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December 01, 2008

क्या कहूँ

बम्बई की घटनाओं से अभी उबर नहीं पाये हैं। इतनी जल्दी उबर जाते तो हम ही न ग्रह मंत्री हो जाते…।:)
अब इन अंधियारे 59 घंटों का जिक्र सब तरफ़ है तो मन में कुछ न कुछ तो चलेगा ही। (ज्ञान जी से इस शीर्षकचोरी की माफ़ी मांगते हुए)मेरी मानसिक हलचल के कुछ और उदगार । ख्यालों का सिलसिला जारी है।

आतंकी हमलों से बम्बई तो क्या पूरा देश अन्जान नहीं है पहली बार थोड़े न हुए हैं। कश्मीर में आये दिन होते ऐसे हमलों के हम आदी हो चुके हैं, अखबार में पढ़ कर इतने विचलित नहीं होते। बिल्कुल ऐसे ही जैसे पहले पंजाब में होते ऐसे हमले आम बात लगते थे। मीडिया में भी ऐसी घटनाएं एक दो दिन सुर्खियों में रहतीं और फ़िर तुरंत दूसरे ही दिन से कोई और खबर सुर्खी बन जाती। इस बार भी हमें पक्का विश्वास था कि शुक्रवार को ताज आजाद करा लिया गया, आतंकी मारे गये, खेल खत्म्। अब मीडिया कोई और सुर्खियां ढूंढ चुका होगा, ज्यादा से ज्यादा शाम तक खबरें बदल जाएगीं । लेकिन ऐसा नहीं हुआ,शुक्रवार का पूरा दिन बीता, फ़िर शनिवार बीता और आज इतवार भी बीत गया, यानि कि घटना खत्म होने के तीन दिन बाद भी मीडिया में वही ताज पर हमले की खबर सरगर्मी पर है। क्या पाकिस्तानी आका यही नहीं चाहते थे?

शाम को एक सहेली के आव्हान पर शहीदों को श्रद्धांजली देने के लिए आयोजित एक रैली में हिस्सा लेने गये। वापस घर आ कर टी वी खोला तो हर चैनल पर वही एक बात थी, जनता अपना आक्रोश जाहिर करने के लिए सड़कों पर उतरी। रैली में भी वही देख कर आ रहे थे। टी वी में जो फ़ोटोस दिख रही थीं उसमें रैली में हिस्सा लेते लोग संभ्रात धनी परिवारों से दिख रहे थे और महिलाएं ज्यादा दिख रही थीं। ऐसा ही आक्रोश हमने कारगिल युद्ध के समय महसूस किया था ,खुद अपने अंदर और दूसरों में भी। इन दोनों घटनाओं के समय जनता का गुस्सा पाकिस्तान की तरफ़ तो है ही लेकिन उससे भी कहीं ज्यादा गुस्सा सरकार की नपुंसकता पर है, मंत्रियों के घटनाओं को हल्के तौर पर लेने से है। आर आर पाटिल का कहना कि 'बड़े बड़े शहरों में ऐसी छोटी मोटी घटनाएं होती रहती हैं' न सिर्फ़ ओछा लगा बल्कि फ़िल्मी भी लगा, मानो शाहरुख खान से ये डायलाग चुराया हो, सिर्फ़ आगे सिनोरिटा नहीं कहा। विलासराव देशमुख का आज ताज का दौरा करना अपने फ़िल्मी बेटे के साथ और फ़िल्म डायरेक्टर राम गोपाल वर्मा के साथ एक और ओछेपन का सबूत था। राम गोपाल वर्मा ने जरूर अपनी नयी फ़िल्म का प्लोट लिख लिया होगा, विलासराव के बेटे को हीरो का रोल दे दिया होगा और शूटिंग की लोकेशन देखने आया होगा। अरे, शहीदों का खून तो सूख जाने दिया होता।

कारगिल के समय भी हमारे कई जांबाज सिपाहियों को अकारण मौत को गले लगाना पड़ा था क्युं की किसी मंत्री ने, किसी नौकरशाह ने कारगिल में जरुरत पड़ने वाले समान को सिपाहियों को मुहैया कराना फ़जूल समझा था अपना विदेश घूमना ज्यादा जायज लगा था उन्हें। इस बार भी कई पुलिस अफ़सर और पुलिस कर्मी इस लिए बलि चढ़े क्युं कि हेल्मेट और बुलैटप्रूफ़ जैकेट हल्की क्वालिटी की थी या जंग खायी हुई थीं।

केरला के चीफ़ मिनिस्टर का उन्नीकृष्णन के घर जा कर तमाशा करना देख सर शर्म से झुक गया। हम सोच रहे थे राजनेता और राजनीति कितनी धरातल में धंस गयी है कि अब ये लोग मुर्दों के बल पर सत्ता का खेल खेलने लगें। इस प्रजातंत्र में किसी को अपने स्वजन के जाने पर शांती से प्र्लाप करने का भी अधिकार नहीं रह गया। रोना है तो मीडिया के कैमरे के सामने और किसी न किसी मिनिस्टर के कुर्ते के छोर को पकड़ कर ही रोओ ताकि सब तुम्हारे ये आंसू भुना सकें। हमारे झुके हुए सर को देख धरा ने हमें टोका और कहा " एक्यूज मी, ये तुम्हारे जगत के राजनेता और राजनीति की गंदगी ढोने की ताब मुझ में नहीं है, कहीं और जा कर फ़ेकों"
शिव जी की पोस्ट लगा हमारे ही मन की भावनाओं को उजागर करती है, इसे देखिए


खैर उसकी बात तो हम अनसुनी कर गये, लेकिन एक बात रह रह कर मन में उठ रही है, कारगिल के समय हमने बम्बई में कम से कम जनता को इस तरह अपने आक्रोश का प्रदर्शन करते नहीं देखा था, क्या इस बार आक्रोश ज्यादा है या इस बार पहली बार अमीरों को आतंकवाद ने छुआ है इस लिए प्रदर्शन कहीं ज्यादा सगंठित है और इसी लिए दिख भी रहा है। गरीब जनता ट्रेनों में , टेक्सियों में , बाजारों में हर बार मार खा कर चिल्ला चुल्लु कर चुप हो जाती थी ,कोई सुनने वाला न होता था। पर इस बार अमीरों के घरों में आग लगी है, सरकार पर इस लिए दवाब ज्यादा है या इस बार मीडिया ज्यादा सक्रिय हो गया है और जनता के आक्रोश को जगाये रखना चाहता है, अगर हां तो क्युं? क्या मीडिया को अभी तक इस से बड़ी कोई खबर नहीं मिली या इस लिए कि चुनाव नजदीक हैं और सरकार अमीरों के दवाब से बौखला रही है और मीडिया मजे ले रहा है।

इन सब बातों में एक बात अच्छी हुई( हमारे हिसाब से)और वो ये कि वी पी सिंह के मरने पर ज्यादा ताम झाम नहीं हुआ। एक तरह से गुमनामी की मौत मरा। कहते हैं न कर्मों का फ़ल यहीं मिलता है।…॥:) अब हमें ये बात क्युं अच्छी लगी ये फ़िर कभी।
अपने मन के इन उदगारों को क्या नाम दूं समझ नहीं पा रही, आप ही बता दीजिए क्या कहूँ ?

November 30, 2008

कुछ ख्याल

परसों से बहुत से चिठ्ठों पर मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के बारे में ढेरों पोस्ट लिखी गयीं, कविताएं लिखी गयीं। किसी में नेताओं के प्रति आक्रोश(और वो सही भी है)था तो किसी में हम हिन्दूस्तानियों की बेबसी पर मौन आसूँ थे, कहीं युद्ध का ऐलान था तो कहीं 'हम सब एक हैं' के (खोखले) नारे थे। हम भी तीन दिन से टी वी से चिपके बैठे थे। उन तीन दिनों में जिन्दगी मानों थम सी गयी थी, ताज के बाहर तैनात मीडियाकर्मियों के साथ साथ हमारे भी दिन और रात में कोई फ़र्क नहीं रह गया था।
बहुत से ख्याल , बहुत सी भावनाएं गुजरीं मन से इन तीन दिनों में। पता नहीं क्युं इस युद्ध के लाइव कवरेज को देखते हुए मन में एक बार भी ब्लोग पर कुछ लिखने का ख्याल नहीं आया। न ही इस बात का ख्याल आया कि दूसरों ने क्या कहा वो पढ़ा जाए। सच कहूँ तो कंप्युटर का ही ख्याल नहीं आया और आप सब के जैसे ही मैं भी ब्लोगजगत की लती उस समय एक बार फ़िर टी वी लती हो गयी।

पहला ख्याल जो मन में आया वो ये कि ये अठ्ठारह बीस साल के छोकरों से लड़ने के लिए हमारे सबसे बेहतरीन सैन्य बल (जिसको मारकोस कहा जा रहा था) बुलाने की जरुरत पड़ गयी, क्या दुनिया हम पर, हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर हंस नहीं रही होगी, ओसामा बिन लादेन की विद्रुप हंसी हमारे कानों में सीसे सी पिघल रही थी।
जैसे जैसे वक्त गुजर रहा था मन मन की बेचैनी बढ़ती जा रही थी कि अब तक नहीं निकाल पाये उन चूहों को। माना कई कारण थे, निर्दोष लोग बंधक थे, ये चूहे गुर्रिला वार में दक्ष थे, हमारे कमांडोस के पास ज्यादा जानकारी उपल्ब्ध नहीं थी,(इन चूहों के पास ताज होटल के अंदर का पूरा नक्शा था, सैनिकों को ये बात पता चली उनके छूटे हुए सामान में से एक सीडी से। अगर उन्हों ने ताज के अंदर का नक्शा बना लिया था तो क्या ताज के मालिकों से हमारे सैनिकों को ताज का अंदर का नक्शा नहीं मिल सकता था। या सब लोग क्रिकेट के मैच के जैसे टी वी पर मैच देखने बैठ गये थे।) बताइए, अपने ही देश में हमारे कमांडोस को जरूरी जानकारी देने वाला कोई नहीं था, सब आसूँ बहाने में और जो शहीद हो गये उनकी जयजयकार करने में व्यस्त थे। कमांडोस तो आये रात को दो बजे जब की रात दस बजे से ये साफ़ हो गया था कि आंतकवादी ताज में छुपे बैठे हैं, क्या किसी को इस बात का ख्याल आया कि ताज के अंदर के नकशे की जरूरत पड़ सकती है और कमांडोस के आने से पहले उसे तैयार रखना चाहिए। ऐसे में याद आ रहा था इसराइलों का इन्टेबी जाना और दुश्मन को दुश्मन के ही घर पर मार कर अपने देशवासियों को छुड़ा लाना। दूसरे ही पल ये भी सोच रहे थे कि हमें क्या पता कि वहां क्या क्या किया गया, हमारी जानकारी तो मीडिया से मिली जानकारी पर ही आधारित है, शायद वो सब किया भी गया हो।

टी वी देखते देखते एक और ख्याल जो मन में उठा वो था जब नरीमन हाउस पर विजय पा ली गयी। वहां आस पास के लोगों ने सड़कों पर उतर कर इस जीत का जशन मनाया, गदगद हो कर सैनिकों का धन्यवाद किया गया, उन पर फ़ूल बरसाये गये। हम भी फ़ूले नहीं समा रहे थे और अपने कमांडोस पर उतना ही गर्व महसूस कर रहे थे जितना वहां की जनता जता रही थी। लेकिन हमने देखा कि कमांडोस इस सारी वाहवाही से अनछुए चुपचाप जाकर बसों में बैठ गये वापस ताज की तरफ़ जाने को। ये थे असली हीरो- जान पर खेल कर भी अपने काम को अंजाम तक पहुंचाने के बाद भी किसी तारीफ़ की अपेक्षा नहीं। मन में ये भाव कि इसमें बड़ाई क्या है, हमने अपना काम किया है जैसे सब करते हैं , हां ! काम ठीक ठाक संपन्न हो गया इस बात का संतोष है। एक कमांडो ने तो प्रेस फ़ोटोग्राफ़र को फ़ोटो लेने से भी मना कर दिया। हमारे जहन में कौंध रही थी इसके विपरीत उभरती सौरव गांगूली की हवा में कमीज लहराती फ़ोटो मानो पता नहीं सिर्फ़ अपना काम ही नहीं किया कोई जंग जीती हो। यहां जंग जीते हुए लोग ( जो शायद सौरव की ही उम्र के होगें) कितने संयत थे। फ़िर भी जनता का दिया धन्यवाद बड़ी विनम्रता के साथ हल्के से अभिवादन के साथ स्वीकार कर रहे थे।

ये कहते हुए जरा झिझक सी महसूस हो रही है पर इमानदारी से बताएं तो हम भी चैनल बदल बदल कर देख रहे थे कि कौन सा चैनल सबसे अच्छी जानकारी दे रहा है (हालांकि इस बात की चिन्ता भी थी कि कहीं इस लाइव कवरेज से कमांडोस को अपना काम करने में दिक्कत तो नहीं आ रही)। हमारा वोट गया 'इन्डिया टी वी' के नाम्। इन्डिया टी वी के केमरामैन महेश, रिपोर्टर सौरभ शर्मा, प्रकाश, सरिता सिंह का काम काबिले तारिफ़ रहा। और इसी चैनल के सचिन चौधरी जो कमांडोस के साथ ताज के अंदर थे और वहां से मोबाइल द्वारा रिपोर्टिंग कर रहे थे, इस बात का ध्यान रखते हुए कि ऐसी कोई जानकारी न दी जाए जो कमांडोस के लिए मुश्किल पैदा कर दे, काबिले तारिफ़ था। पहली बार हमारा ध्यान इन मीडियाकर्मियों की तरफ़ गया जो अपनी जान का खतरा उठाते हुए बिना खाये पिए, बिना सोये रिपोर्टिग करते रहे और फ़िर भी दर्शकों का ध्यान इस बात की ओर खीचते रहे कि मीडियाकर्मी जो ताज के बाहर डटे हुए थे उन्हें तो रिप्लेसमेंट मिल जाएगी लेकिन जो कमांडोस अंदर दो दिन से पोसिशन संभाले बैठे हैं वो भी बिन कुछ खाये, सोये उन चूहों को खोज रहे हैं, बंधकों को छुड़ा रहे हैं। सबसे ज्यादा हैरानी तो हमें तब हुई जब इन्डिया टी वी के रिपोर्टर ने पकड़े हुए आंतकवादी के साथ हुई अपनी बातचीत दर्शकों तक पंहुचा दी। इतनी जल्दी ये रिपोर्टर उस आंतकवादी तक कैसे पहुंच गया, पुलिस ने उस आंतकवादी से बात कैसे करने दी इस रिपोर्टर को। सुना है सरकार ने अब इंडिया टी वी से जवाबतलब किया है कि उन्हों ने ऐसा क्युं किया। हम सरकार से पूछते हैं कि किसी को भी इस आतंकवादी के पास पहले जाने ही क्युं दिया गया।


