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सुस्वागतम

आपका हार्दिक स्वागत है, आपको यह चिट्ठा कैसा लगा? अपनी बहूमूल्य राय से हमें जरूर अवगत करावें,धन्यवाद।

December 31, 2010

स्वागतम


अमूमन जब सुबह कॉलेज सवा सात बजे पहुंचते हैं तो इधर उधर देखने की फ़ुरसत नहीं होती, लपकते, फ़ांदते, हांफ़ते क्लास में भागे चले जाते हैं। पर कल की तो बात ही कुछ और थी। सुबह पौने आठ बजे पहुंचे, हलकी हलकी खुशनुमा ठंड में एक लंबी सांस ले ताजी हवा अपने नथुनों में भरनी चाही, नजर इधर उधर घुमायी तो पेड़ों के ऊपर सूरज धरती की बिंदिया सा चमकता नजर आया, एकदम गोल नारंगी। बम्बई में कब से इतनी ठंड पड़ने लग गयी कि सूरज महाराज आठ बजे आराम से हाजिरी बजा रहे हैं।

 
क्लास की तरफ़ मंथर गति से बढ़ते हुए ख्याल आया कि अरे! सर्दी को बम्बई में पसरे पूरा एक महीना होने को आया और हमने अभी तक घर आयी इस मेहमान का ठीक से स्वागत भी नहीं किया। मन में ठान लिया कि आज कुछ करना होगा लो जी ठंड में सरसों का साग और मकई की रोटी नहीं खायी तो ये तो सर्दी मैडम की तौहीन होगी। अरे, और कुछ नहीं तो कम से कम छिलकेवाली मूंगफ़ली तो ढूंढनी पड़ेगी। 


वापस लौटते हुए सोचा कि आज सब्जी मार्केट जाया जाए। सुना है आजकल सब्जी बहुत मंहगी हो रही है। सुना सिर्फ़ इस लिए है कि जब से शॉपिंग मॉल से सब्जी लेने का रिवाज चल पड़ा है तब से सब्जी वाले से तोलमोल करने का सुख छूट सा गया है।पतिदेव को शनिवार की छुट्टी होती है और शॉपिंग का जिम्मा अपने सर ले उन्हों ने हमारा काफ़ी बोझ कम कर दिया है। लेकिन इस आरामदेई के चलते पिछले कई महीनों से हम सिर्फ़ पत्ता गोभी, फ़ूल गोभी और शिमला मिर्च ही खा रहे हैं, वो भी कोल्ड सटोरेज की। लौकी की पतिदेव को एलर्जी है इस लिए छूते भी नहीं,टिंडों का न तो नाम सुना है उन्हों ने, न ही देखा है।


 पिछले हफ़्ते एक दिन खाना बनाने वाली नही आयी और हमने फ़ोन कर पति देव से कहा कि आते हुए किसी होटेल से कुछ लेते आयें। जनाब ने सोचा बीबी भी क्या याद करेगी, मक्की की रोटी और सरसों का साग ले चलते हैं, अपने लिए मुर्ग मुसल्लम। हम भी कृतार्थ हुए कि पतिदेव को कितना ख्याल है, जब खाने लगे तो रोटी से घी की धाराएं बह रही थीं, मुस्कुरा के बोले मैं ने खास बटरवाली मक्की की रोटी देने को कहा। हमने उनके इस बटरी लाड़ को प्लेट में निचोड़ते हुए एक कौर तोड़ा तो रोटी टूटती ही नहीं थी, रंग तो पीला ही था पर पता नहीं रोटी मैदे की थी या कोई अमरीकन मकई की। हाँ उसके साथ गाजर का हलवा जो लाया गया था वो बढ़िया था।   
  
