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October 14, 2010

वर्धा यात्रा ने बना दिया गाय, वर्ना आदमी तो हम भी थे काम के

समीर जी ये रही धनेश की फ़ोटो। 

फ़ोटो लेती रचना जी, फ़ोन पर सिद्धार्थ जी, धनेश जोशी, और गायत्री 
ले हाथों में हाथ ओ साथी चलSSSSS
कविता जी और मेरे हाथ हरसिंगार के फ़ूलों के साथ 
धनेश से हमें पता लग चुका था कि शैलेश भारतवासी, सुरेश चिपलूनकर जी, जय कुमार झा, जाकिर अली, और अविनाश जी एक रात पहले ही आ चुके हैं। कविता जी तो पहले ही से वहां थीं। सुबह के छ: बज चुके थे पर इनमें से किसी का कोई अता पता नहीं था। शैलेश और अविनाश जी से मैं पहले भी मिल चुकी थी, एक बार मन हुआ कि जा के इनका और कविता जी का दरवाजा खटखटा दें, फ़िर न जाने क्या सोच के खुद को रोक लिया। उसी होस्टल में रह रहे विश्वविधालय के टीचर्स एक एक कर आ रहे थे और सुबह की चाय का आनंद ले रहे थे पर ब्लागर मित्र सब गायब थे जिनका हमें इंतजार था। खैर सबसे पहले सुरेश चिपलूनकर जी अवतरित हुए और हम ने लगभग उछलते हुए प्रश्नवाचक लहजे में पुकारा सुरेश चिपलूनकर जीईईईई। वो बिचारे अभी अभी आंख मलते हुए आ रहे थे इतनी जोर से उनका नाम पुकारा गया तो थोड़े हिल गये। एक मिनिट मेरी तरफ़ देखा और मुस्कुरा दिये। हमारे मन में पहला विचार जो आया वो था अरे ये आदमी मुस्कुराता भी है? ब्लोग पर तो सदा आग उगलते ही देखा। इतने में जय कुमार झा साहब भी आ गये, इनसे हमारा कोई परिचय नहीं था न ही इनके ब्लोग से हम वाकिफ़ थे।

दुआ सलाम और बातों के दौर में धनेश कब स्टेशन खिसक गया पता ही न चला। गाड़ी आ कर सीढ़ियों के पास लगी तो पता चला कि एक खेप आ गयी। गाड़ी से अजित गुप्ता जी उतरीं। हम सेल्फ़ अपोंनटेड रिसेपशन कमैटी बन गये और अजित जी का स्वागत करने के लिए आगे बढ़ गये। वैसे हम खुद भी हैरान थे अपने इस व्यव्हार  से। हम तो शुरु से बहुत संकोची रहे हैं ये हमें क्या हो रहा था? अजित जी के साथ दो मेहमान और थे और हमें विश्वास नहीं होता कि हम संजीत त्रिपाठी को नहीं पहचान पाये थे। अरे, वो फ़ोटो में जैसा दिखता है उस से कहीं ज्यादा गोरा और पतला है। एक बार संजीत को पहचान लिया तो साथ में महेश सिन्हा जी हैं पता ही था। एक बार फ़िर परिचय और सुबह की चाय का दौर चला पर पता नहीं क्युं हम आज चाय पीने के मूड में नहीं थे। बम्बई में तो सुबह चाय की प्याली से होती है पर यहां… पता नहीं क्या हुआ? हम इतने उत्सुक थे सब से मिलने के लिए( नहीं, सही शब्द तो एक्साइटेड है) कि भूख प्यास सब भूल चुके थे( याद है न हमने एक रात पहले भी खाना नहीं खाया हुआ था)

