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July 29, 2008

कुलबुलाहट

कुलबुलाहट

इधर हम कुछ दिनों से कुछ नहीं लिख पा रहे। मन और मस्तिष्क दोनों छुट्टी पर हैं। उनके लौटने का इंतजार है। हमने कई नोटिस भेजे हैं पर दोनों टस से मस नहीं हो रहे, बिमार हैं कह कर टाल दिया जब की हम जानते हैं कि दोनों बारिश की रिमझिम का मजा ले रहे हैं।


सभी ब्लोगरस की तरह हमें भी बहुत कुलबुलाहट हो रही है। जब नहीं रहा गया तो आज हमने मस्तिष्क को फ़ोन लगाया'अरे भई, नहीं आते तो मत आओ, वहीं से हमारे एक सवाल का जवाब दो, ये बहुत परेशान कर रहा है'।

मस्तिष्क बोला मतलब अब हमारा भी वर्चुअल ऑफ़िस हो लिया, खैर क्या सवाल है ?

मैं- हम बाह्य मुखी हैं या अंतर्मुखी मतलब एक्स्ट्रोवर्ड या इन्ट्रोवर्ड?

मस्तिष्क कुछ सोचते हुए बोला हम तब जवाब देगें जब मन भी हमारी बातचीत में शामिल हो, आखिरकार ये तो पॉलिसी डिसिजन है जी।हमने मन को भी फ़ोन लगाया, विडियो कोन्फ़्रेसिंग करवाई,( कित्ते पैसे खर्च हो गये, ब्लोगिंग की लत जो न करवाये कम है)

मैं- मस्तिष्क भाई, हमें इतनी कुलबुलाहट क्युं हो रही है? एक साल पहले भी कहां लिखते थे तब तो ऐसी बैचेनी नहीं होती थी, ब्लोगजगत के दोस्तों को इतना मिस न करते थे।क्या ये बाह्य मुखी होने की निशानी है?

मन- लो! अब ये नयी बिमारी हमारे पल्ले बांध रही हो। हम तो ताउम्र ये समझे थे कि तुम अपनी तन्हाइयों में खुश रहती हो, फ़िर ये कुलबुलाहट की बात कहां से आ गयी।

मैं- वही तो हम पूछ रहे हैं क्या ब्लोगजगत ने हमें बदल कर रख दिया है और हमें पता भी न चला कि कब हम अंतर्मुखी से बाह्य मुखी हो गये।

मस्तिष्क अपनी पिछवाड़े वाली कोठरी से निकलता हुआ बोला अंतर्मुखी अपने ही विचारों और भावनाओं से ऊर्जा पाते हैं, और एक वक्त में एक ही काम करते हैं पूरी एकाग्रता के साथ्।

मन- तब तो ये अंतर्मुखी हो ही नहीं सकती, देखा नहीं तुमसे और मुझसे कितना काम करवाती हैं, एक ही वक्त में तीन तीन चार चार काम करने को कहती हैं। लेक्चर बनाने को बैठती हैं तो मुझे दौड़ा देती हैं, जरा देख कर तो आओ ब्लोगजगत में क्या हो रहा है, ज्ञान जी का मक्खीमार का रिकॉर्ड तीस तक पहुंचा कि नहीं, अनूप जी ने किसकी मौज ली, अजीत जी के बकलम में कौन आया, और भी न जाने कहां कहां जाने के लिए लंबी लिस्ट पकड़ा देतीं हैं। दौड़ते दौड़ते शाम हो जाती है पर इनकी लिस्ट तो शैतान की आंत की तरह खत्म ही नहीं होती। हांफ़ते हांफ़ते वहां का हाल सुनाता हूँ तो तुम्हें झट से दौड़ा देती हैं मेरे तो पैरों में छाले पड़ गये। मैं कहे देता हूँ मैं गणपति की छुट्टियों से पहले नहीं आने वाला। अवकाश अवधि बड़वाने की अर्जी देने वाला हूँ। देखो देखो, छुट्टी पर हूँ फ़िर भी चैन नहीं यहां भी फ़ोन ख्ड़का दिया।

मै- तुम तो शिकायतों का पुलिंदा हो जी

मस्तिष्क हम दोनों की नोंक झोंक को नजर अंदाज करते हुए बोला सोचने वाली बात ये है कि अंतर्मुखी मितभाषी होते हैं और जो भी बोलते हैं बहुत सोच विचार कर बोलते हैं।

मन तपाक से चहचहाया- देखा! मैं न कहता था ये अंतर्मुखी हैं ही नहीं, इनके जैसा बातूनी देखा है कहीं और सोच विचार का तो नाम ही मत ओलो। जब तक तुम अपने पेंच कसते हो, इनकी जबां फ़िसल चुकी होती है।

मै- अरे हमेशा थोड़े ऐसा होता है वो तो जब हम एक्साइटेड होते हैं तब्…।

मस्तिष्क - तुम दोनों यूं ही भिड़ते रहे तो मैं चला।

मैं - अरे नहीं नहीं, फ़ोन मत रखना, तुम बोलो तुम बोलो, ऐ मन चुप बैठो।

मस्तिष्क- हम्म! अंतर्मुखी को अपनी निज जानकारी जग जाहिर करने में बड़ा संकोच होता है, तो तुम्…

हम टप्प से बोले नहीं नहीं ये बात हम नहीं मानते, हमारे कई ऐसे ब्लोगर दोस्त हैं जो अंतर्मुखी हैं पर हम सबको उनकी पल पल की खबर रहती है वो भी बिना जासूस।

मस्तिष्क परेशान होते हुए बोला तब हमें नहीं मालूम, किसी और को पूछो।हम छुट्टियों में ओवर टाइम नहीं करते।

अब बताइए जनाब किस से पूछें , क्या आप बता सकते हैं हम बाह्य मुखी हैं या अंतर्मुखी?

