Subscribe

RSS Feed (xml)

Powered By

Skin Design:
Free Blogger Skins

Powered by Blogger

सुस्वागतम

आपका हार्दिक स्वागत है, आपको यह चिट्ठा कैसा लगा? अपनी बहूमूल्य राय से हमें जरूर अवगत करावें,धन्यवाद।

August 20, 2007

पतंगी चिड़िया

पतंगी चिड़िया

यूं ही इक शाम नभ विचरते
कुछ पतंगे मिलीं,
बादलों से बातें करती, महाराणी सी तेजस्वी
लाल पतंग उपेक्षा भरी नजर डाल ,
मुँह बिचकाती आगे बढ़ ली,
तालाब के उनींदे कंवल सी,
पीली पतंग आत्मध्यान में खोयी थी,
शेर मुँह वाली कालिया ,
मेरा निरीक्षण करने इतनी पास आयी
कि मेरी चीख निकल गयी,
तितली सी नाचती, हरे दुपट्टे वाली
गुलबिया खिलखिलाती मेरे पास खिसक आयी,
डर गयीं? कौन हो तुम ? हमारी बिरादरी की तो नहीं,
मैंने नाक सुनकी, मैं चिड़िया,
बिरादरी क्या होती है,
हरी पूंछ लहराते, गहरी द्रष्टी डाल, परिक्रमा की,
घुड़की,तुम्हारी डोर कहाँ,कहाँ रहती हो,
तभी पीली पतगं नींद से जागी,गुलबिया पर झपटी,
लगा डोर कट जाएगी,गुलबिया बाल बाल बची,
धौकंनी सी चलती सासों को संभाला, दुपट्टे को लहराया,
मेरी प्रश्नीली आखों में झांका, हंस कर बोली
वो दूसरे मुहल्ले की है ना,
मैंने पूछा, ये मुहल्ला क्या होता है,
उसने बड़ी गंभीर मुद्रा धारण की,
मुझ से कुछ ऊँचा उड़ी,
मानो गुरू आसन ग्रहण कर रही हो,
अरे बुद्धु , ये भी नहीं मालूम
आजकल के गुरू बताते कम पूछते ज्यादा हैं
मेरे सपाट चेहरे को देख, लंबी सांस भरी
पूंछ फड़फड़ाई, समझाया,
एक रंग,एक कागज से बने, एक ही जात पांत
मित्र होते हैं, बिरादरी होते हैं,एक मुहल्ले में रहते हैं,
मैंने सिर हिलाया, कुछ पल्ले नहीं पड़ा,
झुंझलाई वो, कुछ समझती ही नहीं हो,
क्युं आयी हो
पीली पतंग फिर झपटी, मेरी चीख निकल गयी,
गुलबिया बाल बाल बची,
मेरे कहने पर थोड़ा सुस्ताने को मेरे कोटर में आयी,
साँझ बेला,दूर दूर से भूख की जंग जीत कर लौटे
रंगबिरंगी पक्षी,गलबहियाँ करते,बतियाते थे,
दूर-सदूर के देशों से आए मेहमां स्नेही आतिथ्य पाते थे,
मस्ती की तान छिड़ी थी,
न कोई जात पात थी, न मार पीट,
गुलबिया हैरान खड़ी थी
हाथ बढ़ा कर मैंने पूछा- दोस्त?
बरगद की डाली से लिपटी वो, चक्कर घिन्नी सी घूमी,
डोर कट गयी, मुस्कायी वो, हाथ बड़ा कर बोली
मैं पतंगी चिड़िया, ठीक ?
गलबहियाँ कर हम दोनों झूम गयीं

August 15, 2007

बड़ी छोटी

बड़ी छोटी

वो सावन की घटाएं,झूलों की ऊँची पींगे,
वो बेफिक्री के दिन,
लाल इमली के चटकारे, चूरण के चस्के,
वो गीटे के खेल,वो घर की रेलपेल,
छुट्टियों में चचेरी,मौसेरी बहनों का आना,
रात भर चादरों में छिप कर घुसर पुसर करना,
दबी दबी हंसी, चमकती आखें,
क्या बातें चल रहीं हैं,
कान लगाये, चुपके से दीदी के बिस्तर पर चढ़ती,
दीदी घुड़कती, जा यहाँ से, बड़ों के बीच नहीं बेठते
खिसियाई सी, रोनाई सी माँ के आँचल में सिमटती,
सुनने को बेकरार, माँ-मौसी कयुँ ठठाती,
घुड़कती आवाज,छोटे भैय्या के पास सोजा,
बड़ों की बातों में नहीं बेठते,
हाय, काश मैं बड़ी होती,
हंसती गाती, दीदी का काला चश्मा,
माँ की लिप्सटिक, माथे की बिन्दिया
मेरी हो जाती

