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March 28, 2008

अविस्मर्णीय दो दिन

अविस्मर्णीय दो दिन
कहां कहां न खाक छानी
कुछ बीस पच्चीस दिन पहले हमारे मित्र (और टीचर भी कुछ हद्द तक) सत्यदेव त्रिपाठी जी का स म स आया कि 26 मार्च को "महादेवी वर्मा: एक पुर्नमूल्यांकन" विषय पर एक सेमिनार होने जा रहा है और मै चाहता हूँ कि आप उनके काव्य का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर एक पेपर पढ़ें। सत्यदेव त्रिपाठी जी की कोई भी बात हम टाल नहीं सकते, इस लिए हाँ तो कहना ही था। सोचने वाली बात ये थी कि उसकी तैयारी कैसे की जाए। सेमिनार युनीवर्सिटी में होने वाला था और राष्ट्रिय स्तर पर होने वाला था। बड़े बड़े प्रबुद्ध जन आने वाले थे। हमारा हाल ये था कि हमने महादेवी को सिर्फ़ सरसरी तौर पर ही कभी पढ़ा होगा, वो भी एक आध कविता, उन्होंने गध्य भी लिखा है ये तो हमें पता ही नहीं था। खैर! कॉलेज की लायब्रेरी में जा कर ढूंढना शुरु किया।
अब हमारे कॉलेज में पाँच हजार बच्चों में से सिर्फ़ पच्चीस बच्चे हिन्दी विषय पढ़ते हैं और वो भी सिर्फ़ एक साल के लिए, तो लायब्रेरी में हिन्दी की किताबें दो अलमारियों में सिमट जाएं तो क्या आश्चर्य? बड़ी मुश्किल से इधर उधर से कई किताबें जमा की और पढ़ना शुरु किया। पढ़ते पढ़ते हम उनके ही रंग में रंगते चले गये। जैसे जैसे उनका लिखा पढ़ते जाते, खास कर कविताओं से पहले लिखे प्रस्ताव उतना ही हमें लगता, अच्छा! महादेवी जी भी ऐसा ही सोचती थीं(मतलब हमारे जैसा)…नहीं, नहीं! चौकियें मत, हमें अपने महान होने की कोई गलतफ़हमी या खुशफ़हमी नहीं (इत्ते भी शेखचिल्ली नहीं जी हम), बस एक एहसास था कि कई विषयों पर हमारे विचार और उनके विचार कितने मिलते हैं , जब की इस से पहले हम ने उन्हें पढ़ा नहीं था तो हमारे विचार उनसे प्रभावित होने की कोई संभावना ही नहीं थी।
होली हुई स्वाहा
पेपर तैयार करने के लिए त्रिपाठी जी ने हमें पच्चीस दिन का समय दिया था, लेकिन हम तो उसे बीस दिन में पूरी तरह से तैयार कर लेना चाह्ते थे। अब पूछिए क्युं? वो इस लिए कि हमें पता चला कि आलोक पुराणिक जी बम्बई आ रहे है, विविध भारती के एक प्रोग्राम की रिकॉर्डिंग करने के लिए। अब आलोक जी के व्यंग उन्हीं के मुंह से सुनने का मौका भी तो सुनहरा मौका था जो हम गवाना नहीं चाह्ते थे।तो हम अपना पेपर पूरी तरह से उनके आने से पहले तैयार कर लेना चाह्ते थे। दिन रात एक कर, होली वोली सब भूल कर, आखिरकार हमने पेपर तैयार कर ही लिया।
26 मार्च
तो जनाब, 26 मार्च आ ही गया। मुसीबत ये थी कि हमें पेपर पढ़ना था सुबह पहले ही सत्र में और आलोक जी के प्रोग्राम की भी रिकॉर्डिंग उसी दिन होनी थी। युनुस जी ने बताया था कि रिकॉर्डिंग 2 बजे से शुरु होगी। हम पेपर पढ़ने जा रहे थे चर्चगेट के पास स्थित एस एन डी टी में और विविध भारती का स्टुडियो है गोराई में, यानी कि पूरा 50-55 कि मी का फ़ासला और ट्रेफ़िक से लबालब। लोकल ट्रेन से जाना ज्यादा अक्लमंदी होती लेकिन गोराई से वापस घर लौटने के लिए और 50 कि मी जाना था और कोई बस या ट्रेन सीधा नहीं जाता हमारे घर तक, लिहाजा कार ले कर जाना ही ठीक लगा। पतिदेव से रास्ते का नक्शा कागज पर बनवा कर सहेज लिया।
