सुस्वागतम
January 26, 2008
60 के दशक में जब हम पहली बार बम्बई आये अपने पूरे बोरिया बिस्तर समेत तो हमारे सबसे छोटे मामा और सबसे छोटे चाचा भी आये। जिन्हों ने बम्बई न देखा हो उनके लिए आज भी बम्बई का जबरदस्त आकर्षण है, तब भी था, इस ख्याल से कि हमारी बहन अब बम्बई वासी होने जा रही है मामा ऐसे पुलकित थे मानो हम लोग विदेश में बसने जा रहे हैं। मामा चाचा दोनों जवां, अभी अभी कॉलेज की पढ़ाई खत्म कर के निकले थे। आखों में कई बेसिर पैर के सपने। रोह सुबह दोनों बसों के रूट समझ कर बम्बई की सड़के नापने निकल जाते। मन में आस होती कि शायद अपनी मन पसंद हिरोइन स्टुडियो जाती दिख जाए और इनका जीवन धन्य हो जाए। उम्र का तकाजा था, आई टॉनिक भी खूब पीते थे। लेकिन संतुष्ट नहीं।
हमारे एक रिश्तेदार जो बरसों से बम्बई में थे उनसे ये दोनों बहुत खुले हुए थे,रोज शाम को उन रिशतेदार के घर महफ़िल जमती, हम भी शामिल होते। मेरे मामा और चाचा आहें भरते, बम्बई का नाम तो बहुत है पर अपने दिल्ली जैसी बात नहीं
क्युं भाई
अरे यहां कोई लड़की चलती ही नहीं , सब दौड़ती हैं, बस के पीछे, ट्रेन के पीछे, दिल्ली की लड़कियों को देखो, सुबह कॉलेज के लिए भी निकलें तो पूरी सज संवर कर, काजल लिप्सटिक से लैस, और यहां देखो, कोई इक्का दुक्का लड़की हील वाली सैंडल पहने मिलेगी, सब फ़्लैट चप्प्लें पहने हुए। इनको देख कर कोई कवि क्या लिखेगा "क्या चाल है तोरी"। यहां की लड़कियों को न कपड़ा पहनने का शऊर है न चलने का।
अरे भाई हील पहनेगी तो दौड़ कर बस या ट्रेन कैसे पकड़ेगी, हमारे रिश्तेदार समझाते। बसें तो तब भी भरी हुईं आती थी, और लोकल ट्रेन तो एक मिनिट भी मुश्किल से रुकती है।
मेरे मामा चाचा तो खैर निराश हो कर चले गये, लेकिन आज इतने साल बाद भी कुछ नहीं बदला है। उलटे आवास दफ़तर से और दूर चले गये है शहर की परिधी बढ़ गयी है।
बम्बई में लगभग 99% औरतें काम पर जाती हैं। एक साधारण महिला जो नारीमन पॉइंट पर काम करती है और डोंबिवली या विरार रहती है, उसकी दिनचर्या सुबह पांच बजे से शुरु होती है। सुबह उठ कर पतिदेव के लिए, बच्चों के लिए डब्बे बनाने, बच्चों को तैयार करना, बाई भी सुबह 6 बजे तक आ जाती है उससे पूरा काम करवाना,एक कप चाय बैठ कर पी सके ऐसा तो नसीब कहां, खड़े खड़े ही बच्चों को तैयार करते हुए ठंडी चाय एक ही सांस में गटक ली जाए तो गनीमत है, कभी कभी वो भी भूल जाती है।
सुबह सात बजे बच्चों को लगभग खीचते हुए स्कूल में छोड़ना, फ़िर लगभग भागते हुए, हांफ़ते हुए प्लेटफ़ार्म पर पहुंचना,ये मुए रेलवे वाले भी प्लेट्फ़ार्म दरवाजे के पास ही क्युं नहीं बना देते, ब्रिज चढ़ना पड़ता है, मन में गुमड़ते विचार- गैस बंद की कि नहीं, घर की चाबी ली की नहीं। ये ट्रेन क्युं नही आई अभी तक, आज फ़िर लेट का रिमार्क लगेगा, ये रेलवे वाले भी ट्रेन क्युं टाइम पर नहीं चला सकते।प्लेट्फ़ार्म के किनारे तक जा जा कर झांकना, मानों इसके इस तरह लटकने से ट्रेन जल्दी आ जाएगी। दूर से ट्रेन आती दिखे तो साड़ी उठा कर कमर में खौंस लेना, बैग आगे कर लेना जेबकतरों के डर से, देख कर ऐसा लगता है मानों कोई शेर शिकार करने को तैयार हो। गाड़ी नजदीक आते ही कूद कर अंदर घुसने की कौशिश न करे तो पूरे एक घंटे का सफ़र खड़े खड़े ही गुजारना पड़े।दरवाजे के पास मच्छी वालीयां अपनी टोकरी लिए मजे से बतियां रही हैं यहां नाक सड़े जा रही है।क्या करें पंगा भी तो नहीं ले सकते।