July 13, 2008

और वो लटक लिए

और वो लटक लिए

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पता नहीं क्या बात है पर अचानक आत्महत्या की कई खबरें, चर्चाएं सुन रहे हैं। अनूप जी ने कहा, उनसे प्रेरित हो कर अकुंर जी बोले, दोनों को आई आई टी में हुई छात्रों की आत्महत्या ने द्रवित किया। पिछले ही हफ़्ते अपनी ही बिल्डिंग में एक नौकरानी के आत्महत्या के मामले ने हमें अंदर से हिला कर रख दिया, मृत्यु तो अब कई बार देख चुके पर आत्महत्या पहली बार देख रहे थे। फ़िर पिछले हफ़्ते ही अखबार में पढ़ा कि जिस पुल को पार कर हम रोज कॉलेज जाते हैं उसी से एक युवक, शायद हमारे ही कॉलेज का, अपनी प्रेमिका की आखों के सामने इस दुनिया से कूच कर गया। हम आते जाते सोचते रहे क्या वजह /मजबूरी रही होगी कि इन नयी खिलती कलियों ने ऐसा कदम उठा लिया। इनके सामने तो अभी पूरी जिन्दगी पड़ी थी, अभी तो सब सपने देखे भी न होगें, उन्हें पूरा करने की मशकत करना तो दूर की बात थी। मेरे जैसे लोग जो अपनी जिन्दगी जी चुके हैं वो ऐसा करने की सोचें तो बात समझ आती है।

एक बात तो है मरना इतना आसान नहीं है, आत्महत्या करने की सोचना एक बात है और कर जाने के लिए कदम उठा लेना दूसरी बात है, उसके लिए बड़ा जिगरा चाहिए या मन में समुद्र जितना दर्द या डर। पर आदमी इतना क्युं डर जाए कि अपनी जान ही ले ले। कौन डराता है उन्हें इतना। ज्ञान जी के शब्द अगर चुराने की इजाजत हो तो कहूंगी कि मन में ऐसी ही हलचल चल रही थी।
अनूप जी ने विश्लेषण करते हुए कहा कि लोग( खास कर आजकल की युवा पीढ़ी) असफ़लता के चलते, आर्थिक विपदाओं के चलते, तनाव, अकेलेपन के कारण,और कोई दूसरा रास्ता न समझ आने के कारण, यहां तक कि दूसरों की नकल लगाते हुए भी आत्महत्या कर लेते हैं।



अकुंर जी ने भी लगभग वही बात दोहराई, आजकल लोगों की सहनशक्ति बहुत कम हो गयी है। आपसी रिश्तों का ह्रास अकेलेपन को बढ़ाए दे रहा है। दोनों पोस्ट पर टिप्पणीयों में भी कई कारण साफ़ हुए पर दोनों पोस्ट में एक एक बात मार्के की थी, जिसका जिक्र जरूरी है, पहले तो अनूप जी की बात-
“सामूहिक लक्ष्य में असफ़लता के चलते लोगों को आत्महत्या करने के किस्से नहीं सुनने को मिलते हैं। यह नहीं सुनाई देता कि क्रांति असफ़ल हो गयी तो नेता ने आत्महत्या कर ली, मार्च विफ़ल हो गया तो लीडर ने अपने को गोली मार ली, शिक्षा का उद्देश्य पूरा न हुआ तो बच्चों की शिक्षा के लिये दिन रात कोशिश करने वाला बेचैन शिक्षाशास्त्री लटक लिया। ”
और अकुंर जी की पोस्ट में जो उन्हों ने बड़ी पते की कही वो ये कि "यदि हमने आर्थिक संपन्नता का भोग किया है तो इसके दुश्परिणामों को भी हमें ही झेलना पड़ेगा।"

ये दोनों बातें भी एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। सामूहिक लक्ष्य में असफ़लता के चलते लोग इस लिए आत्महत्या नहीं करते क्यों कि असफ़लता के लिए वो सिर्फ़ खुद को जिम्मेदार नही मानते, उल्टे ऐसा सोचते हैं कि अगर दूसरे हमारे आढ़े न आते तो हम यकीनन सफ़ल हो जाते, इस प्रकार जिम्मेदारी का विकेन्द्रिकरण कर अपने अहं को चोट पहुंचने से बचाये रखते हैं।

लेकिन जब व्यक्तिगत असफ़लता मिलती है तो किसको दोष दें , लोगों के काल्पनिक हमलों से ही बचने के लिए निपट लेते हैं। आत्म रोष तो होता ही है डर भी बेहद होता है।

मेरे ख्याल में आत्महत्या की बिमारी की जड़ में हमारा अपनी संस्कृति से दूर होना और पाश्चात्य संस्कृति को अंधाधुंद अपनाना भी है। हमारी संस्कृति सिखाती है एक दूसरे के साथ जुड़ना, अपनी पहचान अपने घर परिवार से बनाना, पाश्चात्य संस्कृति सिखाती है अलगाववाद जिसमें मैं ही मैं सबसे ज्यादा महत्त्व रखता है। खून के रिश्तों से भी प्रतिस्पर्धा,अकेलापन तो होना ही है।