हमारा ऐसा अनुमान था कि कितना भी देर करें तो भी हम एक बजे तक फ़्री हो जायेगें, जैसे ही लंच शुरु होगा हम खिसक लेगें। लंच के बाद वाले सत्र का संचालन जो महोदय करने वाले थे वो हमारे ऑर्कुट के मित्र निकल आए( वो दिल्ली में हिन्दी के प्रोफ़ेसर हैं) तो बस उनसे वादा लिया कि वो अपना पेपर हमें ई-मेल में दे देगें। हम ने पेपर पढ़ा 12 बजे लेकिन पौने तीन बज गये वो पहला सत्र खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। करीब तीन बजे हम वहां से खिसक लिए। दोनों हाथों में लड्डू चाहिए थे न, यहां तो दिग्गज विद्वानों को सुन लिया, अब जरा व्यंगकारों को भी सुनना था। वहां भी बड़े बड़े महारथी जमा थे।
तो लो जी हमने गाड़ी भगानी शुरु की, ढाई घंटे का रास्ता था। जब हम रास्ते में थे करीब चार बजे मोबाइल बजा, त्रिपाठी जी जी की एक छात्रा का फ़ोन था, मैडम आप कहां हैं, यहां सब आप को ढ़ूंढ़ रहे हैं, सर भी पूछ रहे हैं। हम हैरान, क्युं भई, हमें क्युं ढ़ूढ़ रहे हैं हम तो अपना काम खत्म कर आए और हम तो वहां किसी को जानते नहीं थे। पता चला कि हिन्दी के महारथियों को हमारा पेपर पंसद आया और वो हमसे मिलना चाहते थे। मन में एक गाने की लाइन कौंध गयी, साला मैं तो साब बन गया…ही ही। सेमीनार दो दिवस का था तो हमने कहा कि हम कल तो आने ही वाले हैं ।
खैर! इतने ट्रेफ़िक के बावजूद पाँच बजे तक हम विविध भारती के स्टुडियो पहुँच गये। रिकॉर्डिंग शुरु हो चुकी थी, पर युनुस जी ने हमें देखते ही इशारा किया कि धीरे से अंदर आ जाइए। हम इतने धीरे से अंदर घुसे कि साड़ी की सरसराहट की आवाज भी न हो और दरवाजे के पास ही बैठ गये। युनुस जी की कार्यकुशलता की दाद देनी पड़ेगी कि कार्यक्रम का संचालन करते हुए भी हमें इशारे से पास ही रखे पानी पीने का आग्रह कर रहे थे और हमारे न उठने पर पहला मौका मिलते ही खुद आकर पानी थमा गये। हमें डर था कि पानी पीने की आवाज भी कहीं उसमें न रिकॉर्ड हो जाए इस लिए बड़े डर डर कर छोटे छोटे घूँट कर पानी पिया। खैर रिकॉर्डिंग खत्म हुई, जैसी उम्मीद थी प्रोग्राम बहुत ही अच्छा बना है।
जंगल के शेर
आलोक जी से मुलाकात हुई। आलोक जी की ससुराल थाना में है। गोराई से वापस हमारे घर जाने के दो रास्ते हैं, एक जो थाना से हो कर जाता है और दूसरा जो बांद्रा से हो कर जाता है। सुबह हमें सख्त हिदायद दी गई थी कि थाना के रास्ते से मत आना भले वो रास्ता छोटा पड़ता है। उसका कारण ये है कि उस रास्ते के एक हिस्से में सड़क जंगल से लग कर गुजरती है( जी हां बम्बई में भी जंगल है) और जगह जगह पट्टियां लगी हुई हैं कि शेर चीतों से सावधान्। यानि की शेर चीते रोड क्रास करके एक तरफ़ से दूसरी तरफ़ जाते हैं और रोड पर चलने वाली गाड़ियों के सिवा आस पास सिर्फ़ जंगल के कुछ नहीं। अगर गाड़ी किसी कारणवश उस हिस्से में खराब हो जाए तो बस जी राम भली करे।
