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March 05, 2009

भारत में बसे अप्रवासी भारतीय

भाग 2

कल अनूप जी ने अपनी टिप्पणी में कहा कि मुझे अपने मायके वालों के बारे में अच्छा सोचना चाहिए। हम कहां इंकार कर रहे हैं जी। बंबई आये थे किशोरावस्था में, तब तक आस पास के पुरुषों को देखा जाना नहीं था, आप कह सकते हैं कि अभी तो आखें भी न खुली थीं। बोम्बे आने के बाद फ़िर वापस उत्तर की तरफ़ कभी जाना नहीं हुआ। हम तो देश में रहते अप्रवासी भारतीय हैं जी। फ़िर बंबई में तो अपने मायके के प्रांत वाले बहुत कम नजर आये, उनके बारे में जो भी जाना और जो भी मन में इमेज बनायी सब मीडिया से मिले मसाले की बेस पर था। असली में तो अपने प्रांत वालों को जान रही हूँ अब ब्लोग जगत में आने के बाद्। पुरानी सब तस्वीरें धुल पुछ कर साफ़ हो चुकी हैं और नये रंग भरे जा चुके हैं। ऐसा न होता तो थोड़े हम वो लिख रहे होते जो अब लिख रहे हैं। अब तो हम कहते हैं मेरे प्रांत वाले " जय हो" …:)

खैर देखिए बोम्बे की एक और झलक


घर से बाजार और बाजार से मॉल :