सब्जी मार्केट में घुसने से पहले तय किया गया कि रौशन की दुकान पे जायेगें मक्की का आटा उसकी दुकान का सब से अच्छा होता है( और कोई दुकान हमें पता भी नहीं) दुकान में घुसे तो लगा पूरा पंजाब वहीं समाया हुआ है, मक्की का आटा, आटे के बिस्किट, सूजी के टोस्ट, गुड़ की चिक्की, अदरक की कतरनें सिरके में और पता नहीं क्या क्या लेते चले गये। वहां से निकले तो सोच में थे कि सब्जी मार्केट का रुख करें या उसके पहले ही सिगनल से मुड़ लें। असमंजस पार्किंग की वजह सा था, ज्यादातर सब्जी मार्केट के बाहर कार पार्क मिलना मुश्किल होता है, खैर आज तो मन बना ही लिया था, सो ओखली में सर देने को तैयार हो लिए। मेरी किस्मत अच्छी थी जो सब्जी मार्केट के बाहर दो मोटरसाइकलों के बीच कार मुश्किल से घुसा सके। थोड़ी कम ही सही पर जगह मिल गयी यही क्या कम था। मार्केट की शुरुवात में ही बड़े बड़े अमरुद देख कर मन ललचा गया, संतरे के दाम पूछे तो पता चला दस दस रुपये का एक संतरा और अमरूद तीस रुपये किलो। खैर अमरूद ले कर वहीं कार में डाले और वापस आये। लौकी, मैथी लेने का मन था। मैथी की दुकान पर पहुंचे तो एक महिला कह रही थी," भैया एक जूड़ी सरसों और एक जूड़ी पालक दे दो"। उसकी देखा देखी हमने भी सब्जी वाले से वही मांगा, दोनों जूड़ी दस दस रुपये, पतली पतली मूलियां दिखीं- पांच रुपये की एक्। सोचा सर्दियों में मूली के परांठे भी खाने जरूरी हैं, सो तीन मूलियाँ खरीदीं गयीं। उम्मीद थी कि मार्केट के अंदर सब्जी थोड़ी वाजिब दामों पर मिलेगी, लेकिन यहां भी लौकी मिली पच्चीस रुपये किलो, मुए कांटे वाले बैंगन भी पच्चीस रुपये थे। टमाटर साठ रुपये थे तो मटर पच्चीस रुपये किलो। 


