अविस्मर्णीय दो दिन
कहां कहां न खाक छानी
कुछ बीस पच्चीस दिन पहले हमारे मित्र (और टीचर भी कुछ हद्द तक) सत्यदेव त्रिपाठी जी का स म स आया कि 26 मार्च को "महादेवी वर्मा: एक पुर्नमूल्यांकन" विषय पर एक सेमिनार होने जा रहा है और मै चाहता हूँ कि आप उनके काव्य का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर एक पेपर पढ़ें। सत्यदेव त्रिपाठी जी की कोई भी बात हम टाल नहीं सकते, इस लिए हाँ तो कहना ही था। सोचने वाली बात ये थी कि उसकी तैयारी कैसे की जाए। सेमिनार युनीवर्सिटी में होने वाला था और राष्ट्रिय स्तर पर होने वाला था। बड़े बड़े प्रबुद्ध जन आने वाले थे। हमारा हाल ये था कि हमने महादेवी को सिर्फ़ सरसरी तौर पर ही कभी पढ़ा होगा, वो भी एक आध कविता, उन्होंने गध्य भी लिखा है ये तो हमें पता ही नहीं था। खैर! कॉलेज की लायब्रेरी में जा कर ढूंढना शुरु किया।
अब हमारे कॉलेज में पाँच हजार बच्चों में से सिर्फ़ पच्चीस बच्चे हिन्दी विषय पढ़ते हैं और वो भी सिर्फ़ एक साल के लिए, तो लायब्रेरी में हिन्दी की किताबें दो अलमारियों में सिमट जाएं तो क्या आश्चर्य? बड़ी मुश्किल से इधर उधर से कई किताबें जमा की और पढ़ना शुरु किया। पढ़ते पढ़ते हम उनके ही रंग में रंगते चले गये। जैसे जैसे उनका लिखा पढ़ते जाते, खास कर कविताओं से पहले लिखे प्रस्ताव उतना ही हमें लगता, अच्छा! महादेवी जी भी ऐसा ही सोचती थीं(मतलब हमारे जैसा)…नहीं, नहीं! चौकियें मत, हमें अपने महान होने की कोई गलतफ़हमी या खुशफ़हमी नहीं (इत्ते भी शेखचिल्ली नहीं जी हम), बस एक एहसास था कि कई विषयों पर हमारे विचार और उनके विचार कितने मिलते हैं , जब की इस से पहले हम ने उन्हें पढ़ा नहीं था तो हमारे विचार उनसे प्रभावित होने की कोई संभावना ही नहीं थी।
होली हुई स्वाहा
पेपर तैयार करने के लिए त्रिपाठी जी ने हमें पच्चीस दिन का समय दिया था, लेकिन हम तो उसे बीस दिन में पूरी तरह से तैयार कर लेना चाह्ते थे। अब पूछिए क्युं? वो इस लिए कि हमें पता चला कि आलोक पुराणिक जी बम्बई आ रहे है, विविध भारती के एक प्रोग्राम की रिकॉर्डिंग करने के लिए। अब आलोक जी के व्यंग उन्हीं के मुंह से सुनने का मौका भी तो सुनहरा मौका था जो हम गवाना नहीं चाह्ते थे।तो हम अपना पेपर पूरी तरह से उनके आने से पहले तैयार कर लेना चाह्ते थे। दिन रात एक कर, होली वोली सब भूल कर, आखिरकार हमने पेपर तैयार कर ही लिया।
26 मार्च
तो जनाब, 26 मार्च आ ही गया। मुसीबत ये थी कि हमें पेपर पढ़ना था सुबह पहले ही सत्र में और आलोक जी के प्रोग्राम की भी रिकॉर्डिंग उसी दिन होनी थी। युनुस जी ने बताया था कि रिकॉर्डिंग 2 बजे से शुरु होगी। हम पेपर पढ़ने जा रहे थे चर्चगेट के पास स्थित एस एन डी टी में और विविध भारती का स्टुडियो है गोराई में, यानी कि पूरा 50-55 कि मी का फ़ासला और ट्रेफ़िक से लबालब। लोकल ट्रेन से जाना ज्यादा अक्लमंदी होती लेकिन गोराई से वापस घर लौटने के लिए और 50 कि मी जाना था और कोई बस या ट्रेन सीधा नहीं जाता हमारे घर तक, लिहाजा कार ले कर जाना ही ठीक लगा। पतिदेव से रास्ते का नक्शा कागज पर बनवा कर सहेज लिया।
हमारा ऐसा अनुमान था कि कितना भी देर करें तो भी हम एक बजे तक फ़्री हो जायेगें, जैसे ही लंच शुरु होगा हम खिसक लेगें। लंच के बाद वाले सत्र का संचालन जो महोदय करने वाले थे वो हमारे ऑर्कुट के मित्र निकल आए( वो दिल्ली में हिन्दी के प्रोफ़ेसर हैं) तो बस उनसे वादा लिया कि वो अपना पेपर हमें ई-मेल में दे देगें। हम ने पेपर पढ़ा 12 बजे लेकिन पौने तीन बज गये वो पहला सत्र खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। करीब तीन बजे हम वहां से खिसक लिए। दोनों हाथों में लड्डू चाहिए थे न, यहां तो दिग्गज विद्वानों को सुन लिया, अब जरा व्यंगकारों को भी सुनना था। वहां भी बड़े बड़े महारथी जमा थे।
तो लो जी हमने गाड़ी भगानी शुरु की, ढाई घंटे का रास्ता था। जब हम रास्ते में थे करीब चार बजे मोबाइल बजा, त्रिपाठी जी जी की एक छात्रा का फ़ोन था, मैडम आप कहां हैं, यहां सब आप को ढ़ूंढ़ रहे हैं, सर भी पूछ रहे हैं। हम हैरान, क्युं भई, हमें क्युं ढ़ूढ़ रहे हैं हम तो अपना काम खत्म कर आए और हम तो वहां किसी को जानते नहीं थे। पता चला कि हिन्दी के महारथियों को हमारा पेपर पंसद आया और वो हमसे मिलना चाहते थे। मन में एक गाने की लाइन कौंध गयी, साला मैं तो साब बन गया…ही ही। सेमीनार दो दिवस का था तो हमने कहा कि हम कल तो आने ही वाले हैं ।
खैर! इतने ट्रेफ़िक के बावजूद पाँच बजे तक हम विविध भारती के स्टुडियो पहुँच गये। रिकॉर्डिंग शुरु हो चुकी थी, पर युनुस जी ने हमें देखते ही इशारा किया कि धीरे से अंदर आ जाइए। हम इतने धीरे से अंदर घुसे कि साड़ी की सरसराहट की आवाज भी न हो और दरवाजे के पास ही बैठ गये। युनुस जी की कार्यकुशलता की दाद देनी पड़ेगी कि कार्यक्रम का संचालन करते हुए भी हमें इशारे से पास ही रखे पानी पीने का आग्रह कर रहे थे और हमारे न उठने पर पहला मौका मिलते ही खुद आकर पानी थमा गये। हमें डर था कि पानी पीने की आवाज भी कहीं उसमें न रिकॉर्ड हो जाए इस लिए बड़े डर डर कर छोटे छोटे घूँट कर पानी पिया। खैर रिकॉर्डिंग खत्म हुई, जैसी उम्मीद थी प्रोग्राम बहुत ही अच्छा बना है।
जंगल के शेर
आलोक जी से मुलाकात हुई। आलोक जी की ससुराल थाना में है। गोराई से वापस हमारे घर जाने के दो रास्ते हैं, एक जो थाना से हो कर जाता है और दूसरा जो बांद्रा से हो कर जाता है। सुबह हमें सख्त हिदायद दी गई थी कि थाना के रास्ते से मत आना भले वो रास्ता छोटा पड़ता है। उसका कारण ये है कि उस रास्ते के एक हिस्से में सड़क जंगल से लग कर गुजरती है( जी हां बम्बई में भी जंगल है) और जगह जगह पट्टियां लगी हुई हैं कि शेर चीतों से सावधान्। यानि की शेर चीते रोड क्रास करके एक तरफ़ से दूसरी तरफ़ जाते हैं और रोड पर चलने वाली गाड़ियों के सिवा आस पास सिर्फ़ जंगल के कुछ नहीं। अगर गाड़ी किसी कारणवश उस हिस्से में खराब हो जाए तो बस जी राम भली करे।
