ये दिल मांगे मोर
18 मार्च हर साल आता है और चला जाता है। हर साल इस तारीख के मायने हमारे लिए बदल जाते हैं।किशोरावस्था में इस बात की उत्सुकता होती थी कि क्या होली 18 मार्च को पड़ी और कई बार ऐसा हुआ कि छोटीहोली या रंगपंचमी उसी दिन पड़ीं। उससे हमारी दिनचर्या में कोई फ़र्क नहीं पड़ जाता था लेकिन फ़िर भी बेबात केमन खुश कि देखाSSSS होली भी 18 मार्च की है। हम अभी तक इस बात का जवाब नहीं खोज पाये कि ऐसे में मनक्युं हर्षित हो जाता है। सिर्फ़ हमीं नहीं औरों के साथ भी ऐसा होते देखा है, अब हमारे पतिदेव जी को ही ले लिजीए।केलेण्डर आते ही झट से नवंबर के महीने का पेज पलटा जाता है देखने के लिए कि क्या दिवाली उनके जन्मदिन केदिन आ रही है। हैरानी की बात तो ये है कि हर दूसरे साल दिवाली उनके जन्मदिन के दिन ही होती है। क्या फ़र्कपड़ता है? बस ऐवेंही। आप के साथ भी ऐसा होता है क्या?
कई सालों तक ये तारीख हमको हर्षाती रही क्युं कि मार्च के दूसरे हफ़्ते तक सालाना परिक्षायें खत्म हो जाती हैं तोमार्च का मतलब होता था एक और साल का अंत और पढ़ाई से मुक्ति के कुछ और नजदीक। तब हम अपने घरकी बड़ी बूढ़ियों से बहुत रश्क करते थे कि देखो कितने आराम की जिन्दगी है, बस खाना बनाया और काम खत्म, आराम से दोपहर में सो लो शाम को घूम लो और किताबों की तरफ़ आंख उठा कर भी न देखें तो कोई डांटने वालानहीं। उस जमाने में ये तारीख हमें अधीर कर जाती थी कि कितना कुछ है करने को और समय हमारे हाथ से एकसाल और फ़िसल गया। बात कभी अधीरता से आगे नहीं बड़ी। हम वही कछुए की चाल से चलते रहे। धीरे धीरे इसतारीख के मायने बदल गये। अब भविष्य के बदले भूतकाल को देखा जाने लगा, बचपन के दिन भी क्या दिन थे कितर्ज पर्।लेकिन फ़िर भी इस तारीख को देख तो लेते ही थे। पिछले चार पांच सालों में इस तारीख के अर्थ फ़िर बदलगये, अब न भूतकाल देखते हैं न भविष्य, रह गया है तो सिर्फ़ वर्तमान्। अब ये दिन आता है और चला जाता है औरघरवालों के आग्रह पर बाहर जा कर खाना खाने की रस्म अदायगी के साथ इसे यंत्रवत मना लिया जाता है।
इस साल भी ये दिन यूं ही आता और चला जाता अगर हमारे नवीनतम दोस्त पाबला जी अपनी जिन्दादिली सेइसमें प्राण न फ़ूंकते। आप सबने पाबला जी से सुना कि कैसे द्विवेदी जी की बदौलत जनवरी के दूसरे हफ़्ते मेंपाबला जी से हमारी जान पहचान हुई वो भी फ़ोन और ई-मेल के जरिए और कैसे हमारी हालत ऐसी थी जैसे गलेमें हड्डी फ़स जाए। हमने आ बैल मुझे मार की तर्ज पर कॉलेज की वेबसाइट बनवाने का जिम्मा अपने ऊपर लेलिया था और 26 जनवरी को उसका उदघाटन होने का ऐलान हो चुका था। अगर मुझे खुद ये काम करना आताहोता तो कब का हो चुका होता लेकिन त्रासदी ये थी कि हम मित्रों पर निर्भर थे जिनके लिए ये काम बहुत छोटा थाऔर शायद इतना फ़ायदे का सौदा नहीं था।
