Subscribe

RSS Feed (xml)

Powered By

Skin Design:
Free Blogger Skins

Powered by Blogger

सुस्वागतम

आपका हार्दिक स्वागत है, आपको यह चिट्ठा कैसा लगा? अपनी बहूमूल्य राय से हमें जरूर अवगत करावें,धन्यवाद।

November 12, 2007

एक रंगीन शाम

एक रंगीन शाम

कई महीनों से सत्यदेव त्रिपाठी जी के संदेश आ रहे थे मोबाइल पर कि हम 'बतरस' में आमंत्रित हैं, पर हमारे घर से उनके घर की दूरी हमारी जाने की इच्छा पर घड़ों पानी डाल देती थी। इतनी बार बुलाए जाने पर भी हमारे न जाने पर त्रिपाठी जी ने कभी बुरा नहीं माना।
ओह! पहले आप को त्रिपाठी जी के बारे में तो बता दें। सत्यदेव त्रिपाठी जी एस एन डी टी युनिवर्सटी में हिन्दी विभाग में रीडर की पोस्ट पर कार्यरत हैं। लगभग हमारी ही उम्र के और हमारे जितना ही अध्यापन का अनुभव्। नाटकों में उनकी विशेष रुची है। उनकी कविता कहानियां तो छ्पती ही रहती हैं। हम अलग अलग संस्थानों में काम करते हैं इस लिए कभी कभार ही मिलना होता है। उन के यहां हर महीने के पहले इतवार को एक साहित्यिक गोष्टी का आयोजन होता है जिसमें इस शहर के कई साहित्यकार भाग लेते हैं। गोष्टी का विषय पहले से निश्चित किया रहता है( जैसे दिसंबर में होने वाले आयोजन में हिन्दी में दलित साहित्य पर चर्चा होगी)। इस गोष्टी समूह का नाम रखा है 'बतरस'।

हां तो इस बार नवंबर के पहले इतवार को होने वाली बतरस में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया था। कवि सम्मेलन- हम खुद को रोक नहीं पाये और किसी तरह से घर की बाहर की एड्जस्ट्मेंट्स करते हुए पहुंच ही गये। ढेर सारे कवि, एक से बड़ कर एक रचनाएं , सोच रहे थे कि साथ में टेप रिकार्डर लाए होते तो कितना अच्छा होता।

खैर, कवि सम्मेलन खत्म हुआ, त्रिपाठी जी का धन्यवाद कर बाहर निकलने लगे तो त्रिपाठी जी बोले 'अरे जैन साहब अनिता जी वाशी की तरफ़ जा रही हैं' और आखों में मुस्कान लिए बोले 'और कार ले कर आयी हैं' जैन साहब जिन्हें हमने अभी अभी सुना था और एक और श्रोता हमारे साथ हो लिए। जैन साहब ने अपनी कविताओं का छोटा सा सकंलन हमें भेंट किया। दिवाली की व्यस्ताओं के चलते वो कार में ही पड़ा रहा । आज हम उसे पढ़ रहे हैं ।

सोचा जो कविताएं हमें अच्छी लग रही हैं वो आप को भी सुनाएं।

गाय

हम तुम्हारा दूध पीते हैं
मांस जो खाते हैं
तुम्हारी हड्डियों पसलियों केबेल्ट, बटन जो बनाते हैं
तुम्हारी नस नस को नोचते हैं
हम अपनी खातिर
तुम्हारे तन का हर तरह उपयोग जो करते हैं
तो भी हम इन्सानों को इस बात का बहुत दु:ख है
कि तुमको काटते समय तुम्हारी चीख का कोई उपयोग नहीं हो पाता
(पंखकटा मेघदूत-1968 से)

एक और देखिये-
तेरे भाग में नहीं लिखा है ,एक वक्त का खाना,
राजा चुन कर तुम्हीं ने भेजा, तुम्हीं भरो हर्जाना,

अख्बार
हर जगह इश्तहार था हर आदमी बाजार था
कितना आसान था खरीदना निष्ठा, प्रतिभा,विद्रोह, जीवन
एक मँजे हुए दलाल की भूमिका में
अख्बार था।

एक थोड़ी लंबी सी है, सुना दें थोड़ी छोटी कर के?
सरकार
सरकार के पास हजारों ट्न कागज है
सरकार के पास लाखों टन झूठ है
इससे भी ज्यादा बुरी खबर है
सरकार समाजवादियों से नहीं डरती।
पढ़े-लिखे लोगों की सेहत का बहुत ख्याल रखती है सरकार
कितना उन्हें हवाई जहाजों में उड़ाया जाये
कितना उन्हें दूरदर्शन पर दिखलाया जाये
कितने नुक्क्ड़ नाट्क और कितना मुक्तनाद
उनसे करवाया जाये
किससे लिख्वाया जाये इतिहास, बनवायी जाये पेंटिग्स
और किसके लिए खोले जायें राज्यसभा के दरवाजे
कोई कंजूसी नहीं करती है हमारी सरकार
खूब ठोंक बजा कर तय करती है उनका कद
और लगाती है वाजिब दाम………।


कैसी लगीं…॥:)

20 comments:

Pramendra Pratap Singh said...