थोड़ी ही देर में मेहमानों की दूसरी और अंतिम खैप आयी जिसमें अनूप जी, विवेक, इत्यादि लोग उतरे। एक बार फ़िर मैं और अविनाश जी दौड़ पड़े मेहमानों का स्वागत करने के लिए। अनूप जी को तो मैं उनकी तस्वीरों से जानती थी, उन्हों ने भी पहचानने में देर नहीं लगाई। विवेक को भी हम पहचान गये, लेकिन उनके साथ आये एक बहुत आकर्षक, शालीन युवक को हम पहचान नहीं पाये। पता चला ये भड़ास वाला यशवंत है। येएएएएएएए? एक बार फ़िर चश्मा साफ़ किया। हमारे ब्लोगिंग के शुरुवाती दिनों में भड़ास के बारे में गढ़ी नकारत्मक इमेज आखों के सामने घूम गयी। हमने तो सोचा था कि भड़ास जैसा ब्लोग लिखने वाला कोई विलेन टाइप खड़ूस बंदा होगा, पर ये बंदा तो बड़ी शालीनता से सबसे मिल रहा था। खैर हमसे ज्यादा बात तो होने का कोई सवाल ही नहीं था क्युं कि वो न हमें जानता था न उसने कभी हमारे बारे में सुना था। तब तक सिद्धार्थ जी भी आ गये और इतनी गर्मजोशी से हम सब से मिले कि मन की सारी हिचकिचाहट जाती रही। कुछ ही देर में कविता जी और रचना जी (सिद्धार्थ जी की पत्नी) और सत्यार्थ ( उनका बेटा और वहां पर सबसे छोटा ब्लोगर) भी आ गये। सत्यार्थ इतना स्मार्ट बच्चा है कि उस से बतियाते हुए समय कैसे गुजर जाए पता ही नहीं चलता।

अनूप जी ब्लोगर कम और रिपोर्टर ज्यादा लग रहे थे, लैपटॉप और कैमरे से लैस, आते ही उन्हों ने सब की फ़ोटो लेना शुरु कर दिया। कविता जी कहती रह गयी कि अभी तो मैं सो कर उठी हूँ पर वो कहां मानने वाले थे। कविता जी, अजित जी और मैं ऐसे घुलमिल गयीं जैसे बरसों  से सखियां हों।

एक और सुखद आश्चर्य हमारे लिए था विवेक सिंह। मुझे याद है कुछ महीने पहले चिठ्ठा चर्चा पर उसकी पोस्ट पढ़ा करती थी और उसकी टिप्पणियां भी किसी कोल्हापुर की मिर्ची से कम न होती थीं पर ये जो बंदा हम से बतिया रहा था( नहीं नहीं शरमा रहा था) उसके तो गले से आवाज ही नहीं निकलती थी। उस से ज्यादा ऊंची आवाज मेरी और कविता जी की थी। मैं और कविता जी एक साथ बोलीं कि विवेक तुम्हें देख तो मन में वात्सल्य उमड़ता है। उसने एक शरमीली सी मुस्कुराहट के साथ हम दोनों के वात्सल्य को स्वीकार किया। थैंक्यू विवेक्।  

सभाग्रह का विवरण आप दूसरों से सुन ही चुके हैं। शाम को काव्य संध्या का आयोजन था। करीब सात बजे वही खुले चबुतरे पर कविताओं का आनंद लूटने का निर्णय हुआ। अब वहां हवा तो थी पर लाइट थोड़ी कम थी। कविताओं का आनंद देने और लूटने आलोक धन्वा जी और दूसरे टीचर्स भी आ गये। दर असल वो लोग हम सब के साथ ऐसे घुल मिल गये जैसे दूध में शक्कर। एहसास ही नहीं होता था  कि वो लोग ब्लोगर नहीं हैं। उनमें से एक ने कविता पाठ करने के लिए जेब से टार्च निकाली और फ़िर तो जिस को कविता पढ़नी होती थी वो टार्च उसके पास पहुंच जाती थी। कविताओं के बाद गप्पों का दौर चला । किसी का मन नहीं कर रहा था सोने जाने के लिए। खूब मजा आया…अनूप जी, जो सबकी मौज लेते रहते है, उनकी कविता जी ने ऐसी मौजिया खबर ली कि उनसे कुछ बोलते न बना।