खैर सब्जी ले कर जब हम वापस आये तो देख कर हैरान रह गये कि एक लंबी सी कार ठीक हमारी कार के पीछे लगी हुई है और ड्राइवर नदारत। इंतजार करते करते आधा घंटा गुजर गया। जैसे जैसे सूरज गरम होता जा रहा था और पेट में चूहों का क्रिकेट मैच शुरु हो गया हमारा पारा उसी रफ़्तार से ऊपर की तरफ़ छलांग लगा रहा था। मन तो कर रहा था कि इस नयी नवैली कार को लंबा सा स्क्रेच मार दें पर किसी तरह से खुद को ऐसा करने से रोक लिया। हम सोच ही रहे थे कि टो करने वाली गाड़ी आ जाए कि इतने में टो करने वाली गाड़ी आती दिखी, हम भाग कर उसके पास गये और बोले इस गाड़ी को टो कर के ले जाओ। ट्रेफ़िक कासंटेबल बड़ा हैरान था, ज्यादातर लोग बोलते है जाने दो, छोड़ दो, और यहां हम कह रहे थे कि आओ हम बताते है कौन सी गाड़ी नियम के खिलाफ़ पार्क कर खड़ी है। कांसटेबल ने फ़ट से टायर को लॉक लगवाया और हमारी गाड़ी निकलवाने का इंतजाम कर ही रहा था कि उस पकड़ी हुई गाड़ी का मालिक आ गया, और जैसी उम्मीद थी कहने लगा 'जाने दो'। हम लपक कर हवलदार के पास पहुंचे और धमकाते हुए बोले कि अगर उसने उस गाड़ी को जाने दिया तो हम उसके खिलाफ़ शिकायत दर्ज कर के आयेगें अभी के अभी और फ़ट से हवलदार का नाम और गाड़ी का नंबर नोट किया। गाड़ी की मालकिन हमें गालियां देने पर उतर आयी, उस कार के ड्राइवर ने किसी को फ़ोन लगा कर हवलदार की तरफ़ बढ़ा दिया। हवलदार के चेहरे का रंग बदलने लगा। हम समझ गये कोई नेता फ़ेता होगा, पर हम फ़िर भी हवलदार के सामने अड़े रहे कि चाहे किसी का भी फ़ोन हो तुम चालान काटो नहीं तो तुम्हारी खैर नहीं। बेचारे के सामने कोई रास्ता नहीं था, वो हमसे भी डर रहा था कि हमने उसका नाम वगैरह नोट कर लिया है और हमारे लिए रास्ता बन जाने के बावजूद अब हम वहां से जाने को तैयार न थे। खैर उसने चालान दिया।रात को हमने बड़े मजे लेते हुए जब पतिदेव को पूरा किस्सा बताया तो बोले
"तुम कब दुनियादारी सीखोगी?"
 हमने पूछा "क्युं हमने कुछ गलत किया?"
"नहीं तुम सही थीं, लेकिन वो हवलदार तुम्हें उल्लु बना गया।"
"वो कैसे?"
बोले "उसने उस ड्राइवर का लाइसेंस लिया था?'
हमने यादाश्त पर जोर डालते हुए कहा ," हाँ लिया तो था पर देख कर वापस कर दिया"
बोले " तो फ़िर उस चालान का क्या मतलब?"
एक बार फ़िर मेरा पारा उछाल मारने लगा, निश्चय किया कि कल ही चौकी जा के उस हवलदार की खबर लूंगी, लेकिन थोड़ी देर बाद ही सोचा कि क्या फ़ायदा है, अब शायद वो हमें पहचानने से भी इनकार कर दिया, बेकार में अपनी ऊर्जा बेकार करने का कोई मतलब नहीं सो पूरे किस्से को जहन से उठा के बाहर फ़ैंक दिया।

वैसे इससे याद आया कि पिछले महीने मानखुर्द के सिगनल पे हमें ट्रैफ़िक हवलदार ने पकड़ा, हमने बड़ी रुखाई से कहा कि हमने सिगनल नहीं तोड़ा। लाइसेंस दिखाने को कहा तो हमें आदतन लाइसेंस में पचास का नोट रख कर दे दिया। ट्रैफ़िक हवलदार लड़का सा था, अभी अभी नौकरी पर लगा था। हमारे पचास रुपये देने पर बहुत आहत हुआ। पहली बार हम हवलदार देख रहे थे जो कह रहा था कि मुझे पचास रुपये नहीं चाहिए, आप मेरी वर्दी की इज्जत करें बस यहीं चाहते हैं।उसने न सिर्फ़ रिश्वत लेने से इंकार कर दिया बल्कि हमारा चालान भी नहीं काटा क्युं कि हमें नहीं लग रहा था कि हमने सिगनल तोड़ा। मन में बहुत आत्मग्लानी हुई। उस समय तो हम चले गये, देर हो रही थी। लेकिन बाद में जब हमने पूरे वाक्ये पर फ़िर से विचार किया तो लगा कि हमारी रुखाई और झुंझालाहट का असली कारण था कि हम जल्दी में थे और उसने हमें रोक लिया था, और हो सकता है कि सिगनल जंप किया ही हो। सो अगले दिन उसी समय हम फ़िर उस चौराहे पर गये, ये सोच के कि वो वहीं मिलेगा पर दूसरे दिन कोई और हवलदार खड़ा था। हमने पूछा "
वो कल वाला हवलदार कहां गया?"
 तो बोला "कौन सा हवलदार?"
"अरे वही जो जवान सा था।"
उसे हमारा जवाब बिल्कुल अच्छा नहीं लगा
" मैडम जवान तो हम सभी हैं"
हम कुछ कहते इतने में एक दूसरा हवलदार आ गया जो कल वाले का साथी लग रहा था। उसने पूछा कि हमें क्या काम है? हमने कहा कि कलवाले हवलदार से हमने ठीक से बात नहीं की थी और इस बात का हमें अफ़सोस है और हम उस से माफ़ी मांगने आये हैं।
उस दूसरे हवलदार की बत्तीसी खिल गयी कहने लगा,
" अरे मैडम कोई बात नहीं, हमारा पाला तो सभी तरह के लोगों से पड़ता है, हमें अब कोई फ़रक नहीं पड़ता"
हमारे फ़िर भी जोर डालने पर उसने कहा कि शायद उसकी ड्यूटी अगले चौराहे पर है, वैसे मैं आप का मैसेज दे दूंगा। हम अगले चौराहे तक घूम आये पर वो हवलदार हमें नहीं मिला, आशा कर रही हूँ कि मेरा माफ़ीनामा उसके पास पहुंच गया होगा।