एक घंटे बाद वी टी पर या चर्चगेट उतर फ़िर बस की लाइन में लगो नारिमन पॉंइंट जाने के लिए, टेक्सी वाले मुए डबल दाम मांगते हैं, अब रोज रोज टेक्सी करो तो बचाओ क्या? जैसे तैसे दफ़्तर पहुंच कर सांस में सांस आती है। फ़ौरन केंटीन वाले को गरम चाय का ऑर्डर, अब जाके दिन की पहली चाय ठीक से पी है वो भी मनों शक्कर के साथ, मुंह कड़वा हो जाता है, हजार बार समझाया कि इतनी शक्कर न डाले पर वो तो एक कान से सुन दूसरे से बाहर्। रोज सोचती है कल से थर्मस में अपनी चाय लाएगी पर वक्त ही नहीं मिल पाता।
शाम चार बजे से नजरें घड़ी की सुइयों पर अटक जाती हैं जैसे ही पांच बजे वो बैग वैग ले कर दफ़तर से आनन फ़ानन में बाहर, बॉस बोलता है सब कामचोर हैं, मुफ़त में तन्ख्वाह लेना चाहती हैं , वो एक कान से सुन दूसरे कान से बाहर निकाल देती है। तेज तेज चलते चलते सब्जी का थैला बैग से बाहर निकल आता है। भाजी पाला खरीद भारी भरकम थैलों के साथ वी टी स्टेशन और फ़िर शेर के शिकार करने जैसे कूद कर गाड़ी में घुसना ताकि सीट मिल सके, अगर खिड़की के पास वाली सीट मिल जाए तो क्या बात है। सीट मिलते ही वो अपने दुखते पैरों में से चप्पल निकाल पांव फ़ैलाने की कौशिश करती है। सब्जी निकाल वहीं छीलना, काटना, टाइम मैनेंजमैंट में परांगत( बॉस कुछ भी सोचे), एक घंटे बाद डोंबिवली स्टेशन आने से एक स्टेशन पहले वो खड़ी हो जाती है। जितना सुबह चढ़ना मुशकिल है उतना ही शाम को उतरना। सबसे आसान तरीका है भीड़ के आगे खड़े हो जाओ, भीड़ खुद बखुद ढ्केल देगी।
स्टेशन उतर फ़िर वही मुआ ब्रिज चढ़ो, गनिमत है स्टेशन के बाहर ही गरमागरम रोटियां मिल जाती है, दो रुपये की एक, दस रोटियां पैक करवा, रास्ते में से बच्चे को बेबी सिट्टर के पास से वापस ले सात बजे घर पहुंचती है, सामान पटक बच्चे की दिन भर की जमी बातें सुनती सीधे किचन में, ट्रेन में काटी भाजी को छोंकना, पतिदेव के आने से पहले, गंदे कपड़े मशीन में डालना, घर बेतरदीबी से बिखरा पड़ा है उसे संभालना, दूसरे बच्चे का होम वर्क, यूनीफ़ार्म को प्रेस, किताबों को कवर चढ़ाना, करते करते रत के 11 बजे किचन साफ़ कर बिस्तर पर पड़ रहना।
अब बताइए कब हाई हील की चप्प्ले पहने या लिप्स्टिके लगाए, शीशे में ठीक से शक्ल देखे भी हफ़्तों गुजर जाते हैं। इतवार के दिन कोई किसी के घर आता जाता नहीं, पूरे हफ़ते की थकान निकालनी और नींद पूरी करनी, फ़िर नये हफ़ते इस भट्टी में झोकें जाने के लिए
तैयार्।
हर हाल में चेहरे पर हसीं बरकरार, ये है बोम्बे मेरी जान
January 24, 2008
मिनाक्षी जी बम्बई में
मिनाक्षी जी बम्बई में
आज हम मिनाक्षी जी से मिलने बोम्बे हॉस्पिटल गये। वो अपने 21-22 वर्षिय पुत्र, वरुण के साथ आयी हुई हैं उसका इलाज करवाने। उनका पुत्र 13 वर्ष की उम्र से जोड़ो के दर्द से पीड़ित है और असहनीय दर्द से जूझ रहा है। इतने जवान बच्चे को बैसाखियों के सहारे खड़े होते और व्हील चैअर पर बैठते देख दिल रो उठा। मिनाक्षी जी से मैं पहली बार मिल रही थी, यूं तो रोज ही चैट पर बतियाते हैं, पर उन्होने कभी वरुण की बिमारी का जिक्र नहीं किया था, इस लिए देख कर बड़ा धक्का लगा।