एक एक कर सब अपने अपने कमरों की तरफ़ बढ़ गये, सिर्फ़ कुछ लोग ही बच गये थे। शैलेश, यशवंत और गायत्री मेरी बायीं तरफ़ बैठे गपिया रहे थे और कविता जी, अजित जी और ॠषभ जी मेरे दायीं तरफ़ थे। अचानक मैं मुड़ी और यशवंत से कहा मुझे आप से कुछ पूछना है। अब ये उनके लिए अप्रत्याशित था, उन्हों ने हमें टालने के लिए कहा कि सुबह पूछ लीजिएगा। शैलेष भांप रहा था कि यशवंत हमें जानते नहीं इस लिए शायद संकोच कर रहे हैं उसने यशवंत के आगे हमारी तारीफ़ के पुल बांधने शुरु ही किए थे कि यशवंत ने बात काट दी और कहा अच्छा अच्छा आप पूछिए क्या पूछना है? हमने मन ही मन यशवंत को कोसा, अपनी तारीफ़ सुनने का एक मौका जो हाथ से चला गया, लेकिन प्रत्यक्ष रूप से बोले कि हम बहुत देर से देख रहे हैं कि आप बहुत ही संस्कारी और शालीन व्यक्ति हैं फ़िर आप एक भड़ास पर एक बिगड़े हुए, गाली बकते हुए ऐसे व्यक्ति की इमेज क्युं प्रस्तुत करते हैं जिस से लोग बात करते हुए भी डरें। वो थोड़ा मुस्कुराया और करीब पंद्रह मिनिट तक डिटेल में बताता रहा कि भड़ास अब ब्लोग नहीं रहा एक वेब पोर्टल बन चुका है और अब बिल्कुल वैसा नहीं जैसा पहले था। अपने निजी जी्वन के बारे में काफ़ी कुछ बताया, उसकी बातें सुन हमें सत्तर के दशक का यंग ऐंग्री अमिताभ बच्चन याद आ रहा था। हमने उसे बिन मांगी ढेर सारी सलाहें दी जिसकी उसे बिल्कुल जरूरत नहीं थी पर हम अपनी आदत से मजबूर हैं। उसने अच्छे संस्कारी बच्चे की तरह वो सब सलाहें सहेज कर जेब में रख लीं। दूसरे दिन तक हम अच्छे दोस्त बन गये थे और यशवंत ने अपने मंहगे मोबाइल से जो फ़ोटो खींचे थे उसमें से कई हमसे साझा किये।थैंक्यू यशवंत

फ़िर शैलेश भारतवासी से गपियाये, हिन्द युगम  की  भविष्य की योजनाओं के बारे में       जाना। अच्छा मजेदार बात ये है कि हमारे ब्लोगिंग के शुरुवाती दौर में जितनी बहस/ झगड़ा हिन्द युगम के नियमों को ले कर मैं ने शैलेश से किया है उतना किसी और ने मुझसे किया होता तो मैं उस से दूर रहती, लेकिन शैलेश आज तक न सिर्फ़ हमें झेलता है बल्कि सम्मान भी देता है। यहां तक कि हिन्द युगम की आगामी योजनाओं के बारे में भी वो हमारी राय जानना चाहता था। हर बार जब भी वो हमें मिलता है उसके पास हमें देने के लिए कोई न कोई उपहार जरूर होता है, इस बार भी उसने कुछ पत्रिकाएं और सी डीस  भेंट की। शैलेष मैं तुम्हारे स्नेह से अभीभूत हूँ।

संजय बैंगानी को मैं पहली बार देख रही थी। वो अपनी उम्र से करीब दस साल छोटे लगते हैं( उनकी उम्र आप उनसे ही पूछ लीजिएगा मुझे तो सिर्फ़ सत्ताइस तक के लगे…J) उनसे भी तरकश को ले कर कई बातें हुईं। अजित जी ने उनसे वैब साइट बनाने की पैचीदगियों पर चर्चा की और हम भी लाभान्वित हुए।
 प्रवीण पाण्डे जी से मेरी पहली मुलाकात पिछले महीने बैंगलोर में हुई थी। इस लिए उनके बारे में अगली पोस्ट में।
 
प्रियंकर पालिवाल भी अपनी फ़ोटो में जितने मोटे और अधेड़ उम्र के लगते है वास्तव में उसके आधे भी नहीं। वो साहित्यकार हैं और हम उस मामले में अप्रवासी से। उनसे हमारी बातचीत हुई जब सिद्धार्थ जी ने चार ग्रुप बना दिये थे आचार संहिता पर विचार विमर्श करने के लिए। हम जो पेपर्स बना कर ले गये थे हमने ग्रुप के सामने रखे। रवींद्र जी और मेरे पेपर में बहुत समानता थी सो सारे पोइंटस मिला के एक पेपर किया गया। उसके अलावा हम बलोग एथिक्स पर हुई मनोवैज्ञानिक शोध पर भी एक पेपर तैयार कर के ले गये थे। निश्चित ये किया गया कि अगर समय रहा तो हमारे ग्रुप में से दो पेपर पढ़े जायेगें। प्रियंकर जी से ज्यादा बात तो नहीं हुई लेकिन दूसरे दिन विदा लेते समय उनका ये कहना कि वो हमारी शख्सियत से प्रभावित हुए हैं हमारी सुनहरी यादों का हिस्सा बन गया।