आलोक जी एक प्रायवेट टेक्सी में आये थे और उसी रास्ते से थाना जाने वाले थे। निर्णय लिया गया कि उनकी टेक्सी वाला हमारा मार्ग दर्शन करेगा और आलोक जी थाना तक हमारी कार में आयेगें। इस तरह हम छोटे रास्ते से भी जा सकेगें और आलोक जी से भी बतिया सकेगें। तो जनाब कोई साड़े छ: बजे हम वहां से निकले। फ़िर भी थाना तक का सफ़र एक घंटे का था। बातें करते करते हम मजे से थाना पहुँचे, रात घिर आयी थी। मन तो नहीं भरा था पर आलोक जी की ससुराल आ गयी थी। हमने उनका अपनी सुसराल में आने का निमंत्रण ठुकाराते हुए उनसे विदा ली।
तुनके मिज़ाज़
आप को याद होगा कि हमने पहले बताया था कि हमारी कार मिजाज के हिसाब से हर्बी की जुड़वा बहन है। आलोक जी की बातें सुन सुन कर मेरे ख्याल से जितना मैं मजे ले रही थी उतना ही मेरी कार भी। आलोक जी थाना में कार से उतर गये और कार को इतने खुशगवार समां के बाद सिर्फ़ हमारी बोरिंग कंपनी में रहना नग्वार गुजरा । आखिर कित्ता काम करके आयी थी और सिर्फ़ एक घंटा, सो जनाब चार कदम आगे जा के तुनक गयी। कर लो जो करना है। बहुत समझाया पर वो तो सड़क के बीचों बीच बैठ गयी सुस्ताने। रात के आठ बजने को आ रहे थे। मैकेनिक को फ़ोन, पतिदेव को फ़ोन। दोनों ने कहा पहुंचने में दो घंटे लगेगें। तो हम रात के दस बजे तक वहीं सड़क के किनारे टंग़े रहे।
आलोक जी ने धन्यवाद कहने के लिए फ़ोन किया और पता चला हम तो अभी उनकी ससुराल के इलाके में ही हैं तो परेशान हो उठे। हमने उन्हें आश्वासन दिया कि मामला हमारे कंट्रोल में है चिन्ता न करें। ग्यारह बजे मैकेनिक गैरेज में पंहुचे, पता चला कि मैडम को कम से कम एक दिन के लिए वहां छोड़ना पड़ेगा। मन ही मन कार को कोसते हुए हम लौट पड़े। भूख के मारे बुरा हाल था, हमने विविध भारती जल्दी पहुंचने के चक्कर में दोपहर का खाना भी नहीं खाया हुआ था।
पतिदेव ने आश्वासन दिया कि दूसरे दिन वो हमें चर्चगेट सुबह छोड़ देगें। तब जाकर मूड ठीक हुआ।
एक और सार्थक दिवस
दूसरे दिन की शुरुवात बहुत बड़िया रही। सुबह के वक्त एफ़ एम गोल्ड पर कार्यक्रम चल रहा था “हमसफ़र” और हम अपने हम सफ़र के साथ पुराने गीतों का लुत्फ़ उठा रहे थे। बहुत दिनों बाद अशोक कुमार की आवाज में रेलगाड़ी वाला गीत सुना, पतिदेव को रेडियो के साथ “ ऐ मेरी जोहरा जबीं” गुनगुनाते सुना, मेरा पंसदीदा गाना, और भी न जाने कितने गीत पुराने दिन याद दिलाते हुए।
अंतिम सत्र में हम जल्दी खिसक जाना चाहते थे, लोकल ट्रेन से जो वापस जाना था। लेकिन त्रिपाठी जी ने रोक लिया। हम अनमने से खड़े चाय की चुस्कियां भर रहे थे कि एक सज्जन मुस्कुराते हुए आ कर हमारे सामने खड़े हो गये। अब हम तो इस सेमिनार में किसी से परिचित नहीं थे, यादाश्त पर जोर मारने लगे कि क्या हम इन्हें जानते हैं। वो सज्ज्न मुस्कुरा कर बोले, "मैं, बसंत आर्या"। हमारी तो बाछें खिल गयीं। बसंत आर्या- ब्लोगर, वो भी व्यंगकार्। बहुत पहले एक बार उनसे बात हुई थी,उसके बाद न वो कभी मेरे ब्लोग पर आये न हम कभी उनके ब्लोग पर जा पाए। उन्हें हम याद रहे और वो इस तरह कभी आ कर सामने खड़े हो जायेगें, सपने में भी नहीं सोचा था। वो त्रिपाठी जी के मित्रों में से एक हैं जो मुझे पता नहीं था। सेमिनार की खबर अखबार में पढ़ी और उसमें प्रपत्र पढ़ने वालों में मेरा भी नाम देखा तो हमें सुनने की इच्छा से चले आए। ये अलग बात है कि हमारा पेपर तो पहले ही दिन हो चुका था।हमने कहा अरे आप कभी हमारे ब्लोग पर तो आते नहीं और हमारा पेपर सुनने चले आये, हंस कर बोले हम आप की सभी पोस्ट पढ़ते हैं टिपियाते नहीं ये अलग बात है( अब जी ऐसे और भी अगर मित्र हैं जो पढ़ते हैं पर टिपियाते नहीं , उनसे मेरी इल्तजा है कि कम से कम अपना नाम मुझे जरूर बता दें ताकि अगली बार जब मैं कुछ पोस्ट करुं तो साथ में ही आप के लिए धन्यवाद भी भेज सकूं…।:))
ढेर सारी बातों के बाद जब त्रिपाठी जी की स्नेही घुड़की मिली तब हम दोनों वापस हॉल में गये। उन्हों ने मेरा परिचय अरविंद राही जी से करवाया जो कवि हैं और नवी मुंबई से ही हैं । राही जी अपने छात्र जीवन में महादेवी वर्मा जी के संपर्क में रह चुके थे और आज अपने संस्मरण सुनाने आये थे। बहुत मजा आया। राही जी थोड़ा जल्दी निकल रहे थे, त्रिपाठी जी ने खुद उनसे रिक्वेस्ट की कि वो हमें नवी मुंबई तक लिफ़्ट दे दें। तो बस राही जी की गाड़ी में मैं, बसंत आर्या जी और श्रिमाली जी ( एक और व्यंगकार, जिनसे मैं पहले से परिचित थी) चल पड़े।
वो तीनों नेरुल में (जो नवी मुंबई में ही है) कविता पाठ के लिए जा रहे थे । उन सब का आग्रह था कि हम भी साथ में चलें और कुछ कविताएं सुनाएं। अरे, हम कहां इत्ते तीसमारखां है जी कि अपनी कविताएं किसी मंच से सुनाएं। तो हमने कविता सुनाने से तो इंकार कर दिया, कुछ याद भी नहीं थी, पर सुनने चलने को हम तैयार हो गये। रास्ते में बसंत जी ठिठोली करते रहे श्रिमाली जी से कि आप अपनी ही कोई कविता अनिता जी को दे दिजीए पढ़ने के लिए, पर हमने साफ़ इंकार कर दिया। खैर बातों बातों में रास्ता कैसे कट गया पता ही न चला, कहां तो हम ट्रेन और बसों में धक्के खा कर आने वाले थे और कहां हम आराम से न सिर्फ़ आ गये बल्कि तीन तीन कवियों से एक घंटे की मुलाकात भी हो गयी। लेकिन दिन तो सार्थक तब हो गया जब हमने बंसत जी का कविता पाठ सुना। सिर्फ़ मुझे ही नहीं सब श्रोताओं को ऐसा लग रहा था कि इन्हों ने सिर्फ़ तीन कविताएं ही पढ़ीं, मन नहीं भरा।
इन सब को देरी होने के बावजूद राही जी हमें घर तक छोड़ गये, एक और दिन यादगार दिन बन गया। मार्च का महीना तो हमारे लिए बहुत ही आंनददायी रहा। जैसा हमने बकलम खुद में लिखा था ब्लोगिंग की दुनिया बहुत ही अलौकिक दुनिया है, यहां आप को इतने सारे और इतने स्नेही लोग मिल जाते हैं कि हर दिन आनंदमय हो उठता है। मैं तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ आलोक जी, युनुस जी, और बंसत आर्या जी की जिन्होंने इतना स्नेह और सम्मान दिया।
सुस्वागतम
आपका हार्दिक स्वागत है, आपको यह चिट्ठा कैसा लगा? अपनी बहूमूल्य राय से हमें जरूर अवगत करावें,धन्यवाद।
March 28, 2008
March 14, 2008
अहिल्या बना दो न
अहिल्या बना दो न
हूँ तो साधारण सा पत्थर
गोला गया ठोकरें खा खा