हम वहां करीब दो बजे पहुंचे तो देखा दोनों मां बेटा हमारे इंतजार में थे। मां तो मां बेटा भी जिज्ञासु था इस ब्लोगरनी को देखने के लिए। एक दूसरे को देखते ही मन ऐसे खिल गया जैसे हम एक दूसरे को बरसों से जानते हों, सब नेट का कमाल है। गले मिलने के बाद शुरु हुआ बातों का दौर्। वरुण को खास जिज्ञासा इस लिए थी कि मिनाक्षी जी ने उसे बताया था कि हम मनोविज्ञान के प्रोफ़ेसर हैं।
वरुण यूं तो इलक्ट्रोनिक इनजिनियरिंग के लास्ट सेमेस्टर में है, पर उसे मनोविज्ञान में भी काफ़ी रुचि है। हमारे हाथ में एक बड़ा सा थैला था, उनकी जिज्ञासा होना लाजमी था, हमने बताया कि हम एक पुस्तक प्रदर्शनी से आ रहे हैं और कुछ किताबे खरीद कर लाए हैं, सुनते ही वरुण की आखें चमक उठीं। पता चला वो किताबे पढ़ने का बहुत रसिया है, वो उठने की कौशिश करने लगा तो हमने फ़ौरन किताबों का थैला उसके बिस्तर पर रख दिया। उन किताबों में एक किताब शेयर मार्केट पर थी बस वहीं से शेयर का विषय छिड़ गया।
पता चला वरुण शेयर मार्केट में उतरना चाह्ता है पर उसे पता नहीं कि कैसे उतरा जाए, हमें जो भी अधकचरा ज्ञान है उसी के बल पर हम शेखी बघारते रहे और वो बिचारा हम से इम्प्रेस्ड होता रहा। अभी ये बातों का दौर चल ही रहा था कि नर्स आ गयी वरुण को एक्स रे के लिए ले जाना था। बड़े अनमने मन से वरुण उठा, दरवाजे के पास पहुंच मिनाक्षी जी से पूछा आंटी कब तक रहेंगी, हम समझ गये कि अभी उसका मन हमारी बातों से भरा नहीं और उसको डर है कि उसके वापस आने तक हम चले जाएंगें। हमने वादा किया कि हम उसके आने तक रुकेगें, तब वो मुस्कुरा कर व्हील चैअर पर बैठ गया।
उसकी मुस्कुराहट मिनाक्षी को भी आनंदित कर गयी। हमने किसी और ब्लोग पर मिनाक्षी जी के अतिथी सत्कार के बारे में पढ़ा था, वरुण के जाने के बाद उन्हों ने उसी आवभगत का परिचय दिया। हम कहते ही रहे कि आप हॉस्पिटल में हैं और आवभगत की कोई जरुरत नहीं पर वो कहां मानने वाली थी, झट से दुबई से लाई मिठाई और कई प्रकार के व्यंजन हमारे सामने आ गये।
थोड़ी देर में वरुण भी लौट आया, साथ में डाक्टर भी, डाक्टर के जाने के बाद बातों का सिलसिला फ़िर से शुरु हुआ। अब की बार हम स्टुडेंट बने और वरुण मास्टर, हम जानना चाह्ते थे ऐसी कौन सी साइट्स है जहां मुफ़्त में प्रूरी किताब पढ़ी जा सकती हैं, मुफ़तिया है न हम्। वो हमको समझाता रहा कि कैसे उन साइट्स पर जाएं। करते करते शाम के चार बज गये। हम अब लौटना चाहते थे, घर वहां से कोई 40 किलोमीटर की दूरी पर है और हम सुबह से निकले थे। ये हमारी मजबूरी थी वर्ना तीनों में से किसी का मन नहीं भरा था।
January 22, 2008
मात्र झलक