हम पाबला जी के तहे दिल से शुक्रगुजार हैं कि उन्हों ने एक अनजान ब्लोगर की न सिर्फ़ गुहार सुनी बल्कि तुरंतअपने तकनीकी ज्ञान की रस्सी फ़ैंकते हुए हिम्मत बंधायी कि डरिए मत अब हम आ गये है आप डूबेंगी नहीं।पाबला जी तो मुझे अपने लड़के गुरप्रीत से मेरा परिचय करा के दस मिनिट में विदा ले लिये ये बोल के कि आप काकाम मेरा लड़का देखेगा।मैं ये सोच रही थी कि हे भगवान द्विवेदी जी तो बोले थे पाबला जी वेबसाइट बनाना जानतेहैं और ये तो मुझे अपने लड़के के हवाले कर के चल दिये। इसके पहले पिछले दो महीने से हमारी दयनीय स्थितीका कारण था कि हमने अपने ही हिन्दी ब्लोगजगत के एक काबिल युवा ब्लोगर से जो वेबसाइट डेवेलपर भी है सेकाम करवाने की कौशिश की थी और औंधे मुंह गिर पड़े थे। खैर इस समय हमारे पास कोई दूसरा विकल्प न था तोगुरप्रीत से बात करना शुरु किया। स्वभाविक था कि गुरप्रीत शुरु शुरु में काफ़ी रिसर्वड था, आखिरकार हम उसकेपिता के ब्लोगर दोस्त के रूप इंट्रोड्युस हुए थे और वो है मुश्किल से बाइस तैइस साल का नौजवान्, मेरे बेटे से भीछोटा। मैं तो उसे दादी अम्मा लगी होऊंगी और उसके भी मन में आशंका रही होगी कि ये बुढ़िया वेबसाइत के बारे मेंकुछ जानती भी है क्या? कैसे काम करुंगा इसके साथ? यू नो कम्युनिकेशन गेप्।
वेबसाइट बनाने के लिए हमारे पास अब सिर्फ़ एक हफ़्ता बचा था और अब ये वेबसाइट बनाने वाला बैठा था भिलाईमें और हम बोम्बे में। गुरप्रीत पर पहले ही से काफ़ी काम का बोझ था। तय ये हुआ कि हम दोनों रात को ग्यारहबजे के बाद बैठेगें और जी टॉक पर हम उसे समझायेगें कि हमें वेबसाइट में क्या चाहिए। चार दिन लगातार हमरात ग्यारह बजे से सुबह के चार बजे तक बैठे। चार बजे हम दो घंटे के लिए सोने जाते थे और साढ़े छ: बजे कॉलेजके लिए निकल जाते थे। हमारा तो काम हो रहा था इस लिए खुशी के मारे कोई थकान महसूस नहीं हो रही थीलेकिन गुरप्रीत के लिए जरूर महसूस होता था कि बिचारा पूरी पूरी रात हमारे साथ लगा हुआ है। जब भी उससेकहते कि भाई सुबह के चार बज गये अब सो जाओ कल देख लेगें वो कहता नहीं आंटी अभी तो जोश आ रहा है। उनचार दिनों में जिस तेजी से और जितनी बड़िया क्वालटी का काम उसने किया वो काबिले तारीफ़ है। इतने मेहनतीऔर इतना काबिल लड़के मैने बहुत कम देखे हैं। उस लड़के में सहन शक्ती भी अपार है। कितनी ही बार काम पूराहोने के बाद हम कह देते थे कि नहीं मजा नहीं आया या अब हमारे दिमाग में कोई दूसरा आइडिया आ रहा है जोज्यादा अच्छा लग रहा है, तो बेटा फ़िर से लग पड़ता था उस पेज को संवारने जब तक हम संतुष्ट न हों। एक बार भीवो खीझा नहीं।
