हैप्पी वेलेन्टाइनस डे टू एवरीबडी
क्लास में जाते ही पीछे से एक लड़की की आवाज आई, " हैप्पी वेलेन्टाइनस डे मैडम", हम थोड़ा चौकें। अब तक हमारे जेहन में वेलेन्टाइन्स डे का ख्याल नहीं आया था( याद आ गया होता तो सुबह ही पतिदेव को विश कर देते, सोचा क्लास खतम होते ही फ़ोन करना होगा…:))।
लेकिन अब बात निकली ही थी और क्लास समाजिक मनोविज्ञान की ही थी तो वेलेन्टाइनस डे को लेकर बहस शुरु हो गयी।
नवभारत टाइम्स के देहली एडिशन में स्वतंत्र कुमार जी का विस्तृत लेख छपा था इसी विषय पर। उनका लेख पढ़ते पढ़ते मुझे अपने स्टुडेंटस की दलीलें याद आ रही थीं और दिख रहा था कि कितना फ़र्क है आज की युवा पीढ़ी की सोच में और प्रौढ़ होती(स्वतंत्र कुमार जी क्षमा चाह्ती हूँ)पीढ़ी में।
मेरे आश्चर्यचकित चेहरे को देख मेरी छात्रा ने कहा कि "कौन कहता है कि वेलेन्टाइन सिर्फ़ स्त्री पुरुष में होने वाले प्रेम को इंगित करता है, ये सभी तरह के प्रेम को दर्शाने का पर्व है। मैं तो सुबह अपने माता पिता को भी विश कर के आई हूँ"।
दूसरे छात्र उससे सहमत थे। हमने कहा कि कहीं ये नयी सोच वेलेन्टाइन का बाजारीकरण करने वालों की देन तो नहीं। आर्चीस अपने ग्रीटिंग कार्ड ज्यादा से ज्यादा बेचने के चक्कर में प्रमोट कर रहा हो कि जिस किसी से प्रेम करते हो उसे आज के दिन एक कार्ड और एक गुलाब का फ़ूल दो। हो भी सकता है ये बाजारीकरण की देन हो पर फ़िर भी सकारत्मक है, आखिरकार किसको बुरा लगता है अगर कोई आके कहे कि मुझे आपसे लगाव है फ़िर कहने वाला चाहे कोई बच्चा ही क्युं न हो? बस सच्चे मन से कहा हुआ होना चाहिए।
"लगभग सभी पारंपरिक समाजों में शादी एक पारिवारिक मामला रहा है। शादी का मकसद था बच्चा पैदा करना और पारिवारिक संपत्ति का संरक्षण। इसमें प्यार की कोई भूमिका नहीं थी और तत्कालीन अर्थव्यवस्था को देखते हुए संभव भी नहीं था। परिवार के बड़े-बूढे़ अपने अधिकारों ओर निर्णायक शक्तियों का प्रयोग शादी के आयोजनों में करते थे। वैलंटाइंस डे जैसे त्योहार इन लोगों को सीधे-सीधे अपने प्रभाव और सत्ता में दखल लगते हैं। वैसे भी इन त्योहारों में उनके लिए तो कुछ रखा नहीं है इसलिए भी उनकी तरफ से विरोध होना स्वाभाविक है।" स्वतंत्र कुमार(नवभारत टाइम्स)
क्या आप स्वतंत्र कुमार जी की बातों से सहमत हैं? इतिहास गवाह है कि बच्चे तो बिन शादी भी पैदा हुए, हाँ! ये बात और है कि राजकुमार नहीं कहलाए। जहां तक मेरी समझ जाती है ये उस वक्त की बात कर रहे हैं जब पारिवारिक संपत्ति पति के नाम होती थी, तब क्या पति सिर्फ़ इस लिए शादी करता था कि पत्नी आ कर संपत्ति की रखवाली करेगी। बिन प्यार सफ़ल ग्रहस्त जीवन की कल्पना मैं नहीं कर पा रही हूँ। बड़ी सफ़ाई से ये मान लिया गया कि घर के बड़े बूढ़े वैलेन्टाइनस जैसे त्यौहार का विरोध करेगें क्युं कि उसमें उनकी कोई भूमिका नहीं, भूमिका कैसे नहीं भाई, वे भी मनायेगें इस त्यौहार को।
पिछ्ले साल तक वैलेन्टाइन का विरोध करने वाले कई प्रदर्शनकारी दिखाई दे रहे थे, इस साल वो किसी और मसले में उलझे हुए हैं। विरोध यह कह कर किया जाता था कि ये हमारी संस्कृती का अतिक्रमण है। मुझे तो शेखर सुमन और रेखा द्वारा अभिनीत फ़िल्म का ख्याल आता है जहां वसंत उत्सव मनाना हमारी संस्कृती का हिस्सा बताया गया था। प्रेम का विरोध तो हम भारतियों ने कभी नहीं किया। हां! स्वतंत्र जी की इस बात से हम सहमत है कि प्रेम की अभिव्यक्ति मनुष्यता को मजबूत करती है, जरुरत है तो सिर्फ़ इस बात का ध्यान रखने की कि कहीं ये किसी को दुख न पहुंचाए। आज के कलियुग में अगर हम संतोषी माता की कल्पना कर सकते हैं तो प्रेम की देवी की क्युं नहीं, वैसे भी ३६ करोड़ देवी देवता हैं एक और सही, तो चलो साथियों