खैर, तो शाम को सरसों का साग बनाने का प्रोग्राम था। बहुत दिन हो गये थे, याद नहीं आ रहा था सरसों का साग कैसे बनाते हैं, यादाश्त में सिर्फ़ मां के हाथ कुकर में मदानी चलाते नजर आ रहे थे बाकि कुछ याद नहीं आ रहा था। खुद को कोसा कैसी पंजाबन हूँ मैं, कोई सुनेगा तो क्या सोचेगा? जिसका कोई नहीं उसका नेट तो है ही:) सो नेट पर रेसिपी देखी, संजीव कपूर की रेसिपी---न न बेकार लगी, यू ट्युब पर गये और वाह रे वाह डॉट कॉम की रेसीपी अच्छी लगी, साग बहुत अच्छा बना। रात को पति देव से कहा पालक बनायी है, लेकिन वो कहां झांसे में आने वाले थे। 

बाजार में कहीं भी फ़ीका मावा न मिलने के कारण कल गाजर का हलवा नहीं बन सका। आज भी कहीं नहीं मिला, तब दिमाग की बत्ती जली कि भैया फ़ीका मावा मिलेगा भी नहीं, अरे उसी मावे की बर्फ़ी बना के हलवाई कम से कम दो सौ चालिस रुपये किलो के हिसाब से बेचेगा जब कि फ़ीका मावा वो किस भाव से बेच लेगा? सो शाम को बिन मावे के गाजर का हलवा बनाया, जय नेसले कंडेस्ड मिल्क्। ऑफ़िस से आते ही पतिदेव सीधा सुगंध का पीछा करते किचन में और हलवा के आनंद उठाते हुए बोले अच्छा बना है। हमने मुस्कुरा के मन में कहा,
जय शीत देवी आप का स्वागत है। 
आप सब को नव वर्ष की ढेर सारी शुभकामनाएं
       
    

December 27, 2010

' धूप की कचहरी' मे हाजिर हों---2


कहते हैं कि बोलने वाले अक्सर दूसरों को सुन नहीं सकते, सिर्फ़ अपनी ही हांकते रहते हैं। यही हाल हम टीचरों का है, किसी और के भाषण में अपनी आखें खुली रखना बहुत मुश्किल होता है। तो जब श्रीमाली जी ने पहले वक्ता को बुलाया, हमने मन ही मन गिनना शुरु कर दिया कि मंच पर कितने वक्ता हैं और कितना समय बोलेगें। पहली ही पंक्ति में बैठ कर कहीं हमारी आखें बंद न होने लगें इस लिए एक कप चाय भी गटक लिए। दिमाग कहने लगा कि जब तुम्हें मालूम हैं कि दूसरों का भाषण शुरु होते ही तुम्हारी आखें बंद होने लगती हैं तो एकदम आगे बैठने की क्या जरूरत थी? क्या करें आदत से मजबूर है, बड़ी पुरानी बिमारी है आगे ही बैठने की। 