साथ साथ काम करने का एक और फ़ायदा ये हुआ कि हम दोनों धीरे धीरे दोस्त बन गये। मैं उसे स्नेह से बच्चाबुलाती हूँ और उसकी जुड़वां बहन को बिटिया। जब वो कोई ऐसी एन्ट्री करता जो हमें पूरी तरह से संतुष्ट करती तोहम उसे इनाम में आभासी ही सही लेकिन परांठे खिलाते। उसे पनीर के परांठे बहुत पंसद है। चार बजे वो कॉफ़ी ब्रेकले कर अपने लिए कॉफ़ी बना कर लाता तो एक कप हमें भी ऑफ़र करता। लगता मानों हम अलग अलग शहर मेंनहीं बल्कि एक साथ बैठ कर काम कर रहे हैं, जाहिर है कि काम के साथ साथ हम् ने उसे व्यक्ति के रूप में भीजानने की कौशिश की। बहुत ही हिचकते हुए उसने अपने बारे में जो बताया तो पता चला कि ये जनाब तो बहुत हीपहुंची हुई हस्ती हैं । इस छोटी सी उम्र में विविध प्रकार का काफ़ी तजुर्बा हासिल किया है। मॉडलिंग की है, कई बड़ीबड़ी कंपनियों की वेबसाइट बनाई है, रेंप वाक किया है, डेटाप्रो में सीनीयर कस्टमर कंसल्टेंट का जॉब किया हैलेकिन आखिर में उसे अपना ही काम करना ज्यादा भाया और अब वो एक सफ़ल वेब डिजाइनिंग की कंपनी चलारहा है। 18
कई सालों तक ये तारीख हमको हर्षाती रही क्युं कि मार्च के दूसरे हफ़्ते तक सालाना परिक्षायें खत्म हो जाती हैं तोमार्च का मतलब होता था एक और साल का अंत और पढ़ाई से मुक्ति के कुछ और नजदीक। तब हम अपने घरकी बड़ी बूढ़ियों से बहुत रश्क करते थे कि देखो कितने आराम की जिन्दगी है, बस खाना बनाया और काम खत्म, आराम से दोपहर में सो लो शाम को घूम लो और किताबों की तरफ़ आंख उठा कर भी न देखें तो कोई डांटने वालानहीं। उस जमाने में ये तारीख हमें अधीर कर जाती थी कि कितना कुछ है करने को और समय हमारे हाथ से एकसाल और फ़िसल गया। बात कभी अधीरता से आगे नहीं बड़ी। हम वही कछुए की चाल से चलते रहे। धीरे धीरे इसतारीख के मायने बदल गये। अब भविष्य के बदले भूतकाल को देखा जाने लगा, बचपन के दिन भी क्या दिन थे कितर्ज पर्।लेकिन फ़िर भी इस तारीख को देख तो लेते ही थे। पिछले चार पांच सालों में इस तारीख के अर्थ फ़िर बदलगये, अब न भूतकाल देखते हैं न भविष्य, रह गया है तो सिर्फ़ वर्तमान्। अब ये दिन आता है और चला जाता है औरघरवालों के आग्रह पर बाहर जा कर खाना खाने की रस्म अदायगी के साथ इसे यंत्रवत मना लिया जाता है।
इस साल भी ये दिन यूं ही आता और चला जाता अगर हमारे नवीनतम दोस्त पाबला जी अपनी जिन्दादिली सेइसमें प्राण न फ़ूंकते। आप सबने पाबला जी से सुना कि कैसे द्विवेदी जी की बदौलत जनवरी के दूसरे हफ़्ते मेंपाबला जी से हमारी जान पहचान हुई वो भी फ़ोन और ई-मेल के जरिए और कैसे हमारी हालत ऐसी थी जैसे गलेमें हड्डी फ़स जाए। हमने आ बैल मुझे मार की तर्ज पर कॉलेज की वेबसाइट बनवाने का जिम्मा अपने ऊपर लेलिया था और 26 जनवरी को उसका उदघाटन होने का ऐलान हो चुका था। अगर मुझे खुद ये काम करना आताहोता तो कब का हो चुका होता लेकिन त्रासदी ये थी कि हम मित्रों पर निर्भर थे जिनके लिए ये काम बहुत छोटा थाऔर शायद इतना फ़ायदे का सौदा नहीं था।