इस आतंकी हमले में मरने वालों में जहां एक तरह कई नामी गिरामी लोग थे तो दूसरी तरह कई आम आदमी भी थे। दूसरों के जैसे हम भी उन सब के लिए उदास हैं, उनके परिवार के दुख में शामिल हैं। लेकिन मेरे ख्याल उन आतंकवादियों की तरफ़ भी जा रहे हैं, जिन्हें मैं गुस्से में चूहे कह रही हूँ। थे तो वो मुश्किल से बीस बीस साल के बच्चे, क्या देखा था उन्होंने जिन्दगी में। जिस तरह की ट्रेंनिग( शारीरिक और मानसिक) वो ले कर आये थे यकीनन वो काफ़ी वक्त से उन आकाओं के साथ रहे होगें जो अपने स्वार्थ के लिए, अपने अहं के लिए आतंकवाद को जन्म देते हैं, उनके लिए ये बच्चे सिर्फ़ बलि के बकरे से ज्यादा कुछ न थे और ये बरगलाये हुए बच्चे इस बात से बेखबर थे। मुझे पक्का यकीन है कि इन में से कोई भी बच्चा न आई एस आई के या अल कायदा के सरगनाओ का बेटा रहा होगा। ये दिन थे इनके किसी कॉलेज की कैंटीन में गाने गाते हुए लड़कियों के निहारने के, भविष्य के सपने बुनने के, ये दिन थे इनके माता पिता के अपने बच्चों को परवान चढ़ता देख हर्षाने के, लेकिन हुआ क्या? इतनी जांबाजी से मरे तो भी दुनिया भर में थू थू हुई और इनके आकाओं ने सिर्फ़ इतना ही कहा होगा इनके मां बाप से ' सब किस्मत की बात है, ये अल्लाह की खिदमत करने गये हैं' ,अगर अल्लाह की खिदमत करना इतना ही सबब का काम है तो मुल्ला जी खुद क्युं नहीं ये पुण्य कमाते।

बड़े दुर्भाग्य की बात है कि हर तरफ़ (ये धर्म के ठेकेदार हो या नेता) इंसानी कौम अपनी मौज के लिए, अपने स्वार्थ के लिए आने वाले भविष्य की कौमों को खा रही है। हम सोच रहे हैं कि जानवरों में ज्यादा मानवता है या इंसानों में।

September 26, 2008

चाँद की सैर

चाँद की सैर


सुबह के सात बजते ही एफ़ एम गोल्ड पर पहले गाने की स्वर लहरियां गूंजी । " चांद को क्या मालूम चाहता है उसे कोई चकोर्…",


अहा! जब दिन की शुरुवात इतनी मधुर है तो दिन तो मधुमास ही समझो। कार में रेडियो सुनने का मजा ही कुछ और है। बंद खिड़कियां, ए सी की ठंडक, आस पास की चिल्ल पौं को नो एन्ट्री, पूरा डब्बा(कार) संगीतमय हो लेता है। हाई वे पर तेज और तेज सरपट दौड़ती कार और संगीत की स्वर लहरियां , वक्त मानो थम सा जाता है। ये आधा घंटा पूरे दिन का सबसे हसीन वक्त होता है जब हम अपने साथ होते हैं।


वाशी सिगनल पार करती हिचकोले खाती कार, हम सोच रहे थे आज कल चकौर तो न दीखते बम्बई में, हां यहां की सड़के जरूर चांद के प्रेम में चंद्र्यमान हो रही हैं। सिगनल पार होते ही पीछे से कुछ हल्की हल्की आवाज आने लगी। कार के हिचकोलों ने शायद पीछे रखे औजारों को जगा दिया था और अब वे भी अपना बेसुरी तान जोड़ कर पूरे संगीत का मजा चौपट कर रहे थे। पड़ौसन से गपियाती मां अक्सर बच्चे की कुनमुनाहट को नजर अंदाज कर जाती है, हम भी फ़िर संगीत में खो गये।


दस किलोमीटर के करीब और आगे जाते जाते पीछे की खटर पटर इतनी बड़ गयी मानों भारत पाक सीमा पर गोला बारी हो रही हो। मजबूरन रुकना पड़ा। भुनभुनाते हम नीचे उतरे कि आज इन औजारों की अच्छी खबर लेते हैं , न वक्त देखते हैं न मौका जब देखो बजते रहते हैं। देखा तो औजार बिचारे तो चुपचाप बैठे थे लेकिन पीछे के टायर के परखच्चे उड़ चुके थे, बियोंड रिपेअर। अब इतनी सुबह कौन से टायरवाले की दुकान खुली होगी। आसपास देखा तो सब दुकानें बंद सिर्फ़ एक चाय वाला अपना भाखड़ा सजाए खड़ा था, सड़क पर ही एक बैंच डाल रखा था, कुछ ऑटो वाले बैठे अखबार के साथ सुबह की चाय का आनंद ले रहे थे, धंधे पर निकलने के लिए अभी बहुत जल्दी थी। उनमें से कोई भी हमारी खातिर अपनी चाय और अखबार का अलसाया आनंद छोड़ने को तैयार नहीं था। कलीम( हमारा हमेशा का टायर वाला) की दुकान तो खुली होगी लेकिन वो भी अभी कम से कम एक डेढ़ किलोमीटर दूर थी और गाड़ी तो अब अपने पैरों को सहलाती टस से मस न होने की मुद्रा में बैठी थी।


जैसे तैसे कलीम को लिवाने उसकी दुकान पर पहुंचे। कलीम की दुकान के बाहर ही उसका एक दोस्त अपनी ऑटो में बैठा दूसरे ऑटो वाले से बतियाता दिख गया। कार के पास पहुंचते ही इस ऑटो वाले को भी चाय की तलब उठी, कलीम को चाय पीने के लिए आने को कहते हुए वो उस तरफ़ बढ़ चला, ठिठका, मुड़ा और पूछा ऑंटी चाय पियेगीं।

हैरानी को छुपाते हुए हमने न में सर हिलाया और मोबाइल पर व्यस्त हो गये।


बम्बई के टैक्सी, ऑटो वालों के दोस्ताना अंदाजा के बारे में जानते तो थे पर ये तो हद्द ही थी। अगर हम उसका निमंत्रण स्वीकार कर लेते तो कल्पना कीजिए कि रोड पर रखी बैंच पर अपनी सफ़ेद वर्दी में बैठे चार पांच ऑटो वाले और हम, हाथ में गरमागरम कटिंग चाय, पास में नगर निगम का झाड़ू लगाता जमादार और उस के झाड़ू से उठती धूल चाय का स्वाद बड़ाती। बाप रे!


विनोद जी को फ़ोन पर सुबह के समाचारों की तर्ज पर पूरी स्थिति का जायजा देते हुए पूछा इस फ़टे टायर का क्या करें? जवाब आया "फ़ैंक दो, दूसरा खरीद लो"। तब तक कलीम अपना काम कर चुका था, और फ़टे टायर को डिक्की में रखने की तैयारी में था। हमने कहा भैया इसे फ़ैंक दो और अगर तुम्हें चाहिए तो तुम ले जाओ। उस की आखें कैरम की गोटी जितनी चौड़ाई, पर कुछ बोला नहीं, चुपचाप फ़टा टायर ऑटो में रखा और चाय के भाकड़े की ओर बढ़ गया। हम इस बात पर खुश कि चलो लेक्चर के लिए टाइम पर पहुंच जायेगें। साथ ही सोच रहे थे, बेचारा! क्या करेगा इस तार तार हुए टायर का, न ट्युब बची न बाहर का टायर, ज्यादा से ज्यादा अंदर का लोहा बेच लेगा, पांच रुपये किलो।


तब तक कॉलेज आ गया और पूरा वाक्या जहन से खिसक लिया। दोपहर घर जाते वक्त सोचा कि चलो स्टेपनी के लिए एक पुराना टायर ही खरीद लिया जाए। सुबह कलीम से पूछा था, उसके पास तो मेरी गाड़ी के योग्य कोई टायर नहीं था पर अंदाजन पांच सौ तक आ जाएगा ये जानकारी उसने दे दी थी। दूसरी दुकान पर टायर उपलब्ध था, हमने पूछा कितने का? बोला आठ सौ। हम मन ही मन मुस्कुराए, अच्छा बेटा, हमें पागल समझा है क्या? बोले “नहीं हम तो पांच सौ देगें।”

थोड़ी ना नुकुर के बाद सौदा तय हुआ कि पांच सौ का पुराना टायर और तीन सौ की नयी ट्युब और फ़िटिंग फ़्री।


हमने बड़े विजयी भाव से डिक्की खोली, कहा “रख दो”।

उसके चेहरे पर उलझन देख पूछा “क्या हुआ,”?

“काय में फ़िट करूं टायर, रिम कहां है?”

अब चौंकने की बारी हमारी थी।

अरे! तुम टायर दोगे तो रिम न दोगे साथ में, बिना रिम टायर कैसा?

हमारी बेवकूफ़ी पर खिलखिलाते हुए बोला,

“मैडम! आप हो किस दुनिया में, नया टायर भी रिम के साथ नहीं आता। रिम लेने को जाओगे तो आठ सौ और देना पड़ेगा। वैसे आप ने रिम का किया क्या?”

हमने दबी आवाज में कहा “वो तो हमने सुबह फ़ैंक दिया मतलब टायर वाले को दे दिया”।

“हे भगवान! कौन से टायर वाले को दिया? अभी का अभी जाओ और उस से अपना रिम वापस मांगो”

मन कह रहा था अब समझ में आया कलीम ने वो तार तार टायर क्युं सहेज के ऑटो में रख लिया था, बोले

“अब वो हमें क्युं वापस करेगा। वो कह देगा कि वो तो हमने बेच दिया तब हम क्या कर लेगें।”

“अरे मैडम आप जा कर उसे मेरा नाम बोलना वो रिम वापस कर देगा।”

हमें कोई उम्मीद तो न थी पर फ़िर भी पूछने में क्या जाता है सोच वापस मुड़ लिए। कलीम की दुकान पर पहुंचे। बाहर से ही इशारे से बुलाया।

सकुचाते सकुचाते पूछा

“वो रिम्”।

वो मुस्कुराया, मानो कहता हो सुबह तो बड़ी ठसक से कह गयी थी फ़ैंक दो। खीसे निपोरता हुआ रिम ले आया

“हैं हैं हैं! मैं तो तभी जानता था कि आप वापस आयेगीं, इसी लिए अलग रख दिया था”।

चैन की सांस लेते हुए हमने धन्यवाद की मुस्कुराहट फ़ैंकी और लौट लिए। हाथ रेडियो की तरफ़ बढ़े, “नहीं, नहीं दोपहर को अभी इतने अच्छे गाने नहीं आते न जो हमें चांद पर पहुंचा दें। वैसे भी ये चाँद की सैर बहुत महंगी है।”……है न?……J

September 14, 2008

जानने का हक है



जानने का हक है

आज की ताजा खबर ये है कि विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि हमारा दिमाग और मन छुट्टी से लौट रहे हैं। आज 14 सेप्टेंबर है, गणपति जी के जाने का दिन आ गया, हर साल की तरह इस साल भी बरखा की झड़ी लगी है। ऊपर की फ़ोटो हमारे कमरे की बैकसाइड है लेकिन इसमें बरसती बरखा का जो आनंद हम ले रहे हैं वो आप को दिखाई नहीं दे पाएगा। सागर जी ने बताया कि इस बार उन्होंने अपने घर गणपति जी जी आराधना हमारे ब्लोग पर लगी आरती से की। जान कर अच्छा लगा कि उन्हें भी ये आरती पसंद आयी।


नीरज जी का न्यौता

हमें याद आ रहा है 7 सितंबर, इस महिने का पहला इतवार्। सितंबर शुरु होते ही नीरज भाई का न्यौता आया था "अनिता जी आते इतवार को खपोली में कवि सम्मेलन का आयोजन किया है आप जरूर आइयेगा।" न्यौता आने के ठीक एक मिनिट पहले हम उनके बलोग पर खपौली में बहते बरसाती झरनों का आनंद उठा कर आ रहे थे। ऐसी बरसात और ऐसे झरनों को देख किसका मन न मचल उठेगा। मन तो ललचाया लेकिन अकेले इतनी दूर हम कभी गये नहीं । विनोद जी को पूछा " ले चलोगे?" बोले कोई ओप्शन है क्या? हम हंस दिये।


अभी जाने में एक सप्ताह बाकी था, दो दिन बाद कुलवंत जी का फ़ोन आया, खपौली चलने का न्यौता दोहराते हुए कहा कि बम्बई से कुछ पंद्रह लोग जा रहे हैं इस लिए हम बस कर रहे हैं । हमने कहा हम भी फ़िर बस में ही चलेगें। सिर्फ़ प्रकृति के साथ ही नहीं लोगों के साथ भी तो जुड़ना था। विनोद जी को पता चला तो उन्होंने राहत की सांस ली। हमारे बहुत ललचाने पर भी वो किसी कवि सम्मेलन को झेलने के लिए तैयार न थे। ये सोचते हुए कि हर आदमी को हफ़्ते भर कड़ी मेहनत करने के बाद एक दिन अपनी मर्जी से बिताने का हक्क है हमने भी साथ आने पर जोर नहीं दिया।

वो इतवार आ ही गया। इंद्र देव हम पर मेहरबान थे, रास्ते भर बरसात की फ़ुहारों का मजा लेते अंताक्षरी खेलते करीब डेढ़ घंटे में हम खपौली पहुंचे। खेल तो रहे थे अंतक्षारी लेकिन मन ही मन बस में बैठे सहयात्रियों पर नजर डाली तो देखा सिर्फ़ एक लड़की, महिमा ,को छोड़ दें तो सब या तो पचास पच्च्पन को छू रहे थे या उससे भी कहीं आगे निकले हुए थे। गाने वालों में महिमा ही सबसे खामोश थी बाकी सब बेसुरे गा रहे थे।

बैरन यादाश्त
भूषण स्टील पहुंचते ही नीरज जी अपने कुछ साथियों के साथ गेस्ट हाउस के बाहर ही स्वागत करते मिले। दुआ सलाम होते ही हम सब के आराम करने के लिए कई कमरे खोल दिए गये। मैं, महिमा, आशा शर्मा जी और अनामिका शाहनी एक कमरे में थी बाद में रेखा रौशनी जी भी हमारे कमरे में आ गयीं। एक बजे का वक्त, चाय के शुरुआती दौर के साथ आपस में परिचय का दौर चला। कुछ देर बाद अनामिका जी ने हमसे पूछा आप ने आशा जी को नहीं पहचाना? हमने ध्यान से उनकी तरफ़ देखा, दिमाग पर बहुत जोर दिया, कहीं किसी कवि सम्मेलन में, किसी ब्लोग पर देखा है क्या? लेकिन क्या करें हमारे दिमाग और मन की तरह हमारी यादाश्त भी हमारे बस में नहीं रहती ऐन मौके पर दगा दे जाती है। हमसे कुछ शर्मसार होते हुए हल्की सी मुस्कुराहट के साथ ना में सर हिलाया।