कुछ चार पांच साल पहले तक चेम्बूर की वो मेन मार्केट जिससे गुजर कर हम रोज स्कूल जाते थे खाऊ गली के नाम से जानी जाती थी, लेकिन अब वहां कपड़ों की, मोबाइल इत्यादी की दुकानें बहुतायत में आ गयी हैं। हां सब्जी मार्केट अभी भी वहीं हैं , मेन रोड से एक गली अंदर, और सब्जी के साथ चाट पकौड़ी की दुकानें भी उसी गली में आ गयी हैं। बम्बई का ये रंग भी हमारे लिए निराला था। अलीगढ़ में सुबह सुबह (और बाद में इंदौर में भी हमने यही चलन देखा) सब्जी वाले सब्जी का टोकरा उठाये गली गली घूमते थे, रोज के ग्राहक हों तो आ कर घर के किवाड़ भी खटखटाते थे कि मां जी सब्जी ले लो। बम्बई में शाम के पांच छ: बजते ही औरतें लिप्सटिक पाउडर लगा तैयार होती हैं, कभी अकेली या कभी किसी पड़ौसन के साथ सब्जी लेने भाजी मार्केट जाती हैं। भाजी ले कर एक दो घंटे के बाद लौटना और फ़िर कभी वहीं मार्केट से चाट पकौड़ी खा कर आना या फ़िर भाजी ला कर वहीं बिल्डिंग के अहाते में बैठ कर भेल खाना । यहां बम्बई आकर जब पहली बार हमसे किसी ने कहा भेल खा लो तो हम समझे शिव जी को जो फ़ल चढ़ाया जाता है उसकी बात हो रही है, पर जब भेल बन कर हमारे सामने आयी तो एक निवाला न खाया गया। भेल बनती है मुरमुरे, सेव, उबले आलू, बारीक कटे प्याज, हरी मिर्च और तीखी , मीठी चटनी से। गिलगले सेव और मुरमुरे हमारे गले से नीचे न उतरे। अब की बात और है, अब तो हम भी आप को भेल या सेवपुरी खिलायेगें। चेम्बूर छूटे तो कई साल हो गये लेकिन आज भी जब उस मार्केट से गुजरते हैं तो पारस की दुकान की सेवपुरी खाये बिना नहीं आते।
वैसे अब बिल्डिंग में शाम को वैसी रौनक नहीं होती, बिल्डिंग के बीच का मैदान जहां बच्चे खेलते थे और मांए किनारे बैठी बच्चों को खेलता देखती थी अब कार पार्क में बदल गया है। बच्चे अपने अपने घरों में टी वी या कंप्युटर के आगे जम गये हैं। चीखने चिल्लाने की आवाजें बच्चों के गलों से नहीं निकलतीं टी वी के एंकरों के गलों से निकलती हैं । आज की पीढ़ी बेहद मेहनती कामकाजी महिलाओं की पीढ़ी है। उनके पास कहां टाइम है कि सब्जी बाजार जा कर सब्जी वाले से तोल मोल कर चुन चुन कर सब्जी लायें और फ़िर आराम से टी वी का प्रोग्राम देखते हुए काटें। आज तो जगह जगह मॉल खुल गये हैं, साफ़ सुथरे, एअरकंडीशनड, टोकरी तक उठाने की जहमत नहीं करनी पड़ती। कार से उतरो, ट्रॉली लो, चुनी चुनाई, कटी कटाई, पेक्ड सब्जी खरीदो, कोई मोल तोल नहीं, वहीं साफ़ सुथरे रेस्टॉरेंट में बैठ कर खाओ पिओ और देर रात घर पर आओ। पहले महिलाएं सब्जी खरीदने रोज जाती थीं, एक टहलना भी हो जाता था। आज कल महिलाएं पूरे हफ़्ते की सब्जी एक साथ ला कर फ़्रिज के हवाले कर देती हैं । दो तीन दिन का खाना बना कर फ़्रिज के हवाले कर दिया जाता है और फ़िर जय माइक्रोवेव की जो उस खाने को तरोताजा दिखा देता है। अभी परसों ही एक मॉल में हम गये और सब्जी खरीद वहीं खाना खाने बैठ गये। हमारे मेज के पास ही लकड़ी का जंगला लगा कर एक चौकोर बनाया गया था और उसमें कुछ प्लास्टिक के झूले रखे थे जैसे अक्सर पहले बच्चों को पार्क में खेलते हुए देखते थे। हम सोच रहे थे क्या जमाना आ गया है , अब पार्क का काम भी मॉल करेगें? हमारा लड़का आर सी एफ़ के बड़े बड़े बागों में खेल कर बड़ा हुआ और ये बच्चे बिचारे ये भी नहीं जान सकते कि पींग लगाना किसे कहते हैं, पींग लगा कर हवा से बाते करना तो दूर की बात है। जानते है उन पिद्दी से झूलों पर ए सी की बासी हवा और ट्युब लाइटों की चकाचौंध में आधा घंटा खेलने की कीमत थी मात्र 40 रुपये। दो साल का बच्चा झूलों की तरफ़ बरबस खिचा चला जाए तो उसे खीच कर अलग कर दिया जाता कि पहले जा कर पैसे ले कर आओ। वो झूलों के सामने लहराते हरे हरे नोट उस बच्चे के मानस पटल पर छप गये होगें और वो अब ताउम्र उन के पीछे भागता रहेगा। मां बाप पास ही बैठे पिज़ा खा रहे थे।
पहले महिलाएं छोटे छोटे स्तर पर किए बजत से भी खुश होती थीं, कईयों को बाइयों के काम पसंद ही नहीं आते थे, आज हाल ये है कि हर घर में दो दो नौकरानियां आम बात है। घर की सफ़ाई अभियान एक बड़ा काम होता था , घर की महिला को उपलब्धी की अनुभूती होती थी, आज घर सिर्फ़ एक नीड़ है रात्री विश्राम के लिए। जिन्दगी जीने के लिए हैं सफ़ाई कटाई कर के बर्बाद करने के लिए नहीं ।