हम पाबला जी के तहे दिल से शुक्रगुजार हैं कि उन्हों ने एक अनजान ब्लोगर की न सिर्फ़ गुहार सुनी बल्कि तुरंतअपने तकनीकी ज्ञान की रस्सी फ़ैंकते हुए हिम्मत बंधायी कि डरिए मत अब हम आ गये है आप डूबेंगी नहीं।पाबला जी तो मुझे अपने लड़के गुरप्रीत से मेरा परिचय करा के दस मिनिट में विदा ले लिये ये बोल के कि आप काकाम मेरा लड़का देखेगा।मैं ये सोच रही थी कि हे भगवान द्विवेदी जी तो बोले थे पाबला जी वेबसाइट बनाना जानतेहैं और ये तो मुझे अपने लड़के के हवाले कर के चल दिये। इसके पहले पिछले दो महीने से हमारी दयनीय स्थितीका कारण था कि हमने अपने ही हिन्दी ब्लोगजगत के एक काबिल युवा ब्लोगर से जो वेबसाइट डेवेलपर भी है सेकाम करवाने की कौशिश की थी और औंधे मुंह गिर पड़े थे। खैर इस समय हमारे पास कोई दूसरा विकल्प न था तोगुरप्रीत से बात करना शुरु किया। स्वभाविक था कि गुरप्रीत शुरु शुरु में काफ़ी रिसर्वड था, आखिरकार हम उसकेपिता के ब्लोगर दोस्त के रूप इंट्रोड्युस हुए थे और वो है मुश्किल से बाइस तैइस साल का नौजवान्, मेरे बेटे से भीछोटा। मैं तो उसे दादी अम्मा लगी होऊंगी और उसके भी मन में आशंका रही होगी कि ये बुढ़िया वेबसाइत के बारे मेंकुछ जानती भी है क्या? कैसे काम करुंगा इसके साथ? यू नो कम्युनिकेशन गेप्।
वेबसाइट बनाने के लिए हमारे पास अब सिर्फ़ एक हफ़्ता बचा था और अब ये वेबसाइट बनाने वाला बैठा था भिलाईमें और हम बोम्बे में। गुरप्रीत पर पहले ही से काफ़ी काम का बोझ था। तय ये हुआ कि हम दोनों रात को ग्यारहबजे के बाद बैठेगें और जी टॉक पर हम उसे समझायेगें कि हमें वेबसाइट में क्या चाहिए। चार दिन लगातार हमरात ग्यारह बजे से सुबह के चार बजे तक बैठे। चार बजे हम दो घंटे के लिए सोने जाते थे और साढ़े छ: बजे कॉलेजके लिए निकल जाते थे। हमारा तो काम हो रहा था इस लिए खुशी के मारे कोई थकान महसूस नहीं हो रही थीलेकिन गुरप्रीत के लिए जरूर महसूस होता था कि बिचारा पूरी पूरी रात हमारे साथ लगा हुआ है। जब भी उससेकहते कि भाई सुबह के चार बज गये अब सो जाओ कल देख लेगें वो कहता नहीं आंटी अभी तो जोश आ रहा है। उनचार दिनों में जिस तेजी से और जितनी बड़िया क्वालटी का काम उसने किया वो काबिले तारीफ़ है। इतने मेहनतीऔर इतना काबिल लड़के मैने बहुत कम देखे हैं। उस लड़के में सहन शक्ती भी अपार है। कितनी ही बार काम पूराहोने के बाद हम कह देते थे कि नहीं मजा नहीं आया या अब हमारे दिमाग में कोई दूसरा आइडिया आ रहा है जोज्यादा अच्छा लग रहा है, तो बेटा फ़िर से लग पड़ता था उस पेज को संवारने जब तक हम संतुष्ट न हों। एक बार भीवो खीझा नहीं।