अनामिका: अरे ये बहुत सारी फ़िल्मों में और टी वी सिरियलों में आ चुकी हैं अमिताभ बच्चन की मां का रोल भी निभा चुकी हैं। हमने आखें चौड़ी कर अपनी यादाश्त को झकझोरने की कौशिश की लेकिन वो टस से मस नहीं हुई। आशा जी ने हल्की सी मुस्कुराहट से हमें माफ़ किया। हमने उन्हें न पहचानने के अपराध की क्षमा मांगी और उन्हों ने तपाक से माफ़ कर दिया। जो हमने उनसे नहीं कहा वो ये कि जब हम अमिताभ बच्चन की फ़िल्म देखते हैं तो सिर्फ़ अमिताभ बच्चन को देखेगें न उसकी मां को थोड़े ही देखेगें। खैर, इस परिचय कार्यक्र्म के बाद खाने का दौर आया और फ़िर वापस हम अपने अपने कमरों में। कवि सम्मेलन शाम को 4 बजे शुरु होना था। अब गप्पबाजी का दौर चला। अनामिका जी किसी और कमरे में चली गयीं जहां उनके एक दूसरे मित्र ठहरे हुए थे।

आप की आवाज
आशा जी से गपियाते हुए हमने जो एक बात नोट की वो ये कि उनके व्यवहार में,वेश भूषा में, बातचीत में लेशमात्र भी फ़िल्मीपन नहीं था। एक बार भी उन्होंने ये जताने की कौशिश नहीं की कि वो फ़िल्मों से जुड़ी हैं और फ़िल्म आर्टिस्ट्स ऐसोशिएन कार्य समिति की मेम्बर हैं। उलटे वो हमारी ही तारिफ़ करने लगीं कि आप की आवाज सुन कर ऐसा लगता है कि आप अच्छा गाती होगीं, हमने हंस कर कहा जी गाती तो नहीं अल्बत्ता चिल्लाती जरूर हूँ। पलट कर पूछने लगीं फ़िल्मों में काम करोगी और हम ठठा कर हंस दिये लेकिन देखा वो तो एकदम सिरियस चेहरा लिए हमारी तरफ़ देखती रहीं। इतने में रेखा जी आ गयी और रेखा जी जहां हों वहां किसी और को बोलने का मौका मिलना मुश्किल है। बस यूं ही चार बज गये और हम सब हॉल में जा डटे।

दुर्घटना
मरियम गजाला, मिश्रा जी, कुलवंत जी, चेतन शाह, देवी नाग रानी, अनामिका जी, रेखा रौशनी जी, महिमा और भी न जाने कितने ही कवि वहां जमा थे। देवमणी पांडे जी ने मंच संभाला और एक एक कर कविताओं का दौर शुरु हुआ। हम इन शब्दों के सागर में आनंद विभोर होते मजे लूट रहे थे कि अचानक हम पर गाज आ गिरी जब देवमणी पांडे ने अचानक हमारा नाम ऐनाउंस कर दिया। हम हक्के बक्के उनको देख रहे थे, ये बिल्कुल अप्रत्याशित था, हम उन्हें इशारे से मना कर रहे थे कि तभी तपाक से हमें बुके भी पेश कर दिया गया, अब मरता क्या न करता कि तर्ज पर स्टेज पर जाना ही था। हम हाथ में कोई कविता लाए नहीं थे और याद हमें कुछ रहता नहीं है। मन कर रहा था कि धरती फ़ट जाए और हम उसमें समा जाए या जोर से तुफ़ान आ जाए और लोगों का ध्यान बंट जाए। हमने बड़ी असहाय नजर से देवमणि जी की तरफ़ देखा। बड़ी सहानुभूती जताते हुए बोले कि ठीक है आप अपना परिचय ही दे दिजिए, हम पता नहीं क्या बोल कर आ गये। बाद में कुलवंत जी और देवमणी जी ने हमसे माफ़ी मांगी कि इस तरह हमें ऐसी परिस्थति का सामना करना पड़ा। उन्हें इस बात का विश्वास था कि हर कवि अपनी जेब में अपनी एक दो कविताएं तो ले कर घूमता है और जैसे लोग बात बात में अपने विजिटिंग कार्ड निकाल कर बांटते हैं वैसे ही हर कवी हर जगह अपनी चार लाइना तो ठेलता ही रहता है। उनके हिसाब से हमें शुक्रगुजार होना चाहिए था कि हमें मौका दिया गया, अब उन्हें कैसे बताते कि हम तो कवि हैं ही नहीं न्। कविता सुनना और लिखना दो अलग अलग बाते हैं।खैर, सिर्फ़ इस दुर्घटना के सिवा दिन बहुत अच्छा बीता। नीरज जी की खातिरदारी देख कर ऐसा लगता था मानों हम सब बराती हैं जो बिना दुल्हे के आ गये हैं। वापस लौटने के समय ही पता चला कि जिस बस से हम इतने आराम से खपौली आये हैं और वापस जा रहे हैं वो नीरज जी की भेजी हुई है।

वापसी में देवमणी पांडे जी सबको एक दूसरे कवि सम्मेलन में आने का निमंत्रण दे रहे थे जो हमारे घर के पास ही नेरुल में होने वाला था। बात आयी गयी हो गयी। परसों अरविंद राही जी ने फ़ोन दनदनाया और उसी नेरुल वाले कवि सम्मेलन में आने का आग्रह किया, ये हिन्दी दिवस की पूर्व संध्या पर आयोजित सर्व भाषा साहित्य सम्मेलन था। इसमें भी कई कवि नजर आये। देवी नागरानी ने सिंधी में कविता पढ़ी तो महात्रे साहब ने मराठी में, विष्णु शर्मा ने पंजाबी में पढ़ी और किसी ने मैथली में। लेकिन सबसे ज्यादा आंनद आया हमें जफ़र रजा साहब को सुनने का।

उनके कुछ शेर जो मुझे याद रहे सुनिये

नफ़स नफ़स तुझे महसूस कर रहा हूँ मगर,
दिखाई देता है सदियों का फ़ासला मुझको।

सितम थी या कि अदा थी हिजाब था क्या था,
मेरे रहे मगर अपना नहीं कहा मुझको।


खुशनुमा दिन

वैसे कल का दिन बहुत ही खुशनुमा दिन था, सुबह एक वीडियों देखा था "जानने का हक" और ये मेरे जेहन में ऐसा अटका कि अब तक नहीं निकला। इसे देखा तो था राइट टू इन्फ़ोरमेशन के संदर्भ में, लेकिन इस ऐक्ट के बारे में लिखने का हक्क दिनेशराय द्विवेदी जी को है। हम उम्मीद कर रहे हैं कि वो हमें इसके बारे में डिटेल में बतायेगें। अभी तो आप ये वीडियो देखें, मुझे पूरी उम्मीद हैं कि आप को भी अच्छा लगेगा, वैसे ये भी हो सकता है कि आप में से कइयों ने इसे पहले देखा होगा, लेकिन अच्छी चीज एक बार और देखी जा सकती है, है न?

September 02, 2008

मोरया रे बप्पा मोरया रे



मोरया रे बप्पा मोरया रे

कल गणेश चतुर्थी है। महाराष्ट्र में गणेश पूजा का महत्त्व उतना ही है जितना बंगाल में दुर्गा पूजा का। चारों तरफ़ हर्षोल्लास का वातावरण है, ये बिगुल है कि त्यौहारों का मौसम आ चला। अब बीच में श्राद्ध पक्ष को छोड़ दें तो दिवाली तक सब तरफ़ रौनक रहेगी। चतुर्थी तो कल है लेकिन अभी से सड़कों पर बजते ढोल मजींरों की आवाज हमारे अंदर के कमरे तक आ रही है।


कल सुबह से ही आरतियों का दौर जो शुरु होगा तो दस दिन तक थमेगा नहीं। जहां एक तरफ़ लता मंगेशकर के स्वर गूंजेगें वहीं अनूप जलोटा के स्वर भी पूरे वातावरण को भक्तिमय बना देते हैं। खास कर उनका एक भजन मुझे बहुत अच्छा लगता है
"जाना था गंगा पार प्रभु केवट की नाव चढ़े " इस भजन में केवट की हौशियारी को अनूप जलोटा ने इतना मजे ले कर गाया है कि जब भी सुनते है मुस्कराये बिना नहीं रह पाते। वैसे गणेश जी की आरती तो सब जगह ही होती है लेकिन मराठी में गणेश आरती इतनी मधुर है कि जिसे मराठी नहीं समझ आती वो भी झूमे बगैर नहीं रह सकता। मेरी पंसद की दो आरतियां मराठी में प्रस्तुत कर रही हूँ , आशा है आप को भी इन्हें सुनने में उतना ही मजा आयेगा जितना हमें आता हैं। हम तो ये दोनों आरतियां दस दिनों तक हर गली कूचे में सुनेगे और इनके साथ जाती हुई बरसात का आंनद भी लेगे। सोचा आप के साथ भी ये आंनद बांट लें







अगर आप को आरतियां अच्छी लगे और इसके बोल जानना चाहेगे तो मुझे युनूस जी के दरवाजे पर गुहार लगानी पड़ेगी…।:)

July 29, 2008

कुलबुलाहट

कुलबुलाहट

इधर हम कुछ दिनों से कुछ नहीं लिख पा रहे। मन और मस्तिष्क दोनों छुट्टी पर हैं। उनके लौटने का इंतजार है। हमने कई नोटिस भेजे हैं पर दोनों टस से मस नहीं हो रहे, बिमार हैं कह कर टाल दिया जब की हम जानते हैं कि दोनों बारिश की रिमझिम का मजा ले रहे हैं।


सभी ब्लोगरस की तरह हमें भी बहुत कुलबुलाहट हो रही है। जब नहीं रहा गया तो आज हमने मस्तिष्क को फ़ोन लगाया'अरे भई, नहीं आते तो मत आओ, वहीं से हमारे एक सवाल का जवाब दो, ये बहुत परेशान कर रहा है'।

मस्तिष्क बोला मतलब अब हमारा भी वर्चुअल ऑफ़िस हो लिया, खैर क्या सवाल है ?

मैं- हम बाह्य मुखी हैं या अंतर्मुखी मतलब एक्स्ट्रोवर्ड या इन्ट्रोवर्ड?

मस्तिष्क कुछ सोचते हुए बोला हम तब जवाब देगें जब मन भी हमारी बातचीत में शामिल हो, आखिरकार ये तो पॉलिसी डिसिजन है जी।हमने मन को भी फ़ोन लगाया, विडियो कोन्फ़्रेसिंग करवाई,( कित्ते पैसे खर्च हो गये, ब्लोगिंग की लत जो न करवाये कम है)

मैं- मस्तिष्क भाई, हमें इतनी कुलबुलाहट क्युं हो रही है? एक साल पहले भी कहां लिखते थे तब तो ऐसी बैचेनी नहीं होती थी, ब्लोगजगत के दोस्तों को इतना मिस न करते थे।क्या ये बाह्य मुखी होने की निशानी है?

मन- लो! अब ये नयी बिमारी हमारे पल्ले बांध रही हो। हम तो ताउम्र ये समझे थे कि तुम अपनी तन्हाइयों में खुश रहती हो, फ़िर ये कुलबुलाहट की बात कहां से आ गयी।

मैं- वही तो हम पूछ रहे हैं क्या ब्लोगजगत ने हमें बदल कर रख दिया है और हमें पता भी न चला कि कब हम अंतर्मुखी से बाह्य मुखी हो गये।

मस्तिष्क अपनी पिछवाड़े वाली कोठरी से निकलता हुआ बोला अंतर्मुखी अपने ही विचारों और भावनाओं से ऊर्जा पाते हैं, और एक वक्त में एक ही काम करते हैं पूरी एकाग्रता के साथ्।

मन- तब तो ये अंतर्मुखी हो ही नहीं सकती, देखा नहीं तुमसे और मुझसे कितना काम करवाती हैं, एक ही वक्त में तीन तीन चार चार काम करने को कहती हैं। लेक्चर बनाने को बैठती हैं तो मुझे दौड़ा देती हैं, जरा देख कर तो आओ ब्लोगजगत में क्या हो रहा है, ज्ञान जी का मक्खीमार का रिकॉर्ड तीस तक पहुंचा कि नहीं, अनूप जी ने किसकी मौज ली, अजीत जी के बकलम में कौन आया, और भी न जाने कहां कहां जाने के लिए लंबी लिस्ट पकड़ा देतीं हैं। दौड़ते दौड़ते शाम हो जाती है पर इनकी लिस्ट तो शैतान की आंत की तरह खत्म ही नहीं होती। हांफ़ते हांफ़ते वहां का हाल सुनाता हूँ तो तुम्हें झट से दौड़ा देती हैं मेरे तो पैरों में छाले पड़ गये। मैं कहे देता हूँ मैं गणपति की छुट्टियों से पहले नहीं आने वाला। अवकाश अवधि बड़वाने की अर्जी देने वाला हूँ। देखो देखो, छुट्टी पर हूँ फ़िर भी चैन नहीं यहां भी फ़ोन ख्ड़का दिया।

मै- तुम तो शिकायतों का पुलिंदा हो जी

मस्तिष्क हम दोनों की नोंक झोंक को नजर अंदाज करते हुए बोला सोचने वाली बात ये है कि अंतर्मुखी मितभाषी होते हैं और जो भी बोलते हैं बहुत सोच विचार कर बोलते हैं।

मन तपाक से चहचहाया- देखा! मैं न कहता था ये अंतर्मुखी हैं ही नहीं, इनके जैसा बातूनी देखा है कहीं और सोच विचार का तो नाम ही मत ओलो। जब तक तुम अपने पेंच कसते हो, इनकी जबां फ़िसल चुकी होती है।

मै- अरे हमेशा थोड़े ऐसा होता है वो तो जब हम एक्साइटेड होते हैं तब्…।

मस्तिष्क - तुम दोनों यूं ही भिड़ते रहे तो मैं चला।

मैं - अरे नहीं नहीं, फ़ोन मत रखना, तुम बोलो तुम बोलो, ऐ मन चुप बैठो।

मस्तिष्क- हम्म! अंतर्मुखी को अपनी निज जानकारी जग जाहिर करने में बड़ा संकोच होता है, तो तुम्…

हम टप्प से बोले नहीं नहीं ये बात हम नहीं मानते, हमारे कई ऐसे ब्लोगर दोस्त हैं जो अंतर्मुखी हैं पर हम सबको उनकी पल पल की खबर रहती है वो भी बिना जासूस।

मस्तिष्क परेशान होते हुए बोला तब हमें नहीं मालूम, किसी और को पूछो।हम छुट्टियों में ओवर टाइम नहीं करते।

अब बताइए जनाब किस से पूछें , क्या आप बता सकते हैं हम बाह्य मुखी हैं या अंतर्मुखी?