क्लास में जाते ही पीछे से एक लड़की की आवाज आई, " हैप्पी वेलेन्टाइनस डे मैडम", हम थोड़ा चौकें। अब तक हमारे जेहन में वेलेन्टाइन्स डे का ख्याल नहीं आया था( याद आ गया होता तो सुबह ही पतिदेव को विश कर देते, सोचा क्लास खतम होते ही फ़ोन करना होगा…:))।
लेकिन अब बात निकली ही थी और क्लास समाजिक मनोविज्ञान की ही थी तो वेलेन्टाइनस डे को लेकर बहस शुरु हो गयी।
नवभारत टाइम्स के देहली एडिशन में स्वतंत्र कुमार जी का विस्तृत लेख छपा था इसी विषय पर। उनका लेख पढ़ते पढ़ते मुझे अपने स्टुडेंटस की दलीलें याद आ रही थीं और दिख रहा था कि कितना फ़र्क है आज की युवा पीढ़ी की सोच में और प्रौढ़ होती(स्वतंत्र कुमार जी क्षमा चाह्ती हूँ)पीढ़ी में।
मेरे आश्चर्यचकित चेहरे को देख मेरी छात्रा ने कहा कि "कौन कहता है कि वेलेन्टाइन सिर्फ़ स्त्री पुरुष में होने वाले प्रेम को इंगित करता है, ये सभी तरह के प्रेम को दर्शाने का पर्व है। मैं तो सुबह अपने माता पिता को भी विश कर के आई हूँ"।
दूसरे छात्र उससे सहमत थे। हमने कहा कि कहीं ये नयी सोच वेलेन्टाइन का बाजारीकरण करने वालों की देन तो नहीं। आर्चीस अपने ग्रीटिंग कार्ड ज्यादा से ज्यादा बेचने के चक्कर में प्रमोट कर रहा हो कि जिस किसी से प्रेम करते हो उसे आज के दिन एक कार्ड और एक गुलाब का फ़ूल दो। हो भी सकता है ये बाजारीकरण की देन हो पर फ़िर भी सकारत्मक है, आखिरकार किसको बुरा लगता है अगर कोई आके कहे कि मुझे आपसे लगाव है फ़िर कहने वाला चाहे कोई बच्चा ही क्युं न हो? बस सच्चे मन से कहा हुआ होना चाहिए।
"लगभग सभी पारंपरिक समाजों में शादी एक पारिवारिक मामला रहा है। शादी का मकसद था बच्चा पैदा करना और पारिवारिक संपत्ति का संरक्षण। इसमें प्यार की कोई भूमिका नहीं थी और तत्कालीन अर्थव्यवस्था को देखते हुए संभव भी नहीं था। परिवार के बड़े-बूढे़ अपने अधिकारों ओर निर्णायक शक्तियों का प्रयोग शादी के आयोजनों में करते थे। वैलंटाइंस डे जैसे त्योहार इन लोगों को सीधे-सीधे अपने प्रभाव और सत्ता में दखल लगते हैं। वैसे भी इन त्योहारों में उनके लिए तो कुछ रखा नहीं है इसलिए भी उनकी तरफ से विरोध होना स्वाभाविक है।" स्वतंत्र कुमार(नवभारत टाइम्स)
क्या आप स्वतंत्र कुमार जी की बातों से सहमत हैं? इतिहास गवाह है कि बच्चे तो बिन शादी भी पैदा हुए, हाँ! ये बात और है कि राजकुमार नहीं कहलाए। जहां तक मेरी समझ जाती है ये उस वक्त की बात कर रहे हैं जब पारिवारिक संपत्ति पति के नाम होती थी, तब क्या पति सिर्फ़ इस लिए शादी करता था कि पत्नी आ कर संपत्ति की रखवाली करेगी। बिन प्यार सफ़ल ग्रहस्त जीवन की कल्पना मैं नहीं कर पा रही हूँ। बड़ी सफ़ाई से ये मान लिया गया कि घर के बड़े बूढ़े वैलेन्टाइनस जैसे त्यौहार का विरोध करेगें क्युं कि उसमें उनकी कोई भूमिका नहीं, भूमिका कैसे नहीं भाई, वे भी मनायेगें इस त्यौहार को।