पगली, तुम समझीं मैं अहिल्या
नित तुम्हारी वंदना पाता
पर कुछ न कह पाता
भ्रमित पुजारी देख अक्षत, रगोंली,
तुम भी धोखा खा गये
रास्ते का पत्थर जड़ दिया मंदिर के प्राचीर में
ये पगली पुजारन फ़िर भी न मानी
करती रही नित सांझ दीप
मौन आखों से ताकता
उसकी श्रद्धा और विश्वास का प्रकाश
यूं तो बहुत फ़र्क है
मुझमें और प्राचीर की कोठरियों में कैद
उस मूर्त रूपी पत्थर में
मगर अब मजबूर हूँ बनुं अहिल्या गर बन सकूं
ओ पुजारी जगाओ सोये मर्यादा पुरुषोतम को
कह दो कि हे राम गर सोके भी जागते हो
गर सुन सकते हो भक्तों की पुकार
तो इस भ्रमित अंधविश्वासी श्रद्धा की खातिर
इस पतित पत्थर को ठोकर मार कर
अहिल्या बना दो न
हूँ तो साधारण सा पत्थर
गोला गया ठोकरें खा खा
पगली, तुम समझीं मैं अहिल्या
नित तुम्हारी वंदना पाता
पर कुछ न कह पाता
भ्रमित पुजारी देख अक्षत, रगोंली,
तुम भी धोखा खा गये
रास्ते का पत्थर जड़ दिया मंदिर के प्राचीर में
ये पगली पुजारन फ़िर भी न मानी
करती रही नित सांझ दीप
मौन आखों से ताकता
उसकी श्रद्धा और विश्वास का प्रकाश
यूं तो बहुत फ़र्क है
मुझमें और प्राचीर की कोठरियों में कैद
उस मूर्त रूपी पत्थर में
मगर अब मजबूर हूँ बनुं अहिल्या गर बन सकूं
ओ पुजारी जगाओ सोये मर्यादा पुरुषोतम को
कह दो कि हे राम गर सोके भी जागते हो
गर सुन सकते हो भक्तों की पुकार
तो इस भ्रमित अंधविश्वासी श्रद्धा की खातिर
इस पतित पत्थर को ठोकर मार कर
अहिल्या बना दो न
March 11, 2008
लालू जी कहिन
लालू जी कहिन
भई अब लालू जी ई एस एफ़ एफ़ ( इंगलिश स्पीकिंग फ़टाफ़ट फ़टाफ़ट) हो गये हैं, भारतीय रेल भी मुनाफ़ाखोर हो गया है, तो लालू जी ने सोचा क्युं न दूसरे किले फ़तह किए जाएं, कुछ और अपनी धाक जमायी जाए, क्या करें, बहुत सोच सोच ये सोचा भारतियों का परचम लहरा रहा है ये ससुरी सिलिकॉन वैली की वजह से, तो क्युं न हम सांड को सींग से पकड़ लें, सीधा माइक्रोसोफ़्ट ही घेरे डालते हैं न, तो भैया लालू जी ने अपना आवेदनपत्र भेज ही दिया माइक्रोसोफ़ट में अब देखिए आगे क्या हुआ …:)
Laloo Prasad sent his Bio Data - to apply for a post in MicrosoftCorporation, USA। A few days later he got this reply :
"Dear Mr। Laloo Prasad, We are sorry to intimate you that you do not meet our requirements. Please do not send any further correspondence. No phone call shall be entertained. Thanks"
लालू जी खुशी के मारे फ़ूले नहीं समाए, झटपट एक समारोह का इंतजाम किया गया, प्रेस वालों को भी निमंत्रण दिया गया। जब मजमा जम गया तो लालू जी कुछ इस अंदाज में खड़े हुए मानों चुनावी भाषण दे रहे हों हां तो "भाइयों और बहनों, आप सब को ये जान कर खुशी होगी कि हम अमरीका में नौकरी पा गया हूँ"। सब लोगों ने करतल ध्वनी से अपनी प्रसन्नता जाहिर की, आखिर हर भारतीय का एक ही सपना- अमरीका। बात को लालू जी ने आगे बढ़ाया "आप विश्वास नहीं करते हैं न तो लो अब मैं आप सब को अपना अपोंन्ट्मेंट लैटर पढ़ कर सुनाऊंगा - पर लैटर अंग्रेजी में है इस लिए साथ साथ हिन्दी में ट्रांसलेट भी करुंगा"।
Dear Mr। Laloo Prasad ..... प्यारे लालू प्रसाद भैया
We are sorry ...... हमसे गलती हो गयी
to intimate you that .........आप को ये बताना है कि
You do not meet ---- आप तो मिलते ही नहीं हो
our requirement ---- हमको तो जरुरत है
Please do not send any furthur correspondance ---- अब लैटर वैटार भेजने का कौनुहु जरुरत नाहीं।
No phone call ---- फ़ुनवा का भी जरुरत नहीं है
shall be entertained ---- बहुत खातिर की जाएगी
Thanks ---- आप का बहुत बहुत धन्यवाद
ऊपर लिखी घटना कोरी काल्पनिक है और मेरी अपनी बनायी हुई नहीं है। मुझे पढ़ने में बहुत मजा आया, आप के साथ अपना आनंद बांट रही हूँ…।:)
भई अब लालू जी ई एस एफ़ एफ़ ( इंगलिश स्पीकिंग फ़टाफ़ट फ़टाफ़ट) हो गये हैं, भारतीय रेल भी मुनाफ़ाखोर हो गया है, तो लालू जी ने सोचा क्युं न दूसरे किले फ़तह किए जाएं, कुछ और अपनी धाक जमायी जाए, क्या करें, बहुत सोच सोच ये सोचा भारतियों का परचम लहरा रहा है ये ससुरी सिलिकॉन वैली की वजह से, तो क्युं न हम सांड को सींग से पकड़ लें, सीधा माइक्रोसोफ़्ट ही घेरे डालते हैं न, तो भैया लालू जी ने अपना आवेदनपत्र भेज ही दिया माइक्रोसोफ़ट में अब देखिए आगे क्या हुआ …:)
Laloo Prasad sent his Bio Data - to apply for a post in MicrosoftCorporation, USA। A few days later he got this reply :
"Dear Mr। Laloo Prasad, We are sorry to intimate you that you do not meet our requirements. Please do not send any further correspondence. No phone call shall be entertained. Thanks"
लालू जी खुशी के मारे फ़ूले नहीं समाए, झटपट एक समारोह का इंतजाम किया गया, प्रेस वालों को भी निमंत्रण दिया गया। जब मजमा जम गया तो लालू जी कुछ इस अंदाज में खड़े हुए मानों चुनावी भाषण दे रहे हों हां तो "भाइयों और बहनों, आप सब को ये जान कर खुशी होगी कि हम अमरीका में नौकरी पा गया हूँ"। सब लोगों ने करतल ध्वनी से अपनी प्रसन्नता जाहिर की, आखिर हर भारतीय का एक ही सपना- अमरीका। बात को लालू जी ने आगे बढ़ाया "आप विश्वास नहीं करते हैं न तो लो अब मैं आप सब को अपना अपोंन्ट्मेंट लैटर पढ़ कर सुनाऊंगा - पर लैटर अंग्रेजी में है इस लिए साथ साथ हिन्दी में ट्रांसलेट भी करुंगा"।
Dear Mr। Laloo Prasad ..... प्यारे लालू प्रसाद भैया
We are sorry ...... हमसे गलती हो गयी
to intimate you that .........आप को ये बताना है कि
You do not meet ---- आप तो मिलते ही नहीं हो
our requirement ---- हमको तो जरुरत है
Please do not send any furthur correspondance ---- अब लैटर वैटार भेजने का कौनुहु जरुरत नाहीं।
No phone call ---- फ़ुनवा का भी जरुरत नहीं है
shall be entertained ---- बहुत खातिर की जाएगी
Thanks ---- आप का बहुत बहुत धन्यवाद
ऊपर लिखी घटना कोरी काल्पनिक है और मेरी अपनी बनायी हुई नहीं है। मुझे पढ़ने में बहुत मजा आया, आप के साथ अपना आनंद बांट रही हूँ…।:)
March 08, 2008
हैप्पी विमेन्स डे ?