चेम्बूर से जूहू तक
एक साल चेम्बूर वास के बाद स्थानंतरण हुआ सीधे जूहू में। यहां की तो दुनिया ही निराली थी। साफ़ सुथरी सड़कें, चार फ़्लेटों वाली पूरी बिल्डिंग में हमारे परिवार का साम्राज्य्, ढेर सारे नौकर, थोड़ी ही दूरी पर धर्मेंद्र, मनोज कुमार जैसे नामी फ़िल्मी कलाकारों के घर, इत्यादि। लेकिन तब तक मॉल संस्कृती नहीं आयी थी। सांताक्रूज में स्कूल में, और बाद में कॉलेज में गुजराती जनसंख्या बहुतायत में मिली। गुजराती भाषा बहुत ही मीठी भाषा है, गुजराती बहुत ही मिलनसार, जहीन और विनोदप्रिय वृति की जिन्दादिल कौम है, व्यापार और उधोग में तो इनकी कोई सानी नहीं। हमने न सिर्फ़ गुजराती पढ़ना लिखना बोलना सीखा बल्कि दसवीं में गुजराती को एक विषय के रूप में भी पढ़ा। गुजराती साहित्य भी बहुत समृद्ध है। गुजराती व्यजंनों के तो हम अब भी दिवाने हैं।

पर ये सिर्फ़ यादें हैं। गुजरात के दंगों और मोदी की सरकार आने के बाद गुजरातियों का जैसे चरित्र ही बदल गया हो। एक जमाना था जब मैं और मेरे पति गुजरातियों की जिन्दादिली और आत्मियता के इतने कायल थे कि हमें लगता था कि अगर बम्बई के बाहर कहीं जा कर बसा जा सकता है तो सिर्फ़ गुजरात में। लेकिन आज ये कहना मुश्किल है। कट्टर हिन्दूवाद ने मुझ जैसे न जाने कितने हिन्दुओं के सपनों का खून बहाया है जो किसी हाशिए पर नहीं दिखता।
खैर, जूहू किनारे रहने का एक लाभ ये था कि रोज शाम को अपनी सहेलियों के साथ या परिवार के साथ जूहू बीच पर घूमने जाते थे। यूं तो सुबह शाम जब भी खिड़की से बाहर झांकते समुद्र बाहें फ़ैलाये बुलाता नजर आता था, लहरों का संगीत दिन रात हमें तरंगित किए रखता था, लेकिन सुबह या देर शाम को ठंडी ठंडी रेत पर नंगे पांव घूमने का अपना एक अलौकिक आनंद है। अगर आप सुबह सवेरे चार पांच बजे समुद्र किनारे पर निकल जाएं तो विनोद खन्ना, रेखा वगैरह भी घुड़सवारी करते दिख जाते थे। बम्बई की ये खास बात है कि यहां लोग इन फ़िल्म कलाकारों को परेशान नहीं करते, एक हल्के से अभिवादन के साथ अपने अपने काम पर लगे रहते हैं। सिर्फ़ बम्बई के बाहर से आये लोगों को उन्हें देखने का , मिलने का पागलपन सवार होता है। मुझे याद आ रहा है एक बार घर पर मम्मी पापा नहीं थे, रात का समय था, अचानक नौकर ने आकर कहा कि कोई साहब आप से मिलना चाहते हैं। वो किसी फ़िल्म का प्रोडक्शन वाला था और हमारी बिल्डिंग में लगे ढेर सारे नारियल के पेड़ो के साथ शूटिंग करना चाहता था। उनके लिए इमेरजेन्सी थी क्युं कि राजेश खन्ना को बुलवा लिया गया था और ऐन मौके पर जहां पहले शूटिंग करनी थी वहां नहीं कर सकते थे। अब क्युं कि बहन भाइयों में हम ही सब से बड़े थे और मम्मी पापा घर पर नहीं थे हमसे इजाजत मांगी गयी। कोई मारधाड़ का सीन करना था। हमने इजाजत दे दी लेकिन सिर्फ़ हमारे बाग के इस्तेमाल की, घर में नहीं घुसने दिया। राजेश खन्ना उस समय का चढ़ा हुआ सितारा था, प्रोडक्शन वाले हैरान थे कि राजेश खन्ना का नाम सुन कर हमने वैसे रिएक्ट नहीं किया जैसा एक कॉलेज की लड़की से उम्मीद की जा सकती थी। खैर शूटिंग तो हमने भी देखी ऊपर से और जब इनाम के तौर पर कहा गया कि आप राजेश खन्ना से बात कर सकती हैं तो हमने साफ़ इंकार कर दिया ये कहते हुए कि जब तक बात करने के लिए कोई मुद्दा न हो तब तक किसी से ऐसे ही मिलना बेकार है। जिस कॉलेज में हम पढ़ते थे वहां हमारे साथ कई फ़िल्मी कलाकारों और गायकों के बच्चे पढ़ते थे तो हमें इन लोगों से मिलने की ललक क्युं होती भला।