इसी तरह से आलोक धन्वा जी का मैं ने नाम भी नहीं सुना हुआ था। जब उनके परिचय में कहा गया कि वो कवि हैं तो हमने कोई खास ध्यान न दिया। हाँ इस बात पर हमारा ध्यान जरूर गया कि इस उम्र में भी( करीब अस्सी के तो होगें) और इतनी कमजोर काया के बावजूद उनमें स्फ़ूर्ती और शक्ती भरपूर है। मुझे नहीं याद आता कि मैं ने उन्हें अपनी कुर्सी पर दो मिनिट से ज्यादा बैठे देखा हो। बात बात पर वो उठ कर अपने कमरे की तरफ़ दौड़ते जाते थे और कुछ न कुछ लाते रहते थे। मुझे उनके साथ बैठने का मौका मिला दूसरे दिन जब हमारे वहां से निकलने में मुश्कि
मेरा छुटकु ब्लोगर दोस्त सत्यार्थ अपनी असिस्टेंट रचना जी के साथ 
ल से एक घंटा रह गया था। सत्यार्थ को चोट लग गयी थी। वो दौड़े हुए गये और बेन्डेड ले आये साथ में चॉकलेट भी। हमारे मुंह से बेसाख्ता निकल गया और हमारे लिए उन्हों ने सुन लिया लेकिन सोचा कि शायद पास बैठी गायत्री ने कहा है, आखिरकार वो सबसे छोटी जो थी ग्रुप में। वो फ़िर दौड़े गये और एक और चॉकलेट ले आये। हम तुनके कि मांगी तो हमने थी। उनके पास और चॉकलेट नहीं थी। बड़े स्नेह से मेरे पास आ के बैठे और बोले आप को अगली बार ले दूंगा…हा हा हा। अब हमसे असली मानों में परिचय लिया दिया गया। हमने उन्हें बताया कि हम उनकी रचनाओं से वाकिफ़ नहीं ( भले पूरा परिसर उनकी रचनाओं का गुणगान कर रहा था) लेकिन अब वापस जा कर पढ़ेंगें। किसी बात पर उन्हों ने कहा आप और हम अब इस उम्र में…हम फ़िर तुनक गये ( उम्र होगी जी आप की यहां तो दिल बच्चा है जी) वो हंस दिये। जब जाने का समय आया तो अपनी वर्द्धावस्था के बावजूद वो सात आठ सीढ़ियां उतर कर हमें विदा करने आये और कहने लगे मैं ने आप जैसा सरल व्यक्तित्व नहीं देखा मैं आप को कभी भूल नहीं पाऊंगा और जब भी बम्बई आया आप से जरूर संपर्क करूंगा। ऐसा व्यक्ति जो शायद सेलेब्रेटी है वो ऐसा कहे सोच कर ही हम नतमस्तक हो जाते हैं। उनकी आवाज अब भी मेरे कानों में गूंज रही है।

लौटने का समय जैसे जैसे नजदीक आ रहा था हम चिंतित हो रहे थे। करीब पांच बार सिद्धार्थ जी को याद दिलाया कि मेरी ट्रेन साढ़े छ: बजे की है। बम्बइया हिसाब से हम वहां से पांच बजे ही निकलने को तैयार हो गये थे। सिद्धार्थ जी ने आश्वस्त किया कि एक छात्र आप को गाड़ी में बिठा कर आयेगा। आप निश्चिंत हो कर चाय पियें। हम सब के साथ फ़ोटो खिचाने में मस्त हो गये। करीब साढ़े पांच/छ: बजे जब विदा लेने लगे तो सिद्धार्थ जी ने  हमारी तरफ़ एक डिब्बा बढ़ाते हुए कहा ये आप का रात का खाना। उस समय की खुशी और उस समय के एहसास ब्यां करने के लिए तो मेरे पास शब्द ही नहीं। ऐसा लगा मानो मैं इंदौर से अपने छोटे भाई के घर से लौट रही हूँ। इस वर्धा यात्रा ने तो मुझे गाय बना दिया है। हर रोज अपनी तन्हाइयों में मैं इन यादों को निकाल जुगाली करती हूँ ।