आलोक जी एक प्रायवेट टेक्सी में आये थे और उसी रास्ते से थाना जाने वाले थे। निर्णय लिया गया कि उनकी टेक्सी वाला हमारा मार्ग दर्शन करेगा और आलोक जी थाना तक हमारी कार में आयेगें। इस तरह हम छोटे रास्ते से भी जा सकेगें और आलोक जी से भी बतिया सकेगें। तो जनाब कोई साड़े छ: बजे हम वहां से निकले। फ़िर भी थाना तक का सफ़र एक घंटे का था। बातें करते करते हम मजे से थाना पहुँचे, रात घिर आयी थी। मन तो नहीं भरा था पर आलोक जी की ससुराल आ गयी थी। हमने उनका अपनी सुसराल में आने का निमंत्रण ठुकाराते हुए उनसे विदा ली।
तुनके मिज़ाज़
आप को याद होगा कि हमने पहले बताया था कि हमारी कार मिजाज के हिसाब से हर्बी की जुड़वा बहन है। आलोक जी की बातें सुन सुन कर मेरे ख्याल से जितना मैं मजे ले रही थी उतना ही मेरी कार भी। आलोक जी थाना में कार से उतर गये और कार को इतने खुशगवार समां के बाद सिर्फ़ हमारी बोरिंग कंपनी में रहना नग्वार गुजरा । आखिर कित्ता काम करके आयी थी और सिर्फ़ एक घंटा, सो जनाब चार कदम आगे जा के तुनक गयी। कर लो जो करना है। बहुत समझाया पर वो तो सड़क के बीचों बीच बैठ गयी सुस्ताने। रात के आठ बजने को आ रहे थे। मैकेनिक को फ़ोन, पतिदेव को फ़ोन। दोनों ने कहा पहुंचने में दो घंटे लगेगें। तो हम रात के दस बजे तक वहीं सड़क के किनारे टंग़े रहे।
आलोक जी ने धन्यवाद कहने के लिए फ़ोन किया और पता चला हम तो अभी उनकी ससुराल के इलाके में ही हैं तो परेशान हो उठे। हमने उन्हें आश्वासन दिया कि मामला हमारे कंट्रोल में है चिन्ता न करें। ग्यारह बजे मैकेनिक गैरेज में पंहुचे, पता चला कि मैडम को कम से कम एक दिन के लिए वहां छोड़ना पड़ेगा। मन ही मन कार को कोसते हुए हम लौट पड़े। भूख के मारे बुरा हाल था, हमने विविध भारती जल्दी पहुंचने के चक्कर में दोपहर का खाना भी नहीं खाया हुआ था।
पतिदेव ने आश्वासन दिया कि दूसरे दिन वो हमें चर्चगेट सुबह छोड़ देगें। तब जाकर मूड ठीक हुआ।
एक और सार्थक दिवस
दूसरे दिन की शुरुवात बहुत बड़िया रही। सुबह के वक्त एफ़ एम गोल्ड पर कार्यक्रम चल रहा था “हमसफ़र” और हम अपने हम सफ़र के साथ पुराने गीतों का लुत्फ़ उठा रहे थे। बहुत दिनों बाद अशोक कुमार की आवाज में रेलगाड़ी वाला गीत सुना, पतिदेव को रेडियो के साथ “ ऐ मेरी जोहरा जबीं” गुनगुनाते सुना, मेरा पंसदीदा गाना, और भी न जाने कितने गीत पुराने दिन याद दिलाते हुए।
अंतिम सत्र में हम जल्दी खिसक जाना चाहते थे, लोकल ट्रेन से जो वापस जाना था। लेकिन त्रिपाठी जी ने रोक लिया। हम अनमने से खड़े चाय की चुस्कियां भर रहे थे कि एक सज्जन मुस्कुराते हुए आ कर हमारे सामने खड़े हो गये। अब हम तो इस सेमिनार में किसी से परिचित नहीं थे, यादाश्त पर जोर मारने लगे कि क्या हम इन्हें जानते हैं। वो सज्ज्न मुस्कुरा कर बोले, "मैं, बसंत आर्या"। हमारी तो बाछें खिल गयीं। बसंत आर्या- ब्लोगर, वो भी व्यंगकार्। बहुत पहले एक