पहले वक्ता तो ठीक ठाक ही थे, फ़िर आयीं राजम जी जिनका जिक्र मैं पिछली पोस्ट में कर चुकी हूँ। उन्हें सुनना तो सुखद था ही, उनके बाद आये नंदलाल पाठक जी। हमें आश्चर्य तब हुआ जब उनके भी भाषण में हमारी पलक तक न झपकी। वो बोलते जा रहे थे और मैं सोच रही थी कि उनकी बातें हमारे ब्लोग जगत पर भी कितनी सटीक बैठती हैं।


उन्हीं के शब्दों में हिंदी कविता अब केवल हिंदी भाषाभाषी क्षेत्रों में नहीं लिखी जाती। बाढ़ की नदी की तरह देश और विदेश में दूर दूर तक फ़ैल गई है। बाढ़ के साथ पानी मटमैला भी हो जाता है। समालोचना जगत, प्रकाशन क्षेत्र, पत्रकार वर्ग सभी इससे प्रभावित हैं। काव्य मंचो पर अलग छीना झपटी चल रही है। कुछ समर्थ कवियों ने समीक्षकों के रूप में चारण पाल रखे हैं। कुछ पत्र पत्रिकाओं ने कुछ कवियों को गोद ले रखा है। ऐसे में मूल्यांकन का प्रश्न दलबंदी के दलदल में फ़ंस गया है……पुरस्कारों पर कुंडली मारे विषधर बैठे हैं। सारे जीवन का राजनीतिकरण हो गया है। हम अब व्यक्ति नहीं, वोटर ही वोटर हैं। राजनीति का काम है बांटना और वह अपना काम बड़ी तन्मयता से कर रही है…।


मुझे वर्धा में ब्लोगिंग में आचार सहिंता पर हुए सेमिनार की, हाल ही में हुए ब्लोगजगत में हाल ही में हुए विवादों की याद आ रही थी। नींद कैसे आती?

और अब चलते चलते, कुमार शैलेंद्र जी की एक और कविता

कबिरा बैठा लिए तराजू
कबिरा बैठा लिए तराजू, तौल रहा दुनियादारी।
जो भीतर से जितना हल्का, बाहर से उतना भारी॥

जो कबिरा को ही न जाने, खुद को भी कैसे पहचाने।
राम झरोखे बैठ कर देखे- दीन-धरम मज़हब के झगड़े,
पंडित मुल्ला व्यापारी॥

दर्शन के बाजार बड़े हैं। नीचे गिर कर लोग खड़े हैं।
मान मिले ईमान बेचकर- पूजा, वंदन या अभिनंदन,
सभी समर्पण बाज़ारी॥

नेकी तो बस बंजारा है, बदी आज का ध्रुवतारा है।
काग़ज से हल्की है काया दस से कहीं बड़ी है छाया,
गौरव गाथा अखबारी॥

बचपन बिकता, यौवन बिकता, अपनों का अपनापन बिकता
हर पलड़े पर सिक्का भारी- खुद सौदा, खुद ही सौदागर,
हम रिश्तों के व्यापारी॥   

December 26, 2010

' धूप की कचहरी' मे हाजिर हों

ये मेरा सौभाग्य है कि अनंत श्रीमाली जी मुझे नियमित रूप से हिन्दी साहित्यिक जगत के  विविध कार्यक्रमों में आमंत्रित करते रहते हैं और मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे अक्सर उनके निमंत्रण को अपनी व्यस्तता के चलते नजर अंदाज करना पड़ता है। पिछले हफ़्ते भी श्रीमाली जी का एस म एस आया, किसी किताब का विमोचन था और साथ में काव्य गोष्ठी। एक दो बार किताब के विमोचन के कार्यक्रमों में गयी हूँ पर कोई खास आनंद नहीं आया। मैं ने उन के एस म एस को अनदेखा कर दिया, फ़िर दो दिन पहले दोबारा एस म एस आया जिसे मैं ने कल सुबह ही खोला। इस बार उस में 'कुतुबनुमा मंच' का नाम जुड़ा था। कुतुबनुमा मंच  डा राजम नटराजन पिल्लै चलाती हैं, उन्हें मैं ने दो तीन बार मंच से बोलते सुना है।  डा राजम पिल्लै की प्रशसंको की लंबी लिस्ट में मेरा भी नाम है। मूलरुप से तमिल मातृभाषी राजम जी हिन्दी की प्रकांड पंडित हैं और हिन्दी साहित्य की दुनिया में उनका नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है।