July 13, 2008

और वो लटक लिए

और वो लटक लिए

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पता नहीं क्या बात है पर अचानक आत्महत्या की कई खबरें, चर्चाएं सुन रहे हैं। अनूप जी ने कहा, उनसे प्रेरित हो कर अकुंर जी बोले, दोनों को आई आई टी में हुई छात्रों की आत्महत्या ने द्रवित किया। पिछले ही हफ़्ते अपनी ही बिल्डिंग में एक नौकरानी के आत्महत्या के मामले ने हमें अंदर से हिला कर रख दिया, मृत्यु तो अब कई बार देख चुके पर आत्महत्या पहली बार देख रहे थे। फ़िर पिछले हफ़्ते ही अखबार में पढ़ा कि जिस पुल को पार कर हम रोज कॉलेज जाते हैं उसी से एक युवक, शायद हमारे ही कॉलेज का, अपनी प्रेमिका की आखों के सामने इस दुनिया से कूच कर गया। हम आते जाते सोचते रहे क्या वजह /मजबूरी रही होगी कि इन नयी खिलती कलियों ने ऐसा कदम उठा लिया। इनके सामने तो अभी पूरी जिन्दगी पड़ी थी, अभी तो सब सपने देखे भी न होगें, उन्हें पूरा करने की मशकत करना तो दूर की बात थी। मेरे जैसे लोग जो अपनी जिन्दगी जी चुके हैं वो ऐसा करने की सोचें तो बात समझ आती है।

एक बात तो है मरना इतना आसान नहीं है, आत्महत्या करने की सोचना एक बात है और कर जाने के लिए कदम उठा लेना दूसरी बात है, उसके लिए बड़ा जिगरा चाहिए या मन में समुद्र जितना दर्द या डर। पर आदमी इतना क्युं डर जाए कि अपनी जान ही ले ले। कौन डराता है उन्हें इतना। ज्ञान जी के शब्द अगर चुराने की इजाजत हो तो कहूंगी कि मन में ऐसी ही हलचल चल रही थी।
अनूप जी ने विश्लेषण करते हुए कहा कि लोग( खास कर आजकल की युवा पीढ़ी) असफ़लता के चलते, आर्थिक विपदाओं के चलते, तनाव, अकेलेपन के कारण,और कोई दूसरा रास्ता न समझ आने के कारण, यहां तक कि दूसरों की नकल लगाते हुए भी आत्महत्या कर लेते हैं।



अकुंर जी ने भी लगभग वही बात दोहराई, आजकल लोगों की सहनशक्ति बहुत कम हो गयी है। आपसी रिश्तों का ह्रास अकेलेपन को बढ़ाए दे रहा है। दोनों पोस्ट पर टिप्पणीयों में भी कई कारण साफ़ हुए पर दोनों पोस्ट में एक एक बात मार्के की थी, जिसका जिक्र जरूरी है, पहले तो अनूप जी की बात-
“सामूहिक लक्ष्य में असफ़लता के चलते लोगों को आत्महत्या करने के किस्से नहीं सुनने को मिलते हैं। यह नहीं सुनाई देता कि क्रांति असफ़ल हो गयी तो नेता ने आत्महत्या कर ली, मार्च विफ़ल हो गया तो लीडर ने अपने को गोली मार ली, शिक्षा का उद्देश्य पूरा न हुआ तो बच्चों की शिक्षा के लिये दिन रात कोशिश करने वाला बेचैन शिक्षाशास्त्री लटक लिया। ”
और अकुंर जी की पोस्ट में जो उन्हों ने बड़ी पते की कही वो ये कि "यदि हमने आर्थिक संपन्नता का भोग किया है तो इसके दुश्परिणामों को भी हमें ही झेलना पड़ेगा।"

ये दोनों बातें भी एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। सामूहिक लक्ष्य में असफ़लता के चलते लोग इस लिए आत्महत्या नहीं करते क्यों कि असफ़लता के लिए वो सिर्फ़ खुद को जिम्मेदार नही मानते, उल्टे ऐसा सोचते हैं कि अगर दूसरे हमारे आढ़े न आते तो हम यकीनन सफ़ल हो जाते, इस प्रकार जिम्मेदारी का विकेन्द्रिकरण कर अपने अहं को चोट पहुंचने से बचाये रखते हैं।

लेकिन जब व्यक्तिगत असफ़लता मिलती है तो किसको दोष दें , लोगों के काल्पनिक हमलों से ही बचने के लिए निपट लेते हैं। आत्म रोष तो होता ही है डर भी बेहद होता है।

मेरे ख्याल में आत्महत्या की बिमारी की जड़ में हमारा अपनी संस्कृति से दूर होना और पाश्चात्य संस्कृति को अंधाधुंद अपनाना भी है। हमारी संस्कृति सिखाती है एक दूसरे के साथ जुड़ना, अपनी पहचान अपने घर परिवार से बनाना, पाश्चात्य संस्कृति सिखाती है अलगाववाद जिसमें मैं ही मैं सबसे ज्यादा महत्त्व रखता है। खून के रिश्तों से भी प्रतिस्पर्धा,अकेलापन तो होना ही है।

हमारी संस्कृति सिखाती है विनम्रता, सफ़ल असफ़ल होने वाले हम कौन, हम तो वही करते और पाते हैं जो ऊपर वाला चाहता है, ऐसी सोच असफ़लता से पैदा हुई निराशा से बचने के लिए कवच का काम करती है, लेकिन पाश्चात्य संस्कृति तो कहती है खुद को सर्वोपरि समझो, अपने आगे किसी को कुछ न समझो, तुम्हारे जीवन में जो कुछ भी होता है उसके लिए तुम खुद जिम्मेदार हो, तब असफ़लता हाथ लगे या उसका अंदेशा भी हो तो जोर का झटका तो लगना ही है। ऐसे में शर्म के मारे बच्चा किसी से कह भी नहीं सकता कि उसे कोई परेशानी है। ऐसा कहने का मतलब होगा ये मान लेना कि वो कमजोर है, नकारा है, अपनी जिन्दगी खुद नहीं संभाल सकता और ये मान लेना तो उसे मंजूर नहीं, स्वाभिमान दंभ होने की हद्द तक जो कूट कूट कर भरा जाता है।

कुछ लोग ये समझते हैं कि लोग आत्महत्या तभी करते हैं जब उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं बचता, पर मुझे तो लगता है कि आज कल लोग आत्महत्या का विकल्प एक बड़ा ही आसान विकल्प समझा जाता है और लोग उसे हमेशा साथ में रखते हैं। जिन्दगी के संघर्षों से जुझना बड़ा लंबा और मेहनत का काम है, जिन्दगी से निपट लेने में कुछ क्षण ही तो लगते हैं फ़िर ऐसी जगह पहुंच जाते हैं जहां कोई कुछ कह भी नहीं सकता।
मुझे नहीं लगता कि आत्महत्या करने वाला (खास कर कच्ची उम्र वाला)वास्तव में ये विश्वास करता है कि आत्महत्या के बाद जिन्दगी खत्म हो जायेगी। उसे लगता है मानों स्लेट पौंछ कर दूसरी कहानी लिखी जा सकेगी।

अनूप जी ने पूछा राम तो भगवान थे वो क्युं जा कर सरयु में समा गये। वैसे तो मैं ने धार्मिक किताबें कभी पढ़ी ही नहीं( वो सब रिटारयमैंट प्लान में आता है, वानप्रस्थ आश्रम के समय) पर जो कुछ रामायण के बारे में जानती हूँ उसके आधार पर मेरा अनुमान ये है कि राम जी की समस्या ये थी कि वो सारी जिन्दगी दूसरों के लिए जीते रहे, दूसरों को खुश करने के प्रयास में जिन्दगी निपटा ली। आज भी परिस्थति कुछ ज्यादा अलग नहीं, हम में से कई लोग दूसरों के लिए ही जीते हैं, खुद को क्या चाहिए, क्या अच्छा लगता है जब ये नहीं पता तो दूसरे को कैसे खुश रक्खा जाए कैसे पता होगा, सो बड़े क्न्फ़्युज्ड रह्ते हैं लोग। सिर्फ़ एक ही बात साफ़ होती है हम सबके दिमाग में , जन्म अपनी मर्जी से नहीं लिया, जीते भी हैं औरों की मर्जी से। अपने हाथ में तो बस एक ही चीज है अपनी मौत, जब चाहो गले लगा लो।
कई बार तो बच्चे सिर्फ़ अपने अति व्यस्त मां बाप को दु:ख पहुंचाने के लिए जिन्दगी से निपट लेते हैं जैसे कुछ घर से भागने की योजना बनाते हैं। इन्हें लगता है घर से भाग कर कहां जाएगें तो चलो जिन्दगी से भाग लो, आसान रहेगा। टिकट भी न कटाना पड़ेगा।

खैर इस विषय पर तो ढेर सारी चर्चा हो सकती है और होनी भी चाहिए। इस चर्चा को शुरु करने के लिए अनूप जी को साधुवाद देना होगा।

July 07, 2008

नकुल कृष्णा - भाग ५



नकुल कृष्णा - भाग ५


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आप लोगों की बात मानते हुए, इस कहानी को थोड़ा और आगे ले जा रहा हूँ। छह में से चार सिफ़ारिश के पत्रों को यहाँ पेश करना चाह रहा था। इनमे से तीन कॉलेज के वरिष्ठ शिक्षक के लिखे हुए थे और चौथा उसके नाटक का दिग्दर्शक का लिखा हुआ था। दो और हैं जिनपर "गोपनीय़" का छाप लगा हुआ था और उनकी प्रतियाँ हमें उपलब्ध नहीं हुई। दोनों बेंगळूरु के कला और साहित्य के क्षेत्रों में बड़ी हस्तियाँ माने जाते हैं। इन लोगों ने क्या लिखा था, नकुल को भी नहीं पता था लेकिन विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि दोनों ने नकुल की ज़ोरदार तारीफ़ की थी।




पत्र लिखने वालों का नाम मिटाकर और यहाँ वहाँ कुछ असंगत/अप्रासंगित बातों को भी मिटाकर यहाँ पेश करना चाहता था।



नकुल का लिखा हुआ निबन्ध मेरे पास अब नहीं है। उसे भी यहाँ प्रस्तुत करना चाहता था। नकुल को यों ही एक चिट्टी लिखी थी मैंने, इसकी एक प्रतिलिपि की माँग करते हुए। लगता है कि वह भाँप गया है कि मैं क्यों पूछ रहा हूँ। तपाक से उत्तर दिया है कि यह सभी Rhodes Trust के निजी और गोपनीय दस्तावेज़ हैं और इसे किसी सार्वजनिक मंच पर छापना वर्जित है। उसका कहना सही है। इस कारण, चाहते हुए भी, उन्हें ब्लॉग पर पेश नहीं करूँगा। यदि भविष्य में कभी अवसर मिला, और रुचि रखने वालो ब्लॉग जगत के मेरे नये मित्रों से भेंट होती है, तो अवश्य पढ़वाऊँगा।



एक दिन उसे पता चल ही जाएगा कि मैं अनिताजी के ब्लॉग पर क्या क्या उसके बारे में लिखा हूँ। अवश्य मुझे कोसेगा यह कह्कर "अपने मुँह मियाँ मिठ्ठू" वाली बात हुई न यह? क्यों शरमिन्दा कर रहे हैं आप मुझे?" मैं कोई उत्तर नहीं दूँगा। इस उम्र में हमारी मानसिक स्थिति वह क्या समझेगा? एक बाप को उसकी आशाएं, सपने और आकांक्षाएं अपने होनहार बेटे के जरिए साकार होता देखकर जो मन की स्तिथी वह तब समझेगा जब स्वयं एक और भी होनहार बेटा या बेटी का बाप बनेगा, भविष्य में।



नकुल आजकल छुट्टी मना रहा है और सुना है कि Oxford से कुछ दूर, एक गाँव में, अपने नए अन्तरराष्ट्रीय दोस्तों के साथ किसी खेत में अतिथि बनकर एक आधुनिक मकान में रह रहा है और वहाँ खेती, और पशु पालन के काम में अपने यजमान का हाथ बँटा रहा है। सब तरह का अनुभव चाहता है वह। मेरी पत्नि (जो आजकल USA में मेरी बेटी के साथ रह रही है, कुछ समय के लिए) टेलिफ़ोन पर आज इसकी सूचना दी थी। नकुल को पैसा नहीं मिल रहा लेकिन रहने और खाने पीने का पूरा और नि:शुल्क इन्तज़ाम यजमान ने कर दिया है। चलो अच्छा हुआ। आजकल शहर के बच्चे किसी किसान या ग्वाला को गाय का दूध दुहाते देखा भी नहीं होगा। आशा करता हूँ कि नकुल को स्वयं किसी स्वस्थ गोल-मटोल अंग्रेज़ी गाय से दूध दुहाने का अनुभव भी मिल जाएगा।



छ्ह महीने पहले उसने मुझे एक और मज़ेदार बात बतायी। किसी प्रोफ़ेस्सर अपने परिवार के साथ क्रिस्मस की छुट्टियों में कैंपस से कुछ दिनों के लिए बाहर जा रहे थे और परिवार की बिल्ली को दिन में दो बार दूध पिलाने की और उस पर नजर रखने की जिम्मेदारी उसे सौंपा गये। बढ़ी खुशी के साथ नकुल ने बताया कि इस काम लिए उस ७५ पौंड मिले थे!




इस कहानी को समाप्त करते हुए, यह दो आखरी तसवीरें पेश कर रहा हूँ।



लगता है Oxford जाकर भी उसका लिखने का शौक मिटा नहीं।New statesman पर उसकी लिखी हुई दो निबन्ध के अंश यहाँ पेश कर रहा हूँ। विस्तार से अगर आप पढ़ना चाहते हैं तो कड़ी देखिए। दूसरी कड़ी में Rhodes Scholarship पर उसका हाल ही में छपा हुआ लेख भी पढ़िए।


कड़ी है :






नकुल पर इन लेखों के लिए प्रोत्साहित करने के लिए, अनिताजी को और आप सब पढ़ने वालों और टिप्पणी करने वालों को मेरा विनम्र नमन और हार्दिक धन्यवाद।


दो साल पहले मेरी माँ चल बसी थी। नकुल तो उनके लिए आँखों का तारा था। माँ की आजकल बहुत याद आती है। काश वह यह सब देखने के लिए जीवित होती। मुझे यकीन है कि स्वर्ग से भेजे गए उनकी दुआअओं का नतीजा है यह सब। गज़ब की महिला थी मेरी माँ। दो साल पहले मरणोप्रान्त, शोक पत्रों के उत्तर देते हुए और माँ को श्रद्धाँजली अर्पित करते हुए सभी निकट के रिश्तेदारों और दोस्तों को मैंने चिट्टी लिखी थी (अंग्रेज़ी में)। शायद यह पठनीय साबित हो। अनिता जी के अंग्रेज़ी चिट्ठे (Chirpings) पर इसे छापने के बारे में सोच रहा हूँ। आशा करता हूँ कि आप लोग इसे भी पढ़ने में रुचि रखेंगे।