बार उनसे बात हुई थी,उसके बाद न वो कभी मेरे ब्लोग पर आये न हम कभी उनके ब्लोग पर जा पाए। उन्हें हम याद रहे और वो इस तरह कभी आ कर सामने खड़े हो जायेगें, सपने में भी नहीं सोचा था। वो त्रिपाठी जी के मित्रों में से एक हैं जो मुझे पता नहीं था। सेमिनार की खबर अखबार में पढ़ी और उसमें प्रपत्र पढ़ने वालों में मेरा भी नाम देखा तो हमें सुनने की इच्छा से चले आए। ये अलग बात है कि हमारा पेपर तो पहले ही दिन हो चुका था।हमने कहा अरे आप कभी हमारे ब्लोग पर तो आते नहीं और हमारा पेपर सुनने चले आये, हंस कर बोले हम आप की सभी पोस्ट पढ़ते हैं टिपियाते नहीं ये अलग बात है( अब जी ऐसे और भी अगर मित्र हैं जो पढ़ते हैं पर टिपियाते नहीं , उनसे मेरी इल्तजा है कि कम से कम अपना नाम मुझे जरूर बता दें ताकि अगली बार जब मैं कुछ पोस्ट करुं तो साथ में ही आप के लिए धन्यवाद भी भेज सकूं…।:))
ढेर सारी बातों के बाद जब त्रिपाठी जी की स्नेही घुड़की मिली तब हम दोनों वापस हॉल में गये। उन्हों ने मेरा परिचय अरविंद राही जी से करवाया जो कवि हैं और नवी मुंबई से ही हैं । राही जी अपने छात्र जीवन में महादेवी वर्मा जी के संपर्क में रह चुके थे और आज अपने संस्मरण सुनाने आये थे। बहुत मजा आया। राही जी थोड़ा जल्दी निकल रहे थे, त्रिपाठी जी ने खुद उनसे रिक्वेस्ट की कि वो हमें नवी मुंबई तक लिफ़्ट दे दें। तो बस राही जी की गाड़ी में मैं, बसंत आर्या जी और श्रिमाली जी ( एक और व्यंगकार, जिनसे मैं पहले से परिचित थी) चल पड़े।
वो तीनों नेरुल में (जो नवी मुंबई में ही है) कविता पाठ के लिए जा रहे थे । उन सब का आग्रह था कि हम भी साथ में चलें और कुछ कविताएं सुनाएं। अरे, हम कहां इत्ते तीसमारखां है जी कि अपनी कविताएं किसी मंच से सुनाएं। तो हमने कविता सुनाने से तो इंकार कर दिया, कुछ याद भी नहीं थी, पर सुनने चलने को हम तैयार हो गये। रास्ते में बसंत जी ठिठोली करते रहे श्रिमाली जी से कि आप अपनी ही कोई कविता अनिता जी को दे दिजीए पढ़ने के लिए, पर हमने साफ़ इंकार कर दिया। खैर बातों बातों में रास्ता कैसे कट गया पता ही न चला, कहां तो हम ट्रेन और बसों में धक्के खा कर आने वाले थे और कहां हम आराम से न सिर्फ़ आ गये बल्कि तीन तीन कवियों से एक घंटे की मुलाकात भी हो गयी। लेकिन दिन तो सार्थक तब हो गया जब हमने बंसत जी का कविता पाठ सुना। सिर्फ़ मुझे ही नहीं सब श्रोताओं को ऐसा लग रहा था कि इन्हों ने सिर्फ़ तीन कविताएं ही पढ़ीं, मन नहीं भरा।
इन सब को देरी होने के बावजूद राही जी हमें घर तक छोड़ गये, एक और दिन यादगार दिन बन गया। मार्च का महीना तो हमारे लिए बहुत ही आंनददायी रहा। जैसा हमने बकलम खुद में लिखा था ब्लोगिंग की दुनिया बहुत ही अलौकिक दुनिया है, यहां आप को इतने सारे और इतने स्नेही लोग मिल जाते हैं कि हर दिन आनंदमय हो उठता है। मैं तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ आलोक जी, युनुस जी, और बंसत आर्या जी की जिन्होंने इतना स्नेह और सम्मान दिया।

