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January 24, 2010

आगरा कैंट ( भाग 1)



मौसी के यहां से शादी का कॉर्ड आया तो हम समझ गये थे कि इस बार जाना अनिवार्य है। उत्तर भारत में शादियों का मौसम जाड़ों में ही पड़ता है और हर बार या तो छुट्टी न मिलने के कारण या गरम कपड़े न होने के कारण हम शादियों में शामिल न हुए। पिछले साल दिल्ली में एक शादी में जाना जरूरी हो गया था। हम गरम कपड़ों से लदे फ़दे बारात में शामिल होने गये तो देखा वहां तो एक भी महिला ने शॉल तक न ओढ़ा था। फ़ैशन का ऐसा बोलबाला था कि महिलाओं ने बैकलेस चोलियां पहन रखी थीं। इस बार भी आगरा में शादी के रिसेप्शन पर पहुंचे तो देखा औरतें इतनी कड़ाके की ठंड में भी महीन साड़ियां पहने घूम रही हैं जब कि मर्द सूट पहने घूम रहे हैं। हम सोच रहे थे शायद जाड़ा मियां औरतों पर ज्यादा मेहरबान है इस लिए उन्हें परेशान नहीं करता।


खैर, बरसों के बिछडे रिश्ते नातों से मिलते मिलाते, नाना प्रकार के व्यंजन चखते, कॉफ़ी पी कर निपटे तो रात का एक बज चुका था। यूं तो शाम से ही क्लार्क शिराज के लॉन पर कोहरा रुई के फ़ाहों सा गिरता बरसात सा मजा दे रहा था, लेकिन जब घड़ी की सुइयों ने आलिंगन लेना चाहा तो कोहरे ने ऐसा पर्दा खींचा कि साथ वाली टेबल पर बैठे मेहमान भी न दिखाई दें। सड़क और कोहरे के मिलन का नजारा इतना मनोरम कि कोई भी ड्राइवर उन्हें छेड़ने को तैयार नहीं था। बड़ी मुश्किल से एक बजे होटल पहुंचे और आते ही टी वी लगाया तो पता चला कि सभी रेलगाड़ियां देर से चल रही हैं। वही कोहरा जिसे देख, छू कर हम पुलकित हो रहे थे अब भयावह लगने लगा। हमें दूसरे दिन पंजाब मेल पकड़ वापस बम्बई लौटना था। आगरा कैंट से गाड़ी छूटने का सही समय आठ बज कर पचास मिनिट था। पता चला गाड़ी दोपहर बारह बजे आगरा कैंट पर आयेगी। लिहाफ़ की गरमाइश के नरम चंगुल से जब तक हम खुद को आजाद कर पाये, दस बज चुके थे। हड़बड़ा कर भाई के कमरे का दरवाजा खटखटाया, देखा तो वो पहले ही खुद को लिहाफ़ से आजाद कर चुका था और रेलवे इंक्वाइरी से पता लगा चुका था कि गाड़ी बारह बजे ही आगरा कैंट पहुंचेगी। खैर, हम जल्दी जल्दी तैय्रार हुए, सामान रात को ही बांध चुके थे। ग्यारह बजे तक कोहरा काफ़ी छ्ट चुका था सो दूसरे भाई ने विदा ली। वो कार से इंदौर जा रहा था। हम लोग जब तक सामान उतरवा कर होटेल के बाहर पहुंचे, पौने बारह बज चुके थे, कहीं कोई ऑटो नहीं दिख रहा था और हमें चाहिए थे तीन ऑटो। जैसे तैसे ऑटो मिले,स्टेशन पहुंचे तो बारह बजने में पांच मिनिट थे। सामान इतना कि हम सब से मिल कर भी उठाया न जाए। पास बैठे कुली को आवाज लगायी, मोलभाव किया गया, ट्राली लाने को कहा गया। कुली आराम से बैठा रहा। हमारा पारा चढ़ रहा था, एक तो पांच मिनिट में ट्रेन आने का समय और बुढ्ढा कुली और वो भी अपनी जगह से हिलने को तैयार नहीं। जितना हम जल्दी करने को कहें कुली उतने ही आराम से चलते हुए कह्ता रहा कि कोई जल्दी नहीं गाड़ी बारह बजे नहीं आयेगी। खैर प्लेटफ़ार्म पर पहुंच कर हमारी जान में जान आयी। कुली ट्राली से सामान उतारने लगा, तब तक हमारा पारा नीचे उतर चुका था और अक्ल काम करने लगी थी। प्लेटफ़ार्म की गंदगी देखते हुए हमने उससे कहा कि हम और पैसे देने को तैयार हैं लेकिन वो सामान ट्राली पर ही रहने दे और जब गाड़ी आये तो गाड़ी में चढ़ा दे। कुली ने संतुष्ट मुस्कान के साथ दो खाली कुर्सियों के पास ट्राली खड़ी कर दी और आश्वासन दिया कि गाड़ी आने तक वो हाजिर हो जायेगा।