शुभकामनाएँ

गोपालकृष्ण विश्वनाथ

July 04, 2008

नकुल: भाग 4

नकुल: भाग ४
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इस चौथे किस्त में आपको यह बताना चाहता हूँ कि समाज सेवा और पर्यावरण रक्षा के क्षेत्र में नकुल की क्या भूमिका रही।
मैं नहीं सोचता कि उसने यह सब इस छात्रवृत्ति हासिल करने कि लिए किया था क्योंकि इन गतिविधियों में बहुत पहले से वह सक्रिय था।हाँ, बाद में उसे अवश्य लाभ हुआ।
समाज सेवा
करीब तीन साल पहले अचानक एक दिन वह एक भारी भरकम lap top घर ले आया। मैंने सोचा अपने किसी दोस्त का laptop उठाकर लाया है कुछ दिनों के लिए । लेकिन कुछ दिन बाद मैंने नोट किया वह लैपटॉप उसके पास अब भी है और घर में उसका उपयोग कभी करता नहीं था। उसके बारे में पूछा तो पता चला कि यह लैपटॉप किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की संपत्ति है (Microsoft ? या IBM? ठीक से याद नहीं) और अमानती तौर पर उसके पास कुछ समय के लिए रहेगा एक खास प्रोजेक्ट के सिलसिले में। शुरू शुरू में उस प्रोजेक्ट के बारे में वह बहस नहीं करना चाहता था हम लोगों के साथ शायद यह सोचकर के हम लोग इसका अनुमोदन नहीं करेंगे। वह शायद सोचता था कि हम उसको अपनी पढ़ाई की ओर ज्यादा ध्यान देने को कहेंगे ।
"नकुल अण्णा"
प्रोजेक्ट था Spreading computer awareness among the children of under privileged sections of society।
नकुल इस प्रोजेक्ट में स्वयंसेवक बन गया था। इस काम के लिए उसे कुछ निर्धारित समय देना पढ़ता था और इसके लिए कंपनी उसे बदले में कुछ नहीं देती थी। हमारे घर से करीब एक किलोमीटर दूर, किसी स्लम जैसी एक कोलोनी में जाकर, वहाँ अति निम्न-वर्गीय जाती और झुग्गी झोपडियों में रहने वाले बच्चों को कंप्यूटर सिखाता था। सप्ताह में कोई तीन या चार घंटे समय निर्धारित किया था। किसी समाज सेविका से जुडकर, और इस झुग्गी कोलोनी के मुखिया की अनुमति लेकर, वहाँ एक अलग साफ़ सुथरा स्थान का इन्तजाम हुआ जहाँ बिजली का इन्तज़ाम भी हो गया। इन गरीब बच्चों को (१० से लेकर १६ साल तक और जो सरकारी स्कूलों में पढते थे) कंप्यूटर का मूल ज्ञान देने लगा। बहुत ही छोटे बच्चों को PC Paintbrush के बारे में बताकर, उनको mp3 संगीत सुनाकर, विडियो क्लिप्स दिखाकर उनका मनोरंजन करता था और बडे बच्चों को फ़ाईल मैनेजमेंट, Word, Excel, वगैरह के बारे में बताने लगा।
बच्चे बडे चाव से यह सब सीखने लगे थे और जब भी वह वहाँ जाता था सारे मुहल्ले में उसका जोरदार स्वागत होता था और बहुत ही छोटे बच्चे तो "नकुल अण्णा" "नकुल अण्णा" (नकुल भाई) पुकारते पुकारते उसके पीछे पीछे भागते आते थे।
मुझे बाद में पता चला इसके बारे में और एक दो बार मैं भी उसके साथ चलकर देखा वहाँ का माहौल । मुझे आश्चर्य हुआ। कितने प्यार से यह बच्चे उसका स्वागत करके और कितने चाव और रुचि के साथ उससे सीखते थे। बच्चों की लाइन लग जाती थी कंप्यूटर पे हाथ चलाने के अवसर के लिए। महिलाएं कमरे के बाहर खडी होकर खिड़कियों से अन्दर झाँककर देखती रहती थी अपने अपने बच्चे क्या सीख रहे हैं। मर्द तो हमारे लिए चाय-नाश्ता का इन्तजाम करने में लग जाते और कमरे के बाहर की भीड का नियंत्रण करने में लगे रहते थे। हम दोनों को एक अलग ही दुनिया का अनुभव हुआ।
आजकल बैंगलौर में इस श्रेणी के लोगों के बच्चे शिक्षित बनते जा रहे हैं।हर महीने के अंत में नकुल कंपनी के कुछ अफ़सरों और इस इलाके की समाज सेविका को रिपोर्ट करता था। प्रोजेक्ट कई महीनों तक चला था और अंत में नकुल को एक विशेष समारोह में बुलाकर उसे बधाई पत्र और सर्टिफ़िकेट देकर उसका सम्मान किया गया। इस नेक काम, बिना पूर्व योजना बनाए हुआ, सेलेक्शन में बहुत ही उपयोगी साबित हुआ।
उसका संगीत प्रेम भी कमैटी ने नोट किया था। संगीत विद्यालय में स्वयं उच्च शिक्षा पाने के साथ साथ, वह नवागुन्तों को और बच्चों को संगीत सिखाता था इसी विद्यालय में जिसके कारण इस विद्यालय से भी प्रमाण पत्र मिला था।
GreenPeace
पर्यावरण के संबन्ध में उसके कुछ निबन्ध छपे थे। वह GreenPeace का सक्रिय सदस्य था और कई seminars में उसने भाग लिया था।जब भी GreenPeace को अपने काम में स्वयंसेवकों की आवश्यकता थी, वह सामने आ जाता था। इसके भी प्रमाण पत्र थे उसके पास।
बिना योजना बनाए हुए ही, और अन्जाने में ही, उसकी गतिविधियाँ इस छात्रवृत्ति के लिए एक किस्म की तैयारी बन गई जो ऐन वक्त पर बहुत काम आया था।
इसके अलावा अंतिम साक्षातकार से पहले उसे एक निबन्ध लिखना पढ़ा था। विषय था क्यों वह अपने को इस छात्रवृत्ति के लिए योग्य समझता है। इस निबन्ध पर सेलेक्शन कमैटी से बहस होती है। बड़ा कठिन विषय है। कैसे बिना डींग मारे, विनम्रता और आत्मविश्वास के साथ उसने अपने को योग्य ठहराया था, यह निबन्ध पढ़ने सी ही ज्ञात होगा।
मैं कोशिश करूँगा नकुल से निबंध की एक प्रतिलिपी पाने की। चालाकी से हासिल करना पढ़ेगा। उस समय पढ़ा था इस निबन्ध को और अब मेरे पास उसकी प्रतिलिपी नहीं है। मैं तो बहुत प्रभावित हुआ था इस लेख को पढ़कर और मौका पाकर आप सब को भी पढ़वाऊँगा।
इस पोस्ट के साथ मैं कुछ तस्वीरें पेश कर रहा हूँ जो मेरे पास तैयार हैं।बहुत कुछ इसपर लिखा जा सकता है पर मैं समझता हूँ अब इस लेख को समाप्त करूँ। जो रुचि रखते हैं और मुझसे सीधे संपर्क करके पूछते हैं उनको और आगे कुछ बता सकूँगा जो बहुत ही व्यक्तिगत है और ब्लॉग पर छापना शायद आप लोगों की राय में मुनासिब न होगा।
यहाँ इसके बारे में इतना ही बताना काफ़ी है कि पिछले ८ साल से, मेरे पेशे से संबन्धित मैं कुछ अंतरराष्ट्रीय ई मेल चर्चा समूहों का सदस्य हूँ और कभी कभी विषय से हटकर हम इधर -उधर की बातें भी करते हैं। मेरे करीब सौ अन्तरराष्ट्रीय मित्र होंगे जिनसे मैं इस चर्चा समूह के बाहर, सीधा संपर्क करके non - technical और व्यक्तिगत बातें भी करता हूँ। यह पत्र व्यवहार अंग्रेज़ी में होता है। मैंने नकुल के बारे में यह खुशखबरी सब को दी थी।उत्तर में संसार के कोने कोने से, जान पहचान वालों और कुछ अज़नबियों से भी मुझे उत्तर प्राप्त हुआ जो शायद पठनीय हो। अगर आप लोग ठीक समझते हैं तो इस श्रृंखला में एक और किस्त जोड़ सकता हूँ और इन उत्तरों का सार छापता हूँ। अन्यथा इस कहानी को मैं यहीं समाप्त कर रहा हूँ।
अनिता जी को विशेष धन्यवाद देना चाहता हूँ। न सिर्फ़ उन्होंने इस विषय का चयन किया था बल्कि मुझे प्रोत्साहित भी किया कि इस विषय पर विस्तार से लिखूँ। वह आश्वासन भी देती रही कि यह विषय रोचक और पठनीय है। ब्लॉग जगत में अब तक मेरा कोई ठिकाना नहीं है और निकट भविष्य में होगा भी नहीं । इधर - उधर यायावर बनकर भटकता हूँ और Nukkad।info के पंकज बेंगाणी, ज्ञानदत्तजी और अनिता कुमार जी जैसे मित्रों का अतिथि बनकर काम चला लेता हूँ।और अंत में, इस लेख के सभी पढ़ने वालों और टिप्प्णी करने वालों को भी मेरा हार्दिक धन्यवाद।
गोपालकृष्ण विश्वनाथ,
जे पी नगर,
बेंगळूरुई
मेल आई डी:gvshwnth AT याहू डॉट कॉम
geevishwanath AT जीमेल डॉट कॉम

कुछ तस्वीरें
































July 02, 2008

नकुल कृष्णा: भाग 3

नकुल कृष्णा: भाग ३
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तीसरे किस्त में आपको यह बता दूँ कि नकुल ने ऐसा क्या किया अपने को इस छात्रवृत्ति के योग्य बनने के लिए। जैसा मैंने बताया, योग्यता के लिए तीन शर्तें और छह लोगों से सिफ़ारिश की चिठ्ठियों की जरूरत थी।




पहली शर्त

पहली शर्त थी शिक्षा में लगातर उत्तम प्रदर्शन। इसे साबित करना सबसे आसान था।स्कूल और कॉलेज के रिपोर्ट कार्डस से यह साफ़ ज़ाहिर था कि नकुल सदैव एक उत्तम विद्यार्थी रहा है और स्कूल और कॉलेज में उसके सदा अच्छे नंबर आये हैं। यह जरूरी नहीं था कि छात्र कोई गोल्ड मेडलिस्ट रहा हो या बोर्ड परीक्षाओं में टॉप्पर रहा हो। बस consistently excellent academic performance काफ़ी था।



दूसरी शर्त


दूसरी शर्त थी कि नियमित पाठ्यक्रम के बाहर की गतिविधियों (extra curricular activities) में राष्ट्रीय स्तर पर सफ़लता। बस इसमें तो नकुल ने आसानी से बाजी मार ली। स्कूल और कॉलेज में वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में शायद ही कभी उसने पहला पुरस्कार नहीं जीता हो। जब हाई-स्कूल में था तो डिस्कवरी चैनल के आयोजित अखिल भारतीय वाद-विवद प्रतियोगिता में बैंगलौर में पहले नंबर पाकर, चेन्नैई में हुई ऑल इन्डिया फ़ाईनल्स में अपने शहर का प्रतिनिधित्व करके , चौथा नंबर पाया था और बाद में पता चला judges में भी मतभेद हुआ था और उनमें से एक ने नकुल को पहले या दूसरे नंबर पर रखना चाहा था। अन्तिम निर्णय जब घोषित हुआ तो वह तीसरा स्थान पाने से बाल-बाल चूका था।



रंगमंच


English Theatre उसके लिए passion और एक तरह का नशा था। Shakespeare के कई Dialogues तो उसे कंठस्थ था। अपने दोस्तों के एक theatre group में शामिल हो गया। उन लोगों का व्यंग्य-नाटक "Butter and Mashed banana" तो सारे भारत में अंग्रेज़ी रंगमंच की दुनिया में hit हुआ था। देश में कई जगहों पर उसका प्रदर्शन हुआ था। National Center for Performing arts, Mumbai में एक अखिल भारतीय Theatre festival में इस नाटक ने तीन awards जीते थे। Best play, Best direction और नकुल को इस festival का Best actor घोषित किया गया। Mumbai Mirror में उसकी एक रंगीन तसवीर भी छपी थी, हाथ में अवार्ड लिए हुए। Rave reviews भी पढ़ने को मिले थे। काश मैं यह तसवीर संलग्न कर सकता।



मेरे कंप्यूटर से किसी कारण मिट गया है और मुझे तारीख याद नहीं, नहीं तो इस अखबार के online edition से download कर लेता। नकुल से पूछने से डरता हूँ इसके विवरण। उसे यह अभी तक मालूम नहीं के उसके बारे में मैं इतना सब कुछ लिख रहा हूँ । अगर पता चला तो नाराज़ हो जाएगा। वह तो मुझसे भी ज्यादा विनम्र है और एकदम publicity shy है।


इसी नाटक का प्रदर्शन मुंबई में Kala Ghoda festival में भी हुआ। मुम्बई के Prithivi Theatre, पुणे में Film and Television Institute, और पॉन्डिचेरी में भी हुआ था। Indian Institute of Management में भी उसे विशेष आमंत्रण मिला इस नाटक का प्रदर्शन करने के लिए और हमने सुना है नाटक चलते चलते इसका सीधा प्रसारण भी भारत के अन्य IIM में भेजा गया था। इसके अलावा नकुल एक उच्च कोटी का लेखक है।


स्वावलंबी


जबसे कॉलेज जाने लगा, मुझसे एक रुपया भी जेब खर्च के लिए माँगा नहीं। Print media में और कई web sites पर उसके लेख मिल जाएंगे। अठारह साल की आयु से ही जेब खर्च पैसा खुद कमा लेता था। Outlook Traveler के लिए वह राज्य में भ्रमण करके लेख भेजता रहा और अपने जेब खर्च के पैसे कमा लेता था। अन्तर्जाल में Openspace।org पर भी उसके कुछ लेख मिल जाएंगे जिससे वह कभी कभी कुछ कमा लेता था। नकुल एक कवि भी है और उसके कई प्रशंसक हैं। बैंगलौर में कई बार अपनी अंग्रेज़ी कविताओं को जाने माने कवियों के सामने पढ़ने का मौका मिला। बैंगलौर में प्रतिष्ठित book release functions में हाजिर होता था और उसको प्रसिद्ध लेखकों के साथ मंच पर बैठे देखा हूँ अखबार के चित्रों में। लेखक के नए किताबों से कुछ अंश पढ़ने के लिए भी उसे आमंत्रण मिलता रहा है। जब विश्वविख्यात लेखक विक्रम सेठ बैंगळूरु आये थे, उनके पीछे पढ़ गया था और जब तक अपनी निजी कॉपी को उनसे हस्ताक्षर नहीं करावाया उस महान हस्ती से, वह वहीं डटा रहा।



बैंगलौर में English theatre circles में वह एक जाना पहचाना व्यक्ति है और कभी कोई मौका नहीं छोड़ता भारत के विख्यात अंग्रेज़ी रंगमंच के सितारों से मिलने में और उनके साथ समय बिताने में। कभी सारा दिन उनके साथ चक्कर काटता रहता था और अपने मोबईल भी बन्द रखता था ताकि उसकी माँ उसे यह भी नहीं पूछ सके कि भाई कब घर आ रहे हो? खाना ठंण्डा हो रहा है! सुना है कि आमोल पालेकर, नसीरुद्दीन शाह, अलइक पदमसी जैसे लोगों से मिलने का अवसर भी मिला था उसे। मुबई में Prithvi Theatre में उसको शशी कपूर के सामने अपना अभिनय का प्रदर्शन करने का अवसर मिला था। और भी उदाहरण दे सकता हूँ लेकिन यह Name Dropping से मुझे भी चिढ़ है!



अब क्या कहें?