 सुना था लेकिन अब एहसास भी हो रहा है कि लेखन भी जिम जाने जैसा है। जब तक जाते रहो शरीर चुस्त दुरुस्त रहता है, जरा सा भी आलस किया और कुछ दिन के लिए छोड़ा तो फ़िर दोबारा खुद को जिम में ले जाना बड़ी टेड़ी खीर है। लेखन का भी यही हाल है। मेरी लास्ट पोस्ट जून में आयी थी। उसके बाद ऐसा नहीं कि मेरे पास लिखने को कुछ नहीं था, अगर कहूं कि वक्त नहीं मिला तो भी सरासर झूठ होगा बस कलम को जंग लग गया था। वर्धा मीट में अनूप जी ने परिवार के सबसे वरिष्ठ सदस्य की तरह स्नेह भरी डांट लगायी, फ़िर से कलम उठाने के लिए प्रेरित किया। अपने परिचय में जब हम ने कुछ ज्यादा कहने से संकोच किया तो उन्हों ने मेरी लिखी एक पोस्ट का जिक्र करते हुए याद दिलाया कि किसी जमाने में हम ठीक ठाक लिख लेते थे और अब भी अगर फ़िर से लिखना शुरु कर दें तो ठीक ठाक लिख ही लेगें। तो अनूप जी ये पोस्ट आप को समर्पित- अच्छी है या बुरी आप की किस्मत्…।J
  
निकलने से एक घंटा पहले गपियाते साथी
गायत्री, सिद्धार्थ जी और रचना जी और…:) 
संजीत, सिद्धार्थ और विवेक, पीछे हैं महेश सिन्हा जी
सभाग्रह से चिठ्ठाचर्चा पर जाती पहली पोस्ट( अनूप जी और विवेक) 

तनिक रुको भाई आ रहे हैं, बताते हैं बताते हैं


संगोष्ठी से करीब 15 दिन पहले पता चला कि सिद्धार्थ जी ने ब्लोग एथिक्स पर किसी संगोष्ठी का आयोजन किया है। सिद्धार्थ जी ने जो संगोष्ठी इलाहाबाद में की थी उसकी रिपोर्ट्स अभी तक हमारे दिमाग में तरो ताजा थीं। ब्लोगजगत के दिग्गज ब्लोगरों को रु ब रु हो कर सुना जा सकता है इस ख्याल से ही रोमांच हो आया। हमने अपने संकोच को दरकिनार करते हुए सिद्धार्थ जी को मेल लिखा और संगोष्ठी में शामिल होने की अनुमति मांगी। उन्हों ने ब्लोगिंग की स्पीड से जवाब देते हुए हमें पेपर प्रेसेंट करने का निमंत्रण पत्र भेज दिया। तारीखें थीं 9 और दस ओक्टोबर्। ग्यारह ओक्टोबर से हमारे कॉलेज में परिक्षाएं शुरु होने वाली थीं और परिक्षाओं के दौरान किसी की भी छुट्टी मंजूर नहीं होती है। संगोष्ठी का निमंत्रण पत्र भी कॉलेज के नाम नहीं आया हुआ था। जैसे तैसे कर के प्रिंसिपल को एक दिन की छुट्टी के लिए मनाया।

हमने जिंदगी में कभी किसी अन्जान शहर के लिए अकेले सफ़र नहीं किया। मन में थोड़ी धुकधुक थी। लेकिन पति के सामने हम बहादुरी का मुखौटा पहने रहे। मेरी घबराहट थोड़ी और बढ़ गयी जब एक मित्र ने कहा मैं तो नहीं जा रहा पर यदि आप जा रही हैं तो संभल कर जाइयेगा, सिद्धार्थ का इंतजाम पता नहीं कैसा हो, अपना सब इंतजाम कर के जाइयेगा। हम और कन्फ़्युज्ड हो गये। खैर हमारे मन का रोमांच हमारे डर से ज्यादा ताकतवर निकला और हम आठ की दोपहर को गाड़ी चढ़ गये। 


