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सुस्वागतम

आपका हार्दिक स्वागत है, आपको यह चिट्ठा कैसा लगा? अपनी बहूमूल्य राय से हमें जरूर अवगत करावें,धन्यवाद।

May 13, 2008

" स्ट्रीट शॉट्स फ़्रोम जर्मनी"

" स्ट्रीट शॉट्स फ़्रोम जर्मनी"


दोस्तों संजीत जी ने और ज्ञान जी ने सुझाया और हम आज पारिवारिक पोस्ट लेकर हाजिर हैं। जैसा कि आप जानते हैं कि विनोद जी हिन्दी में अभी नहीं लिख सकते इस लिए ये पोस्ट हमारे अंग्रेजी वाले ब्लोग "चिर्पिंग्स" पर डाली है। विनोद जी फ़ोटो ब्लोग बनाना चाह्ते हैं। इस पहली पोस्ट के लिए भी उन्हों ने कुछ 20-25 फ़ोटोस निकाली और कहा इन्हें डाल दो। हमने कौशिश की पर तीन से ज्यादा लोड ही नहीं हो रही थी। उनके चेहरे पर निराशा देख हमें बहुत खराब लग रहा था पर क्या करते, दोनों टेकनॉलिजिकली चैलेंजड्।

हम सोच रहे थे क्या करें और साथ में अपनी पोस्ट पर आयी टिप्पणियाँ देख रहे थे। एक नाम दिखा अभिषेक ओझा -ये कौन है वैसे भी उनका धन्यवाद देने के लिए ईमेल पता चाहिए था सो हम उनके ब्लोग पर गये, जैसे ही उनका ब्लोग खोला विनोद बड़े एक्साइटिड हो कर बोले " देट इस इट, आई वान्ट टू मेक इट लाइक दिस"। ओझा जी ने कम से कम पंदरह फ़ोटो लगा रखे थे वो भी समोसे बनाने के लिए। अब ओझा जी को ढूंढना शुरु किया उनसे पूछ्ने के लिए कि भाई कैसे इत्ते सारे फ़ोटू डाले। अभिषेक जी का ईमेल पता भी नहीं मिला उनके ब्लोग पर, हार कर टिप्पणी के रुप में एस ओ एस छोड़ आये। पति देव से कहा सो जाइए कल सागर जी के आगे भी गुहार लगाते हैं। दूसरे दिन सागर जी ऑन लाइन न मिले।
हमारी हैरानी देखने लायक थी जब शाम को पतिदेव को दरवाजे पर खड़ा पाया( रात को दस बजे से पहले तो कभी नहीं आते) पूछने पर कुछ ऐसे ही अनमना सा बहाना था, फ़िर बोले हमारी पोस्ट बन गयी क्या। अच्छा तो ये बात थी…:) हमने कहा नहीं सागर जी आज नहीं मिले चलो खुद ही ट्राई करते हैं। अब हम दोनो यूं ही चिठ्ठों पर घूम रहे थे। मन में गाना घूम रहा था

" दो बेचारे, बिना सहारे, देखो घूम घूम के हारे, बिन ताले की चाबी ले कर( फ़ोटोस थी पर लोड करने का तरीका नहीं) फ़िरते मारे मारे…:)) ।"
तभी चिठ्ठाजगत में एक टेकनिकल पोस्ट दिखाई दी। ज्यादातर हम ऐसी पोस्ट नहीं खोलते, कुछ समझ ही नहीं आता न, पर आज पोस्ट का शीर्षक देख कर खोली, शीर्षक था "सर्च इंजन पर इमेज"। इमेज शब्द ने हमारी जिज्ञासा जगा दी थी और काम बन गया। जहां हम उल्लु हैं और रात को बहुत देर से सोते हैं विनोद हमसे एकदम उल्टे हैं। दस बजते न बजते उनकी आखें झपकने लगती हैं। पर कल तो सारी पोस्ट तैयार करते और फ़िर पोस्ट करते रात का एक बज गया, जनाब की आखों से नींद गायब थी। तो ये बनी विनोद जी की पहली पोस्ट " स्ट्रीट शॉट्स फ़्रोम जर्मनी" अभी अभी ऑफ़िस से फ़ोन आया और कुछ शर्माते हुए , कुछ झिझकते हुए पूछा गया " कोई टिप्पणी?"…हा हा , टिप्पणीयों को लेकर लिखी गयी सभी पोस्ट मेरे दिमाग में कौंध रही हैं।
याद आ रहा है कि जब मैंने पहली बार आलोक जी के ब्लोग पर लिखा था तो कैसे कॉलेज से यूं भागी आयी थी मानो जैल से छूटी कैदी और आते ही पी सी ऑन कर दिया था। इस बात को लेकर पिता पुत्र दोनों ने कितना मुझे चिढ़ाया था।

ये पहले ही वार में ब्लोग बाबा ने मेरे धीर गंभीर पति का ये हाल कर दिया- जय हो ब्लोग बाबा। चुपचाप जाके दूसरा पी सी खरीद आती हूँ , अब इस पर से मेरा साम्राज्य खत्म होता दिखता है। यारों क्या तुमरा भी था ऐसा हाल?