कई बार, उसको मुम्बई जाना पढ़ता था नाटक के सम्बन्ध में और कभी कभी हम डर गये थे कि इसकी पढाई की क्या होगी? कहीं यह भटक तो नहीं रहा है? मुझे तो इन रंगमंच वालों का डर भी रहता था। हम लोगों से भिन्न हैं यह लोग। यहाँ बैंगलौर में उसका संपर्क रंगमंच के कुछ लंबे बाल और दाढ़ी वालों से, पायजामा/कुर्ता और चप्पल पहने हुए और कंधे पर एक कपडे का थैला लटका कर घूमने वाले लोगों से होता रहता था। मुझे कुछ अजीब लगता था पर उसे रोकने के लिए मेरे पास कोई logical कारण नहीं था। हमने तय किया थ कि पढ़ाई में उन्नति के हिसाब से उससे निपटेंगे। आखिर प्राथमिकता पढ़ाई को दी जानी चाहिए, न इस ड्रामेबाजी को! उसके लिए तो सारी जिन्दगी पड़ी है, पढ़ाई पूरी करने के बाद। पर हमें उसे डाँटने का अवसर मिला ही नहीं! कॉलेज में हर exam और test में अव्वल नंबर पाता रहा और वह तो अपने शिक्षकों का favourite बना रहा। मुझे नहीं मालूम कहाँ से समय निकाल लेता था अपने पाठ्यक्रम के लिए। रात को देर तक सोता नहीं था और पढ़ाई करता रहा होगा। कई बार उसके बन्द कमरे में बत्ती जलती मिली हमें रात बारह बजे के बाद भी।



एक बार उसको और उसके साथियों को किसीने हवाई टिकट खरीदकर, और मुम्बई के Oberoi Sheraton में कमरा बुक करके अपना नाटक stage करने के लिए बुलाया था। हम तो आश्चर्यचकित रह गए। हमें तो ऐसे होटलों को बाहर से निहारने का अवसर ही मिला था अपने जीवन में। कभी हिम्मत भी नहीं होती थी इन Five Star होटलों के अन्दर झाँकने की भी! Fancy मूँछो और पगड़ी वाला दर्वान तक ही हमारी पहुँच थी! सुबह का निकला नकुल रात को ही विमान द्वारा वापस आया था हाथ में १६,०००/- रुपये की नकद के साथ! वह अपने कमाए हुए पैसे ज्यादातर किताबों और डीवीडी/कैसेट पर खर्च करता था।


संगीत


संगीत तो उसका एक और शौक है। इतना अच्छा गाता है कि पूछिए मत।मेरी स्वर्गवसी माँ के आँखों में आँसू आ जाते थे उसके कुछ गाने सुनने के बाद. आवाज़ भी अतयंत मधुर है और शास्त्रीय संगीत की theory का बहुत ही अच्छा ज्ञान है। १२ साल की आयु में ही, उसने हमें यह कहकर चौंका दिया था कि मैं शास्त्रीय संगीत सीखना चाहता हूँ। आजकल बच्चे फ़िल्म संगीत या pop music में ही रुचि रखते हैं। शास्त्रीय संगीत तो हम उनपर जबरदस्ती करके थोंपते हैं खासकर हमारी संप्रदाय में। लेकिन यहाँ तो वह स्वयं हमारे पास आकर इसकी माँग की। इस मौके का फ़ायदा उठाकर, झट से मेरी पत्नि यहाँ एक जाने माने कर्नाटक शैली में गाने वाली रेडियो आर्टिस्ट से संपर्क करके उसे एक संगीत विद्यालय में भर्ती करा दी। आठ साल से संगीत सीख रहा है और पिछले दो या तीन साल से मंच पर भी कई बार, तबला, मृदंग और तंबूरे के साथ अपना हुनर का प्रदर्शन कर चुका है। एक कैसेट और सीडी भी रिलीस हुआ है उसका। लेकिन उसका नाम कर्नाटक संगीत जगत में अभी तक पह्चाना नहीं जाता। और कई साल का परिश्रम आवश्यक है इसके लिए और अब उसकी प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं। हमने उससे संगीत से अपना संपर्क जारी रखने की सलाह दी है और उससे कह दिया के जब कभी मौका या समय मिलता हैं अपना अभ्यास जारी रखना। एक दिन वह समय जरूर आएगा जब वह संगीत से अपना सम्बन्ध फ़िर से जोड़ने के लिए तैयार हो जाएगा।

उसका रंगमंच में राष्ट्रीय स्तर पर सफ़लता के कई प्रमाण तैयार थे दिल्ली में साक्षातकार के समय।अपने कॉलेज के वरिष्ठ प्रोफ़ेस्सरों से इतनी बढिया सिफ़रिश की चिठ्ठियाँ जुटाकर ले गया कि कोई भी प्रभावित हो जाएगा। इन चिठ्ठियों के कुछ अंश बाद में संलग्न करूंगा अपने अंतिम किस्त में। मुझे यकीन ही नहीं होता है कि आजकल के शिक्षक इस तरह के भावपूर्ण सिफ़ारिश की चिठ्ठियाँ लिखने के लिए तैयार हो जाएंगे।


प्रधानमंत्री से मुलाकात


अगली किस्त में यह बताऊँगा कि तीसरी शर्त, यानी, समाज सेवा और पर्यावरण के संबन्ध में उसने क्या किया अपने को और भी योग्य साबित करने के लिए। जाते जाते एक और मज़ेदार बात आप को बता दूँ।ज्ञानजी के ब्लोग पर मैंने ए पी जे अबदुल कलाम के साथ मेरा १९८६ में भेंट के बारे में बताया था जब वे राष्ट्रपति नहीं थे।२१ सितंबर, २००७ को नकुल को इससे भी अच्छा मौका मिला था किसी सेलेब्रिटी से मिलने का। अगले दिन उसे Oxford जाना था और एक दिन पहले हम तीन (नकुल, मेरी पत्नि ज्योति और मैं) दिल्ली पहुँचे थे। नकुल सीधा हवाई अड्डे से सफ़दरजंग रोड के लिए रवाना हुआ प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह से मिलने। सभी पाँच स्कॉलरों को प्रधान मंत्री के साथ १० मिनट बिताने का मौका मिला था। दिल्ली में स्थित Rhodes selection committee ने इसका आयोजन किया था। मनमोहन सिंहजी स्वयं Rhodes Scholarship में दिलचस्पी लेते हैं। किसी जमाने में वे सेलेक्शन कमैटी के अध्यक्ष रहे थे। Security वालों ने किसी को camera तक अन्दर ले जाने नहीं दिया और इस भेंट का हमारे पास कोई तस्वीर नहीं है।

बाद में उसी शाम एक send off party के अवसर पर लिए गए दो चित्र संलग्न कर रहा हूँ।

पहले में भारत के वर्ष २००७ के पाँच Rhodes Scholars की तसवीर देखिए ।













बाएं से:


१)कुमारी अनिषा शर्मा (दिल्ली के St Stephens college की छात्रा)
२)बैंगलौर से राहुल बत्रा (एक computer science engineer) जो Afro Asian Games में तैराकी में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुका है)
३)बैंगलौर के National Law school से कुमारी रम्या रघुराम
४)हैदराबाद के NALSAR से राघवेंद्र शंकर
५)मेरा बेटा नकुल (नीले कुर्ते में)



दूसरी तसवीर में नकुल तो नहीं दिखाई दे रहा है लेकिन मेरी पत्नि ज्योति को आप देख सकते हैं (orange saree with blue border)










फ़िर मिलेंगें एक दो या तीन
दिन के बाद।

सबको मेरी शुभकामनाएं

गोपालकृष्ण विश्वनाथ











June 30, 2008

नकुल कृष्णा: भाग २

नकुल कृष्णा: भाग २
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अनिता जी को, और सभी शुभचिंतकों को आभार।आप कि प्रतिक्रियाएं पढ़कर दिल भर गया।दिल हलका भी हुआ यह जानकर के कोई मुझे गलत नहीं समझेगा।मुझे डर था कि कहीं कोई यह न समझे के मैं अपने ही बेटे का नाजायज़ बडप्पन कर रहा हूँ।

अब आप लोगों से आश्वासन मिल गया है कि यह लेख पठनीय और उपयोगी होगा और अब यह लेख जारी रखने के लिए मुझे प्रोत्साहन भी मिल गया ।
पहले Rhodes छात्रवृत्ति के बारे में कुछ मूल जानकारी देना चाहता हूँ।जो और भी अधिक जानकारी चाहते हैं वे मुझसे सीधा संपर्क कर सकते हैं मेरा e mail id अंत में दे रहा हूँ।

Cecil Rhodes, एक अंग्रेजी व्यापारी थे जो अफ़्रीका में कई साल रहकर बहुत धन जुटाने में सफ़ल हुए थे। Rhodesia उनके नाम पर ही बना था (अब नाम बदलकर Zimbabwe बन गया है)। १९०२ में उनके देहांत के बाद उनकी अपार संपत्ति में से उनके वसीयतनामे के अनुसार, Rhodes छात्रवृत्तियाँ घोषित की ।

यह केवल USA, Canada, और अन्य Commonwealth राज्यों के छात्रों के लिए आरक्षित हैं और केवल Oxford University में पढ़ाई करने के लिए दी जाती है। विश्व में किसी और विश्वविध्यालय के लिए नहीं दी जाती। हर साल करीब ९० छात्रवृत्तियाँ घोषित की जाती है जिसमें से ३२ USA के लिए, Canada, Australia, South Africa के लिए ९(प्रत्येक) और भारत के लिए केवल ५ घोषित हुई है। अन्य Commonwealth राज्यों (जैसे सिंगापोर, मलेयसिया, वगैरह के लिए और भी कम हैं)। सभी विषयों के लिए (जो Oxford University में पढ़ाई जाती है), यह छात्रवृत्ति उपलव्ध है (Science, Engineering, Humanites, Law, Agriculture, Medicine)।
यह दो साल के लिए दी जाती है और विशेष परिस्थितियों में तीन साल के लिए। छात्र/छात्रा की आयु १९ से लेकर २५ तक हो सकती है। आजकल छात्रवृत्ति की रकम है करीब १००० pounds प्रति महीना।इसके अलावा कॉलेज के फ़ीस नहीं देनी पढ़ती और अपने देश से आने जाने का खर्च भी दिया जाता है।
मेरे बेटे ने बताया कि यह रकम भारत के छात्रों के लिए जरूरत से ज्यादा है और इस रकम से वह आराम से रह सकता है और काफ़ी कुछ बचा भी लेता है।

हर देश में Rhodes Trust की एक Selection committee होती है और अगस्त के महीने में अर्जियाँ स्वीकार की जाती हैं, सितम्बर में क्षेत्रीय Interviews होते हैं (मुम्बई, दिल्ली, कोलकाता, और बैंगलौर में) और छाँटने के बाद अन्तिम Interview और selection दिसम्बर में दिल्ली में की जाती है।committee में देश के जाने माने हस्तियों को शामिल किया जाता है। एक ज़माने में प्रधान मन्त्री मनमहोन सिंह इस कमिटी में थे (शायद committe की अध्यक्ष भी थे?)। आजकल Infosys के Chairman श्री नारायणमूर्ति, रंगमंच के प्रसिद्ध कलाकार और लेखक गिरिश कर्नाड, इस कमिट्टी के सदस्य हैं। इन्होंने मेरे बेटे नकुल का जोरदार interview लिया था।

Cecil Rhodes की वसियतनामे के अनुसार, इन छात्रों के निम्नलिखित गुण/योगयताएं होनी चाहिएं।

1)Exceptionally brilliant and consistent Academic record throughout (School and College)

2)Outstanding achievements at national level in extra curricular activites ।

3)Proven record of social service and committment to social causes and एनवायरनमेंट।

Rhodes trustके नियमों के अनुसार (उन्हीं के शब्दों में):-------------------------------------Qualities of intellect, character and leadership are what the committee will be looking for in a candidate। A Rhodes Scholar should not be one-sided or selfish। Intellectual ability must be founded upon sound character and integrity of character upon sound intellect। Cecil Rhodes regarded leadership consisting of moral courage and interest in one's fellow beings, as the more aggressive qualities. It was his hope that a Rhodes Scholar would come to esteem the performance of public duties as the highest aim. -------

इसके अलावा, हर छात्र की अर्जी के साथ समाज के किसी अच्छे जाने माने, और अपने अपने क्षेत्रों में सक्षम, कामयाब और जिम्मेदार नागरिकों से समर्थन और सिफ़ारिश की आवश्यकता है लेकिन पर्याप्त नहीं। यह जरूरी नहीं के वे celebrities हों लेकिन उनका उम्मीद्वार को निजी तौर से जानना जरूरी है।अपनी अर्जी के साथ छात्र/छात्रा को १००० शब्दों के अन्दर एक निबन्ध लिखना पड़ता है जिसपर सेलेक्शन कमिटी अपने अंतिम साक्षातकार के समय छात्र के साथ बहस करेगी।ज़ाहिर है के जो भी छात्र यह सभी शर्तें पूरी करता है, और सफ़ल हो जाता है, वह कोई साधारण छात्र नहीं होगा। देश के हर कोने से हर विषय में रुचि रखने वाले हज़ारों छात्रों से अर्जियाँ मिलती होंगी और छाँटकर कुछ छात्र/छात्रओं को देश के चार क्षेत्रीय बुलाया जाता है।

जब इस छात्रवृत्ति के लिए अर्जी देने के लिए नकुल ने इच्छा जाहिर की, तो मैं ने केवल मुस्कुराकर उससे कह दिया, हाँ जो भी खर्च हो बता देना, हम तैयार हैं और "Best of Luck!"। उत्तर में वह भी मुस्कुराकर धन्यवाद कहा। उस समय मैं इस Scholarship के बारे में इतना सब जानता ही नहीं था। सुन चुका था इसके बारे में लेकिन कभी इसके बारे में अधिक जानने की कोशिश नहीं की थी। हम धरती पर रेंगने वाले, तारें तोड़ने के बारे में क्या सोचेंगे!

मैं जानता था के मेरा बेटा होनहार है लेकिन कभी सोचा भी नहीं था के यह इस हद तक कामयाब होगा। अर्जी भेजने में हमारा क्या बिगडेगा? मुझे ठीक याद नहीं हमने अर्जी देने में कितने खर्च किए लेकिन वह तो शायद एक हज़ार रुपयों सी ज्यादा नहीं हुआ होगा। अर्जी देने के बाद मैं इस मामले को भूल गया था।

सेप्टेंबर के महीने में जब preliminary interview के लिए उसे बैंगलौर में Indian Institute of Science में बुलाया गया, मैं भी साथ गया था उसे अपनी गाड़ी में पहुँचाने के लिए। वहाँ दक्षिण भारत के चमकते सितारों की भीड़ जब मैने देखी, तो मेरी सभी उम्मीदें गायब हो गईं। कई उम्मीद्वारों से मिलकर इधर-उधर की बातें भी की। एक से एक बढ़कर निकले यह छात्र/छात्राएं और मैं सोचने लगा था कैसे इन लोगों में से केवल पाँच को चुनेंगे! मुझे तो सभी योग्य लग रहे थे।एक अनोखा अनुभव था वह। अधिकाँश लोग २४ या २५ साल के लगते थे और सब ने अपनी अपनी पढ़ाई पूरी भी की थी और PhD या किसी अन्य विषय में Oxford में MA/MSc वगैरह करने के इच्छुक थे। कईओं की तो डरावने वाली दाढ़ी/मूँछें भी थीं इनके सामने मेरा नकुल तो दूध पीता हुआ एक बच्चा लगता था। मैंने सोचा, चलो यह भी जीवन में एक अनुभव है नकुल के लिए। जब नवंबर में सूचना मिली कि नकुल preliminary round में सफ़ल हुआ है तो हम अत्यंत खुश हुए। चलो, इस विशाल देश के लाखों विद्यार्थियों में से केवल १९ चुने हुए श्रेष्ठ विद्यार्थियों में से वह एक है। क्या यह कम है? हम बस इससे ही खुश होने के लिए तैयार थे। हम चिन्तित भी हुए। मंज़िल के इतने पास आकर अगर वह वहाँ तक पहुँच नहीं सका, तो उस बेचारे पर क्या बीतेगी? क्या असफ़लता का सामना maturity के साथ कर पाएगा?