March 04, 2009

जरा बच के, ये है मुंबई मेरी जान

पिछले हफ़्ते संजीत ने कहा कि आप बम्बई में इतने सालों से रह रही हैं , जरा अपने अनुभवों में झांक कर बताइए तो क्या क्या बदलाव दिखते हैं आप को बंबई( नहीं , नहीं मुंबई) में , मुंबई की जीवन शैली, संस्कृति, इत्यादी में। संजीत हमें जनादेश नामक ई-पेपर के लिए लिखने के लिए आमंत्रित कर रहे थे। अब संजीत हमारे खास मित्रों में से हैं उनकी बात को कैसे टाला जा सकता था। वैसे भी किसी पेपर में जगह पाने का ये हमारा दूसरा मौका था। पहले शैलेश भारतवासी ने सितंबर 2008 में हमारा परिचय मुंबई संध्या नामक पेपर में करवाया था।

सो कल दोपहर को किसी तरह से मन बना कर बैठ गये लिखने। अभी खत्म भी नहीं हुआ था कि संजीत जी नजर आ गये (हमारे चैट बॉक्स में…।:)) हमने कहा कि भाई ई – मेल में रफ़ ड्राफ़्ट भेज रहे हैं, देखिए ये आप की अपेक्षाओं के अनुरूप बन रहा है कि नहीं, साथ में ये भी कह दिया कि अभी तो जो मन में आया हम लिखते गये, कल पढ़ कर थोड़ा छोटा कर देगें और लेख पूरा भी कर देगें। हमें पक्का यकीन हैं कि संजीत हमेशा की तरह चैट बॉक्स और मोबाइल दोनों पर बतिया रहे होगें। आज आकर अपना ई-मेल देखा तो पता लगा कि लेख तो छप भी गया। हम खुश भी हैं और एम्बेरेस्ड भी। खुश इस लिए कि संजीत जी को और अम्बरीश जी ने लेख पसंद कर लिया, एम्बेरेस्ड इस लिए कि बिना सुधार किए लेख प्रकाशित होना ऐसे ही है मानों बिना तैयार हुए कलाकार का मंच पर उतरना।

हम खुद मानते हैं कि लेख बहुत लंबा है( शुक्रगुजार हैं अम्बरीश जी के कि फ़िर भी उसे अपने पेपर में स्थान दे दिया) और हम जानते हैं कि ब्लोगर भाइयों के पास समय की बहुत कमी होती है इस लिए उस लेख का लिंक देने के साथ साथ उसे टुकड़ों में यहां पेश कर रहे हैं, जैसा आप को सुविधाजनक लगे वैसे ही पढ़ें । सिर्फ़ एक सवाल उठ रहा है मन में, संजीत मेरे लेख के साथ देवानंद की तस्वीर क्युं लगाई गयी है भई, क्या मैं वैसे ही हिलती नजर आ रही हूँ इस लेख में या उतनी ही पुरातत्व विभाग की सेंपल नजर आ रही हूँ? इसे यहां देख कर तो देवानंद भी कन्फ़्युज हो रहा होगा …।:)

http://janadesh.in/

पहला भाग

जरा बच के , ये है मुंबई मेरी जान

फ़ागुन आयो रे, संग रंगों की बहार लायो रे। बचपन से हमें हर साल मार्च का बड़ी बेसब्री से इंतजार रहता है। जनवरी में नया केलेण्डर आते ही हम सबसे पहले मार्च का महीना खोल कर दो तारीखों पर गोल निशान लगा देते हैं। एक तारीख तो लाल रंग में ही लिखी रहती है- होली का दिन और दूसरी कभी लाल तो कभी काली लिखी रहती है, वो तारीख हमें याद दिलाती है उस दिन की जब भगवान ने इस रंगबिरंगी खूबसूरत दुनिया से हमारा परिचय कराया था और हम इस दुनिया में ऐसे रमे कि अभी तक जाने का नाम नहीं ले रहे । होली मेरा सबसे प्रिय पर्व है। होली की मस्ती किसी और त्यौहार में कहां, बस एक ही खराबी है इस त्यौहार में, ये हमें बरबस यादों के सफ़र पर ले चलता है और हम सम्मोहित से इसके साथ चलते चलते यादों में खो जाते हैं।