कल युनुस जी के निमंत्रण पर हम पति समेत विविध भारती के स्टुडिओ पहुंचे थे, हमारे अलावा बोधीस्तव और आभा जी और दो और जोड़े वहां पहुंचे थे। विविध भारती की पचासवीं वर्षगांठ के अवसर पर विविध भारती कई खास कार्यक्रमों का आयोजन कर रही है, पिछ्ले महीने आय आय टी के छात्रों के साथ एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था और इस महीने प्रेम और दांपत्य जीवन पर विशेष कार्यक्रम करने का आयोजन था। कुल चार जोड़े आमंत्रित थे, शायद उम्र के हिसाब से। एक जोड़ा 70 -74 साल का, फ़िर हम 50-55 तक, फ़िर बोधिस्तव जी का जोड़ा 40 -44 तक और तीसरा जोड़ा 20-30 साल तक का जो अभी भी विवाह बंधन में बंधने के लिए माता पिता की सहमति का इंतजार कर रहे हैं। प्रोग्राम कुछ कुछ मौज मस्ती की प्रतियोगिता के रुप में था, सुधीर दलवी(शिरडी के सांई बाबा में सांई बाबा की भूमिका निभाने वाले) और हिमानी शिवपुरी(कुछ कुछ होता है में हॉस्टल के मैट्रन का रोल निभाने वाली) जज थे। उम्र के अलावा चारों जोड़े अलग अलग प्रांतों से- सबसे प्रौढ़ जोड़ा गुजरात से, हमारा जोड़ा पंजाब और केरला का मिश्रण, बोधिस्तव जी का जोड़ा उत्तर प्रदेश से, और सबसे युवा जोड़ा महाराष्ट्र से।
प्रोग्राम के सूत्रधार थे युनुस जी और ममता जी( ये भी एक जोड़ा अपनी अस्ली जिन्दगी में)।
प्रोग्राम बहुत मजेदार रहा, करीब 3 बजे से रात के साढ़े सात बजे तक रिकॉर्डिग हुई। शादी से पहले से लेकर आज तक की दांपत्य जीवन पर अनेक सवाल, कुछ के जवाब पहले ही एक फ़ार्म पर भरवा लिए गये थे और फ़िर मिला कर देखा जा रहा था कि हम एक दूसरे के बारे में कितना जानते हैं। पांच इनाम रखे गये थे सिर्फ़ मौज के लिए- बेस्ट जोड़ा, बेस्ट पति, बेस्ट पत्नी, बेस्ट प्रेमी, बेस्ट प्रेमिका।
बेस्ट जोड़े का इनाम तो सबसे प्रौढ़ जोड़े को मिलना चाहिए इस में किसी की दो राय नहीं थी। वो जोड़ा ऐसा जोड़ा था जिन्हों ने शादी पहले की और प्रेम बाद में, ठ्क्कर जी जब पूछा गया कि अगर उनकी शादी उनकी पत्नी से न हो पाती तो क्या वो जान पर खेल जाते, उन्होंने कहा अगर हम शादी से इन्कार कर देते तो हमारे घरवालों की जान पर बन आती क्योंकि लड़की तो घर वालों ने ही पंसद की थी। ये जोड़ा शादी की शायद 40वीं साल गिरह मना चुका है। सुन कर बहुत अच्छा लगा कि आज से 40 साल पहले भी वो न सिर्फ़ लड़की को देखने गये बल्कि उसके साथ 8 दिन घूमे भी, भावी पत्नी के लिए गीत भी गाए। हमें तो लगा था कि उस जमाने में लड़का लड़की एक दूसरे को शादी के बाद ही देख पाते थे।
बोधिस्तव जी से पूछा गया कि आभा जी के जूते का नंबर क्या है तो बोले छ: जबकी आभा जी ने लिखा था पांच, गलत जवाब, अब बोधी जी थोड़ा खिसिया गये, तुंरत बोले नहीं बाटा का छ: और वुडलैंड का पांच। हा हा हा….… आभा जी के वजन में भी गड़बड़ा गये (उठाने की प्रेक्टिस छूट गयी लगती है…।:))
एक जवाब जो सब पतिदेव ठीक से दे सके, वो था पत्नी का मनपंसद हीरो, हमें भी सुन कर आश्चर्य हुआ कि सबसे छोटी भावी पत्नी से लेकर सबसे प्रौढ़ पत्नी तक सब का एक ही जवाब था- अमिताभ बच्चन। ऐसा क्या है अमिताभ में, उस पर फ़िर कभी चर्चा करेंगें।
हां बोधी जी और हमारे पतिदेव की मनपंसद हिरोइन एक ही थी- वहिदा रहमान्।
बेस्ट प्रेमी और प्रेमिका का खिताब तो सबसे युवा जोड़े को मिलना ही था जिनकी अभी शादी नहीं हुई, बाकी बचे थे बेस्ट पति और बेस्ट पत्नी का खिताब, तो बेस्ट पति का खिताब मिला विनोद जी को (मेरे पतिदेव) और बेस्ट पत्नी का खिताब मिला आभा जी को……:)