२, दिसम्बर, 2006 को दिल्ली में उसका अन्तिम साक्षातकार हुआ।पत्नि और मैं भी उसके साथ जाना चाहते थे लेकिन उसने साफ़ मना कर दिया और हम पति-पत्नि बैंगलौर में सुबह १० बजे से लेकर ३ बजे तक नाखून काटते काटते कैसे समय बिताए यह हमें आज भी याद है।
दोपहर के ३ बजे जब अमेरिका से फ़ोन आया (मेरी बेटी से जो रात भर जागकर उसके लिए प्रार्थना करती रही) और वह फोन पर ही चीखती चिल्लाती नकुल की सफ़लता की घोषिणा की, तो हमारी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं है। पत्नी तो रोने लगी थी और लिपट गई थी मुझसे। मुझे भी जीवन में पहली बार वह "lump in one's throat" का अनुभव हुआ। भाई बहन के बीच इतना प्यार था कि नकुल ने सबसे पहले खुशखबरी अपने से ९ साल बडी दीदी को ही दी और कहा कि माँ और पिताजी को तुम ही फ़ोन करके बता दो! वह जानता था के उसकी दीदी उसके लिए अमेरिका में बैठी रात भर जाग रही है।उस शाम मन्दिर में जाकर न जाने कितने नारियल फ़ोड़े हम लोगों ने।
अब कैसे और क्यों नकुल को सफ़लता मिली, यह अगली कड़ी में बताऊंगा।फ़िलहाल, ये दो चित्र संलग्न कर रहा हूँ।

पहले में Times of India में छपा उसका एक प्रोफ़ाइल









दुसरे में selection की घोषणा के तुरन्त बाद, सफ़ल छात्रों के साथ पूरी सेलेक्शन कमिट्टी का एक समूह चित्र।नकुल पीछे, बाएं तरफ़ से तीसरे स्थान पर है।







शेष अगली कड़ी में।शुभकामनाएंगोपालकृष्ण विश्वनाथ, जे पी नगर, बेंगळूरुemail id:gvshwnth AT याहू डॉट कॉम geevishwanath AT जीमेल डॉट कॉम)

June 28, 2008

नकुल कृष्णा: एक चमकता सितारा

नकुल कृष्णा: एक चमकता सितारा

ये रही नकुल की तस्वीर जो 5 फ़ेब्रुअरी 2007 में टाइम्स ऑफ़ इंडिया के मुख्य पृष्ट पर छ्पी थी। नकुल को आप नीले कुर्ते में देख सकते हैं। लावण्या जी ने अपनी टिप्पणी में बताया कि बिल क्लिंटन को भी ये स्कॉलरशिप मिला था, तो शायद हम भावी प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को देख रहे हैं। नकुल के बारे में और अगली पोस्ट में।

June 27, 2008

नकुल कृष्णा: एक चमकता सितारा

आजकल परिक्षा परिणाम निकलने का मौसम है, एक एक कर हर क्लास के रिजल्टस निकल रहे हैं और कहीं खुशी कहीं गम। टीचर होने के नाते अक्सर बच्चों के मां बाप से भी पाला पड़ता रहता है। आजकल की कट थ्रोट कंपीटीशन वाली दुनिया में विरले ही ऐसे मां बाप होगें जो अपने बच्चों के कार्यकलाप से पूरी तरह मन से संतुष्ट हों। ऐसे में किसी मां बाप का ये कहना कि हमारा बेटा हमारे घर की शान है कानों में संगीत घोलता है। विश्वनाथ जी एक ऐसे ही भाग्यशाली पिता है। मुझे खुशी है कि विश्वनाथ जी ने मेरा आग्रह स्वीकार कर अपने बेटे के बारे में हमें बताने का मन बना लिया है और मैं गर्व से इतरा रही हूँ कि एक होनहार बच्चे की गौरव गाथा मेरे ब्लोगपटल पर लिखी जाएगी। विश्वनाथ जी , मेरे ब्लोग को ये ईज्जत देने के लिए सहस्त्र नमन और धन्यवाद ।

आलोक जी ने अभी हाल ही में ज्ञान जी की एक पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि हर आदमी अपने आप में एक उपन्यास होता है, हर आदमी के अंदर पांच सात आदमियों की कहानियां छुपी होती हैं। मुझे भी ऐसा ही लगता है। और अगर कहानी एक प्रतिभावान व्यक्ति की हो रही हो तो एक ही पोस्ट में निपटाना उसके साथ और पाठकों के साथ अन्याय होगा, इस लिए मैं आशा करती हूँ कि विश्वनाथ जी नकुल की पूरी कहानी सुनाएगे, सिर्फ़ झलक नहीं दिखलायेगें। विश्वनाथ जी, हम बिल्कुल बोर न होगें, मुझे पूरा विश्वास है कि नकुल की कहानी न सिर्फ़ रोचक होगी बल्कि कइयों के लिए प्रेरणादायक भी होगी। शुरु हो जाइए, हम सुन रहे हैं

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नकुल कृष्णा: एक चमकता सितारा

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मेरे बेटे का नाम है, नकुल कृष्णा, और अगले महीने में वह बाईस साल को हो जाएगा।

बेंगळूरु में St Joseph's College से BA (first class with distinction) पास करने का बाद आजकल उसकी पढ़ाई Oxford University (UK) में जारी है।
२००७ में भारत के पाँच चुने हुए Rhodes Scholars में से वह एक है। इस अन्तर-राष्ट्रीय और बहुत ही प्रतिष्ठित (और साथ ही अत्यंत भारी रकम वाली) छात्रवृत्ति के बारे जानकारी, क्या क्या गुण और योगयताएं होनी चाहिए, कैसे मेरा बेटा नकुल Rhodes Scholar बनने में सफ़ल हुआ, इन सभी विषयों पर काफ़ी कुछ लिखा जा सकता है जो शायद आपको और अन्य पाठकों को रोचक लगे। अन्य विद्यार्थियों के लिए प्रेरणास्रोत भी बन सकता है।

एक बाप को अपने बेटे पर गर्व करना स्वाभाविक है और इस विषय पर लिखना मेरे लिए गर्व और खुशी की बात होगी।लेकिन मैं अपना ढिंढोरा पीटना नहीं चाहता।बिना आपके और अन्य मित्रों की सम्मति और प्रोत्साहन मिले, मैं यह प्रोजेक्ट शुरू नहीं करना चाहता।

फ़िलहाल इतना ही कहूँगा कि एक अच्छे विद्यार्थी होने के अलावा, वह एक अच्छा लेखक, नाटककार, कवि, समाज सेवक और शास्त्रीय गायक भी है जिसके बल पर वह Rhodes Scholar बना। बचपन से ही मेरे लिए और मेरी पत्नि के लिए वह एक आदर्श बेटा बनकर रहा है और हमारे परिवार की शान है। ईश्वर की असीम कृपा है हम दोनों पर जो हमें ऐसा बेटा मिला।

उसके और बेंगळूरु से दो अन्य विद्यार्थियों का इस scholarship के लिए चुने जाने की खबर, पिछले साल Times of India के मुखपृष्ठ पर उसकी तसवीर सहित छपी थी. यह तसवीर संलग्न है इस ब्लॉग पोस्ट के साथ।अगर इस पोस्ट को इस तसवीर के साथ आप अपने ब्लॉग पर छापने योग्य समझती हैं तो बड़ी कृपा होगी।
उसके "प्रोफ़ाइल" के साथ, कुछ दिन बाद एक और चित्र इसी अखबार में छपा था जो बाद में भेजूँगा।

आज के लिए बस इतना ही।आपको और हिन्दी जालजगत के मेरे नये मित्रों को शुभकामनाएं।
गोपालकृष्ण विश्वनाथ, जे पी नगर, बेंगळूरु


नकुल की फोटो अगली पोस्ट में दिखाएँगे , लोड नही कर पाए ....:)

June 24, 2008

मरीना बीच पर लिखी एक और प्रेम कहानी

मरीना बीच पर लिखी एक और प्रेम कहानी


गोपालकृष्ण विश्वनाथ जी ने जब से बताया कि उनकी शादी करवाने में एक बंदर का हाथ था तब से हमारी जिज्ञासा बनी हुई थी और हम विश्वनाथ जी से पूछने का कोई मौका छोड़ते नही थे। आखिर उन्होनें ये कहानी सुनाने का मन बना ही लिया , हमें पूरा यकीन है कि पहले पत्नी से permission ले लिया होगा। And what a story it is, it is worth all the effort and patience that it required. I am greatly honoured that Vishwanatha ji decided to publish it on my blog. Vishwanath ji thank you very much .


आइए अब इस किस्से का मजा लेते हैं ।


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बन्दर और मेरी शादी की कहानी


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बन्दर तो बहुत चतुर होते हैं। बचपन में नुक्कड़ पर मदारी और उनके बन्दरों से हमारा काफ़ी मनोरंजन होता था। क्या क्या नहीं कर सकते यह बन्दर!
लेकिन क्या आप जानते हैं के एक बन्दर ने एक इंजिनीयर की शादी तय की थी? वह भाग्यशाली इन्जिनीयर तो मैं ही हूँ। ऐसी सुन्दर, सुशील, पढ़ी लिखी और हर काम में सक्षम और दक्ष बीवी मिली मुझे उस बन्दर की कृपा से कि अगर वह बन्दर मुझे अब मिल जाए तो जीवन के और कई महत्वपूर्ण निर्णयों को मैं उसके हाथों में छोड़ने के लिए तैयार हूँ।


Disclaimer:


यह कहानी मेरी एक पुरानी और प्रिय कहानी है जिसे निकट के रिश्तेदारों और दोस्तों को कई बार सुना चुका हूँ लेकिन इस कहानी की यथार्थता का मेरे पास कोई सबूत नहीं और अब प्रमाण जुटाना असंभव है। मेरी पत्नि और ससुरजी इस कहानी को सरासर मनघडंत और एक शरारती दिमाग का उपज मानते हैं और इसका जोर शोर से खंडन करते आये हैं। अब आप ही निर्णय कीजिए कि यह कहानी सच हो सकती है या नहीं।
बात १९७२ की है। BITS पिलानी से पाँच साल का BE(Hons) की पढ़ाई पूरी करके घर (मुम्बई) आया था। शादी के बारे में कभी सोचा भी नहीं था। अब तो career की चिन्ता थी। लेकिन मेरी माँ कहाँ मानने वाली थी?


मेरे बडे भाइसाहब ने १९६८ में ही, अपना जीवन साथी स्वयं चुनकर, परिवार को धक्का पहुँचाया था। उन दिनों प्रेम - विवाह आम बात नहीं थी। अपने परिवार के बुज़ुर्गों से लड़ना पड़ता था और उतनी जल्दी सहमति नहीं मिलती थी। माँ को डर था के कहीं मेरा दूसरा लाड़ला भी मेरे हाथों से निकल न जाए। रूड़की विश्वविद्यालय में मेरा ME (Structures) में admission हो गया था जो काफ़ी मुशकिल समझा जाता था उन दिनों। मैं तैयार हो रहा था रूड़्की जाने के लिए। माँ को डर था कि कहीं मेरा किसी हिन्दी बोलने वाली यू पी की लड़की से कोई चक्कर न चल जाए। रिश्तेदारों ने डरा दिया था यह कहकर कि कोई यू पी की लड़की अवश्य उसे अपने चुंगल में फ़ँसा लेगी। सावधान रहो!


रो रोकर मुझे अनुमति मिली ऊंची पढाई के लिए। इधर मैं रूड़की के लिए निकल गया था, उधर मेरे पिताजी ने बहू ढूँढना शुरू कर दिया। मुम्बई में एक जाने माने प्राइवेट कंपनी में अपने विभाग के सबसे वरिष्ठ Sales Manager थे, और बहुत दौरा करना पढ़ता था उनको काम के सिलसिले में। अगले दौरे पर उनका विशाखपट्नम जाना हुआ और संयोग से किसी मीटिंग में मेरे होने वाले ससुर से उनकी मुलाकात हो गई। पिताजी और ससुर केरळ के एक ही गाँव के थे और बचपन में एक दूसरे से परिचित भी थे और यह मुलाकात बरसों बाद हो रही थी। दोनों अत्यंत प्रसन्न हुए एक दूसरे से मिलने पर और उसी दिन मेरे ससुरजी मेरे पिताजी को घर पर आने को आमंत्रित किया।


मेरे पिताजी के तीन बेटे हैं और मैं मँझला बेटा हूँ। ससुरजी की चार सुन्दर सुशील बेटियाँ थी, कोई बेटा नहीं। पिताजी का ध्यान दूसरी बेटी पर गया और बहू का चयन उसी क्षण हो गया। बस एक ही समस्या थी। अपने पागल दूसरे बेटे को कैसे समाझाएं की पढ़ाई-वढ़ाई तो होती रहेगी, झट शादी के लिए कैसे इसे मना लें। माँ मुम्बई सी सीधे विशाखापटनम पहुँच गई। माँ तो मेरी होने वाली पत्नि पर फ़िदा हो गई।


माँ उतावली हो रही थी और उसका कारण मुझे बाद में मालूम हुआ।


ज्योतिष विज्ञान पर अटूट विश्वास था उन्हें और परिवार का ज्योतिषि ने उन्हे डरा दिया था कि मेरे जनम पत्रि के अनुसार, यदि अमुक तारीख से पहले मेरी शादी नहीं हो जाती तो उस तरीख के बाद उन्नीस साल तक कोई मुहूर्त नहीं!!