हैप्पी विमेन्स डे ?
आज सुबह से ही हर तरफ़ हैप्पी विमेन्स डे का शोर है, सुबह सुबह रेडियो लगाया तो वहां भी यही चर्चा थी, दोपहर को ब्लोगवाणी में घूमी तो वहां भी अनेक पोस्टें इसी विषय पर , ढेरों फ़ोन काल्स और सब महिला सहकर्मी एक दूसरे से हाथ मिलाती यूं लग रही थीं जैसे ऑस्ट्रेलियाई विकेट ले कर हमारे खिलाड़ी।
अभी तक तो विविध भारती पर, ऑल ईंडिया रेडियो पर दिन के एक दो घंटे सिर्फ़ औरतों से संबधित कार्यक्रम दिए जाते हैं जो अच्छे भी लगते हैं पर अब तो पूरा एक रेडियो चैनल एफ़ एम 104.8 म्याऊं सिर्फ़ महिलाओं का चैनल आ गया है, मर्दों को सिर्फ़ शनिवार के दिन इस चैनल का हिस्सा बनने की छूट है। आज सुबह से इस चैनल पर बड़ी धूम मची हुई थी। एंकर बार बार श्रोताओं को फ़ोन पर ये बताने के लिए कह रही थी कि उनकी जिन्दगी में किस महिला का सबसे ज्यादा प्रभाव है या था। जाहिर है फ़ोन करने वाली महिलाएं ज्यादातर अपनी माँ के गुणगान कर रही थीं और ये स्वाभाविक भी है।
किसी ने कहा मौसी से बहुत प्रभावित हूँ तो किसी ने किसी और का नाम लिया। सिर्फ़ एक लड़की ने कहा कि उसकी जिन्दगी को अनेक महिलाओं ने प्रभावित किया और किसी एक का नाम लेना दूसरों के साथ अन्याय होगा। यदि वह सिर्फ़ मां का नाम लेती है तो उन महिला टीचरों के साथ अन्याय करती है जिन्हों ने उसके जीवन को घड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
प्रोग्राम सुनते सुनते मेरे मन में ख्याल आ रहा था कि इनकी बातें सुन कर ऐसा लगता है मानो इनका संसार लोकल ट्रेन के लेडिस डब्बे के जैसा है, जिसमें पर पुरुष तो क्या किसी पुरुष स्वजन की छाया भी नहीं। स्वभाविक था कि एंकर का पूछा सवाल मुझे भी सोचने पर मजबूर कर रहा था कि मेरे जीवन को घड़ने में ( चाहे जैसा भी ढंगा/बेढंगा घड़ा गया है) किस किस की अहम भूमिका रही।
माँ तो याद आयी हीं जिन्हों ने कभी प्रतक्ष्य रूप से तो कभी अप्रतक्ष्य रूप से मेरे विचारों को, मेरे मूल्यों को आकार दिया, पर मेरी यादों के झरोखों से निकल मेरे पिता का चेहरा भी आखों के सामने छा गया।
सहसा हमें लगा कि एंकर का प्रश्न ही गलत है, किस महिला ने तुम्हारे जीवन को प्रभावित किया, के बदले में पूछना चाहिए कि किस व्यक्ति ने तुम्हारे जीवन को प्रभावित किया।
जिस तरह का पुरुष प्रधान हमारा समाज है ऐसे में अगर मेरे पिता प्रोत्साहन न देते तो क्या मैं उच्च शिक्षा प्राप्त कर पाती। आज भी याद है मुझे वो दिन जब ग्यारहवीं पास कर हमने घर में ऐलान कर दिया था कि हम आगे पढ़ने में अपना वक्त बर्बाद न करेगें। पिता के सर पर तो मानों गाज ही गिरा दी थी हमने। हमारा तर्क था कि अगर पढ़ाई कर के कैरिअर बनाना है और कैरिअर बनाने का मतलब है आर्थिक स्वालंबन प्राप्त करना है तो फ़िर चार साल क्युं बर्बाद किए जाएं , कैरिअर तो हम आज भी बना सकते हैं।
नये नये स्कूल से निकले थे। पिता का दफ़्तर और घर एक ही बिल्डिंग में होने की वजह से अक्सर टहलते टहलते ऊपर तीसरी मंजिल पर पिता के दफ़्तर चले जाया करते थे। पिता तो अपने काम में मशगूल होते थे, हम बाहर बैठी उनकी सेक्रेटरी की टाइपराइटर पर तेजी से नाचती उंगलियों को मंत्र मुग्ध से घंटों निहारते रह्ते। उसका सलीके से संवारा बड़ा सा जूड़ा,लिप्सटिक से रगें होंठ, ऊंची एड़ी की सेन्डिल और बड़े सलीके से लिपटी साड़ी देख हमारा मन वो सब पाने को यूं मचला कि हम ये सब पाने के लिए चार साल तक इंतजार नहीं करना चाहते थे। हमने पिता से कह दिया कि हमें भी सेक्रेटरी बनना है।
आज सोचते हैं तो पिता के लिए श्रद्धा से सिर झुक जाता है कि कितना संयम से काम लेना पड़ा होगा उन्हें। उन्होंने एक बार भी नहीं कहा कि सेक्रेटरी का काम तुम्हारे लिए नहीं। बड़ी मुश्किल से मुझे समझाया कि अगर पढ़ लोगी तो इससे भी बड़े दफ़्तर में जा सकोगी, ऐसा ही परिधान पहन कर इससे भी बड़ी कुर्सी पर बैठ सकोगी। हमें उनकी सेक्रेटरी की पहियों पर घूमने वाली कुर्सी भी बहुत अच्छी लगती थी। वो कुर्सी सफ़लता की निशानी थी, जो जितना सफ़ल उसकी उतनी ही ज्यादा आरामदेह बड़ी सी कुर्सी। तो समझिए कि उस कुर्सी के लालच में हमने सेक्रेटरी के पद का लोभ छोड़ दिया। आज जब किसी अधेड़ उम्र के व्यक्ती को जीविकापोर्जन की लड़ाई में ये कहते सुनते है कि काश हम समय पर पढ़ लिए होते तो लगता है उस समय अगर पिता ने हमारे जीवन को कॉलेज के जीवन की तरफ़ न मोड़ा होता तो? वो सेक्रेटरी वाला फ़ेस टेंपररी था ,एक बार कॉलेज की जिन्दगी में रम गये तो हम उस सेक्रेटरी को पूर्णतया भूल गये। कॉलेज के दिनों की तरफ़ भी मुड़ कर देखते हैं तो हमें प्रभावित करने वाले सभी टीचरस पुरुष ही थे- इतिहास वाले संघवी सर, मनोविज्ञान पढ़ाने वाले सांवत सर, लोजिक के लिए वनमाली सर जो बोर्ड पर ऐसे लिख सकते थे जैसे कॉपी में लिख रहे हों, हमारी बेतुकी कविताओं की भी तारीफ़ करते हिन्दी के ठाकुर सर।
उससे भी पहले हमारी यादें बचपन की तरफ़ लौटती हैं तो एक अमूर्त सा चेहरा याद आता है। बात अलिगढ़ के दिनों की है, हम शायद सातंवी क्लास में थे, बेहद उधमी, हर नये टीचर की खबर लेना मानों हमारा जन्मसिद्ध अधिकार था। शहर था छोटा, गिने चुने कॉलेज , हमारे पिता प्रख्यात प्राध्यापक, जो भी हमारे स्कूल में टीचर के पद पर आता वो उनका शिष्य रह चुका होता, ऐसे में हम इन टीचरों के दिलों में खास स्थान पाते।
हमारी एक टीचर की शादी होने जा रही थी अत: वो एक महीने की छुट्टी पर जाते जाते अपने भाई को एक महीने के लिए अपने स्थान पर लगा गयी। मुझे आज भी याद है, ये भाई साहब का नाम था संतोष, ये भी अपनी बहन की तरह हमारे पिता के छात्र रह चुके थे और अभी अभी स्नातक की परिक्षा पास कर हटे थे।
क्लास में हमारी मस्ती चरम सीमा पर थी, हमने जैसे मन में ठान लिया था कि हम इन महाशय को पढ़ाने न देगें और अपनी प्यारी टीचर के आने का इंतजार करेगें।
संतोष महाशय की नाक में दम हो गया। एक तो पहले कभी इतने सारे बागड़ बिल्लों को, नहीं नहीं बिल्लियों को( गर्ल्स स्कूल था न) संभालने का कोई अनुभव नहीं था, ऊपर से उनकी सरगना थी अपने प्रिय आदरणीय टीचर की बेटी, कुछ कहा तो घर जा कर पता नहीं क्या क्या कहे और फ़िर सर पता नहीं मेरे बारे में क्या क्या सोचें?