और भी बहुत कुछ था लेकिन मैं सब बता दूंगी तो आप सुनेंगें क्या? 3 फ़रवरी को दोपहर 2।30 बजे से शाम 5।30 तक सुनिए न मजेदार नौंक झौंक विविध भारती पर्। ये तो मात्र झलक है।
और हां, कल कई और यादें ताजा हुईं तो वो भी आप के साथ बांट रही हूं लेकिन दूसरी पोस्ट के रूप में। आशा है की आप उसे भी झेल ही लेंगें।
January 20, 2008
विमल जी की ठुमरी
विमल जी की ठुमरी
दोस्तों आप को याद होगा कुछ महीने पहले बम्बई में ब्लोगरस मीट हुआ था आई आई टी के प्रांगण में जब मनीष जी यहां आये थे और मैं, विमल, प्रमोद, अभय, विकाश, अनिल, युनुस जी उनसे मिलने गये थे। अब जब इतने संगीत प्रेमी एक जगह जमा हो तो गीतों की महफ़िल लगना तो लाजमी ही था। महफ़िल जमी और खूब जमी। हमने उसकी विडियो रिकॉरडिंग की, लेकिन ब्लोग पर न डाल सके, तकनीकी चैंलेजड हैं न इस लिए। पहली परेशानी आयी कि कैमरे से जो फ़ाइल लोड की उसका साइज बहुत बड़ा था, ब्लोग सिर्फ़ 15 एम बी ही लेता है। बहुत से लोगों से पूछा कैसे करें, आई आई टी के विकाश को पता था कि क्या करना चाहिए पर वो इतने व्यस्त कि हाय बाय के सिवा कोई बात ही नहीं हो पाती। उड़ते उड़ते वो एक दो लाइन में बता देते और हम सिर फ़ोड़ते रहते। हम कई बार निराश हुए। लगा ये खजाना अब हम तक ही सिमित रह जाएगा। तकनीकी ज्ञान वो भी ऑन लाइन सीखना नाकों चने चबाने के जैसा है। फ़िर मन में वो कविता की लाइने कौंध जाती थी, कौशिश करने वालों की हार नहीं होती।
युनुस जी इस मीट का रसाव्दन आप लोगों को करा ही चुके हैं अनिल जी का गीत सुना कर। पर हम तो विमल जी का गीत सुनवाना चाह्ते थे जो हमको सबसे बड़िया लगा। दोस्तों, इस गीत को ब्लोग पर चढ़ाने के चक्कर में विमल जी का ये गीत मैं कई बार सुन चुकी हूँ पर अभी तक बोर नहीं हुई।
लीजिए आप भी सुनिए और बताइए कैसा है, वीडियो की गुणवत्ता शायद संतोषजनक न हो, उसके लिए माफ़ी चाहती हूँ, फ़िर भी सौ में से 35 नंबर की आशा तो कर ही सकती हूँ न?
विमल जी की ठुमरी
January 08, 2008
वो काले छ: दिन
7/1/08 11.55 p.m.
अभी अभी ज्ञानद्त्त जी की हॉस्पिटल से लिखी पोस्ट पढ़ी। पोस्ट पढ़ते पढ़ते बरबस कुछ पुरानी यादें चली आईं।
मई महीने की शनिवार की शाम बड़ी अलसायी सी शाम थी।उस दिन बुखार के चलते कॉलेज से आते ही सोफ़े पर ही पस्त हो गये थे।शाम, पतिदेव के आने पर चाय पीते पीते मार्केट जाने का प्रोग्राम बना।
करीब पौने सात बजे मार्केट में घुसने ही वाले थे कि फ़ोन दनदना उठा, फ़ोन छोटे भाई का था, इंदौर से खबर आई थी कि मम्मी हॉस्पिटल में एड्मिट हैं। सुन कर सन्न रह गये। अभी पिछ्ले शनिवार को ही तो मम्मी छ: महीने मेरे साथ गुजार कर वापस इंदौर गयी थीं। बदवहास से भाई के घर पहुंचे, कानों पर यकीं नहीं हो रहा था। टाइम देखा तो सवा सात बज चुके थे। पहली बार इस बात का एहसास हुआ कि बम्बई से इंदौर जाने वाले सब संसाधन सात बजे तक निकल लेते हैं । ट्रेन सात बजे छूटती है, बस सात बजे और फ़्लाइट भी सात बजे। मन था कि रुकने को तैयार नहीं।