 हिन्दी में एम ए करने के बाद वो कई साल तक एस आई एस कॉलेज में हिन्दी विभाग की अध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहीं और रिटायर होने के बाद कुतुबनुमा नाम से एक पत्रिका निकालनी शुरु की। पत्रिका की गुणवत्ता ऐसी है कि उसमें से कितने ही लेख पाठयक्रम में लगाये जा सकें। उनके व्यक्तित्व की जिस बात ने मेरा मन मोह लिया वो है उनका खिलंदड़ा अंदाज। गहरी से गहरी बात को भी वो ऐसे हंसी मजाक में कह जाती हैं कि हंसते हंसते लोगों की आखों में आसूँ और मन में उनके सामाजिक सरोकार के प्रति निष्ठा के प्रति आदरभाव  होते हैं।
राजम जी को सुनने का मौका और काव्य गोष्ठी, दो दो आकर्षण, दिल ने कहा "चल यार इन दोनों के लिए तो ये किताब का लोकार्पण भी झेल लेगें", दिमाग बोला पागल है क्या, पता है विले पार्ले कितनी दूर है? लेकिन हमेशा की तरह अंत में जीत दिल की ही हुई  




जब हमने एस म एस देखा उस समय लगभग साड़े ग्यारह बज रहे थे। पच्चीस दिसंबर का दिन, क्रिसमिस की छुट्टी, हम बड़ी कशमश में थे कि क्या करें। बड़ी हिचक के साथ पतिदेव को बताया कि कैसे उनकी छुट्टी की ऐसी तैसी करने का मन हो रहा है। खैर वो मान गये, छुट्टी के बाकी सारे प्लान फ़टाफ़ट रद्दी के टोकरी में डाले गये, सिर्फ़ एक प्लान को मटियामेट नहीं किया जा सकता था, बहू के मायके जाने का( बहू हमारी आधी क्रिश्चयन है और क्रिसमिस उनके लिए बड़ा त्यौहार है, हाजिरी लगाना जरूरी था)। हमने थोड़ा एडजस्ट करने को कहा, जैसे बम्बई की भीड़भाड़ वाली लोकल ट्रेन में लोग कहते हैं थोड़ा खिसको और तीन सीटों वाली बैंच पर चार लोग फ़िट हो जाते हैं। हमने भी वादा किया कि हम पूरे कार्यक्रम के लिए नहीं बैठेगें और वो भी हमारा थोड़ा देर से आना माफ़ कर दें, खैर तालमेल बैठ गयाचार बजे के कार्यक्रम के लिए 2 बजे निकल पड़े।