हमारी संस्कृति सिखाती है विनम्रता, सफ़ल असफ़ल होने वाले हम कौन, हम तो वही करते और पाते हैं जो ऊपर वाला चाहता है, ऐसी सोच असफ़लता से पैदा हुई निराशा से बचने के लिए कवच का काम करती है, लेकिन पाश्चात्य संस्कृति तो कहती है खुद को सर्वोपरि समझो, अपने आगे किसी को कुछ न समझो, तुम्हारे जीवन में जो कुछ भी होता है उसके लिए तुम खुद जिम्मेदार हो, तब असफ़लता हाथ लगे या उसका अंदेशा भी हो तो जोर का झटका तो लगना ही है। ऐसे में शर्म के मारे बच्चा किसी से कह भी नहीं सकता कि उसे कोई परेशानी है। ऐसा कहने का मतलब होगा ये मान लेना कि वो कमजोर है, नकारा है, अपनी जिन्दगी खुद नहीं संभाल सकता और ये मान लेना तो उसे मंजूर नहीं, स्वाभिमान दंभ होने की हद्द तक जो कूट कूट कर भरा जाता है।

कुछ लोग ये समझते हैं कि लोग आत्महत्या तभी करते हैं जब उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं बचता, पर मुझे तो लगता है कि आज कल लोग आत्महत्या का विकल्प एक बड़ा ही आसान विकल्प समझा जाता है और लोग उसे हमेशा साथ में रखते हैं। जिन्दगी के संघर्षों से जुझना बड़ा लंबा और मेहनत का काम है, जिन्दगी से निपट लेने में कुछ क्षण ही तो लगते हैं फ़िर ऐसी जगह पहुंच जाते हैं जहां कोई कुछ कह भी नहीं सकता।
मुझे नहीं लगता कि आत्महत्या करने वाला (खास कर कच्ची उम्र वाला)वास्तव में ये विश्वास करता है कि आत्महत्या के बाद जिन्दगी खत्म हो जायेगी। उसे लगता है मानों स्लेट पौंछ कर दूसरी कहानी लिखी जा सकेगी।

अनूप जी ने पूछा राम तो भगवान थे वो क्युं जा कर सरयु में समा गये। वैसे तो मैं ने धार्मिक किताबें कभी पढ़ी ही नहीं( वो सब रिटारयमैंट प्लान में आता है, वानप्रस्थ आश्रम के समय) पर जो कुछ रामायण के बारे में जानती हूँ उसके आधार पर मेरा अनुमान ये है कि राम जी की समस्या ये थी कि वो सारी जिन्दगी दूसरों के लिए जीते रहे, दूसरों को खुश करने के प्रयास में जिन्दगी निपटा ली। आज भी परिस्थति कुछ ज्यादा अलग नहीं, हम में से कई लोग दूसरों के लिए ही जीते हैं, खुद को क्या चाहिए, क्या अच्छा लगता है जब ये नहीं पता तो दूसरे को कैसे खुश रक्खा जाए कैसे पता होगा, सो बड़े क्न्फ़्युज्ड रह्ते हैं लोग। सिर्फ़ एक ही बात साफ़ होती है हम सबके दिमाग में , जन्म अपनी मर्जी से नहीं लिया, जीते भी हैं औरों की मर्जी से। अपने हाथ में तो बस एक ही चीज है अपनी मौत, जब चाहो गले लगा लो।
कई बार तो बच्चे सिर्फ़ अपने अति व्यस्त मां बाप को दु:ख पहुंचाने के लिए जिन्दगी से निपट लेते हैं जैसे कुछ घर से भागने की योजना बनाते हैं। इन्हें लगता है घर से भाग कर कहां जाएगें तो चलो जिन्दगी से भाग लो, आसान रहेगा। टिकट भी न कटाना पड़ेगा।

खैर इस विषय पर तो ढेर सारी चर्चा हो सकती है और होनी भी चाहिए। इस चर्चा को शुरु करने के लिए अनूप जी को साधुवाद देना होगा।

July 07, 2008

नकुल कृष्णा - भाग ५



नकुल कृष्णा - भाग ५


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आप लोगों की बात मानते हुए, इस कहानी को थोड़ा और आगे ले जा रहा हूँ। छह में से चार सिफ़ारिश के पत्रों को यहाँ पेश करना चाह रहा था। इनमे से तीन कॉलेज के वरिष्ठ शिक्षक के लिखे हुए थे और चौथा उसके नाटक का दिग्दर्शक का लिखा हुआ था। दो और हैं जिनपर "गोपनीय़" का छाप लगा हुआ था और उनकी प्रतियाँ हमें उपलब्ध नहीं हुई। दोनों बेंगळूरु के कला और साहित्य के क्षेत्रों में बड़ी हस्तियाँ माने जाते हैं। इन लोगों ने क्या लिखा था, नकुल को भी नहीं पता था लेकिन विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि दोनों ने नकुल की ज़ोरदार तारीफ़ की थी।




पत्र लिखने वालों का नाम मिटाकर और यहाँ वहाँ कुछ असंगत/अप्रासंगित बातों को भी मिटाकर यहाँ पेश करना चाहता था।



नकुल का लिखा हुआ निबन्ध मेरे पास अब नहीं है। उसे भी यहाँ प्रस्तुत करना चाहता था। नकुल को यों ही एक चिट्टी लिखी थी मैंने, इसकी एक प्रतिलिपि की माँग करते हुए। लगता है कि वह भाँप गया है कि मैं क्यों पूछ रहा हूँ। तपाक से उत्तर दिया है कि यह सभी Rhodes Trust के निजी और गोपनीय दस्तावेज़ हैं और इसे किसी सार्वजनिक मंच पर छापना वर्जित है। उसका कहना सही है। इस कारण, चाहते हुए भी, उन्हें ब्लॉग पर पेश नहीं करूँगा। यदि भविष्य में कभी अवसर मिला, और रुचि रखने वालो ब्लॉग जगत के मेरे नये मित्रों से भेंट होती है, तो अवश्य पढ़वाऊँगा।