एक दिन हार कर उसने मुझसे मुखातिब हो कर कहा, " बड़ के पेड़ के नीचे कोई बड़ा पेड़ नहीं उगता"। उस कोमल आयु में भी हम न सिर्फ़ उसका आशय समझ गये, वो बात हमको इतनी चुभ गयी कि आज तक हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत है। जब भी किताबों के साथ बैठते, संतोष महाशय के शब्द अंदर तक कचौट जाते। हमने ठान लिया कि हम पिता से ज्यादा पढ़ कर दिखायेगें। बाद में हमने जब एम ए करने की बात की और पिता को संतोष वाली बात बताई तो पता नहीं मन ही मन उन्होंने संतोष को कितनी दुआएं दे डालीं।
अगर मम्मी कभी कहतीं कि घर के काम करने की आदत डालो तो पिता जी फ़ौरन हमारे बचाव को आ जाते और एक्दम स्ट्रिक्ट हिदायत देते कि हमें घर के कामों में न उलझाया जाए, हम सिर्फ़ पढ़ाई करें। एम ए के बाद मम्मी जोर देने लगी कि अब हमारी शादी हो जानी चाहिए, पर हम अब मेनेजमैंट का डिप्लोमा करना चाह्ते थे, वो पिता ही थे जिन्होंने अपना भार उतारने के बदले हमारा साथ देने का निश्चय किया। कालांतर में शादी के बाद हमने एम फ़िल करने का मन बनाया, एक बार फ़िर मेरे पिता खुशी से मेरा साथ देने के लिए तत्पर दिखाई दिये और माँ भी। दोनों ने कहा तुम बच्चे की चिंता मत करो हम संभाल लेगें तुम बस अपनी पढ़ाई करो। कोई मुस्कुरा कर कहे कि इसमें कौन सी बड़ी बात हुई, आज कल तो सभी पिता अपनी लड़कियों को पढ़ाते ही हैं। हां सच है, लेकिन मेरे पिता ने बहुओं को बेटी से बढ़ कर माना, बहु को भी शादी के बाद पढ़ने के लिए उतना ही प्रोत्साहन दिया जितना बेटी को। उनकी पक्की हिदायत थी कि पढ़ाई के दौरान बहु से भी कोई काम न कराया जाए और सिर्फ़ पढ़ने दिया जाए।
असल में जिन्दगी जीना तो तब शुरु हुआ जब तीसरा पुरुष हमारे जीवन में पहले सखा और फ़िर पति बन कर आया। इस प्राण देयी पुरुष के बारें में हम अलग से फ़िर कभी लिखेगें, यहां संक्षिप्त में लिखने में उस रिश्ते के साथ अन्याय होगा।
अब बताइए ऐसे में अगर हमें लगता है कि मेन्स डे ना मनाना पुरुषों के साथ बहुत अन्याय है तो क्या गलत सोचते हैं?
:)
आज सुबह से ही हर तरफ़ हैप्पी विमेन्स डे का शोर है, सुबह सुबह रेडियो लगाया तो वहां भी यही चर्चा थी, दोपहर को ब्लोगवाणी में घूमी तो वहां भी अनेक पोस्टें इसी विषय पर , ढेरों फ़ोन काल्स और सब महिला सहकर्मी एक दूसरे से हाथ मिलाती यूं लग रही थीं जैसे ऑस्ट्रेलियाई विकेट ले कर हमारे खिलाड़ी।
अभी तक तो विविध भारती पर, ऑल ईंडिया रेडियो पर दिन के एक दो घंटे सिर्फ़ औरतों से संबधित कार्यक्रम दिए जाते हैं जो अच्छे भी लगते हैं पर अब तो पूरा एक रेडियो चैनल एफ़ एम 104.8 म्याऊं सिर्फ़ महिलाओं का चैनल आ गया है, मर्दों को सिर्फ़ शनिवार के दिन इस चैनल का हिस्सा बनने की छूट है। आज सुबह से इस चैनल पर बड़ी धूम मची हुई थी। एंकर बार बार श्रोताओं को फ़ोन पर ये बताने के लिए कह रही थी कि उनकी जिन्दगी में किस महिला का सबसे ज्यादा प्रभाव है या था। जाहिर है फ़ोन करने वाली महिलाएं ज्यादातर अपनी माँ के गुणगान कर रही थीं और ये स्वाभाविक भी है।
किसी ने कहा मौसी से बहुत प्रभावित हूँ तो किसी ने किसी और का नाम लिया। सिर्फ़ एक लड़की ने कहा कि उसकी जिन्दगी को अनेक महिलाओं ने प्रभावित किया और किसी एक का नाम लेना दूसरों के साथ अन्याय होगा। यदि वह सिर्फ़ मां का नाम लेती है तो उन महिला टीचरों के साथ अन्याय करती है जिन्हों ने उसके जीवन को घड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
प्रोग्राम सुनते सुनते मेरे मन में ख्याल आ रहा था कि इनकी बातें सुन कर ऐसा लगता है मानो इनका संसार लोकल ट्रेन के लेडिस डब्बे के जैसा है, जिसमें पर पुरुष तो क्या किसी पुरुष स्वजन की छाया भी नहीं। स्वभाविक था कि एंकर का पूछा सवाल मुझे भी सोचने पर मजबूर कर रहा था कि मेरे जीवन को घड़ने में ( चाहे जैसा भी ढंगा/बेढंगा घड़ा गया है) किस किस की अहम भूमिका रही।
माँ तो याद आयी हीं जिन्हों ने कभी प्रतक्ष्य रूप से तो कभी अप्रतक्ष्य रूप से मेरे विचारों को, मेरे मूल्यों को आकार दिया, पर मेरी यादों के झरोखों से निकल मेरे पिता का चेहरा भी आखों के सामने छा गया।
सहसा हमें लगा कि एंकर का प्रश्न ही गलत है, किस महिला ने तुम्हारे जीवन को प्रभावित किया, के बदले में पूछना चाहिए कि किस व्यक्ति ने तुम्हारे जीवन को प्रभावित किया।
जिस तरह का पुरुष प्रधान हमारा समाज है ऐसे में अगर मेरे पिता प्रोत्साहन न देते तो क्या मैं उच्च शिक्षा प्राप्त कर पाती। आज भी याद है मुझे वो दिन जब ग्यारहवीं पास कर हमने घर में ऐलान कर दिया था कि हम आगे पढ़ने में अपना वक्त बर्बाद न करेगें। पिता के सर पर तो मानों गाज ही गिरा दी थी हमने। हमारा तर्क था कि अगर पढ़ाई कर के कैरिअर बनाना है और कैरिअर बनाने का मतलब है आर्थिक स्वालंबन प्राप्त करना है तो फ़िर चार साल क्युं बर्बाद किए जाएं , कैरिअर तो हम आज भी बना सकते हैं।