साथ साथ काम करने का एक और फ़ायदा ये हुआ कि हम दोनों धीरे धीरे दोस्त बन गये। मैं उसे स्नेह से बच्चाबुलाती हूँ और उसकी जुड़वां बहन को बिटिया। जब वो कोई ऐसी एन्ट्री करता जो हमें पूरी तरह से संतुष्ट करती तोहम उसे इनाम में आभासी ही सही लेकिन परांठे खिलाते। उसे पनीर के परांठे बहुत पंसद है। चार बजे वो कॉफ़ी ब्रेकले कर अपने लिए कॉफ़ी बना कर लाता तो एक कप हमें भी ऑफ़र करता। लगता मानों हम अलग अलग शहर मेंनहीं बल्कि एक साथ बैठ कर काम कर रहे हैं, जाहिर है कि काम के साथ साथ हम् ने उसे व्यक्ति के रूप में भीजानने की कौशिश की। बहुत ही हिचकते हुए उसने अपने बारे में जो बताया तो पता चला कि ये जनाब तो बहुत हीपहुंची हुई हस्ती हैं । इस छोटी सी उम्र में विविध प्रकार का काफ़ी तजुर्बा हासिल किया है। मॉडलिंग की है, कई बड़ीबड़ी कंपनियों की वेबसाइट बनाई है, रेंप वाक किया है, डेटाप्रो में सीनीयर कस्टमर कंसल्टेंट का जॉब किया हैलेकिन आखिर में उसे अपना ही काम करना ज्यादा भाया और अब वो एक सफ़ल वेब डिजाइनिंग की कंपनी चलारहा है। 18
From Daisy |
उससे बाते करते हुए एक बात जो हमें पहली बार पता चली वो ये कि चांद पर जमीन खरीदी जा सकती है और इसछोटे से बच्चे ने चांद पर एक टुकड़ा खरीद रखा है और इस तरह ये अब्दुल कलाम, और बुश की जमात में आ गयाहै। हमसे पूछा कि आप को भी खरीदनी है क्या चांद पर जमीन। हमने दाम तो पूछा, मन भी ललचाया लेकिन फ़िरये सोच कर चुप हो गये कि पहले जरा ये सुपर प्रोग्रामर से पूछ लें कि हमारा अगला गंतव्य कहां रखा है, पता चलेहम ने जमीन ले ली चांद पे और हमारी सीट बुक्ड है धरती पर, फ़िर क्या करेगें जी?
इस बीच पाबला जी से हमारी बहुत कम बात होती थी, लेकिन बीच बीच में वो कभी ऑनलाइन दिख जाते थे। एकदिन हमने उनसे कहा कि बलविन्दर जी गुरप्रीत ने बहुत अच्छा काम किया है। स्नेही गर्वित पिता ने छाती फ़ुलाकर कहा ‘ अनिता जी , मैं चैलेंज के साथ कह सकता हूँ कि माय सन इस द बेस्ट ऐस फ़ार ऐस वेब डेवेलमेंटटेकनीक इस कंसर्ड’ । हम मुस्कुरा रहे थे, कितना अच्छा लगता है जब किसी माता पिता को अपने बच्चों परगर्वित होते देखते हैं। बात भी एकदम सही थी। गुरप्रीत किसी कॉलेज के लिए पहली बार वेबसाइट बना रहा था, लिहाजा उसे कोई आइडिया नहीं था उसका। मैने आइडिया देने के लिए उसे बम्बई के ही कुछ कॉलेजों कीवेबसाइटस के लिंक दिये जो मेरे हिसाब से अच्छी बनी हुई थीं। उसने मुझे कहा ‘आंटी आप चिन्ता मत कीजिए इनसे अच्छी ही बना के दूंगा’ और उसकी बात सौलह आने सच निकली। कॉलेज की वेबसाइट देख कर दिल गार्डनगार्डन हो गया, मेरा भी और मेरे आकाओं का भी। अगर उसमें कहीं कुछ कमी है तो हमारी वजह से कि हमने उसेवो डेटा अभी उपलब्ध नहीं करवाया। आप भी देखिए हमारे कॉलेज की वेबसाइट
http://amcollegemumbai.org/
वेबसाइट बनते ही बच्चा यूं परदे के पीछे छुप गया जैसे स्टेज पर कलाकार अपना रोल खत्म होते ही नेपथ्य मेंचला जाता है। लेकिन जब भी हमें जरुरत होती है बच्चा हाजिर हो जाता है , अब हमें पाबला जी की सिफ़ारिश कीजरुरत नहीं पड़ती। वेबसाइट का काम खत्म होने के साथ साथ अब हमारे मन में ये इच्छा प्रबल हुई कि पाबलापरिवार को जाने। जितना हमने जाना उतना ही हमें अच्छा लगा। घर का हर सदस्य ( डेजी को मिला के) स्नेह सेओतप्रोत है। ऐसा लगता ही नहीं कि हम इन से अभी दो महीने पहले ही मिले हैं,मिले भी कहां, अभी तो सिर्फ़बतियाये हैं ।