थ्री टायर ए सी में ए सी की हवा के साथ कॉकरोच रेलवे सेवा की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिले। हम सीधे कॉलेज से ट्रेन में जा बैठे थे, खाना खाने का भी वक्त नहीं मिला था, सो पेट में चूहे दौड़ रहे थे। खुद को कोस रहे थे कि पैकिंग लास्ट मिनिट तक क्युं टाली गयी। नासिक से दो पैसेंजर चढ़े कोई आठ बजे के करीब, उनमें से एक करीब तीस साल का रहा होगा और दूसरा करीब 45 साल का। ऐसा लगता था कि ये दोनों नियमित इस रूट पर सफ़र करते हैं। खाने का ऑर्डर देते समय जान पहचान और बातों का सिलसिला शुरु हुआ। साढ़े नौ बजे खाना खाने लगे तो पता नहीं कहां से कॉकरोचों की एक पूरी सेना अपना हिस्सा वसूलने को तैयार नजर आयी। जैसे तैसे हमने उनसे बचा कर दो निवाले गले के हवाले किये और बाकी खाना फ़ेंक दिया। इतने में सिद्धार्थ जी का फ़ोन आ गया कि मेरी ट्रेन कितने बजे वर्धा पहुंचती है। हमने सकुचाते हुए उन्हें बताया कि हम सुबह 4 बजे वर्धा पहुंच जायेगें और वो चिन्ता न करें हम दो घंटे वेटिंग रूम में गुजार लेगें। लेकिन उन्हों ने कहा कि नहीं हमें लेने के लिए चार बजे एक विध्यार्थी आ जायेगा। जान में जान आयी।
 वो नासिक से चढ़ा युवा सहयात्री किसी इंटरव्यु की तैयारी कर रहा था, जनरल नॉलेज के प्रश्न। बीच बीच में अगर उसे किसी प्रश्न का उत्तर नहीं आता तो अपने साथी से पूछता जाता। धीरे धीरे हम भी उन प्रश्नों में रस लेने लगे। उसके पास करीब डेढ़ सौ प्रश्न थे, हम शर्मसार हुए जा रहे थे कि हमें उनमें से आधे से ज्यादा( या शायद उससे भी ज्यादा॥J) सवालों के जवाब नहीं मालूम थे। उसने चहक कर कहा आप हिंदी विश्वविधालय जा रही हैं तो इस प्रश्न का उत्तर तो आप को पता ही होगा। प्रश्न में उसने किसी सच्चिदानंद कवि का नाम बता कर कहा ये साहित्य में किस नाम से प्रसिद्ध हैं। हमें याद आया कि वर्द्धा में अभी 2 और 3 ओक्टोबर को इसी कवि के बारे में कोई कार्यक्रम हुआ था। ऐसा लग रहा था कि इसका जवाब अज्ञेय होगा लेकिन फ़िर भी पक्का कर लेना चाह्ते थे। हमने संजीत नामक लाइफ़ लाइन का इस्तेमाल किया। जवाब सही था। सुबह होते होते आंख लग गयी।
 
सुबह करीब साढ़े तीन बजे अगर सिद्धार्थ जी के विध्यार्थी धनेश का फ़ोन न आया होता तो हम शायद नींद में नागपुर पहुंच जाते। सुबह की ठंडी ठंडी ब्यार में जब चार बजे स्टेशन पर उतरे तो पांच मिनिट में धनेश हमारे सामने खड़ा था। एक और मेहमान जो रात को डेढ बजे आ कर वेटिंग रूम में सो रहा था उसे लिया और दस मिनिट में केम्पस पहुंच गये। ठहरने की व्यवस्था इतनी बढ़िया था कि वापस आने का मन न करे। धनेश को उम्मीद थी कि हम जा कर अपने कमरे में सो जायेगें लेकिन हमारी नींद तो केम्पस की खूबसूरती ने चुरा ली। दूसरों के उठने में अभी वक्त था सो हम उस स्लेटी अंधे्रे में टहलने के लिए निकल पड़े। बिचारा धनेश हमारे साथ हो लिया , साथ साथ में बताता जा रहा था कि यहां कोबरा भी निकलते हैं, हमने डरने से इंकार कर दिया। साढ़े पांच बजे तक तो हम स्नान कर तैयार थे उस के साथ मेहमानों की दूसरी खैप को स्टेशन से लाने के लिए। लेकिन फ़िर गाड़ी में जगह की कमी को देखते हुए हमने स्टेशन जाने का इरादा छोड़ दिया। धनेश ने सोचा होगा इस चिपकू मेहमान से जान बची तो लाखों पाये।

बाकी ब्रेक के बाद्…:)