एक दिन उसे पता चल ही जाएगा कि मैं अनिताजी के ब्लॉग पर क्या क्या उसके बारे में लिखा हूँ। अवश्य मुझे कोसेगा यह कह्कर "अपने मुँह मियाँ मिठ्ठू" वाली बात हुई न यह? क्यों शरमिन्दा कर रहे हैं आप मुझे?" मैं कोई उत्तर नहीं दूँगा। इस उम्र में हमारी मानसिक स्थिति वह क्या समझेगा? एक बाप को उसकी आशाएं, सपने और आकांक्षाएं अपने होनहार बेटे के जरिए साकार होता देखकर जो मन की स्तिथी वह तब समझेगा जब स्वयं एक और भी होनहार बेटा या बेटी का बाप बनेगा, भविष्य में।



नकुल आजकल छुट्टी मना रहा है और सुना है कि Oxford से कुछ दूर, एक गाँव में, अपने नए अन्तरराष्ट्रीय दोस्तों के साथ किसी खेत में अतिथि बनकर एक आधुनिक मकान में रह रहा है और वहाँ खेती, और पशु पालन के काम में अपने यजमान का हाथ बँटा रहा है। सब तरह का अनुभव चाहता है वह। मेरी पत्नि (जो आजकल USA में मेरी बेटी के साथ रह रही है, कुछ समय के लिए) टेलिफ़ोन पर आज इसकी सूचना दी थी। नकुल को पैसा नहीं मिल रहा लेकिन रहने और खाने पीने का पूरा और नि:शुल्क इन्तज़ाम यजमान ने कर दिया है। चलो अच्छा हुआ। आजकल शहर के बच्चे किसी किसान या ग्वाला को गाय का दूध दुहाते देखा भी नहीं होगा। आशा करता हूँ कि नकुल को स्वयं किसी स्वस्थ गोल-मटोल अंग्रेज़ी गाय से दूध दुहाने का अनुभव भी मिल जाएगा।



छ्ह महीने पहले उसने मुझे एक और मज़ेदार बात बतायी। किसी प्रोफ़ेस्सर अपने परिवार के साथ क्रिस्मस की छुट्टियों में कैंपस से कुछ दिनों के लिए बाहर जा रहे थे और परिवार की बिल्ली को दिन में दो बार दूध पिलाने की और उस पर नजर रखने की जिम्मेदारी उसे सौंपा गये। बढ़ी खुशी के साथ नकुल ने बताया कि इस काम लिए उस ७५ पौंड मिले थे!




इस कहानी को समाप्त करते हुए, यह दो आखरी तसवीरें पेश कर रहा हूँ।



लगता है Oxford जाकर भी उसका लिखने का शौक मिटा नहीं।New statesman पर उसकी लिखी हुई दो निबन्ध के अंश यहाँ पेश कर रहा हूँ। विस्तार से अगर आप पढ़ना चाहते हैं तो कड़ी देखिए। दूसरी कड़ी में Rhodes Scholarship पर उसका हाल ही में छपा हुआ लेख भी पढ़िए।


कड़ी है :






नकुल पर इन लेखों के लिए प्रोत्साहित करने के लिए, अनिताजी को और आप सब पढ़ने वालों और टिप्पणी करने वालों को मेरा विनम्र नमन और हार्दिक धन्यवाद।


दो साल पहले मेरी माँ चल बसी थी। नकुल तो उनके लिए आँखों का तारा था। माँ की आजकल बहुत याद आती है। काश वह यह सब देखने के लिए जीवित होती। मुझे यकीन है कि स्वर्ग से भेजे गए उनकी दुआअओं का नतीजा है यह सब। गज़ब की महिला थी मेरी माँ। दो साल पहले मरणोप्रान्त, शोक पत्रों के उत्तर देते हुए और माँ को श्रद्धाँजली अर्पित करते हुए सभी निकट के रिश्तेदारों और दोस्तों को मैंने चिट्टी लिखी थी (अंग्रेज़ी में)। शायद यह पठनीय साबित हो। अनिता जी के अंग्रेज़ी चिट्ठे (Chirpings) पर इसे छापने के बारे में सोच रहा हूँ। आशा करता हूँ कि आप लोग इसे भी पढ़ने में रुचि रखेंगे।