26 comments:

PD said...

आंटी जी.. पहला धन्यवाद आप हमें ही कहिये.. :)
वैसे आपने कल चैट पर कुछ बताया नहीं की आप इतने सारे दिगज्जों से मिल कर आ रही हैं??

काकेश said...

बहुत अच्छा लगा यह वृतांत भी. आप तो महादेवी वर्मा से महान हैं जी. आपके चरण कहाँ हैं छूने हैं :-)

काकेश said...

ओह तो आप आंटी जी भी हैं..अभी पता चला जी.

ALOK PURANIK said...

शेर चीतों की खूब लिखीजी।
दो ब्लागर जिस कार में यात्रा कर रहे हों, वहां शेर चीते दूर दूर तक ना आने के जी।
कहीं ब्लागर अपनी पोस्ट पढ़कर सुनाने लग गये, तो शेर चीते यूं ही ढेर हो लेंगे।

संजय बेंगाणी said...

अच्छा विवरण..

Yunus Khan said...

भई अनीता जी आपके साहस की चर्चा तो मैं ममता से भी कर रहा था जब आप इतने बड़े अभियान को अंजाम देने की योजना बना रही थीं । यानी एक दिन पहले ही । बहरहाल बड़ा आनंद आया । उस दिन आपसे बातें नहीं हो पाईं इसलिए बता ना सका । पांच पांच व्‍यंग्‍यकारों के साथ पूरा दिन बिताना जिगर का काम था । हंस हंस के और टांग खींच खींच के दिल गद गद हो गया । किस्‍से बाद में सुनाएंगे । सोच रहे थे कि एक पोस्‍ट ही खींच दी जाए । पर आप तो जानती हैं आजकल ईंट गारे से सराबोर हैं हम ।

mamta said...

अनिता जी बहुत ही रोचक अंदाज मे आपने लिखा है। पढ़कर मजा आ गया।
आलोक जी की बात से पूरी तरह सहमत है। :)

Sanjeet Tripathi said...

वाह! बधाई, किस किस बात की दूं।
पहली प्रपत्र पढ़ने की दूसरी आलोक जी से मिलने की
तीसरी बसंत जी से भी मिलने की
और बाकी लोगों से मिलने के लिए भी!!
फिलहाल शुक्रिया है विवरण देने के लिए!

Pankaj Oudhia said...

इसे रेडियोनामा मे भी शामिल करे। बहुत बढिया लिखा आपने, पूरा चित्र खिच गया।

सुनीता शानू said...