May 12, 2008

क्या आप ने इसे देखा है?

क्या आप ने इसे देखा है?








काली साड़ी में मैं, मेरा बेटा आदित्य और इंदिरा








एम ए के दिनों में हमारी एक बहुत ही प्यारी सी सहेली थी इंदिरा शर्मा। बहुत ही स्नेही और मिलनसार्। हमें उसके घर जाना बहुत अच्छा लगता था। वो यू पी से थी। उसके घर जा कर हम कुछ न बोलें और सिर्फ़ उसे अपनी मम्मी और दो छोटी बहनों से बतियाते सुने तो भी पूरा दिन निकाल सकते थे। आक बातचीत में भी उनका शब्दों का चयन और बोलने का लहजा हमारे कानों में रस घोलता था और दिल को एक अजीब सा सकून मिलता था। इंदिरा ये बात जानती थी। उस्के घर हम कितने बजे भी जाएं वो कभी खाना खाएं बिना न आने देती, जानती थी कि हम वैसे खाने को तरसते हैं। कई घंटे वहां गुजर जाते थे। हमारी शादी के बाद भी ये सिलसिला जारी रहा। हमारी ससुराल उसके घर के पास ही थी। पर समय कब एक सा रहा है। हमारी शादी के दो साल बीतते बीतते वो अपने भाइयों के पास अमेरिका चली गयी और हमने भी अपना नीड़ कहीं और बसा लिया। आदित्य की जिम्मेदारी भी आ गयी। अब इंदिरा का आना साल में सिर्फ़ एक बार होता था, दिसंबर के अंत में या जनवरी के शुरु में। अमेरिका में छुट्टी लेने का वही सही समय है। पर हमारी बदकिस्मती ऐसी थी कि वही समय होता था आदित्य के युनिट टेस्ट या फ़ाइनल परिक्षाओं का। उन दिनों में हमारे पास कोई वाहन भी न था। तो बस जगह की दूरी और समय की कमी के चलते हमारा एक दूसरे से मिलना छूटता चला गया। और हमारी ये प्यारी सी सहेली कहीं खो गयी है। हम यहां उसकी तस्वीर लगा रहे हैं इस उम्मीद में कि हिन्दी भाषी होने के कारण शायद वो ब्लोगस पढ़ती हो या आप में से शायद कोई इसको जानता हो। अगर आप इंदिरा को जानते हैं तो कहिएगा कि इंदू अनिता आज भी तुम्हारा इंतजार कर रही है।

May 10, 2008

एहसास

एह्सास

मेरे एक नेट मित्र हैं देहली से राजेश जी, उनका लड़का विरल त्रिवेदी लगभग मेरे लड़के की ही उम्र का होगा। नयी पीढ़ी का नवयुवक जिसका आत्म चिंतन भी अंग्रेजी में होता है। किताबों से दूर, आत्मविश्वास और अपने अंदर के टेलेंट के बूते पर आगे बढ़ने का सलीका लिये एक आम बम्बईया पैदावार लगता है, है नहीं । नीचे लिखी तस्वीर उसी ने नेट पर से ढूंढ निकाली थी और इसे देख कर उसके मन से जो फ़ूटा वो आप भी देख सकते हैं। हम तो हैरान हुए ही उस अक्ख्ड़ सी शख्सियत के पीछे छुपे इस संवेदनशील मन को देख कर, सोचा आप से भी बांट लें। भविष्य में सकारात्मक संभावनाएं अभी बाकी हैं।


एहसास


तेरी गरम बाहों को आज भी ओढ़ कर सोता हूँ मैं


तेरी सासों की महक से आज भी मदहोश होता हूँ मैं


तेरे केसुओं को आज भी अपनी उंगलियों से सहराता हूँ मैं


तेरी रूह के आइने में खुद को आज भी देख पाता हूँ मैं



तेरे जिस्म का एहसास आज भी वैसा ही बरकरार है


तेरे बदन की खुशबु से आज भी दिल की दुनिया गुलजार है


तेरे हाथ को अपनी दो हथैलियों में रख कर


निगाहों से हाले दिल सुनाने का सिलसिला भी जारी है



मेरी बेजुबान आखें तेरी सिलवटों का आइना बनकर


मुझे रोज सहर में झिंझोड के जगा देती है


मैं महसूस करता हूँ ये सब, इन एह्सास को जी नहीं पाता


फ़िर भी, वो एह्सास है जो जिन्दा है आज भी , सांस ले रहा है


काश हम थोड़ी देर और साथ जी पाते, तुम और मैं


खैर, इन एहसासों का मैं शुक्रिया कैसे करुं


कि तुम्हें अब तक मुझसे जोड़ के रखनेवाले वो ही तो हैं


ये एहसास ही तो है, जो हमको जोड़े रखेगें…हमेशा।