शुभकामनाएँ

गोपालकृष्ण विश्वनाथ

July 04, 2008

नकुल: भाग 4

नकुल: भाग ४
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इस चौथे किस्त में आपको यह बताना चाहता हूँ कि समाज सेवा और पर्यावरण रक्षा के क्षेत्र में नकुल की क्या भूमिका रही।
मैं नहीं सोचता कि उसने यह सब इस छात्रवृत्ति हासिल करने कि लिए किया था क्योंकि इन गतिविधियों में बहुत पहले से वह सक्रिय था।हाँ, बाद में उसे अवश्य लाभ हुआ।
समाज सेवा
करीब तीन साल पहले अचानक एक दिन वह एक भारी भरकम lap top घर ले आया। मैंने सोचा अपने किसी दोस्त का laptop उठाकर लाया है कुछ दिनों के लिए । लेकिन कुछ दिन बाद मैंने नोट किया वह लैपटॉप उसके पास अब भी है और घर में उसका उपयोग कभी करता नहीं था। उसके बारे में पूछा तो पता चला कि यह लैपटॉप किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की संपत्ति है (Microsoft ? या IBM? ठीक से याद नहीं) और अमानती तौर पर उसके पास कुछ समय के लिए रहेगा एक खास प्रोजेक्ट के सिलसिले में। शुरू शुरू में उस प्रोजेक्ट के बारे में वह बहस नहीं करना चाहता था हम लोगों के साथ शायद यह सोचकर के हम लोग इसका अनुमोदन नहीं करेंगे। वह शायद सोचता था कि हम उसको अपनी पढ़ाई की ओर ज्यादा ध्यान देने को कहेंगे ।
"नकुल अण्णा"
प्रोजेक्ट था Spreading computer awareness among the children of under privileged sections of society।
नकुल इस प्रोजेक्ट में स्वयंसेवक बन गया था। इस काम के लिए उसे कुछ निर्धारित समय देना पढ़ता था और इसके लिए कंपनी उसे बदले में कुछ नहीं देती थी। हमारे घर से करीब एक किलोमीटर दूर, किसी स्लम जैसी एक कोलोनी में जाकर, वहाँ अति निम्न-वर्गीय जाती और झुग्गी झोपडियों में रहने वाले बच्चों को कंप्यूटर सिखाता था। सप्ताह में कोई तीन या चार घंटे समय निर्धारित किया था। किसी समाज सेविका से जुडकर, और इस झुग्गी कोलोनी के मुखिया की अनुमति लेकर, वहाँ एक अलग साफ़ सुथरा स्थान का इन्तजाम हुआ जहाँ बिजली का इन्तज़ाम भी हो गया। इन गरीब बच्चों को (१० से लेकर १६ साल तक और जो सरकारी स्कूलों में पढते थे) कंप्यूटर का मूल ज्ञान देने लगा। बहुत ही छोटे बच्चों को PC Paintbrush के बारे में बताकर, उनको mp3 संगीत सुनाकर, विडियो क्लिप्स दिखाकर उनका मनोरंजन करता था और बडे बच्चों को फ़ाईल मैनेजमेंट, Word, Excel, वगैरह के बारे में बताने लगा।
बच्चे बडे चाव से यह सब सीखने लगे थे और जब भी वह वहाँ जाता था सारे मुहल्ले में उसका जोरदार स्वागत होता था और बहुत ही छोटे बच्चे तो "नकुल अण्णा" "नकुल अण्णा" (नकुल भाई) पुकारते पुकारते उसके पीछे पीछे भागते आते थे।
मुझे बाद में पता चला इसके बारे में और एक दो बार मैं भी उसके साथ चलकर देखा वहाँ का माहौल । मुझे आश्चर्य हुआ। कितने प्यार से यह बच्चे उसका स्वागत करके और कितने चाव और रुचि के साथ उससे सीखते थे। बच्चों की लाइन लग जाती थी कंप्यूटर पे हाथ चलाने के अवसर के लिए। महिलाएं कमरे के बाहर खडी होकर खिड़कियों से अन्दर झाँककर देखती रहती थी अपने अपने बच्चे क्या सीख रहे हैं। मर्द तो हमारे लिए चाय-नाश्ता का इन्तजाम करने में लग जाते और कमरे के बाहर की भीड का नियंत्रण करने में लगे रहते थे। हम दोनों को एक अलग ही दुनिया का अनुभव हुआ।
आजकल बैंगलौर में इस श्रेणी के लोगों के बच्चे शिक्षित बनते जा रहे हैं।हर महीने के अंत में नकुल कंपनी के कुछ अफ़सरों और इस इलाके की समाज सेविका को रिपोर्ट करता था। प्रोजेक्ट कई महीनों तक चला था और अंत में नकुल को एक विशेष समारोह में बुलाकर उसे बधाई पत्र और सर्टिफ़िकेट देकर उसका सम्मान किया गया। इस नेक काम, बिना पूर्व योजना बनाए हुआ, सेलेक्शन में बहुत ही उपयोगी साबित हुआ।
उसका संगीत प्रेम भी कमैटी ने नोट किया था। संगीत विद्यालय में स्वयं उच्च शिक्षा पाने के साथ साथ, वह नवागुन्तों को और बच्चों को संगीत सिखाता था इसी विद्यालय में जिसके कारण इस विद्यालय से भी प्रमाण पत्र मिला था।
GreenPeace
पर्यावरण के संबन्ध में उसके कुछ निबन्ध छपे थे। वह GreenPeace का सक्रिय सदस्य था और कई seminars में उसने भाग लिया था।जब भी GreenPeace को अपने काम में स्वयंसेवकों की आवश्यकता थी, वह सामने आ जाता था। इसके भी प्रमाण पत्र थे उसके पास।
बिना योजना बनाए हुए ही, और अन्जाने में ही, उसकी गतिविधियाँ इस छात्रवृत्ति के लिए एक किस्म की तैयारी बन गई जो ऐन वक्त पर बहुत काम आया था।
इसके अलावा अंतिम साक्षातकार से पहले उसे एक निबन्ध लिखना पढ़ा था। विषय था क्यों वह अपने को इस छात्रवृत्ति के लिए योग्य समझता है। इस निबन्ध पर सेलेक्शन कमैटी से बहस होती है। बड़ा कठिन विषय है। कैसे बिना डींग मारे, विनम्रता और आत्मविश्वास के साथ उसने अपने को योग्य ठहराया था, यह निबन्ध पढ़ने सी ही ज्ञात होगा।
मैं कोशिश करूँगा नकुल से निबंध की एक प्रतिलिपी पाने की। चालाकी से हासिल करना पढ़ेगा। उस समय पढ़ा था इस निबन्ध को और अब मेरे पास उसकी प्रतिलिपी नहीं है। मैं तो बहुत प्रभावित हुआ था इस लेख को पढ़कर और मौका पाकर आप सब को भी पढ़वाऊँगा।
इस पोस्ट के साथ मैं कुछ तस्वीरें पेश कर रहा हूँ जो मेरे पास तैयार हैं।बहुत कुछ इसपर लिखा जा सकता है पर मैं समझता हूँ अब इस लेख को समाप्त करूँ। जो रुचि रखते हैं और मुझसे सीधे संपर्क करके पूछते हैं उनको और आगे कुछ बता सकूँगा जो बहुत ही व्यक्तिगत है और ब्लॉग पर छापना शायद आप लोगों की राय में मुनासिब न होगा।
यहाँ इसके बारे में इतना ही बताना काफ़ी है कि पिछले ८ साल से, मेरे पेशे से संबन्धित मैं कुछ अंतरराष्ट्रीय ई मेल चर्चा समूहों का सदस्य हूँ और कभी कभी विषय से हटकर हम इधर -उधर की बातें भी करते हैं। मेरे करीब सौ अन्तरराष्ट्रीय मित्र होंगे जिनसे मैं इस चर्चा समूह के बाहर, सीधा संपर्क करके non - technical और व्यक्तिगत बातें भी करता हूँ। यह पत्र व्यवहार अंग्रेज़ी में होता है। मैंने नकुल के बारे में यह खुशखबरी सब को दी थी।उत्तर में संसार के कोने कोने से, जान पहचान वालों और कुछ अज़नबियों से भी मुझे उत्तर प्राप्त हुआ जो शायद पठनीय हो। अगर आप लोग ठीक समझते हैं तो इस श्रृंखला में एक और किस्त जोड़ सकता हूँ और इन उत्तरों का सार छापता हूँ। अन्यथा इस कहानी को मैं यहीं समाप्त कर रहा हूँ।
अनिता जी को विशेष धन्यवाद देना चाहता हूँ। न सिर्फ़ उन्होंने इस विषय का चयन किया था बल्कि मुझे प्रोत्साहित भी किया कि इस विषय पर विस्तार से लिखूँ। वह आश्वासन भी देती रही कि यह विषय रोचक और पठनीय है। ब्लॉग जगत में अब तक मेरा कोई ठिकाना नहीं है और निकट भविष्य में होगा भी नहीं । इधर - उधर यायावर बनकर भटकता हूँ और Nukkad।info के पंकज बेंगाणी, ज्ञानदत्तजी और अनिता कुमार जी जैसे मित्रों का अतिथि बनकर काम चला लेता हूँ।और अंत में, इस लेख के सभी पढ़ने वालों और टिप्प्णी करने वालों को भी मेरा हार्दिक धन्यवाद।
गोपालकृष्ण विश्वनाथ,
जे पी नगर,
बेंगळूरुई
मेल आई डी:gvshwnth AT याहू डॉट कॉम
geevishwanath AT जीमेल डॉट कॉम