यूँ तो विले पार्ले एरिया हमारे लिए नया नहीं है लेकिन जब से ये स्काई वॉकस, फ़्लाइओवर्स बने हैं पूरे शहर की शक्ल ही बदल गयी है, खैर हम ज्यादा लेट नहीं थे, सवा चार बजे तक पहुंच गये। दरवाजे पर ही राजम जी और खन्ना जी खड़े थे। वो हमें ज्यादा अच्छे से नहीं जानती होगीं यही सोच कर हम सिर्फ़ अभिवादन कर हाल में प्रवेश कर गये और बायें तरफ़ की सबसे आगे वाली पंक्ति में जम गये। श्रीमाली जी मंच संचालक होने के कारण व्यस्त नजर आये, हम ने अभिवादन कर महज अपने आने की खबर उन्हें दे दी। इस लिए नहीं कि हम कोई तोप हैं, बस इस लिए कि उन्हें एहसास हो जाए कि उनका एस म एस बेकार नहीं हुआ, हम हाजिर हैं। जवाब में उन्हों ने भी कार्यक्रम के बीच में मंच से जब उन्हों ने हमारा परिचय देना शुरु किया तो एक क्षण के लिए तो हम चौंके और सकते में आ गये कि कहीं कुछ बोलने को तो नहीं कहने वाले? नीरज जी के यहां काव्य संध्या में देव मणी पांडे जी ने यूं ही अचानक हमें कविता पढ़ने के लिए बुला लिया था। जब हमने आश्चर्य जाहिर किया था तो बोले थे कि आप को नीरज जी ने निमंत्रित किया है तो आप को समझ जाना चाहिए था कि आप को कविता तो पढ़नी होगी। हमें अपनी बेवकूफ़ी पे उस दिन बहुत गुस्सा आया था। खैर, श्रीमाली जी ने जब हमारा परिचय देने के बाद सिर्फ़ हमारे आने का आभार प्रकट किया तो हमारे चेहरे पर ऐसे ही भाव थे कि जान बची और लाखों पाये।



सामने मंच पर लगे बैनर पर लिखा था कुमार शैलेन्द्र के गीत संग्रह 
 ' धूप की कचहरी'   का लोकार्पण समारोह्। मन में सोचा, हम्म्म्म, नाम तो इंट्रस्टिंग है, 'धूप की कचहरी' । अभी कार्यक्रम शुरु होने में कुछ देर थी, अध्यक्ष का पदभार संभालने वाले श्री नंद किशोर नौटियाल जी अभी तक नहीं आये थे। सो टाइम पास के लिए हमने  दायें तरफ़ की पहली पंक्ति पर विराजमान महानुभावों को देख अंदाजा लगाना शुरु किया कि इसमें कुमार शैलेन्द्र कौन से होंगें। नौटियाल नाम जाना पहचाना सा लग रहा था लेकिन शक्ल याद नहीं आ रही थी। जान पहचान न होते हुए भी लक्ष्मी यादव जी ने बड़े स्नेह से हमारे आने पर प्रसन्नता दिखाई और तभी कार्यक्रम शुरु हो गया।



राजम जी के व्यक्तव्य पर एक बार फ़िर निसार हुए(पैसा वसूल वाली बात), यहां आने के बाद ही पता चला कि जिस किताब का लोकार्पण होने जा रहा है उसे कुतुबनुमा ने प्रकाशित किया है, मतलब कि अब राजम जी प्रकाशक भी हो गयी हैं। अपने व्यक्तव्य में उन्हों ने नौटियाल जी की खूब चुटकी ली जो संपादक भी हैं। नौटियाल जी ने भी अपने अध्यक्षीय संबोधन में राजम जी को बक्शा नहीं और उनकी हर चुटकी का जवाब उसी अंदाज में दिया। डां करुणा शंकर उपाध्याय, जो मुंबई विश्व विध्यालय में बतौर रीडर कार्यरत हैं, उन्हों ने पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत की। जैसे जैसे  वो पुस्तक के बारे में बताते गये वैसे वैसे हमारी उस पुस्तक को तभी का तभी पढ़ने की इच्छा बलवती होती गयी। किताब में करीब अस्सी गीत और कविताएं हैं और बीच बीच में मुक्तक हैं। एक झलक आप भी देखिए


" याचक बन कर दुख आया फ़िर मन के द्वारे।
 दान कर दिये मैं ने भी सुख के पल सारे॥"

" एक पंख पर पर्वत ढोए,
एक पंख पर स्वपन संजोए,
कितनी दूर उड़ेगा रे मनपाखी॥"

"ढूंढ रहे मेले में अपनी ही परछाईं,
 सूनेपन से शायद युग युग का नाता है"

"सबको ही तलाश है,
उससे ज्यादा की,
जितना जिसके पास है"