जोर का झटका धीरे से


कुछ तेरह चौदह साल की रहे होगें साठ के दशक में जब बड़े बेमन से अलीगढ़ के मोहल्ले से निकल बम्बई आये थे और आते ही एक सांस्कृतिक झटका खाया था। मुंबई सैंट्रल से पापा सीधे चेम्बूर ले गये जहां हम सबको अस्थायी तौर पर एक किराए के मकान में रहना था। टैक्सी जब उस इमारत के सामने जा कर खड़ी हुई तो हम हैरान, परेशान सकुचाते से उस बिल्डिंग की सीढ़ियां चढ़ रहे थे। बिल्डिंग अंग्रेजी के यू अक्षर सी बनी हुई तिमंजली इमारत थी। बिल्डिंग को एकदम बीच से दो भाग में विभक्त करते हुए सीढ़ियां और सीढ़ियों के दोनो तरफ़ बने हुए ढेर सारे कमरे। हर कमरे में एक एक या किसी किसी में दो तीन परिवार्। तीन तीन कमरों के लिए साझा गुसलखाने और पखाने। जी हां, हम बात कर रहे हैं मुंबई की प्रसिद्ध चाल की। अलीगढ़ के स्वत:पूर्ण घर से निकल कर ये चाल का एक कमरा और किचन एक साल के लिए हमारा घर बन गया। पहली बार जब मां ने कहा जाओ बाहर लगी तार पर कपड़े सुखा आओ। हमने बड़े जतन से फ़टक फ़टक कर कपड़े सुखाना शुरू ही किया था कि हमारे पास वाले कमरे से एक मोटी सी औरत बाहर निकली और बोली तुम यहां कपड़े नहीं सुखा सकती ये मेरी तार है। मैंने कहा कि लेकिन ये तो हमारे कमरे के बाहर है। उसने एक अर्थपूर्ण मुस्कुराहट के साथ हमारा ज्ञान बड़ाते हुए कहा तुम्हारी तार वो सीढ़ियों के सामने लगी है। मतलब ये कि अगर हमें कपड़े सुखाने हैं तो हमें गीले कपड़ो की टोकरी ले कर छ: कमरे पार कर सीढ़ियों के सामने सुखाने जाना होगा। शर्म के मारे हम कपड़े वहीं छोड़ सीधे अपने कमरे में लौट गये । कमरे में एक ही खिड़की होने के कारण हवा की आवाजाही के लिए दिन में लोग दरवाजे खुले रखते थे। हवा को तो पता नहीं आती थी कि नहीं लेकिन गलियारे में हर आने जाने वाला कमरे में झांक सकता था। सबको पता होता था कि किसके घर क्या पका, क्या बात हुई,इत्यादि इत्यादि। मुंबई की बात हो और फ़िल्म कलाकारों की बात न हो ये तो हो ही नहीं सकता न। फ़िल्मी कलाकारों से मेरा पहला पाला बड़ी जल्दी पड़ गया यहीं इसी बिल्डिंग नंबर 29 में( जी हां इन चालों के कोई नाम नहीं होते , वो सिर्फ़ नंबर से जानी जाती हैं।) आधी रात के बाद अक्सर सामने वाले कमरे से खूब जोर जोर से चीखने चिल्लाने की, रोने की, गालियों की आवाजें आती थीं, हम डर जाते थे। आसपास पूछने पर पता चला कि केदार ( जो फ़िल्मों में एक्स्ट्रा का काम करता है) शराब के नशे में अपनी बीबी को मारता है। ऊपर तीसरे तल से उतरते हुए अक्सर एक आदमी सीढ़ियों में दिखाई दे जाता था। वो इतना मोटा था कि अगर वो सीढ़ियाँ उतरता हो तो कोई और पास से नहीं गुजर सकता था, जगह ही नहीं बचती थी। लेकिन वो और उसका पूरा परिवार दिल के बड़े अच्छे थे। नाम था उसका मूलचंद , अमिताभ बच्चन वाली डॉन पिक्चर में खैइके पान बड़ा रस वाला वाले गाने में वो भांग घोटता नजर आता है अपनी बड़ी सी तोंद के साथ्। खैर धीरे धीरे हमें उस चॉल में रहने की आदत पड़ने लगी। कपड़े सीढ़ियों के सामने सुखाने लगे। घर के नाम पर एक कमरा, लकड़ी की बनी परछती जिसे मेजेनेन फ़्लोर कहा जाता है, और छोटी सी किचन । आदमी एक ऐसा जानवर है जो हर परिस्थिती के अनुसार खुद को ढाल सकता है। हमने भी किया। किसी जमाने में पूरा कमरा अपना हुआ करता था, अब हमने उस परछती को , जिसमें खड़े भी नहीं हुआ जा सकता था सिर्फ़ बैठा जा सकता था को ही अपनी दुनिया बना लिया। स्कूल तो हम अलीगढ़ में भी पैदल जाया करते थे, गलियों में से, जहां गली के दोनों तरफ़ दुकाने कम और घर ज्यादा दिखाई देते थे। तिमंजले मकान तो किसी किसी के ही होते थे। बम्बई में भी स्कूल पैदल ही जाना होता था लेकिन लगता था रास्ता खत्म ही नहीं होता। मेन मार्केट में से गुजरना, गाड़ियों की चिल्ल पों, रोड के दोनों तरफ़ दुकाने ही दुकाने और फ़िर दुकानों के आगे दुकानें। फ़ुटपाथ? फ़ुटपाथ तो जी वो नेमत है जो सिर्फ़ पैसे वालों को ही नसीब होती है, सिर्फ़ पोश इलाके में ही फ़ुटपाथ दिखते हैं ।