भाई ने अपनी गाड़ी निकाली, दूसरे दिन सुबह दस बजे के करीब सीधा अस्पताल पहुचें। लगभग भागते हुए आई सी यू पहुचें तो देखा मम्मी कोमा में थीं, सिर्फ़ सांस चल रही थी पर कोई रिस्पांस नहीं। हमारे दुख और क्रोध की सीमा न रही जब हमने देखा कि ऐसी हालत में भी मम्मी के हाथ पांव बिस्तर से बांधे हुए हैं जैसे स्कूल के दिनों में मेढक का डिस्सेकशन करने के लिए उसकी चारों टागों को खीच कर वेक्स ट्रे में पिन लगा दिया जाता था।
उसी कमरे में बैठे डॉक्टर से पूछा कि उनके हाथ पांव क्युं बाधें हैं, उसने हमारी तरफ़ ऐसे देखा मानों हम पागलखाने से छूट कर आयें हैं, जबाब में सिर्फ़ बेरुखी से मौन धारण किए अपनी फ़ाइलों में मुह गढ़ाये रहा । हमने जरा ऊंची आवाज में अपना सवाल दोहराया, उसके साथ में और कई सवाल जड़े जैसे क्या डायगनोस हुआ, क्या ट्रीटमेंट शुरु किया गया है, आदि आदि। डाक्टर झुंझला गया ( मानों कहता हो ये लोग दो अक्षर क्या पढ़ लेते हैं खुद को डाक्टर समझते हैं ) बोला मरीज नाक में लगी नली खींच लेते हैं इस लिए ऐसा किया गया है और यही नियम है।जहां तक ट्रीटमेंट का सवाल था हमें समझना चाहिए कि अब उनकी उम्र हो गयी है और ऐसा होता है, उनके ब्रेन में ब्लड क्लोट फ़स गया था। इसके पहले उनको कोई शिकायत नहीं थी और वो हमसे ज्यादा फ़ुर्ती से काम कर लेती थीं, सो हम हैरान थे अचानक ये कैसे हो गया।
हमारी आवाज में जो कंपकंपाता गुस्सा (कोल्ड फ़्युरी) था वो हमने उसके पहले और उसके बाद खुद भी कभी नहीं देखा । हमने पूछा जो मरीज बेहोश पड़ा है अपनी करवट भी नहीं बदल सकता और हाथ भी नहीं उठा सकता वो नली कैसे खीचेंगा। अगर तुम्हारी बांह ऐसे बांध कर रख दी जाय तो कैसा महसूस होगा। डाक्टर खीज कर मम्मी के पास आया और जोर से चिकोटी काटी हमें ये दिखाने के लिए कि जो मरीज कोमा में होते हैं उन्हें कोई एहसास नहीं आता। चिकोटी काटते ही मम्मी के गले से क्षीण सी चित्कार उठी, हम लगभग चिल्ला उठे आप डाक्टर हैं कि कसाई, सिर्फ़ हमें दिखाने के लिए आप ने मरीज को जानबूझ कर बिना मतलब दर्द दिया। हमारे गुस्से का ठिकाना न रहा, हार कर मेरी जिम्मेदारी पर रस्सियां खुलवायीं गईं, रस्सी खुलते ही बेहोशी के आलम में भी मम्मी ने अपना हाथ उठा कर अपने सीने पर रक्खा मानों कहती हों एक ही पोसिशन पड़े पड़े हाथ थक गया था। हमने तुरंत उन्हें अपोलो हॉस्पिटल शिफ़्ट करने का इंतजाम करवाया, फ़िर भी इस हॉसपिटल वालों ने डिस्चार्ज देते देते दो घंटे और बरबाद कर दिये। दोपहर एक बजे अपोलो हॉस्पिटल पहुचें। वहां तुंरत उनका इलाज शुरु हुआ। नर्सों ने बड़ी कोमलता से उन्हें एक करवट लिटाया। रोज सुबह बदन पौंछ कर कपड़े बदले जाते, बाल बनाये जाते, वातावरण भी साफ़ सुथरा, डाक्टर भी ज्यादा अच्छे और संवेदनशील्। लेकिन बहुत देर हो चुकी थी उन्हें इस अस्पताल में लाने में।