कुछ तस्वीरें
































July 02, 2008

नकुल कृष्णा: भाग 3

नकुल कृष्णा: भाग ३
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तीसरे किस्त में आपको यह बता दूँ कि नकुल ने ऐसा क्या किया अपने को इस छात्रवृत्ति के योग्य बनने के लिए। जैसा मैंने बताया, योग्यता के लिए तीन शर्तें और छह लोगों से सिफ़ारिश की चिठ्ठियों की जरूरत थी।




पहली शर्त

पहली शर्त थी शिक्षा में लगातर उत्तम प्रदर्शन। इसे साबित करना सबसे आसान था।स्कूल और कॉलेज के रिपोर्ट कार्डस से यह साफ़ ज़ाहिर था कि नकुल सदैव एक उत्तम विद्यार्थी रहा है और स्कूल और कॉलेज में उसके सदा अच्छे नंबर आये हैं। यह जरूरी नहीं था कि छात्र कोई गोल्ड मेडलिस्ट रहा हो या बोर्ड परीक्षाओं में टॉप्पर रहा हो। बस consistently excellent academic performance काफ़ी था।



दूसरी शर्त


दूसरी शर्त थी कि नियमित पाठ्यक्रम के बाहर की गतिविधियों (extra curricular activities) में राष्ट्रीय स्तर पर सफ़लता। बस इसमें तो नकुल ने आसानी से बाजी मार ली। स्कूल और कॉलेज में वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में शायद ही कभी उसने पहला पुरस्कार नहीं जीता हो। जब हाई-स्कूल में था तो डिस्कवरी चैनल के आयोजित अखिल भारतीय वाद-विवद प्रतियोगिता में बैंगलौर में पहले नंबर पाकर, चेन्नैई में हुई ऑल इन्डिया फ़ाईनल्स में अपने शहर का प्रतिनिधित्व करके , चौथा नंबर पाया था और बाद में पता चला judges में भी मतभेद हुआ था और उनमें से एक ने नकुल को पहले या दूसरे नंबर पर रखना चाहा था। अन्तिम निर्णय जब घोषित हुआ तो वह तीसरा स्थान पाने से बाल-बाल चूका था।



रंगमंच


English Theatre उसके लिए passion और एक तरह का नशा था। Shakespeare के कई Dialogues तो उसे कंठस्थ था। अपने दोस्तों के एक theatre group में शामिल हो गया। उन लोगों का व्यंग्य-नाटक "Butter and Mashed banana" तो सारे भारत में अंग्रेज़ी रंगमंच की दुनिया में hit हुआ था। देश में कई जगहों पर उसका प्रदर्शन हुआ था। National Center for Performing arts, Mumbai में एक अखिल भारतीय Theatre festival में इस नाटक ने तीन awards जीते थे। Best play, Best direction और नकुल को इस festival का Best actor घोषित किया गया। Mumbai Mirror में उसकी एक रंगीन तसवीर भी छपी थी, हाथ में अवार्ड लिए हुए। Rave reviews भी पढ़ने को मिले थे। काश मैं यह तसवीर संलग्न कर सकता।