नये नये स्कूल से निकले थे। पिता का दफ़्तर और घर एक ही बिल्डिंग में होने की वजह से अक्सर टहलते टहलते ऊपर तीसरी मंजिल पर पिता के दफ़्तर चले जाया करते थे। पिता तो अपने काम में मशगूल होते थे, हम बाहर बैठी उनकी सेक्रेटरी की टाइपराइटर पर तेजी से नाचती उंगलियों को मंत्र मुग्ध से घंटों निहारते रह्ते। उसका सलीके से संवारा बड़ा सा जूड़ा,लिप्सटिक से रगें होंठ, ऊंची एड़ी की सेन्डिल और बड़े सलीके से लिपटी साड़ी देख हमारा मन वो सब पाने को यूं मचला कि हम ये सब पाने के लिए चार साल तक इंतजार नहीं करना चाहते थे। हमने पिता से कह दिया कि हमें भी सेक्रेटरी बनना है।
आज सोचते हैं तो पिता के लिए श्रद्धा से सिर झुक जाता है कि कितना संयम से काम लेना पड़ा होगा उन्हें। उन्होंने एक बार भी नहीं कहा कि सेक्रेटरी का काम तुम्हारे लिए नहीं। बड़ी मुश्किल से मुझे समझाया कि अगर पढ़ लोगी तो इससे भी बड़े दफ़्तर में जा सकोगी, ऐसा ही परिधान पहन कर इससे भी बड़ी कुर्सी पर बैठ सकोगी। हमें उनकी सेक्रेटरी की पहियों पर घूमने वाली कुर्सी भी बहुत अच्छी लगती थी। वो कुर्सी सफ़लता की निशानी थी, जो जितना सफ़ल उसकी उतनी ही ज्यादा आरामदेह बड़ी सी कुर्सी। तो समझिए कि उस कुर्सी के लालच में हमने सेक्रेटरी के पद का लोभ छोड़ दिया। आज जब किसी अधेड़ उम्र के व्यक्ती को जीविकापोर्जन की लड़ाई में ये कहते सुनते है कि काश हम समय पर पढ़ लिए होते तो लगता है उस समय अगर पिता ने हमारे जीवन को कॉलेज के जीवन की तरफ़ न मोड़ा होता तो? वो सेक्रेटरी वाला फ़ेस टेंपररी था ,एक बार कॉलेज की जिन्दगी में रम गये तो हम उस सेक्रेटरी को पूर्णतया भूल गये। कॉलेज के दिनों की तरफ़ भी मुड़ कर देखते हैं तो हमें प्रभावित करने वाले सभी टीचरस पुरुष ही थे- इतिहास वाले संघवी सर, मनोविज्ञान पढ़ाने वाले सांवत सर, लोजिक के लिए वनमाली सर जो बोर्ड पर ऐसे लिख सकते थे जैसे कॉपी में लिख रहे हों, हमारी बेतुकी कविताओं की भी तारीफ़ करते हिन्दी के ठाकुर सर।
उससे भी पहले हमारी यादें बचपन की तरफ़ लौटती हैं तो एक अमूर्त सा चेहरा याद आता है। बात अलिगढ़ के दिनों की है, हम शायद सातंवी क्लास में थे, बेहद उधमी, हर नये टीचर की खबर लेना मानों हमारा जन्मसिद्ध अधिकार था। शहर था छोटा, गिने चुने कॉलेज , हमारे पिता प्रख्यात प्राध्यापक, जो भी हमारे स्कूल में टीचर के पद पर आता वो उनका शिष्य रह चुका होता, ऐसे में हम इन टीचरों के दिलों में खास स्थान पाते।
हमारी एक टीचर की शादी होने जा रही थी अत: वो एक महीने की छुट्टी पर जाते जाते अपने भाई को एक महीने के लिए अपने स्थान पर लगा गयी। मुझे आज भी याद है, ये भाई साहब का नाम था संतोष, ये भी अपनी बहन की तरह हमारे पिता के छात्र रह चुके थे और अभी अभी स्नातक की परिक्षा पास कर हटे थे।
क्लास में हमारी मस्ती चरम सीमा पर थी, हमने जैसे मन में ठान लिया था कि हम इन महाशय को पढ़ाने न देगें और अपनी प्यारी टीचर के आने का इंतजार करेगें।
संतोष महाशय की नाक में दम हो गया। एक तो पहले कभी इतने सारे बागड़ बिल्लों को, नहीं नहीं बिल्लियों को( गर्ल्स स्कूल था न) संभालने का कोई अनुभव नहीं था, ऊपर से उनकी सरगना थी अपने प्रिय आदरणीय टीचर की बेटी, कुछ कहा तो घर जा कर पता नहीं क्या क्या कहे और फ़िर सर पता नहीं मेरे बारे में क्या क्या सोचें?
एक दिन हार कर उसने मुझसे मुखातिब हो कर कहा, " बड़ के पेड़ के नीचे कोई बड़ा पेड़ नहीं उगता"। उस कोमल आयु में भी हम न सिर्फ़ उसका आशय समझ गये, वो बात हमको इतनी चुभ गयी कि आज तक हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत है। जब भी किताबों के साथ बैठते, संतोष महाशय के शब्द अंदर तक कचौट जाते। हमने ठान लिया कि हम पिता से ज्यादा पढ़ कर दिखायेगें। बाद में हमने जब एम ए करने की बात की और पिता को संतोष वाली बात बताई तो पता नहीं मन ही मन उन्होंने संतोष को कितनी दुआएं दे डालीं।
अगर मम्मी कभी कहतीं कि घर के काम करने की आदत डालो तो पिता जी फ़ौरन हमारे बचाव को आ जाते और एक्दम स्ट्रिक्ट हिदायत देते कि हमें घर के कामों में न उलझाया जाए, हम सिर्फ़ पढ़ाई करें। एम ए के बाद मम्मी जोर देने लगी कि अब हमारी शादी हो जानी चाहिए, पर हम अब मेनेजमैंट का डिप्लोमा करना चाह्ते थे, वो पिता ही थे जिन्होंने अपना भार उतारने के बदले हमारा साथ देने का निश्चय किया। कालांतर में शादी के बाद हमने एम फ़िल करने का मन बनाया, एक बार फ़िर मेरे पिता खुशी से मेरा साथ देने के लिए तत्पर दिखाई दिये और माँ भी। दोनों ने कहा तुम बच्चे की चिंता मत करो हम संभाल लेगें तुम बस अपनी पढ़ाई करो। कोई मुस्कुरा कर कहे कि इसमें कौन सी बड़ी बात हुई, आज कल तो सभी पिता अपनी लड़कियों को पढ़ाते ही हैं। हां सच है, लेकिन मेरे पिता ने बहुओं को बेटी से बढ़ कर माना, बहु को भी शादी के बाद पढ़ने के लिए उतना ही प्रोत्साहन दिया जितना बेटी को। उनकी पक्की हिदायत थी कि पढ़ाई के दौरान बहु से भी कोई काम न कराया जाए और सिर्फ़ पढ़ने दिया जाए।
असल में जिन्दगी जीना तो तब शुरु हुआ जब तीसरा पुरुष हमारे जीवन में पहले सखा और फ़िर पति बन कर आया। इस प्राण देयी पुरुष के बारें में हम अलग से फ़िर कभी लिखेगें, यहां संक्षिप्त में लिखने में उस रिश्ते के साथ अन्याय होगा।
अब बताइए ऐसे में अगर हमें लगता है कि मेन्स डे ना मनाना पुरुषों के साथ बहुत अन्याय है तो क्या गलत सोचते हैं?