बहुत ही सुन्‍दर,
पढ़कर आनन्‍द आ गया।

ALOK PURANIK said...

बतरस तो बहुत धांसू है जी। और कविता का तो क्या कहना।

Rakesh Kumar Singh said...

शुक्रिया अनिजी 'बतरस' से टुकड़े सुनाने के लिए. संवदेनशील पंक्तियां पढ़ी आपने जैन साहब से लेकर. ऐसे ही बताते रहिएगा.

Ashish Maharishi said...

सुन्‍दर कविता

Sanjeet Tripathi said...

बतरस की शौकीन आप को बतरस मे जाने का मौका मिल गया यह तो बहुत अच्छी बात है!! जाते रहिए वहां और ऐसे ही शानदार पंक्तियां हमें पढ़वाते रहिए!!

मीनाक्षी said...

रंगीन शाम के अनुभव और रचनाएँ बहुत सुन्दर ... बतरस तो रसदार लगता है... अगले साल हम भी चलेंगे आप के साथ... !

Anonymous said...

पंडित सत्यदेव त्रिपाठी को हमारा नमस्कार कहिएगा . उनसे गोआ के जमाने से बंधुत्व रहा है. इधर मुद्दत से सम्पर्क नहीं है .

Gyan Dutt Pandey said...

आपने जिन जैन साहब को लिफ्ट दी, उनकी कवितायें अच्छी हैं। विषय और शब्द चयन - दोनो स्तर पर उत्तम।
पर जब बात साहित्य की हो और उसमें भी स्पेशलाइज्ड साहित्य - जैसे दलित साहित्य - तो हमारी समझ और धैर्य दोनो फ्यूज़ हो जाते हैं। :-)

Vikash said...

संवदेनशील कविताओं के लिये धन्यवाद. :)

नीरज गोस्वामी said...

अनिता जी
आप वाशी रहती हैं और जैन साहेब भी कमाल है. हम हर दूसरे हफ्ते वाशी जाते हैं कभी फ़िल्म देखने या कभी कुछ समान खरीदने. अब हमारे यहाँ से वाशी है ही कितनी दूर? किस्मत ने साथ दिया तो कभी मिलन होगा आप से. जिन जैन साहेब की कवितायें आप ने बतायी हैं उनको बधाई दीजिये हमारी और से. बहुत अच्छी हैं .क्या पता कभी उनके मुख से सुनने का अवसर भी शायद प्राप्त हो.
नीरज

सागर नाहर said...

तुम्हारे तन का हर तरह उपयोग जो करते हैं
तो भी हम इन्सानों को इस बात का बहुत दु:ख है
कि तुमको काटते समय तुम्हारी चीख का कोई उपयोग नहीं हो पाता

कसाई की बेबसी पर बहुत दया आ रही है....और कोई शब्द नहीं टिप्पणी के लिये।

Anita kumar said...

ज्ञान जी दलित साहित्य पर तो बहस दिसबर के पहले इतवार को होगी। हम अगर गये तो जरुर उसके बारे में बताएगें

Anita kumar said...

नीरज जी आप भी वाशी के पास रहते हैं? आप से मिलने का कोई रास्ता ढूढेगे और जैन साह्ब से भी मिलवायेगें वो मुलुंड में ही रहते हैं।

Anita kumar said...

प्रियंकर जी आप का सदेंश त्रिपाठी जी तक पहुंचा दिया है।

अनूप शुक्ल said...

बतरस मजेदार चीज है। कवितायें अच्छी हैं। और पढ़वायें। :)

काकेश said...

कविताऎं और बतरस दोनों अच्छे लगे.

ghughutibasuti said...

बढ़िया लगी ।
घुघूती बासूती

पुनीत ओमर said...

अनीता जी कवितायें सभी की सभी ऐसी हैं की जिन्होंने सोचने को विवश किया. खास कर के गाय की चीख..
आपको ऐसे सार्थक मंच में शिरकत के लिए बधाइयां.

गरिमा said...

तुम्हारे तन का हर तरह उपयोग जो करते हैं
तो भी हम इन्सानों को इस बात का बहुत दु:ख है
कि तुमको काटते समय तुम्हारी चीख का कोई उपयोग नहीं हो पाता.........


अब कहने के लिये कुछ बचा ही नही....

Asha Joglekar said...

ज़बरदस्त कविताएँ पढ कर सोचने पर विवश हो गई ।