मेरे कंप्यूटर से किसी कारण मिट गया है और मुझे तारीख याद नहीं, नहीं तो इस अखबार के online edition से download कर लेता। नकुल से पूछने से डरता हूँ इसके विवरण। उसे यह अभी तक मालूम नहीं के उसके बारे में मैं इतना सब कुछ लिख रहा हूँ । अगर पता चला तो नाराज़ हो जाएगा। वह तो मुझसे भी ज्यादा विनम्र है और एकदम publicity shy है।


इसी नाटक का प्रदर्शन मुंबई में Kala Ghoda festival में भी हुआ। मुम्बई के Prithivi Theatre, पुणे में Film and Television Institute, और पॉन्डिचेरी में भी हुआ था। Indian Institute of Management में भी उसे विशेष आमंत्रण मिला इस नाटक का प्रदर्शन करने के लिए और हमने सुना है नाटक चलते चलते इसका सीधा प्रसारण भी भारत के अन्य IIM में भेजा गया था। इसके अलावा नकुल एक उच्च कोटी का लेखक है।


स्वावलंबी


जबसे कॉलेज जाने लगा, मुझसे एक रुपया भी जेब खर्च के लिए माँगा नहीं। Print media में और कई web sites पर उसके लेख मिल जाएंगे। अठारह साल की आयु से ही जेब खर्च पैसा खुद कमा लेता था। Outlook Traveler के लिए वह राज्य में भ्रमण करके लेख भेजता रहा और अपने जेब खर्च के पैसे कमा लेता था। अन्तर्जाल में Openspace।org पर भी उसके कुछ लेख मिल जाएंगे जिससे वह कभी कभी कुछ कमा लेता था। नकुल एक कवि भी है और उसके कई प्रशंसक हैं। बैंगलौर में कई बार अपनी अंग्रेज़ी कविताओं को जाने माने कवियों के सामने पढ़ने का मौका मिला। बैंगलौर में प्रतिष्ठित book release functions में हाजिर होता था और उसको प्रसिद्ध लेखकों के साथ मंच पर बैठे देखा हूँ अखबार के चित्रों में। लेखक के नए किताबों से कुछ अंश पढ़ने के लिए भी उसे आमंत्रण मिलता रहा है। जब विश्वविख्यात लेखक विक्रम सेठ बैंगळूरु आये थे, उनके पीछे पढ़ गया था और जब तक अपनी निजी कॉपी को उनसे हस्ताक्षर नहीं करावाया उस महान हस्ती से, वह वहीं डटा रहा।



बैंगलौर में English theatre circles में वह एक जाना पहचाना व्यक्ति है और कभी कोई मौका नहीं छोड़ता भारत के विख्यात अंग्रेज़ी रंगमंच के सितारों से मिलने में और उनके साथ समय बिताने में। कभी सारा दिन उनके साथ चक्कर काटता रहता था और अपने मोबईल भी बन्द रखता था ताकि उसकी माँ उसे यह भी नहीं पूछ सके कि भाई कब घर आ रहे हो? खाना ठंण्डा हो रहा है! सुना है कि आमोल पालेकर, नसीरुद्दीन शाह, अलइक पदमसी जैसे लोगों से मिलने का अवसर भी मिला था उसे। मुबई में Prithvi Theatre में उसको शशी कपूर के सामने अपना अभिनय का प्रदर्शन करने का अवसर मिला था। और भी उदाहरण दे सकता हूँ लेकिन यह Name Dropping से मुझे भी चिढ़ है!



अब क्या कहें?


कई बार, उसको मुम्बई जाना पढ़ता था नाटक के सम्बन्ध में और कभी कभी हम डर गये थे कि इसकी पढाई की क्या होगी? कहीं यह भटक तो नहीं रहा है? मुझे तो इन रंगमंच वालों का डर भी रहता था। हम लोगों से भिन्न हैं यह लोग। यहाँ बैंगलौर में उसका संपर्क रंगमंच के कुछ लंबे बाल और दाढ़ी वालों से, पायजामा/कुर्ता और चप्पल पहने हुए और कंधे पर एक कपडे का थैला लटका कर घूमने वाले लोगों से होता रहता था। मुझे कुछ अजीब लगता था पर उसे रोकने के लिए मेरे पास कोई logical कारण नहीं था। हमने तय किया थ कि पढ़ाई में उन्नति के हिसाब से उससे निपटेंगे। आखिर प्राथमिकता पढ़ाई को दी जानी चाहिए, न इस ड्रामेबाजी को! उसके लिए तो सारी जिन्दगी पड़ी है, पढ़ाई पूरी करने के बाद। पर हमें उसे डाँटने का अवसर मिला ही नहीं! कॉलेज में हर exam और test में अव्वल नंबर पाता रहा और वह तो अपने शिक्षकों का favourite बना रहा। मुझे नहीं मालूम कहाँ से समय निकाल लेता था अपने पाठ्यक्रम के लिए। रात को देर तक सोता नहीं था और पढ़ाई करता रहा होगा। कई बार उसके बन्द कमरे में बत्ती जलती मिली हमें रात बारह बजे के बाद भी।



एक बार उसको और उसके साथियों को किसीने हवाई टिकट खरीदकर, और मुम्बई के Oberoi Sheraton में कमरा बुक करके अपना नाटक stage करने के लिए बुलाया था। हम तो आश्चर्यचकित रह गए। हमें तो ऐसे होटलों को बाहर से निहारने का अवसर ही मिला था अपने जीवन में। कभी हिम्मत भी नहीं होती थी इन Five Star होटलों के अन्दर झाँकने की भी! Fancy मूँछो और पगड़ी वाला दर्वान तक ही हमारी पहुँच थी! सुबह का निकला नकुल रात को ही विमान द्वारा वापस आया था हाथ में १६,०००/- रुपये की नकद के साथ! वह अपने कमाए हुए पैसे ज्यादातर किताबों और डीवीडी/कैसेट पर खर्च करता था।