:)
March 01, 2008
चक दे रेलवे
चक दे रेलवे
ज्ञानदत्त जी के चिठ्ठे से रेलवे के अंदरूनी कार्य कलापों के बारे में अक्सर जानकारी पायी है और हर बार इस बात का एहसास हुआ है कि कितनी आसानी से हम चाय की चुस्कियों के साथ सरकार को कोस लेते हैं जिस में रेलवे भी शामिल है। ज्ञान जी के ब्लोग पढ़ने से पहले मेरी सरकारी अधिकारियों के प्रति कोई खास अच्छी राय नहीं थी। बिल्कुल उसी तरह जैसे राजनितिज्ञों के लिए नहीं है। मुझे धीरे धीरे एह्सास होने लगा कि हम अपनी धारणाएं एक तरफ़ा जानकारी के आधार पर बनाते हैं, वो जानकारी जो हमारे अनुभव होते हैं, हमारे लिए वही ठोस सत्य होते हैं पर अब लगने लगा कि वो पूरी सच्चाई नहीं होते। कई बार हम समझ लेते हैं कि आकाश उतना ही बड़ा है जितना हमारी आखों में समाता है। इस दृष्टी से देखा जाए तो चिठ्ठाजगत में विचरण करने से मेरी सोच परिपक्व हुई है। आज मैं अचानक इसका जिक्र क्युं कर रही हूँ। वो इस लिए कि परसों के यानि कि 28 फ़रवरी के टाइम्स ओफ़ इंडिया में छपे एक समाचार ने हमें विस्मित कर दिया और बरबस हमारे ख्याल इस बात पर चले गये कि सरकारी अफ़्सर भी उतने सवेंदनहीन नहीं होते जैसे हम सोचते थे। हर संस्था में कर्तव्यपरायण व्यक्ति कम ही होते हैं और ज्यादातर साधारण सी निष्ठा वाले, तो क्या, उन कुछ कर्तव्यपरायण लोगों की वजह से वो संस्था सुचारु रूप से चलती है जैसे गाड़ी में इंजन छोटा सा होता है पर पूरी गाड़ी उसके चलने पर ही निर्भर करती है।
खबर यूं है कि भूरी काल्बी नाम की एक गर्भवति महिला ट्रेन से अपने गांव स्वरूपगंज( जो राजस्थान में सिरोही और अबु रोड के बीच आता है) से अहमदाबाद जा रही थी अपना चैक अप करवाने। रास्ते में शौचालय का इस्तेमाल करते हुए वो कमजोरी की वजह से शौचालय में ही बेहोश हो गयी। काफ़ी देर तक जब शौचालय का दरवाजा नहीं खुला तो लोगों ने दरवाजा ठकठकाना शुरु कर दिया। किसी तरह से अर्धमूर्छित अवस्था में उसने दरवाजा खोला। उसी समय उसे एहसास हुआ कि उसका पेट बहुत हलका हो गया है और पिचका हुआ है। उसका बच्चा गिर चुका था। तेजी से भागती ट्रेन में वो बच्चा मां के पेट से खिसक कर शौचालय के छेद से फ़िसलता हुआ रेल की पटरियों पर जा गिरा। उसकी हालत देख उसके साथ आये रिश्तेदारों ने कलोल के पास चैन खींच दी। ये जगह उस जगह से दो स्टेशन दूर थी जहां बच्चा गिरने का अनुमान था। गॉर्ड को फ़ौरन सूचित किया गया।
गिरने वाला भ्रूण सात महिने की बच्ची थी। सौभाग्यवश कुछ ग्राम रक्षक दल के सदस्यों का ध्यान उस पर गया और उन्होनें पास ही के अमबलिस्यान स्टेशन के स्टेशन मास्टर के के राय जी को सूचित कर दिया कि एक नवजात शिशु रेल की पटरी पर पड़ा है। राय साहब फ़ौरन खुद उस दिशा में दौड़ लिए , उन्हें दूर से बच्ची के रोने की आवाज सुनाई दे रही थी और वो सरपट दौड़े चले जा रहे थे। पास पहुंच कर जो उन्हों ने देखा उस पर उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था। बच्ची बायीं पटरी के एकदम पास पड़ी थी और उसकी नाल एक तरफ़ लटक रही थी। इतनी तेज रफ़्तार से दौड़ती ट्रेन से गिरने के बावजूद उस बच्ची का बाल भी बाकां नहीं हुआ था। पटरी के नुकीले पत्थर भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सके। दो घंटे के अंदर मां और बच्ची राजस्थान हॉस्पिटल में एक साथ थे। बच्ची न सिर्फ़ सात महीने की ही थी, उसका वजन भी सिर्फ़ एक किलो चार सौ ग्राम था। वो कहते हैं न जाको राखे साइयां मार सके न कोई। सही कहा उसकी माँ ने कि वो बच्ची भगवान ने उसे उपहार स्वरूप ही दी है, वर्ना ऐसा कभी सुना कि बच्ची की नाल भी अपने आप टूट गयी और चलती ट्रेन से गिर कर भी उसका बाल भी बांका न हुआ।
ये घटना जितनी अपने आप में रोमांचक है उतनी ही एक और बात उजागर करती है, राय साहब का सरपट भागना और गॉर्ड का पिछले स्टेशन पर तुरंत सूचना देना। राय साहब ने ये नहीं सोचा कि हो सकता है ये पास के गांव में से किसी का अवैध बच्चा भी हो सकता है। उनका एक ही ध्येय था उस समय उस मानव जीव की रक्षा। राय जी जैसे कर्मचारियों को हमारा सलाम । अगर रेलवे में ऐसे कर्मचारी हैं तो फ़िर चक दे रेलवे।
रेलवे से ही जुड़ी एक और खबर जो मुझे बहुत दुखी कर गयी वो है कि एक 50 वर्षीय मच्छी बेचने वाली महिला की जो रोज दहानू से शटल ट्रेन लेकर रात को 11।30 बजे आती थी और फ़िर वहां से चर्चगेट के लिए ट्रेन पकड़ती थी, ससून डॉक जाने के लिए, जहां से वो मच्छी खरीद कर वापस उसी रास्ते से घर जाती थी।
शुक्रवार के दिन भी हमेशा की तरह वो 15000 रुपये अपनी अंटी में बांध मच्छी खरीदने निकली। दुर्भाग्य से जब वो विरार पर उतर रही थी ट्रेन चल पड़ी। घबरा कर उसने प्लेटफ़ार्म पर छलांग लगा दी। लेकिन उसका पांव चलती ट्रेन और प्लेट्फ़ार्म के बीच आ गया। वो असहाय सी खून में लथपथ पड़ी थी। दो सरकारी रेलवे पुलिस वाले हवलदार वहां से निकल रहे थे। उन्हों ने उस औरत को कम उसकी अंटी में खौंसे बटुए को ज्यादा देखा। बटुए में से 12700 रुपए निकाल कर पास ही खड़े एक कुली की मदद से उसे दूसरी ट्रेन में डाला ये कह कर कि हॉस्पिटल में ले जाएगें लेकिन दो स्टेशन के बाद कुली को ये कह कर उतर गये कि उस औरत के गले का मंगलसूत्र और चूढ़ियाँ वो अपने हिस्से के रूप में ले ले और उतर जाए उसे वहीं ट्रेन में मरने के लिए छोड़ के। अब अगर ऐसे रक्षक बैठे हों तो भक्षक की क्या जरूरत ? कुली ने ऐसा नहीं किया और उसे अस्तपताल ले गया ये अलग बात है।(मुंबई मिरर
के सौजन्य से ) कुली भी उसी रेलवे का हिस्सा है इस लिए चक दे रेलवे अगर वो ऐसा न करता तो पूछना पड़ता क्या सच में चक दे?