दरअसल, जब मम्मी को लकवे का अटैक हुआ वो घर पर बिल्कुल अकेली थीं, अटैक होने के 15 मिनिट के अंदर ही नौकरानी अचानक आ गयी थी और उसने शोर मचा कर पड़ौसन को बुलाया था, पर नौकरानी और पड़ौसन दोनों अनपढ़, पहले तो उन्होनें खुद उन्हें होश में लाने की कौशिश की, फ़िर टेलिफ़ोन की डायरी ढूढनी शुरु की भाई को इत्तला देने के लिए, दूसरे के घर में क्या कहां रक्खा है कैसे मालूम होगा फ़िर नंबर पढ़ना। भाई का दफ़्तर घर से एक घंटे की दूरी पर था। उसने नौकरानी को ही रिक्वेस्ट की कि वो उन्हें पास वाले अस्पताल में ले जाए वो पहुंच रहा है, और कोई घर का बंदा शहर में था नहीं उस समय। भाई ने शहर के सबसे अच्छे नामी गिरामी न्युरो सर्जन( जो उसका दोस्त भी था) को भी अस्पताल पहुंचने को कहा। वो पहुंचा भी पर उस अस्पताल में सीटी स्केन की सुविधा न होने के कारण कह दिया कि उसकी जरुरत नहीं, अटैक मामूली है सब कंट्रोल में है। उसकी वही लापरवाही हमें भारी पड़ गयी। वो एक रात जो सही इलाह न मिला हमारे लिए मनहूस हो गयी। (कभी जान पहचान वालों पर भरोसा न करें यही सीख मिली इस हादसे से)
अपोलो हॉस्पिटल में डाक्टरों ने बड़ी संवेदनशीलता के साथ पूरे परिवार को आने वाले कल के लिए तैयार किया। बदवहासी में कितने ही न्युरो सर्जनस को बम्बई और दिल्ली में फ़ोन पर कंसल्ट किया गया, सब का एक ही मत कि अब सर्जरी कर के कोई फ़ायदा नहीं। हम बार बार अपोलो के डाक्टर के कमरे में जा धमकते इस निराश आशा में कि शायद कह दे कि हां कुछ हो सकता है। वो बड़ी पेशेंस के साथ हमारी दलीलें सुनता अपनी कही बातें फ़िर से दोहराता, और फ़िर हार कर उसने कहा कि मैं आप का दु:ख समझता हूँ पर अगर मेरी अपनी माता भी होती तो मैं सर्जरी की सलाह न देता। अब इसके आगे बोलने को कुछ नहीं रह गया था।
निराश हताश हम बार बार आई सी यू में मां के पास पहुंच जाते, हटने को मन न करता, हमें यकीन था वो हमें सुन सकती हैं चाहे जवाब न दे सकती हों। एक्चुली अपनी भारी सासों के जरिए जवाब देती थीं ऐसा हमें लगता था। अपोलो के नियम बड़े कड़क थे। दिन में मिलने का वक्त सिर्फ़ दो घंटे, बाकी वक्त आप बाहर बैठे रहिए। दरबान हमें रावण से कम न दिखता था, कितना भी कौशिश कर लो वो टस से मस न होता। हां कभी कभी नर्स दया कर सुबह पांच बजे अंदर आने देती, इस शर्त पर कि हम आवाज न करें।
डाक्टर की बहुत मिन्न्तें की पर वो कानून तोड़ने को तैयार नहीं। वक्त हाथ से बड़ी तेजी से फ़िसला जा रहा था। हम किसी तरह दरबान की आखँ बचा कर अंदर पहुंचे और डाक्टर के सामने कुर्सी खीच कर बैठ गये। वो आश्चर्यचकित इसके पहले कुछ कहता हमने कहा डाक्टर साब हमारी एक बात सुन लिजिए फ़िर जो कहेगें हम कर लेगें। उसने प्रश्नीला मौन हमारी तरफ़ उछाल दिया।
हमने बात शुरु की…॥
डाक्टर साब हम जानते हैं हमारी मां कुछ घंटे या कुछ दिन की मेहमान है, आप ने ही बताया। अब ऐसे में हमें आई सी यू के बाहर इंतजार करने के लिए कह कर क्या कहने की कौशिश की जा रही है, कि मरीज के मरने का इंतजार करो और जब मर जाए तो आकर डेड बॉडी ले जाना। क्या आप को नहीं लगता कि मां से कुछ कहने सुनने का हमारे पास ये आखरी मौका है, क्या आप इस बात की गांरटी दे सकते हैं कि विसिटिंग टाइम शुरु होने तक उन्हें कुछ नहीं होगा और हम उनसे अपने मन की बात कह सकेगें। आप को एतराज किस बात पर है अगर हम उनके साथ खड़े हैं तो?
डाकटर ने कहा कि लोग जाते प्रियजन को देख भाव विह्हल हो जाते हैं और उनके रोने से दूसरे मरीज भी अपसेट हो जाते हैं। हमने कहा आप की बात एक दम सही है लेकिन अगर हम आप को गारंटी दें कि हमारे मुंह से एक आवाज नहीं निकलेगी तो?
