ले कर आये…:)
चार दिन कैसे बीत गये पता ही नहीं चला। जब वापस ऐअरपोर्ट की तरफ़ रवाना होने का समय आया तो हम सब के मन में एक ही बात थी कि काश हम कुछ दिन और यहां रुक पाते। जाने से पहले मैं ने सुना था कि सिंगापुर में पेड़ बिना सूरज की रोशनी पाये भी खूब फ़लते फ़ूलते हैं। यही देखने के लिए बॉटेनिकल गार्डन गये थे, वहां तो ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला पर एअरपोर्ट में चैक इन करने के बाद जो नजारा देखा वो आप भी देखिये।
एअर्पोर्ट
|
एअरपोर्ट के अंदर जहां सूरज की रोशनी नहीं पहुंचती |
ठप्पा लगवा लिए(भाग 1)
उषा आगामी अकेडेमिक वर्ष के शुरुवात
में इस नौकरी के अट्ठाइस साल पूरे कर रिटायर हो जायेगी। हमारे ग्रुप का एक और
सदस्य चला जायेगा सोच कर ही मन उदास हो जाता है। दो महीने पहले अचानक उषा ने
सुझाया कि क्युं न हम तीनों एक साथ छुट्टी मनाने चलें। झटपट प्रोग्राम बनने
लगा। हमने पतिदेव को दफ़्तर में ही फ़ोन धनघना कर कह दिया कि छुटटी के लिये अर्जी दे
दो। एक मई से छुट्टियां शुरु होती हैं और दो तारिख को निकलने का प्रोग्राम बना
लिया गया। तारीखें तय कर के सोचा गया कि कहां जाया जाये।
|
बायें से वैंकट, उषा, माला(अमिता की छोटी बहन), अमिता, मैं और विनोद |
|
केसरी ट्रेवल्स के दफ़्तर पर धावा
बोला गया, कई तरह के प्रोग्राम देखे गये और तय हुआ कि
मैं और अमिता अपने अपने नये नवेले पासपोर्ट का उदघाटन करेगें, पासपोर्ट के कोरे पन्नों पर एक ठ्प्पा तो लगना ही चाहिए। तो
प्रोग्राम बना सिंगापुर जाने का।
हड़ताल
एक महीना पहले महाराष्ट्र में कॉलेज
टीचर्स हड़ताल पर चले गये और पेपर्स जाचंने
से साफ़ इंकार कर दिया( बिना रोये तो सरकार के कान पर जूं भी नहीं रेंगती न,
छठा वेतन आयोग अब तक संपूर्ण नहीं, और मिलने
की आशा भी नहीं) उलटा चोर कोतवाल को डांटे, एक तो सरकार हमारे हिस्से के पैसे केन्द्र
सरकार से ले कर हजम कर गयी और साथ में हड़तालियों को निलंबित करने की धमकी भी दे
रही है। हड़ताल और सरकार के रवैये पर फ़िर कभी…॥ खैर, हमने जैसे तैसे
कुछ टीचरों को एकत्र कर पेपर्स जांचने का काम जो मेरे नेतृत्त्व में पूरा होना था
उसे एक तारीख तक पूरा किया और दो तारीख की रात को चल पड़े एक नये अनुभव की ओर।
बम्बई रात की बाहों में
सुबह तीन बजे जब सड़कें काफ़ी हद्द तक
खाली होती हैं(सुनसान तो कभी नहीं होतीं) और समुद्र से आती ठंडी हवायें चेहरे से
टकराती हैं तो बम्बई और हसीन लगती है।आदतन टैक्सी वाले से बतियाये, मेरू
टैक्सी( प्राइवेट कंपनी की टैक्सी) कंपनी की कार्यप्रणाली के बारे में जाना, टैक्सी ड्राइवर
की दिक्कतें, आमदनी, और न जाने क्या क्या पूछ डाला। उसकी भाषा से साफ़ जाहिर था
टैक्सी वाला यू पी का है(आम भाषा में तनिक शब्द का इस्तेमाल कोई बम्बइया तो करेगा
नहीं।), पूछने पर हिचकते हुए उसने बताया कि वो बनारस का है। उसकी हिचक को देखते
हुए हमने पूछा क्या किसी राजनीतिक कारणों से उसे कोई परेशानी का सामना करना पड़ता
है? उसने बताया कि राजनीतिज्ञ तो नहीं पर काली पीली टैक्सी वाले बहुत परेशान
करते हैं, मारपीट पर भी उतर आते हैं, पैसेंजर भी कभी कभी किराये को ले कर झगड़ा कर
बैठते हैं तो उनसे कैसे निपटा जाता है।अचानक वो सिर्फ़ टैक्सी ड्राइवर न हो कर
इंसान दिखने लगा। और भी बहुत कुछ पूछना था उस से पर तब तक ऐअरपोर्ट आ गया।
बोर न हुए हों तो बतलाऊं आगे का जो
अफ़साना है…J