तो ये है भारत के रेलवे के दो रूप्। प्राथना करती हूँ राय जैसे लोगों की संख्या बढ़े।
ज्ञानदत्त जी के चिठ्ठे से रेलवे के अंदरूनी कार्य कलापों के बारे में अक्सर जानकारी पायी है और हर बार इस बात का एहसास हुआ है कि कितनी आसानी से हम चाय की चुस्कियों के साथ सरकार को कोस लेते हैं जिस में रेलवे भी शामिल है। ज्ञान जी के ब्लोग पढ़ने से पहले मेरी सरकारी अधिकारियों के प्रति कोई खास अच्छी राय नहीं थी। बिल्कुल उसी तरह जैसे राजनितिज्ञों के लिए नहीं है। मुझे धीरे धीरे एह्सास होने लगा कि हम अपनी धारणाएं एक तरफ़ा जानकारी के आधार पर बनाते हैं, वो जानकारी जो हमारे अनुभव होते हैं, हमारे लिए वही ठोस सत्य होते हैं पर अब लगने लगा कि वो पूरी सच्चाई नहीं होते। कई बार हम समझ लेते हैं कि आकाश उतना ही बड़ा है जितना हमारी आखों में समाता है। इस दृष्टी से देखा जाए तो चिठ्ठाजगत में विचरण करने से मेरी सोच परिपक्व हुई है। आज मैं अचानक इसका जिक्र क्युं कर रही हूँ। वो इस लिए कि परसों के यानि कि 28 फ़रवरी के टाइम्स ओफ़ इंडिया में छपे एक समाचार ने हमें विस्मित कर दिया और बरबस हमारे ख्याल इस बात पर चले गये कि सरकारी अफ़्सर भी उतने सवेंदनहीन नहीं होते जैसे हम सोचते थे। हर संस्था में कर्तव्यपरायण व्यक्ति कम ही होते हैं और ज्यादातर साधारण सी निष्ठा वाले, तो क्या, उन कुछ कर्तव्यपरायण लोगों की वजह से वो संस्था सुचारु रूप से चलती है जैसे गाड़ी में इंजन छोटा सा होता है पर पूरी गाड़ी उसके चलने पर ही निर्भर करती है।
खबर यूं है कि भूरी काल्बी नाम की एक गर्भवति महिला ट्रेन से अपने गांव स्वरूपगंज( जो राजस्थान में सिरोही और अबु रोड के बीच आता है) से अहमदाबाद जा रही थी अपना चैक अप करवाने। रास्ते में शौचालय का इस्तेमाल करते हुए वो कमजोरी की वजह से शौचालय में ही बेहोश हो गयी। काफ़ी देर तक जब शौचालय का दरवाजा नहीं खुला तो लोगों ने दरवाजा ठकठकाना शुरु कर दिया। किसी तरह से अर्धमूर्छित अवस्था में उसने दरवाजा खोला। उसी समय उसे एहसास हुआ कि उसका पेट बहुत हलका हो गया है और पिचका हुआ है। उसका बच्चा गिर चुका था। तेजी से भागती ट्रेन में वो बच्चा मां के पेट से खिसक कर शौचालय के छेद से फ़िसलता हुआ रेल की पटरियों पर जा गिरा। उसकी हालत देख उसके साथ आये रिश्तेदारों ने कलोल के पास चैन खींच दी। ये जगह उस जगह से दो स्टेशन दूर थी जहां बच्चा गिरने का अनुमान था। गॉर्ड को फ़ौरन सूचित किया गया।
गिरने वाला भ्रूण सात महिने की बच्ची थी। सौभाग्यवश कुछ ग्राम रक्षक दल के सदस्यों का ध्यान उस पर गया और उन्होनें पास ही के अमबलिस्यान स्टेशन के स्टेशन मास्टर के के राय जी को सूचित कर दिया कि एक नवजात शिशु रेल की पटरी पर पड़ा है। राय साहब फ़ौरन खुद उस दिशा में दौड़ लिए , उन्हें दूर से बच्ची के रोने की आवाज सुनाई दे रही थी और वो सरपट दौड़े चले जा रहे थे। पास पहुंच कर जो उन्हों ने देखा उस पर उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था। बच्ची बायीं पटरी के एकदम पास पड़ी थी और उसकी नाल एक तरफ़ लटक रही थी। इतनी तेज रफ़्तार से दौड़ती ट्रेन से गिरने के बावजूद उस बच्ची का बाल भी बाकां नहीं हुआ था। पटरी के नुकीले पत्थर भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सके। दो घंटे के अंदर मां और बच्ची राजस्थान हॉस्पिटल में एक साथ थे। बच्ची न सिर्फ़ सात महीने की ही थी, उसका वजन भी सिर्फ़ एक किलो चार सौ ग्राम था। वो कहते हैं न जाको राखे साइयां मार सके न कोई। सही कहा उसकी माँ ने कि वो बच्ची भगवान ने उसे उपहार स्वरूप ही दी है, वर्ना ऐसा कभी सुना कि बच्ची की नाल भी अपने आप टूट गयी और चलती ट्रेन से गिर कर भी उसका बाल भी बांका न हुआ।
ये घटना जितनी अपने आप में रोमांचक है उतनी ही एक और बात उजागर करती है, राय साहब का सरपट भागना और गॉर्ड का पिछले स्टेशन पर तुरंत सूचना देना। राय साहब ने ये नहीं सोचा कि हो सकता है ये पास के गांव में से किसी का अवैध बच्चा भी हो सकता है। उनका एक ही ध्येय था उस समय उस मानव जीव की रक्षा। राय जी जैसे कर्मचारियों को हमारा सलाम । अगर रेलवे में ऐसे कर्मचारी हैं तो फ़िर चक दे रेलवे।
रेलवे से ही जुड़ी एक और खबर जो मुझे बहुत दुखी कर गयी वो है कि एक 50 वर्षीय मच्छी बेचने वाली महिला की जो रोज दहानू से शटल ट्रेन लेकर रात को 11।30 बजे आती थी और फ़िर वहां से चर्चगेट के लिए ट्रेन पकड़ती थी, ससून डॉक जाने के लिए, जहां से वो मच्छी खरीद कर वापस उसी रास्ते से घर जाती थी।
शुक्रवार के दिन भी हमेशा की तरह वो 15000 रुपये अपनी अंटी में बांध मच्छी खरीदने निकली। दुर्भाग्य से जब वो विरार पर उतर रही थी ट्रेन चल पड़ी। घबरा कर उसने प्लेटफ़ार्म पर छलांग लगा दी। लेकिन उसका पांव चलती ट्रेन और प्लेट्फ़ार्म के बीच आ गया। वो असहाय सी खून में लथपथ पड़ी थी। दो सरकारी रेलवे पुलिस वाले हवलदार वहां से निकल रहे थे। उन्हों ने उस औरत को कम उसकी अंटी में खौंसे बटुए को ज्यादा देखा। बटुए में से 12700 रुपए निकाल कर पास ही खड़े एक कुली की मदद से उसे दूसरी ट्रेन में डाला ये कह कर कि हॉस्पिटल में ले जाएगें लेकिन दो स्टेशन के बाद कुली को ये कह कर उतर गये कि उस औरत के गले का मंगलसूत्र और चूढ़ियाँ वो अपने हिस्से के रूप में ले ले और उतर जाए उसे वहीं ट्रेन में मरने के लिए छोड़ के। अब अगर ऐसे रक्षक बैठे हों तो भक्षक की क्या जरूरत ? कुली ने ऐसा नहीं किया और उसे अस्तपताल ले गया ये अलग बात है।(मुंबई मिरर
के सौजन्य से ) कुली भी उसी रेलवे का हिस्सा है इस लिए चक दे रेलवे अगर वो ऐसा न करता तो पूछना पड़ता क्या सच में चक दे?
तो ये है भारत के रेलवे के दो रूप्। प्राथना करती हूँ राय जैसे लोगों की संख्या बढ़े।
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