ये डाक्टर संवेदनशील था उसने हमें मां के साथ अतिंम क्षण गुजारने की इजाजत दे दी। बड़ा दर्दविदारक था मॉनिटर पर उठती गिरती लकीरों को सपाट लाइन में बदलते देखना। बस अब कुछ नहीं कहा जाएगा।
January 02, 2008
अंदाज अपना अपना
कल हमने अपनी एक सहेली को फ़ोन किया, नये वर्ष की शुभ कामनाएं देनी थीं, फ़ोन पर आते ही सहेली बोली, "टेल मी", लगा किसी ने हथौड़ा ही मार दिया हो, अगर उसके कहे का अंग्रेजी अनुवाद करुं और उसके वाक्य को पूरा करुं तो कहेगें " टेल मी, वॉह्ट केन आई डू फ़ोर यू"। कितना ठंडापन, मानो सहेली से नहीं मशीन से बात कर रहे हैं जो आज कल किसी भी बड़े दफ़्तर में फ़ोन करने पर आप का स्वागत करती हैं। सिर्फ़ कमी इतनी ही थी कि उसने ये नहीं कहा कि अगर नव वर्ष की शुभकामनाएं देनी हैं तो डायल वन, अगर कोई काम है तो डायल दो……॥ऐसी बात नहीं कि वो हमसे बात नहीं करना चाह्ती थी,इनफ़ेक्ट, ये हथौड़ा मारने के बाद( जिसका उसे एहसास भी नहीं था) वो काफ़ी देर तक मुझसे आत्मियता से बतियाती रहे, पर कहीं न कहीं हम आहत मह्सूस कर रहे थे।
दरअसल कसूर उसका नहीं था कसूर था भाषा का। मेरी सहेली दक्षिण भारतीय है और ज्यादातर अंग्रेजी ही में बात होती है, "टेल मी" कहना आम बात है, यही बात कोई मराठी में कहता तो कहता "बोला, काय महण्तात", मतलब बोलिए क्या बोलते हैं आप। इसमें अग्रेजी के जुम्ले से ज्यादा अपनत्व लगता है और हिन्दी भाषी फ़ोन पर कहता," कहिए, कैसे है आप?" वो और भी मीठा लगता है।
बात सिर्फ़ भाषा की हो ऐसा भी नहीं, बदलते वक्त के साथ जिन्दगी जीने के अंदाज बदल गये हैं, वक्त बचाने के लिए लोग स म स की भाषा में बात करने लग गये हैं , फ़िल्मों के नाम ही देख लिजिए, आप नव पीढ़ी को कहते सुनेगें डी डी ऐल जे(दिल वाले दुल्हनिया ले जायेगें)/ के के के ज़ी(कभी खुशी कभी गम)/टी ज़े पी(तारे जमीं पर) देखने जा रहे हैं। पहले कोई फ़ोन करता था तो मन में जिज्ञासा होने के बावजूद पूछना अभद्र्ता लगती थी कि भई क्युं फ़ोन किया, इधर उधर की बातों के बाद वो पूछा जाता था वैसे कुछ काम था क्या? फ़ोन करने वाला अक्लमंद होता था तो जल्दी मुद्दे पर आ जाता था, एकदम मुद्दे पर आना भी रूड माना जाता था, अब ऐसे में आज कल का ये टेल मी गोली सा लगेगा ही। हम खुद को समझा रहे थे कि तुम तो पुरानी हो गयी हो, ओल्ड फ़ैशन्ड अब कहां ये सब शिष्टाचार निभाये जाते हैं, बदल डालो खुद को। आप इस पोस्ट की लंबाई से अंदाजा लगा सकते हैं कि हम नहीं बदले।
हिन्दी चिठ्ठाकारी ने बदलने नहीं दिया हमें। ब्लोगिंग का अपना एक संसार है, यहां अलग अलग प्रातों के लोग मिले,दोस्त बने, उनसे फ़ोन पर या चैट पर भी बात होती है। वहां हमें वही अपने पुराने (क्या उन्हें पुराना कहें?)शिष्टाचार मिले, जल्दी में भी लोग शिष्टाचार भूलते नहीं और हथौड़ा नहीं मारते। ऐसी तृप्ती मिलती है मानो कोई रिशतेदार घर आये हों और गप्पों के दौर चल रहे हों, सिर्फ़ चाय की कमी, वो हम पूरी कर लेते हैं।
देखा कितनी देर लगा दी असली बात कहने में, मेरे बम्बई के दोस्त कहेगें इत्ती देर लगाओगी कहने में तो गाड़ी छूट जाएगी तुम टिकट खरीदती रह जाओगी, कोई बात नहीं हम दूसरी गाड़ी का इंतजार कर लेगें और तब तक अपने दोस्तों से और बतिया लेगें क्युं ठीक है न दोस्तों?
भाषा से ही जुड़े मेरे कुछ अनुभव कविताई रूप में ढालने की कौशिश की है
कितनी भन्नाई थी जब पहली बार आदर से 'बाई' कहलाई थी
दीदी के बदले स्नेह से 'ताई' कहलाई थी
तरसे ये कान कितने बरसों से
सुनने को झल्ली, पागल, ढ्क्कन,
जब बार बार ट्युबलाइट कहलाई थी
आलू,प्याज,छौंका, अरहर की दाल
बन गये कांदा, बटाटा और तुअर की दाल
जब हम कहें खुद को "हम"
अगलें बगलें झाकें लोग बाग
जब हम कहें "आप" तो छोटे समझें
ये है ताना या गुस्सा,
"तू" और "तुम" संबोधन से दोस्त लेते
दिल की घनिष्ट्ता नाप ,
शिकायत उनकी
अभी भी दिल में दूरी है
कैसे बताएं ये मेरे संस्कारों की मजबूरी है