जहां एक तरफ़ सांस्कृतिक झटका खाया था कि जगह की कमी के कारण लोग अपनी और एक दूसरे की प्राइवेसी का हनन ऐसे ही करते हैं जैसे रोजमर्रा का दातुन कर रहे हों( क्या आप यकीन करेगें कि कई लोग तो दातुन भी बाहर गलियारे में खड़े हो कर करते थे) वहीं कुछ विशिष्ट अनुभव भी आते ही हुए। अलीगढ़ में हमने हिन्दी और अंग्रेजी के सिवा और कोई भाषा न सुनी थी। बम्बई आते ही बम्बई के सर्वप्रांतीय चरित्र से परिचय हुआ। हांलाकि चेम्बूर का इलाका विभाजन के समय आये सिंधियों और पंजाबियों का गढ़ है( उस समय सरकार ने इन सिंधी और पंजाबी शरणार्थियों को बसाने के लिए ही शहर से दूर ये बिल्डिंगे बनायी थी जिनमें हमें बिल्डिंग नंबर 35 तक की तो खबर है , इससे ज्यादा और भी होगीं तो पता नहीं)पर यहां आर सी एफ़, भारत पेट्रोलियम, केलिको, जैसी कई बड़ी बड़ी कंपनियों की फ़ैक्ट्रियां होने की वजह से हर प्रांत के लोग नजर आते हैं । हमने पहली बार मुलतानी, सिंधी, तमिल, मराठी, बंगाली जैसी भाषाएं सुनी और लोग देखे। सिंधी और मुलतानी तो पंजाबियों जैसे ही थे लेकिन बाकी के लोगों के रहन सहन में बहुत अंतर था। उस जमाने में उत्तर भारतीय तो कोई इक्का दुक्का ही दिखता था। मुझे याद है कॉलेज में सिर्फ़ हिन्दी के प्रोफ़ेसर ही हिन्दी भाषी हुआ करते थे बाकी सब दूसरे प्रांतों से।