आँटी कहें की अम्मा कहें
दीदी कहें कि ताई
हमे भी बता दें जरा आप
या कहें परजाई
सबसे पहले आपको बधाई इतने दिग्गजो से आप मिली और हमें भी सारा वृतांत सुनाया...

राज भाटिय़ा said...

अनीता जी बहुत अच्छा लगा पढ कर,ओर आप के साहस की भी तारीफ़ जरुर करुगा,बाकी बाते तो सभी ने लिख दी हे.आप का धन्यवाद

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप के ये दो दिन ईर्ष्या करने के काबिल हैं। तमाम परेशानियों के बाद भी। आप ने मुझे बीस साल पहले तक के जीवन की याद दिला दी जब हम भी फक्कड़ी किया करते थे। अब तो वह वक्त लौट कर आने से रहा।

Gyan Dutt Pandey said...

सचमुच, हमें भी ईर्ष्या हो रही है।
इस बात से भी कि आप अपना काम समय से पहले पूरा कर लेती हैं - अंतिम समय तक लटकाती नहीं। वह गुण हममें अजतक न आ पाया।

Divine India said...

सच कहा आपने पूरा वृतान्त एक बार में ही पढ़ गया… आपके सफर को सलाम।

PD said...

काकेश जी.. अनिता जी तो हमारी आंटी जी ही हैं.. मगर आप ये गलती मत किजीयेगा.. कहीं उल्टा ना पर जाये.. :P

Udan Tashtari said...

आंटी,....न जी..मगर वृतांत..वाह!!! बेहतरीन आंटी जी!! :)

Anita kumar said...

ममता जी आप मेरे ब्लोग पर आती हैं मुझे अच्छा लगता है। धन्यवाद्।
आंटी बुलाने वाले सभी बालकों को( चाहे वो किसी भी साइज के हों) मेरा स्नेहभरा आशिर्वाद्…:)

मीनाक्षी said...

आपके अनुभव पढ़कर जितना आनन्द आता है , प्रतिक्रियाएँ पढ़कर दुगना हो जाता है.

डॉ. अजीत कुमार said...

तभी तो मुझे लगा कि आंटी एकदम से गायब कहां हो गयीं.
बहरहाल, बेहतरीन विवरण दो शानदार दिनों का. जहां महादेवी वर्मा जी को पहले एकदम थोडे से जानना पर उनपर एक पेपर प्रस्तुत कर देना, सचमुच खूब मेहनत की होगी आपने.
धन्यवाद.

Ashish Maharishi said...

बहुत गलत बात है। आपने मुझे दो मौका से अलग रखा, एक जब आप पेपर पढ़ रही थीं तो मैं वहां नहीं आ पाया और दूसरा आलोक जी के आने का पता ही नहीं चला।

Anonymous said...

बहुत रोचक और सरस वृत्तांत.ऐसा लगा जैसे हम भी आप के साथ साहित्य सरिता में गोता लगा आये हैं.आपको जितनी भी बधाई दी जाये कम है.

Manish Kumar said...

शुक्रिया इस रोचक विवरण का..

बसंत आर्य said...

वाह आपने तो एक भी घटना अपनी निगाहो से छूटने नही दिया. आपकी मेमोरी शक्ति को नमस्कार है. आप हमसे उस दिन मिले थे पर जिनसे भी मिले थे उन सबसे जाने कितनो को मिला दिया . चलता रहे ये मिलने मिलाने का सिलसिला

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

Anita ji
thoroughly enjoyed reading about the SPECIAL 2 days
Keep writing....
sneh ,
L

अनूप शुक्ल said...

आज ये लेख पढ़ा। बहुत लम्बा लिखा। लेकिन पढ़ते-पढ़ते खतम हो गया। शानदार!

Rajesh said...

First of all, Many congratulations for preparing paper over the great Mahadevi Verma's subject. As the writer Mahadevi Verma's is great u r great too Anitaji. The description given by you on the two days and facing the difficulties and even though enjoying even after troubles is a great task. So you are great again.