गौरतलब बात है के उस जमाने में किसीने मेरी पत्नि से कुछ पूछा तक नहीं। हमारे सम्प्रदाय की प्रथा थी कि लड़कियाँ विवाह के मामलों में बड़े जो निश्चय करते थे उसे मौन रहकर स्वीकार करते थे। आखिर परिवार के बुजुर्ग हमारी हित में ही सोचंगे न? उस समय वह BSc कर रही थी। बस मेरा एक फोटो थमा दिया उसके हाथ में।
फ़िर क्या था! मुझे माँ की चिट्टी मिली और मुझे लड़की देखने रूड़की से विशाखापटनम पहुँचने के लिए कहा गया। मैं हैरान रह गया। साफ़ मना कर दिया और कहा के इस समय मैं कोई लड़की वड़की देखने वाला नहीं हूँ। मुझे तंग मत करो और शांती से पढ़ाई पूरी करने दो। पढ़ाई पूरी करने के बाद, और कहीं अच्छी नौकरी लगने के बाद ही विवाह के बारे में सोचूँगा। और इस बीच आप सब लोग निश्चिन्त रहिये। बडे भाई का अनुकरण नहीं करूँगा और मेरा यहाँ किसी से कोई चक्कर नहीं चल रहा है और न इसके लिए मेरे पास वक़्त है।
मैंने यह भी समझा दिया के ME का course कठिन है और इतने दिनों तक छुट्टी लेकर lecture, test, practical, tutorial submission वगैरह को छोड़कर आ नहीं सकता।
माँ को मेरा यह फ़ैसला अच्छा नहीं लगा।
उत्तर में माँ ने इतना ही पूछा "छुट्टियाँ कब है?" मैंने बता दी।फ़िर कुछ महीनों के लिए मैं इस बात को भूल गया था।पिताजी और ससुर संपर्क में रहे (चिट्टियों द्वारा)।


कुछ महीने बाद, माँ चेन्नैई गयी मेरे मामाजी के यहाँ। मेरी वार्षिक छुट्टियों के दिन करीब आने लगे। मेरी माँ ने मामाजी के यहाँ जाकर अपनी दुख भरी कहानी सुना दी। यह कैसा बेटा है मेरा! Deadline होते हुए भी इतने अच्छे रिश्ते से मुँह मोड़ रहा है। अब केवल ढाई साल बचे हैं। शादी ब्याह का मामला कभी कभी तो जल्दी "फ़िट" नहीं होता और सालों लग सकते हैं सही लड़की और अच्छे परिवार मिलने में। कहीं गाड़ी छूट गई तो यह आजीवन कुँवारा रह जाएगे। उन्नीस साल बाद कौन करेगा एक बुड्ढे से शादी? अरे कोई इसे समझाओ!
मेरे मामाजी की लड़की ने सुझाव दिया कि किसी तरह मुझे लड़की दिखा दिया जाए। बस देखते ही उसकी सुन्दरता पर मोहित होना निश्चय है। आगे हम निपट लेंगे।

दोनों ने खिचडी पकाना शुरू कर दिया। कई साल पहले चेन्नैई के बाहर मेरे पिताजी ने मेरे नाम एक छोटा सा प्लॉट खरीदा था। अब तो हम मुम्बई में बस गये थे और इस जमीन को बेचना ही ठीक समझा।

मुझे चिट्टी मिली के छुट्टियों में रूड़की से सीधे चेन्नई पहुंच जाओ। तुन्हारी उपस्थिति आवश्यक है। हम जमीन बेच रहे हैं और क्योंकि जमीन तुम्हारे नाम है, रेजिस्ट्रार के कार्यालय में हस्ताक्षर करना है तुम्हें। हम सब होंगे और मामाजी के यहाँ रुके हैं और तुम भी वहीं चले आओ।


जाल बिछा दिया गया। उधर ससुर जी को नोटिस भेज दिया गया कि रूड़की के बकरे को फ़ंसाने की योजना तैयार है और ज्योति (मेरी पत्नि) के साथ एक या दो दिन पहले ही चेन्नैइ पहुँच जाइए।


सुना है ससुरजी कुछ सोच में पढ़ गये थे। जन्म पत्रियाँ मिलायी गयी थीं और यह कहा गया था कि यह तो राम सीता की जोड़ी है! फ़िर भी ससुरजी सोचने लगे थे कि जब लड़का इतना "Hard to get" रुख अपना रहा है और शादी के लिए राजी नहीं हो रहा है, क्या यह रिश्ता हमारे लिए ठीक रहेगा? इतनी दूर (मुम्बई से रूड़की) जाने की क्या जरूरत थी पढ़ाई के लिए? क्या पता रूड़की में क्या कर रहा है? पढ़ाई का बहाना तो नहीं बना रहा है शादी को रोकने के लिए? अगर माँ-बाप को केवल खुश करने के लिए और पिंड छुडवाने के लिए लड़की देखने आता है और लड़की देखकर मना कर दिया तो? क्या असर पढे़गा मेरी बेटी पर? क्यों न कहीं और के अच्छे लड़के और परिवार के बारे में भी सोचा जाय? इसके अलावा, यह तो दूसरी बेटी है। पहले की शादी निपटाने से पहले दूसरी की शादी के बारे में सोचना कहाँ तक उचित है? क्या सोचेगी मेरी पहली बेटी?


कुछ समय इन प्रश्नों से झूझते रहे होंगे।
चैन्नैई से आया हुआ निमंत्रण स्वीकार करने से पहले उन्होंने मन की शांति के लिए क्या किया, अब सुनिए।


बस यहाँ से कहानी विवादस्पद है। आगे पढ़िए।


विश्वसनीय सूत्रों से मुझे यह सब बाद में पता चला ।


उनके घर से थोडी दूर, एक छोटे पहाड़ के ऊपर एक पुराना हनुमानजी का मन्दिर है। इस मन्दिर के आस पास एक वृद्ध बन्दर रहता था। श्रद्धालुओं का मानना है कि यदि कोई मन-ही-मन प्रस्ताव लेकर, सच्चे दिल से, पूरी श्रद्धा से इस मन्दिर पर पूजा करके प्रसाद चढ़ाता है और यह प्रसाद उस बन्दर के नज़दीक रख देता है तो बन्दर कभी प्रसाद (फ़ल वगैरह) स्वीकार करता है और कभी ठुकराता है। कोई अब तक यह समझ नहीं सका कि बन्दर ऐसा कब और क्यों करता है। भूख की बात नहीं थी। कभी किसी से स्वीकार नहीं करता पर कुछ देर बाद किसी और का प्रसाद स्वीकार करता था। वहाँ के भक्त यह मानते हैं कि अगर बन्दर फ़ल स्वीकार करता है तो समझ लीजिए की हनुमानजी की सम्मति मिल गयी!


अब आगे क्या बताऊँ आपको? आप अन्दाज़ा लगा सकते हैं के वहाँ क्या हुआ होगा। ससुर्जी नगर के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित फ़ल के दूकान पर जाकर वहाँ से सबसे मोटे, ताजे और लाल दिखने वाले सेव को चुनकर, एक चाँदी की थाली में रख दिया उस मन्दिर के चौखट पर।बन्दर लपककर सेव उठाकर उसे खाने लगा!। काश मैं तारीख, समय वगैरह बता सकता जब यह सब हुआ था और मेरा भाग्य खुला था।


आगे क्या बताऊँ आपको? यह सब बातों से बिल्कुल अनभिज्ञ रहकर चेन्नैई पहुँचा जमीन बेचने। शाम को बताया गया के हम सब मरीना बीच देखने जा रहे हैं। माँ ने धीरे धीरे मुँह खोलकर संकोच के साथ मुझसे कहा "वे लोग भी आ रहे हैं वहीं"।


"कौन लोग?" मैने पूछा। तब ही पता चला इस योजना के बारे में। मामाजी की लड़की ने हँसते हँसते सारी योजना उगल दी।


मामाजी और उनकी लड़की की योजना के अनुसार, बिना कोई औपचारिकता के, बस ऐसे ही दो परिवार के सदस्यों का मरीना बीच पर मिलन हुआ। Introductions के बाद, हम दोनों को अकेले छोड़कर बाकी सभी कुछ दूर चले गए। केवल आधे घंटे हम आपस में बातें की मरीना बीच पर, रेत पर बैठे बैठे, शाम की ठण्डी हवा खाते खाते और हमेशा के लिए एक दूसरे के हो गए। हम दोनों ने तय किया की शादी अब नहीं होगी। उसकी दीदी की शादी होने के बाद, और हम दोनों की पढ़ाई पूरी होने के बाद और मेरी कहीं अच्छी नौकरी लगने के बाद ही शादी करेंगे।


१९७३ में चेन्नैई के मरीना बीच पर उस मिलन के बाद हम दो साल पत्र व्यवहार करते रहे और इस बीच केवल एक बार मुम्बई में एक दिन के लिए मिले और १९७५ को मुम्बई में हमारी शादी हुई।


चित्र देखिए। उन दिनों कलर फ़ोटोग्राफ़ी दुर्लभ और माहँगा था।


उस बन्दर का लाख लाख शुक्रिया!! ऐसी सुन्दर बीवी किस किस के भाग्य में लिखा है? और आज भी वह उतना ही सुन्दर लगती है मेरे लिए।===========


Vishwanath





May 13, 2008

" स्ट्रीट शॉट्स फ़्रोम जर्मनी"

" स्ट्रीट शॉट्स फ़्रोम जर्मनी"


दोस्तों संजीत जी ने और ज्ञान जी ने सुझाया और हम आज पारिवारिक पोस्ट लेकर हाजिर हैं। जैसा कि आप जानते हैं कि विनोद जी हिन्दी में अभी नहीं लिख सकते इस लिए ये पोस्ट हमारे अंग्रेजी वाले ब्लोग "चिर्पिंग्स" पर डाली है। विनोद जी फ़ोटो ब्लोग बनाना चाह्ते हैं। इस पहली पोस्ट के लिए भी उन्हों ने कुछ 20-25 फ़ोटोस निकाली और कहा इन्हें डाल दो। हमने कौशिश की पर तीन से ज्यादा लोड ही नहीं हो रही थी। उनके चेहरे पर निराशा देख हमें बहुत खराब लग रहा था पर क्या करते, दोनों टेकनॉलिजिकली चैलेंजड्।

हम सोच रहे थे क्या करें और साथ में अपनी पोस्ट पर आयी टिप्पणियाँ देख रहे थे। एक नाम दिखा अभिषेक ओझा -ये कौन है वैसे भी उनका धन्यवाद देने के लिए ईमेल पता चाहिए था सो हम उनके ब्लोग पर गये, जैसे ही उनका ब्लोग खोला विनोद बड़े एक्साइटिड हो कर बोले " देट इस इट, आई वान्ट टू मेक इट लाइक दिस"। ओझा जी ने कम से कम पंदरह फ़ोटो लगा रखे थे वो भी समोसे बनाने के लिए। अब ओझा जी को ढूंढना शुरु किया उनसे पूछ्ने के लिए कि भाई कैसे इत्ते सारे फ़ोटू डाले। अभिषेक जी का ईमेल पता भी नहीं मिला उनके ब्लोग पर, हार कर टिप्पणी के रुप में एस ओ एस छोड़ आये। पति देव से कहा सो जाइए कल सागर जी के आगे भी गुहार लगाते हैं। दूसरे दिन सागर जी ऑन लाइन न मिले।
हमारी हैरानी देखने लायक थी जब शाम को पतिदेव को दरवाजे पर खड़ा पाया( रात को दस बजे से पहले तो कभी नहीं आते) पूछने पर कुछ ऐसे ही अनमना सा बहाना था, फ़िर बोले हमारी पोस्ट बन गयी क्या। अच्छा तो ये बात थी…:) हमने कहा नहीं सागर जी आज नहीं मिले चलो खुद ही ट्राई करते हैं। अब हम दोनो यूं ही चिठ्ठों पर घूम रहे थे। मन में गाना घूम रहा था

" दो बेचारे, बिना सहारे, देखो घूम घूम के हारे, बिन ताले की चाबी ले कर( फ़ोटोस थी पर लोड करने का तरीका नहीं) फ़िरते मारे मारे…:)) ।"
तभी चिठ्ठाजगत में एक टेकनिकल पोस्ट दिखाई दी। ज्यादातर हम ऐसी पोस्ट नहीं खोलते, कुछ समझ ही नहीं आता न, पर आज पोस्ट का शीर्षक देख कर खोली, शीर्षक था "सर्च इंजन पर इमेज"। इमेज शब्द ने हमारी जिज्ञासा जगा दी थी और काम बन गया। जहां हम उल्लु हैं और रात को बहुत देर से सोते हैं विनोद हमसे एकदम उल्टे हैं। दस बजते न बजते उनकी आखें झपकने लगती हैं। पर कल तो सारी पोस्ट तैयार करते और फ़िर पोस्ट करते रात का एक बज गया, जनाब की आखों से नींद गायब थी। तो ये बनी विनोद जी की पहली पोस्ट " स्ट्रीट शॉट्स फ़्रोम जर्मनी" अभी अभी ऑफ़िस से फ़ोन आया और कुछ शर्माते हुए , कुछ झिझकते हुए पूछा गया " कोई टिप्पणी?"…हा हा , टिप्पणीयों को लेकर लिखी गयी सभी पोस्ट मेरे दिमाग में कौंध रही हैं।
याद आ रहा है कि जब मैंने पहली बार आलोक जी के ब्लोग पर लिखा था तो कैसे कॉलेज से यूं भागी आयी थी मानो जैल से छूटी कैदी और आते ही पी सी ऑन कर दिया था। इस बात को लेकर पिता पुत्र दोनों ने कितना मुझे चिढ़ाया था।

ये पहले ही वार में ब्लोग बाबा ने मेरे धीर गंभीर पति का ये हाल कर दिया- जय हो ब्लोग बाबा। चुपचाप जाके दूसरा पी सी खरीद आती हूँ , अब इस पर से मेरा साम्राज्य खत्म होता दिखता है। यारों क्या तुमरा भी था ऐसा हाल?

May 12, 2008

क्या आप ने इसे देखा है?

क्या आप ने इसे देखा है?








काली साड़ी में मैं, मेरा बेटा आदित्य और इंदिरा








एम ए के दिनों में हमारी एक बहुत ही प्यारी सी सहेली थी इंदिरा शर्मा। बहुत ही स्नेही और मिलनसार्। हमें उसके घर जाना बहुत अच्छा लगता था। वो यू पी से थी। उसके घर जा कर हम कुछ न बोलें और सिर्फ़ उसे अपनी मम्मी और दो छोटी बहनों से बतियाते सुने तो भी पूरा दिन निकाल सकते थे। आक बातचीत में भी उनका शब्दों का चयन और बोलने का लहजा हमारे कानों में रस घोलता था और दिल को एक अजीब सा सकून मिलता था। इंदिरा ये बात जानती थी। उस्के घर हम कितने बजे भी जाएं वो कभी खाना खाएं बिना न आने देती, जानती थी कि हम वैसे खाने को तरसते हैं। कई घंटे वहां गुजर जाते थे। हमारी शादी के बाद भी ये सिलसिला जारी रहा। हमारी ससुराल उसके घर के पास ही थी। पर समय कब एक सा रहा है। हमारी शादी के दो साल बीतते बीतते वो अपने भाइयों के पास अमेरिका चली गयी और हमने भी अपना नीड़ कहीं और बसा लिया। आदित्य की जिम्मेदारी भी आ गयी। अब इंदिरा का आना साल में सिर्फ़ एक बार होता था, दिसंबर के अंत में या जनवरी के शुरु में। अमेरिका में छुट्टी लेने का वही सही समय है। पर हमारी बदकिस्मती ऐसी थी कि वही समय होता था आदित्य के युनिट टेस्ट या फ़ाइनल परिक्षाओं का। उन दिनों में हमारे पास कोई वाहन भी न था। तो बस जगह की दूरी और समय की कमी के चलते हमारा एक दूसरे से मिलना छूटता चला गया। और हमारी ये प्यारी सी सहेली कहीं खो गयी है। हम यहां उसकी तस्वीर लगा रहे हैं इस उम्मीद में कि हिन्दी भाषी होने के कारण शायद वो ब्लोगस पढ़ती हो या आप में से शायद कोई इसको जानता हो। अगर आप इंदिरा को जानते हैं तो कहिएगा कि इंदू अनिता आज भी तुम्हारा इंतजार कर रही है।