February 19, 2009

पसंद अपनी अपनी

पिछली पोस्ट हमने करीब दो महिने पहले लिखी थी( पता है बहुत बेकार स्कोर है), इस बीच बहुत कुछ घट गया, बहुत कुछ पढ़ा, कहीं टिपिया पाये कहीं नहीं। अक्सर ऐसा हुआ कि हमने पोस्ट पढ़ी, मन ही मन में टिपियाया और निकल गये। कारण ये था कि हम पिछले दो महीने से एक कोर्स कर रहे थे, कोई मजबूरी नहीं थी, बस अपनी मर्जी थी। कोर्स तो जोश में जॉइन कर लिया लेकिन इतने सालों बाद जब परीक्षा में बैठना पड़ा तो नानी याद आ गयी। पिछली बार मैने परीक्षा दी थी 1978 में। पता है, पता है, आप में से कई लोग तो पैदा भी नहीं हुए होगें और बाकी उस साल में नाक पौछतें, निक्कर संभालते गोटियाँ खेलते होगें। परिक्षा का जिस दिन परिणाम निकलना था, हमारे हाथ पांव ठंडे हो रहे थे। फ़ैल हो जाते तो कैरिअर पर कोई असर नहीं पड़ना था लेकिन कॉलेज की सहेलियां कितना हंसेगी सोच कर ही जान निकली जा रही थी। भगवान ने लाज रख ली और 80% ले कर पास हो लिए, जान बची तो लाखों पाये, लौट कर बुद्धु घर को(ब्लोगजगत में ) आये।
यूँ तो सभी ब्लोग्स पर जब पोस्ट पढ़ते हैं तो कहने को कुछ न कुछ मन में आता ही है लेकिन आज की पोस्ट को स्टीम्युलेट (हिन्दी में क्या कहेगें?) करने का सेहरा जाता है ज्ञान जी की पोस्ट को 'ब्लॉग पोस्ट प्रमुख है, शेष गौण'। ई-मेल में ही इस पोस्ट को पढ़ते ही मुझे याद आ गया एक खत जो मैनें अभी कुछ दिन पहले बलविन्दर पाबला जी को लिखा था। अपनी उस याद को आप सब से बांटने के लिए मैं वो खत ज्यों का त्यों यहां दे रही हूँ।
लेकिन वो खत आप लोगों से बांटने के पहले ये तो बता दूँ कि पाबला जी से मेरी मुलाकात अभी कुछ दिन पहले ही हुई है और मुझे पता चला कि वो वेब डिजाइनिंग में बहुत दक्ष हैं। मैं उनसे कुछ तकनीकी सहायता ले रही थी( उसके बारे में अगली पोस्ट में लिखूंगी)। उसी संदर्भ में ये खत लिखा गया था……।

"पाबला जी
सादर प्रणाम,
हम तो इस बात से ही खुश हैं कि कोई हमारे स्टुपिड से सवालों का जवाब देने को भी तैयार है, इस हिसाब से आप मेरे गुरु हो लिए…प्रणाम गुरु जी……।