इंडिकेटर पर अब दिखा रहा था कि पंजाब मेल और एक घंटा लेट है और एक बजे तक आने की संभावना है। कुर्सियां थीं दो और हम थे चार। मेरी भाभी और मैंने कुर्सी पर हक जमाया और भाई बिचारा ट्राली पर ही जगह बना कर बैठ गया। हमसे कुछ ही दूरी पर दो महिलायें आराम से अखबार जमीन पर बिछा कर मटर छीलने में व्यस्त हो गयीं। मन तो हुआ उनसे जा के पूछें 'भई, आगरा में मटर क्या भाव हैं?' हमने भी आगरा आने से पहले पांच किलो मटर छील कर फ़ीजर के हवाले किए थे। पिछले साल तो मटर पंदरह रुपये किलो तक मिल गये थे पर इस साल पच्चीस से कम न हुए।




उनसे कुछ अलग हट कर दो और महिलायें खड़ी सोच रही थीं कि जमीन पर बैठा जाये या यूं ही खड़ा रहा जाये। कहते हैं केला हमें तुरंत एनर्जी देता है। इन महिलाओं ने भी सोचा कि पहले केला खा लिया जाए फ़िर इस समस्या के बारे में सोचा जायेगा। उनमें से एक महिला पास के ही ठेले वाले से दो केले ले आयी, एक उसने दूसरी महिला को दिया और एक वो खुद के लिए छीलने लगी। तभी जोर का शोर उठा और हमने पलट कर देखा तो एक मोटा सा बंदर उस महिला के हाथ से केला छीन रहा था, आसपास खड़े लोग चिल्ला रहे थे 'दे दो, दे दो'। महिला ने घबरा कर केला फ़ेंक दिया जिसे जमीन पर गिरने से पहले बंदर ने लपक लिया। तब तक एक बंदरिया भी बंदर के पास चली आयी। मोटे बंदर ने पूर्ण शिष्टाचार निभाते हुए उस एक केले का आधा टुकड़ा बंदरिया को दिया और आधा खुद खाने लगा, वो भी ऐसे वेसे नहीं बकायदा थोड़ा थोड़ा छीलते हुए ऐसे की हाथ गंदे न हों। बस उस महिला का शुक्रिया अदा नहीं किया इस लिए उसे आधा जैंटलमेन कहा जा सकता है। हमें अपने बचपन में खाया बंदर का थप्पड़ याद आ गया और हाथ बरबस गाल पर चला गया।


हम सोच रहे थे कि बंदर को मटर अच्छे नहीं लगते क्या या उसे छीलने में बेकार में ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है? हम फ़ल वाले ठेले वाले की तरफ़ खिसक आये और पूछा क्युं भाई बंदर तुम्हें परेशान नहीं करते। फ़ल वाला मुस्कुराया, करते हैं न ग्राहकी भी नहीं करने देते इसी लिए तो ये डंडा रखना पड़ता है। उसने ठेले के नीचे से एक मोटा सा डंडा निकाल कर ठेले के साइड में बजाया। हमारे सामान में भी कुछ खाने पीने का सामान था। हमने बंदर के डर से अपनी शॉल उतार कर सामान पर ओड़ा दी।


कल बतायेगें आप को आगरे के ठग के बारे में

7 comments:

अविनाश वाचस्पति said...

तो अनिता कुमार जी
दिल्‍ली के पड़ोस में
आकर आगरा से ही
लौट गईं और हमें
मालूम तक न चला।

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप की वापसी का स्वागत है।

Sanjeet Tripathi said...

चलिए जी वेलकम बैक है।

तो शादी और कोहरे दोनों का मजा ले लौटीं है आप।

अगली किश्त का इंतजार

Manish Kumar said...

Aaj aisi hi ek shadi ke liye Ranchi ke gehre neele aasman ko chhod kar varanasi ke kohre mein jaana pad raha hai. Dekhein aapke is dilchasp anubhav se kina samya meri yatra mein baithta hai.

अनिल कान्त said...

Aunty Ji Agra mein bachpan bitaya hai to samjh sakta hun. aapki kalam se nikale shabdon ko padhkar achchha laga.

Arvind Mishra said...

वाह बहुत दिन बाद पड़ने को को मिला यह संस्मरण -किस्सागोई-संस्मरण की कला कोई आपसे सीखे !

अनूप शुक्ल said...

मजेदार संस्मरण। कोहरा, कुली, केला कथा।
लेकिन जब घड़ी की सुइयों ने आलिंगन लेना चाहा तो कोहरे ने ऐसा पर्दा खींचा कि साथ वाली टेबल पर बैठे मेहमान भी न दिखाई दें। सड़क और कोहरे के मिलन का नजारा इतना मनोरम कि कोई भी ड्राइवर उन्हें छेड़ने को तैयार नहीं था।
बांचकर यही कहने का मन है कि नियमित क्यों नहीं लिखती?