एक दिन हमने पाबला जी से कहा कि किसी और वेब डिजाइनर ने हमें अपने नये कार्य का एक नमूना भेजा है जोहमें काफ़ी अच्छा लगा, ये कैसे किया गया जरा बताइए। देख कर बाप बेटा दोनों हंस दिये। गुरप्रीत भी वहीं थाउसने मुझसे कहा आंटी अपनी कोई दो तीन फ़ोटो भेजिए। हमने अपने परिवार की दो तीन फ़ोटो भेजीं , आननफ़ानन में हमारी फ़ोटोस का ऐसा काया कल्प हो कर आया कि मैं तो क्या मेरे पूरे परिवार की आखें फ़टी की फ़टीरह गयीं। मेरा लड़का तो कहने लगा ‘ये दिल मांगे मोर’, हमने कहा बेटा जी ज्यादा लालच नहीं करना चाहिए, एकदो फ़ोटो में तुम्हें हीरो दिखा दिया तो शुक्र मनाओ। होली पर आप सब उनकी वो कारिस्तानी का नमूना देख चुके हैं।
पाबला जी के स्नेह की थाह नहीं ये हम देख रहे हैं आज, बाप रे, मुझ जैसी साधारण सी ब्लोगर को इतना मान देदिया, इतनी मेहनत से पोस्ट बना दी मय गुब्बारों के, हा हा , इस उम्र में गुब्बारे भी। रात को ठीक बारह बजेगुरप्रीत का फ़ोन आया हमें बधाई देने के लिए और उसके पांच मिनिट के बाद बलविन्दर जी का, द्विवेदी जी को इसबात का मलाल रह गया कि बारह बजे हमारा फ़ोन नहीं मिला। हा हा हा। इतना अच्छा जन्मदिन तो हमने कभी भीनहीं मनाया न भूतकाल में न वर्तमान काल में। ये तारीख तो अब हमारे लिए अपने मायने खो कर महज एक आमतारीख बनने जा रही थी। शाम होते होते हम खुद से कह रहे थे कि बेटा बहुत खुश हो लिए चलो अब काम पर लगो, लोगों ने विश कर दिया न, तुमने खुशियों से अपना दामन भर लिया न, चलो अब कलम उठा लो, तुम्हारी हमेशा कीसाथी। तभी फ़ोन दनदनाया और हम हैरान रह गये कि दूसरी तरफ़ द्विवेदी जी की सुपुत्री पूर्वा वल्लभगढ़ से हमेंजन्म दिन की बधाई देते हुए गा रही थी ‘हैप्पी बर्थडे……’ अरे तुम्हें कैसे पता चला, हमने खुश होते हुए फ़िर भीसवाल दागा। जवाब मिला लो आप को क्या लगता है हमें दुनिया की खबर नहीं रहती क्या? अभी हम उससे बतियाकर हटे ही थे कि फ़िर से घंटी बजी,इस बार दरवाजे की घंटी थी, दरवाजा खोला , सामने एक आदमी लाल सुर्खगुलाबों का गुलदस्ता लिए खड़ा था, हाथ में चिट लिए कि इस पर साइन कर दिजीए। सरप्राइस, सरप्राइस, गुलदस्ता गुरप्रीत और रंजीत (उसकी जुड़वा बहन) की तरफ़ से था। आखों में खुशी के मारे आसूं हैं और कहने कोशब्द कम पड़ रहे हैं।
जरूर जिन्दगी में कोई अच्छे कर्म किए होगें जो अचानक यूं हिन्दी ब्लोगजगत में आ गये और इतने अच्छे अच्छेलोगों से मुलाकात हो रही है। भगवान करे पूर्वा , गुरप्रीत और रंजीत की झोली सदा खुशियों से भरी रहे और हमें यूंही सदा आप सब का प्यार मिलता रहे। आमीन