संगीत


संगीत तो उसका एक और शौक है। इतना अच्छा गाता है कि पूछिए मत।मेरी स्वर्गवसी माँ के आँखों में आँसू आ जाते थे उसके कुछ गाने सुनने के बाद. आवाज़ भी अतयंत मधुर है और शास्त्रीय संगीत की theory का बहुत ही अच्छा ज्ञान है। १२ साल की आयु में ही, उसने हमें यह कहकर चौंका दिया था कि मैं शास्त्रीय संगीत सीखना चाहता हूँ। आजकल बच्चे फ़िल्म संगीत या pop music में ही रुचि रखते हैं। शास्त्रीय संगीत तो हम उनपर जबरदस्ती करके थोंपते हैं खासकर हमारी संप्रदाय में। लेकिन यहाँ तो वह स्वयं हमारे पास आकर इसकी माँग की। इस मौके का फ़ायदा उठाकर, झट से मेरी पत्नि यहाँ एक जाने माने कर्नाटक शैली में गाने वाली रेडियो आर्टिस्ट से संपर्क करके उसे एक संगीत विद्यालय में भर्ती करा दी। आठ साल से संगीत सीख रहा है और पिछले दो या तीन साल से मंच पर भी कई बार, तबला, मृदंग और तंबूरे के साथ अपना हुनर का प्रदर्शन कर चुका है। एक कैसेट और सीडी भी रिलीस हुआ है उसका। लेकिन उसका नाम कर्नाटक संगीत जगत में अभी तक पह्चाना नहीं जाता। और कई साल का परिश्रम आवश्यक है इसके लिए और अब उसकी प्राथमिकताएं बदल चुकी हैं। हमने उससे संगीत से अपना संपर्क जारी रखने की सलाह दी है और उससे कह दिया के जब कभी मौका या समय मिलता हैं अपना अभ्यास जारी रखना। एक दिन वह समय जरूर आएगा जब वह संगीत से अपना सम्बन्ध फ़िर से जोड़ने के लिए तैयार हो जाएगा।

उसका रंगमंच में राष्ट्रीय स्तर पर सफ़लता के कई प्रमाण तैयार थे दिल्ली में साक्षातकार के समय।अपने कॉलेज के वरिष्ठ प्रोफ़ेस्सरों से इतनी बढिया सिफ़रिश की चिठ्ठियाँ जुटाकर ले गया कि कोई भी प्रभावित हो जाएगा। इन चिठ्ठियों के कुछ अंश बाद में संलग्न करूंगा अपने अंतिम किस्त में। मुझे यकीन ही नहीं होता है कि आजकल के शिक्षक इस तरह के भावपूर्ण सिफ़ारिश की चिठ्ठियाँ लिखने के लिए तैयार हो जाएंगे।


प्रधानमंत्री से मुलाकात


अगली किस्त में यह बताऊँगा कि तीसरी शर्त, यानी, समाज सेवा और पर्यावरण के संबन्ध में उसने क्या किया अपने को और भी योग्य साबित करने के लिए। जाते जाते एक और मज़ेदार बात आप को बता दूँ।ज्ञानजी के ब्लोग पर मैंने ए पी जे अबदुल कलाम के साथ मेरा १९८६ में भेंट के बारे में बताया था जब वे राष्ट्रपति नहीं थे।२१ सितंबर, २००७ को नकुल को इससे भी अच्छा मौका मिला था किसी सेलेब्रिटी से मिलने का। अगले दिन उसे Oxford जाना था और एक दिन पहले हम तीन (नकुल, मेरी पत्नि ज्योति और मैं) दिल्ली पहुँचे थे। नकुल सीधा हवाई अड्डे से सफ़दरजंग रोड के लिए रवाना हुआ प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह से मिलने। सभी पाँच स्कॉलरों को प्रधान मंत्री के साथ १० मिनट बिताने का मौका मिला था। दिल्ली में स्थित Rhodes selection committee ने इसका आयोजन किया था। मनमोहन सिंहजी स्वयं Rhodes Scholarship में दिलचस्पी लेते हैं। किसी जमाने में वे सेलेक्शन कमैटी के अध्यक्ष रहे थे। Security वालों ने किसी को camera तक अन्दर ले जाने नहीं दिया और इस भेंट का हमारे पास कोई तस्वीर नहीं है।

बाद में उसी शाम एक send off party के अवसर पर लिए गए दो चित्र संलग्न कर रहा हूँ।

पहले में भारत के वर्ष २००७ के पाँच Rhodes Scholars की तसवीर देखिए ।













बाएं से:


१)कुमारी अनिषा शर्मा (दिल्ली के St Stephens college की छात्रा)
२)बैंगलौर से राहुल बत्रा (एक computer science engineer) जो Afro Asian Games में तैराकी में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुका है)
३)बैंगलौर के National Law school से कुमारी रम्या रघुराम
४)हैदराबाद के NALSAR से राघवेंद्र शंकर
५)मेरा बेटा नकुल (नीले कुर्ते में)



दूसरी तसवीर में नकुल तो नहीं दिखाई दे रहा है लेकिन मेरी पत्नि ज्योति को आप देख सकते हैं (orange saree with blue border)










फ़िर मिलेंगें एक दो या तीन
दिन के बाद।

सबको मेरी शुभकामनाएं

गोपालकृष्ण विश्वनाथ