कहते हैं कि लोग बुढ़ापे में सठिया जाते हैं, अजीब अजीब हरकतें करने लगते हैं, अजीब अजीब (बम्बइया भाषा में अजीब बोले तो कहेगें अतरंगी) इच्छाएं मन में जन्म लेने लगती हैं। मैं साठ की तो नहीं हुई हूँ( अभी काफ़ी दूर हूँ उस मंजिल से) लेकिन सठिया जरूर गयी हूँ( जब साठ की होऊंगी तब पता नहीं क्या करूंगी) अपनी पूरी मसरुफ़ियत के बावजूद ब्लोगिंग की लती हो गयी हूँ। यहां तक तो गनीमत थी लेकिन उसके साथ साथ मुझे ये इन्टरनेट के फ़ंडे सीखने का शौक भी चर्राया है……डा अमर कुमार के ब्लोग पर विषय से संबधित कार्टून लगा देखा तो आश्चर्य से आखें फ़टी की फ़टी रह गयीं। ज्ञान जी के ब्लोग पर चलता इंजिन मुझे उतना ही अच्छा लगता है जैसे किसी बच्चे को प्लास्टिक की पटरी पर गोल गोल दौड़ती रेलगाड़ी…॥ फ़ुर्सतिया जी के ब्लोग पर खिले फ़ूल और हाशिये में लगा राजकपूर के गानों का विडियो……यूनुस जी के ब्लोग पर इस्तेमाल किए फ़ोन्ट्स का स्टाइल, मनीष और मीत जी के ब्लोग पर पहले ईस्निप (जिसे मैं थर्मामीटर कहती हूँ, वैसा ही दिखता था) से लोड किये गाने, अभिषेक के ब्लोग पर लगी ढेर सारी फ़ोटोस थम्बनेल के रूप में(उसे थम्बनेल कहते हैं ये भी अभी अभी पता चला है),अजित जी के ब्लोग के अक्सर बदलते रंगरूप, होली के अवसर पर बैंगणी भाइयों की फ़ोटोशॉप से खेली होली कौन भुला सकता है, किसी के ब्लोग पर ढोलक बजाता ढीगंना का आइकोन और भी न जाने क्या क्या ....
ब्लोगजगत ऐसा लगता है जैसे कोई मेला लगा है और मैं दुकानों के बाहर खड़ी हर दुकान पे सजी चीजें ललचाई नजरों से निहार रही हूँ…।काश मैं भी ये सब चीजें ले पाती। ये सब वो खिलौने हैं जो मेरी पहुंच के बाहर हैं ....बहुत सिर फ़ोड़ा, कई घंटे बरबाद किए लेकिन आज तक इन सब बातों को समझ नहीं पायी। सोचा कोई क्लास जॉइन कर लूँ, लेकिन सब ने कहा कि ये सब क्लास में नहीं सिखाते, खुद ही सीखना पड़ता है। झट से जाके वेबडिजाइनिंग पर एक मोटी सी किताब खरीद लाई…।घर पर आ कर खोली तो पाया कि मेरे लिए तो ये काला अक्षर भैंस बराबर है जी, उसे अपने किताबों की अलमारी में सबसे पीछे डाल दिया…:)।

कहते हैं कि अगर किसी चीज के लिए बहुत प्रबल इच्छा हो तो भगवान भी आप की सुन लेते हैं…।कुछ ऐसा ही हुआ होगा…द्विवेदी जी ने जब कहा कि आप को फ़ोन कर लूँ तो मेरा पहला सवाल ये था कि मैं तो ये नाम पहली बार सुन रही हूँ, क्या वो मेरे बारे में जानते हैं। द्विवेदी जी ने हंसते हुए कहा था कि अरे पाबला जी को आप को बहुत अच्छे से जानते है, बस आप फ़ोन कर लिजीए।मुझे याद भी दिलाया कि आप अक्सर 'अदालत' ब्लोग की बात करती हैं वो मैं नहीं लिखता पाबला जी लिखते हैं…हमें बड़ा आश्चर्य हुआ, हम तो यही समझे थे कि द्विवेदी जी लिखते हैं। कुछ कौतुहल और कुछ असमंजस की स्थिती में मैंने आप का नंबर घुमाया था…लेकिन आप इतनी आत्मियता के साथ बतियाये कि लगा ही नहीं कि पहली बार बात कर रही हूँ, और एक सिलसिला चल निकला…। आप से और गुरुप्रीत से मुझे इतना अपनापन मिला कि मुझे लगता है मानो आप लोग मेरे ही परिवार का हिस्सा हों। ………"

तो ज्ञान जी के ब्लोग पर कइयों को वो सब खिलौने डिस्ट्रेक्शन लगते होगें लेकिन कुछ मेरे जैसे भी होगें जो चलते इंजिन और ऊपर चलती पट्टी और ध्यानमगन कृष्ण जी को भी देखने आते होगें, रोज देखते है लेकिन फ़िर भी मन नहीं ऊबा। ये ऐसे ही है कि कुछ छात्र गणित प्रेक्टिस करने के समय रेडियो जरूर चला लेते हैं और कुछ बंद कर देते हैं । सब की पसंद अपनी अपनी।