वक्त के रेले ने ठेलठाल खड़ा कर ही दिया
अहा, अब मेरी बारी आई,
हाय, कहाँ गये सब लोग, उजड़े गुलशन हैं
छुट्टियाँ ही नहीं होतीं,
कौन सी क्लासेस,कौन सा कॉलेज,
नीड़ बस गए, जिदंगी हाथों से
रेत सी फिसल गयी
मन के किसी कोने में
अब भी झरना बहता है, कल कल छल छल,
पावों में थिरकन है, होठों पे गीत,
सावन की घटा कई पोर छू जाती है,
झाड़ियों के झुरमुट से आती घुसर पुसर,
क्या बातें हो रहीं हैं,
मन जानने को व्याकुल,
कुछ नहीं ऑंटी, आप जाओ ना,
हाय, काश मैं छोटी होती

दिवाली की रात

दिवाली की रात

कहने को चार दिवारें अपनी थीं
काले चूने से पुती हुई,
पहली दिवाली की शाम,
न दिया न बाती,
न जान न पहचान,
ठंडा चुल्‍हा, घर में बिखरा सामान,
अंजान बाजारों में ढूढ़ती पूजा का सामान,
दुकानों की जगमग,
पटाखों का शोर,
सलीके से सजी दियों की पक्‍तियां,
मेरे घर से ज्‍यादा मेरे मन में अधेंरा भर रहीं थीं,
अकेलेपन की ठिठुरन, बोझिल कदम,
लौटते हुए माँ लक्ष्‍मी से बार बार माफी मांग रही थी,
प्रार्थना कर रही थी,
इस अधेंरे ठडें घर पर नजर डाले बिना ना निकल जाना,
लौटी तो देखा दरवाजे पर दो सुंदर से दियेअपनी पीली पीली आभा फैला रहे थे,
दो सुदंर सी कन्‍यांए सजी सवंरी,
हाथों में दियों की थाली लिये खड़ी मुस्‍करा कर बोलीं,
आंटी दिवाली मुबारक,
आश्‍चॅयचकित मैं,
हँस कर बोलीं हमारे यंहा रिवाज है,
अपना घर दियों से रौशन करने से पहले पड़ोसियों के घर जगमगाओ,
शत शत प्रणाम उन पूर्वजों को जिन्‍होंने ये रस्‍मों रिवाज बनाये,
शत शत प्रणाम उन बहुओं को जिन्‍होंने ये रस्‍मों रिवाज खुले मन से अपनाये

August 08, 2007

तन्हाई

तन्हाई

आने वाली खामोश तन्हाई
लड़कपन में ही
अगाह करने कई बार चली आई थी
मैनें नींद की खुमारी में दस्तक सुनी अनसुनी
आस पास फैली खिलखिलाहटों से
अपना दामन भर लेने को मैनें खिड़की खोलनी चाही
पर साकलँ अटक गयी
मैंने भरपूर कौशिश की
कई साल कौशिश की
मेरे हाथ लहुलुहान हो गए
कितनी बार लगा कि साकलँ अब खुली कि तब खुली

पर साकलँ न खुलनी थी, न खुली
दूसरों की मुस्कुराहटें कब अपने लबों पर सजीं हैं
अपने अन्दर की घुटन से घबरा कर
आखिर मैंने दरवाजा खोल दिया
मेरी खामोश तन्हाई मदं मदं मुस्कुराती
दबे पावँ अन्दर चली आई
अब मैं सोच रही हूँ कि

दरवाजा खुला रखुँ या बन्द कर दूँ

August 07, 2007

दु:खता है

दु:खता है


गले में कसी इस चुन्नी को सिर्फ एक बार खोल दो
इतना तो कहने दो कि दु:खता है
मेरी छोटी सी सिसकी तुम्हें क्या डरायेगी
कहाँ तुम्हारी लकाँ ढह जाएगी
तुम्हारी तो बरसों की तैयारी है
सड़ी गली संस्कर्ती में लिपटा तुम्हारा ये मन
आखों पर खिचें मोटे काले पर्दे
बड़े जतन से छीली मेरी जबां
मेरी मौन चीख
ये सब कहाँ भेद पायेगी
अच्छा! सलीब नहीं हटाते तो न सही
कम से कम कधां तो बदलने दो
कि दु:खता है