"टुकड़ा टुकड़ा जी रहा है ,
आदमी कितना बिखर कर ।
जिंदगी तू क्या करेगी,
एक पल सज कर संवर कर्॥

धज्जियां कितनी उड़ी हैं,
राह बिन मोड़े मुड़ी हैं,
 चाह की हर इक चिता पर, आस ही जिंदा खड़ी है।
आत्मा मर जाए तो क्या, तन टिका रहता उमर भर॥"

" मैं जिन्दगी को ढूंढता रहा, जिन्दगी मुझे ढूंढती रही।
उम्र की मशाल बुझ गयी, न मैं मिला न जिंदगी मिली।। "


हम एक एक मुक्तक सुनते जाते थे और नीरज जी को याद करते जा रहे थे। वो भी अगर वहां होते तो बहुत खुश होते। मन के भाव बिल्कुल ऐसे थे जैसे बचपन में दो दोस्त एक साथ बैठे हों, एक दोस्त लॉलीपॉप का स्वाद ले रहा हो और उसे लगे कि ये अलौकिक आनंद अपने मित्र के साथ बांटना मजेदार रहेगा और वो अपनी लॉलीपॉप उसकी तरफ़ बढ़ा दे कि तुम भी चखो)


 लोकार्पण का कार्यक्रम समाप्त होते होते इतना वक्त लग गया कि काव्य गोष्ठी की शुरुवात की बस दो ही कविताएं सुन पायी और सात बज गये, मुझे अपना दूसरा वादा निभाना था। सोच रही थी कि अक्सर ऐसे मौकों पर जिस किताब की मुंह दिखाई होती है उसे बेचने के लिए कांउटर भी बना होता है तो जल्दी से एक प्रति खरीद कर वापसी की राह पकड़ें। इतने में राजम जी एक प्रति लिए हुए आयी और मेरे पास बैठी महिला को देनी चाही, उस महिला ने कहा उसके पास पहले से है एक कॉपी, हमने अच्छा मौका समझ राजम की तरफ़ कदम बढ़ाया तो हमारे मन की बात समझते हुए उन्हों ने वो प्रति हमें थमा दी। आभार व्यक्त करते हुए हम बाहर आ गये। वाशी पहुंच स्टीरयिंग व्हील पति के हवाले कर हम भागती कार में सड़क के लैम्प पोस्टों से आती रौशनी में किताब पढ़ने लगे। 
आप बोर न हो रहे हों तो उनकी एक कविता सुना दूँ, जो मुझे बहुत अच्छी लगी?

हमें भी ख़बर है

हमें भी ख़बर है, तुम्हें भी ख़बर है,
ये जिसकी ख़बर है वो बेख़बर है॥

जमीं तो वही है, वही आस्मां है,
मगर रंग मिट्टी का बदला हुआ है,
नजर बेनजर क्यों?ज़ुबां बेज़ुबां क्यों?
ये चारों तरफ़ बस धुंआ ही धुआं क्यों?
यहां घुट रहा दम, यहां मौत-मातम,
यहां ज़िंदगी ढो रही हर उमर है॥

वतन भी वही, हमवतन भी वही हैं।
मगर दिल की धड़कन मे सरगम नहीं है,
यहां ज़ख़्म ही ज़ख़्म हैं, मरहम नहीं है,
बिना राह के रहनुमा कम नहीं हैं।
ये इंसा में वहशत, ये अपनों से दहशत,
अब अपने ही आंगन में लुटने का डर है॥

मुखौटों की मंडी में आबाद चेहरे,
सियासत की खेती, गुनाहों के पहरे
करे कौन इंसाफ़ मुंसिफ़ ही बहरे,
ये मीनार कालिख की गुंबद सुनहरे
यहां मौत जिंदा है, इंसा दरिंदा है,
ये पूरा शहर पत्थरों का नगर है॥   


अभी बहुत से रोचक किस्से बाकी है इस सांझ के लेकिन पहले आप ये बताइए कि कहीं बोर तो नहीं हो रहे?