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सुस्वागतम

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May 28, 2009

मुझे कुछ कहना है

छब्बीस की चिठ्ठाचर्चा में अनूप जी ने हमारे बेटे की सगाई की खबर जोड़ हमारी पारिवारिक खुशी को ब्लोगजगत से जोड़ दिया है और सभी ब्लोगर मित्रों की शुभकामानाएं पा कर हम दुगुनी खुशी महसूस कर रहे हैं। आज से दो साल पहले( जी हां दो साल हो गये) जब हम ब्लोगजगत में आये थे तब इस बात की कल्पना भी नहीं की थी कि ब्लोगजगत हमारे विस्तृत परिवार का हिस्सा बन जाएगा और हम अपने सब सुख दुख इस परिवार से यूं बाँट रहे होगें जैसे अपने आस पास मौजूद मित्रों से भी नहीं बाँट रहे होगें। किसे पता था कि सुबह आठ बजे पाबला जी के बच्चों को शुभकामनाएं भेजने के लिए जब कंप्युटर ऑन करुंगी तो अनूप जी दिख जायेगें और मैं अपनी जिन्दगी के एक बड़ी खबर सबसे पहले उनसे बाँट रही होऊंगी, अपनी सहेलियों को बाद में फ़ोन करके दस बजे बताऊँगी जब सब अपने अपने ग्रहस्थी के कामों से निपट चुकी होगीं।

आज घर पर हूँ और बहुत दिनों के बाद कुछ खास काम नहीं कर रही, कितने ही विचार, कितनी ही यादें उथल पुथल मचाये हुए हैं। आदित्य ने जब पच्चीस में पांव रखा था तभी हर मां की तरह हमें भी उसकी शादी की चिन्ता सताने लगी थी। मेरी इस चिन्ता पर मेरे पति,बेटा, और मेरी सहेलियां सब हंस पड़े थे। सबका ये कहना था कि अभी तो आदित्य बच्चा है। लेकिन हम नहीं माने बस कन्या ढ़ूढ़ाई अभियान शुरु कर दिया। कई पापड़ बेलने पड़े। जब इस काम में लगे तब पता चला कि किताबें आप को दुनिया भर की जानकारी दे दें लेकिन दुनियादारी नहीं सिखा सकतीं उसके लिए तो जिन्दगी की किताब पढ़नी पढ़ती है। रिश्ता पक्का होते ही अगली चिन्ता जो हमें सताने लगी वो ये कि हमें तो कोई रीति रिवाज पता ही नहीं, किसी कोर्स की किताब में नहीं सिखाए जाते न्।


अब पिछ्ले दो साल से ऐसी आदत पड़ गयी है कि जब भी मन विचलित होता है हम नेट पर आ जाते हैं और कोई न कोई दोस्त बात करने के लिए मिल जाता है और मन हल्का हो जाता है। बहुत दिनों से कुछ न पोस्ट करने के बावजूद लोगों से संपर्क बना हुआ है। हम में सब्र की बहुत कमी है, जब एक बात ठान लेते हैं तो उसे उसी समय पूरा करने की कौशिश करते हैं। लेकिन हर अभियान का संपन्न होना हमारे हाथ में तो नहीं। ऐसे ही एक दिन उदास हुए हम नेट पर आ बैठे, द्विवेदी जी मिल गये। हमने अपने मन की बैचेनी उनसे बाँटी, उन्हों ने हमसे आदित्य की जन्म तारीख पूछी और पता कर के बताया कि बात जून तक बनने की आशा है, और देखिए बात मई में बन गयी। ( सभी अविवाहित ब्लोगर मित्रों को कहां लाइन लगानी है पता चल गया न? )…॥:)


रिश्ता पक्का होने के बाद तय हुआ कि पहले 'रोके' की रस्म कर ली जाए। हम ने हां तो कर दी लेकिन अंदर ही अंदर बहुत परेशान थे। कारण ये था कि हमें पता नहीं था कि 'रोके' की रस्म में क्या करना होता है। नजदीकी रिश्तेदारों में ले दे के सिर्फ़ दो छोटी भाभियां हैं, उनमें से भी जो बम्बई में ही रहती है वो गुजराती है और जो इंदौर में रहती है वो पंजाबी। खैर हमने इंदौर फ़ोन लगाया, पूछने के लिए कि क्या करना है, कुछ सहेलियों से पूछा, लेकिन दिमाग में टोटल कन्फ़्युशन था। परेशान से हम नेट पर आ गये। दोस्त तो बहुत दिखाई पड़े ऑनलाइन, पर उस समय हमें किसी महिला सहेली की जरूरत महसूस हो रही थी, अभी हम सोच ही रहे थे कि किससे बात करें कि लो हमें मिल गयीं मिनाक्षी जी। बस हमने आधे घंटे उन्हें चैट पर अटकाये रखा और उन्हों ने भी बड़े सब्र से हमारे छोटे बड़े सभी सवालों का जवाब देते हुए एकदम सही सलाह दी। उनकी दी जानकारी के बल पर हम ये काम भी सही सलामत निपटा आये। आज ही एक पुरानी पोस्ट पढ़ रहे थे कि हिन्दी ब्लोगजगत में हिन्दी ब्लोगजगत के एक परिवार जैसा होने का डंका काफ़ी बज चुका और अब उससे ऊपर उठ कर सोचना चाहिए कि हम हिन्दी ब्लोग क्युं लिखते हैं( कुछ ऐसा ही लिखा था पोस्ट में)। मुझे लगता है कि लोग ब्लोग लिखना चाहे किसी भी कारण से शुरु करें और चाहे कितनी ही हिन्दी ब्लोगजगत की उपलब्धियां क्युं न हों , पर सबसे बड़ी उपलब्धी है यहां जो भी आता है खुद को इस तेजी से बड़ते परिवार का हिस्सा बनते पाता है और इतने मित्र पा जाता है जितने की उसने कल्पना भी नहीं की होती। आगे का आखों देखा हाल भी आप के साथ बांटूगी , इस लिए नहीं की आप जानना चाहेगें बल्कि इस लिए कि मैं आप के साथ अपने अनुभव बांटना चाहूंगी।

(ये पोस्ट दो दिन पहले लिखी गयी थी लेकिन नेट ने धोखा दे दिया और हम इसे आज पब्लिश कर पा रहे हैं।)