पिछ्ले साल तक वैलेन्टाइन का विरोध करने वाले कई प्रदर्शनकारी दिखाई दे रहे थे, इस साल वो किसी और मसले में उलझे हुए हैं। विरोध यह कह कर किया जाता था कि ये हमारी संस्कृती का अतिक्रमण है। मुझे तो शेखर सुमन और रेखा द्वारा अभिनीत फ़िल्म का ख्याल आता है जहां वसंत उत्सव मनाना हमारी संस्कृती का हिस्सा बताया गया था। प्रेम का विरोध तो हम भारतियों ने कभी नहीं किया। हां! स्वतंत्र जी की इस बात से हम सहमत है कि प्रेम की अभिव्यक्ति मनुष्यता को मजबूत करती है, जरुरत है तो सिर्फ़ इस बात का ध्यान रखने की कि कहीं ये किसी को दुख न पहुंचाए। आज के कलियुग में अगर हम संतोषी माता की कल्पना कर सकते हैं तो प्रेम की देवी की क्युं नहीं, वैसे भी ३६ करोड़ देवी देवता हैं एक और सही, तो चलो साथियों
प्रेम से बोलो हैप्पी वैलेंटाइनस डे
सारे बोलो हैप्पी वैलेंटाइनस डे
सारे बोलो हैप्पी वैलेंटाइनस डे
14 comments:
सच है। विरोध मात्र विरोध के लिये है। मदनोत्सव तो भारत में आदिकाल से मनाया जाता रहा है।
सही है जी, जोर से बोलो , सारे बोलो जय वेलेन्टाईन्स ;)
Happy Valentine Day to you too!!
Archies and other such companies who manufacture such greeting cards have been making their campaign by saying d ppl that you may send the greeting on valentine day to any one whom you love. This is the business of such companies. In fact, really speaking such days have been celeberated in India since many years and as you have rightly said, ITIHAAS iska gawaah hai. Ab koi kisi ko pyarse wish kar de, chahe male ho ya female, aurat ya aadmi, jawan ya budha, ladka ya ladki - HAPPY VALENTINE DAY - to ismein boora kya hai? Aree bhai isi bahane pyaar hi to badh raha hai logon mein aur pyaar bhi bant raha hai sabhi dilon mein. Kisiko is se kya lena dena hai? Aur kyon inka virodh karna hai? Is swatantra BHARAT mein sabhi ko sabhi tarah se apne sabhi celebrations karne ki azaadi hai. Isi liye valentine day manaya jata hai to kya hua? Haan iska tareeka theek hi hona chahiye, bus......
NA UMRA KI SEEMA HO, NA JANAM KA HO BANDHAN, JAB PYAAR KARE KOI TO DEKHE KEVAL MANN, NAYI REET CHALA KE TUM YE REET AMAR KAR DO.......
हैप्पी वैलेंटाइनस डे
प्रेम ही तो जीवन है । इसका विरोध कर के हम जायेंगे कहाँ । लेकिन फिर भी विरोध होता है ।
लेकिन विरोध जितना तीव्र उतनी ही प्रेम की शिद्दत । Happy Valentine's Day आपको भी ।
अनीता जी विरोध भी धीरे-धीरे वार्षिक विलाप का स्वरूप लेता जा रहा है। यहां हर साल उसी तर्ज पर चिंतन मंथन होता है जैसे हिंदी दिवस पर दिग्गज लोग हिंदी की दशा-दुर्दशा को लेकर करते हैं। आखिर सबकी अपनी-अपनी दुकानदारी है। हम तो बस यही कहेंगे प्यार करो, प्यार बांटो...
स्वागत है।
चौराहा जी आप का मेरे ब्लोग पर स्वागत है
पता नहीं यह पोस्ट मुझ से कैसे छूट गई। उस दिन बेटा इन्दौर जा रहा था इसीलिए। मुन्शी प्रेमचन्द का कहना था कि प्रेम साहचर्य से उत्पन्न होता है। शादी के बाद रोमांस और फिर प्रेम। यह पद्यति सफल ही रही है। कुछ अपवाद होंगे ही। बस ये बीच में जब अर्थ आ जाता है। सब गड़बड़ कर देता है। खैर यह लम्बा किस्सा है। हम तीस साल से बहुत किस्से दबाए बैठे हैं। सब टिप्पणियों में नि्कल जाएंगे तो पोस्ट का क्या होगा। जैसे जैसे समय मिलेगा लिखते रहेंगे।
सही है. माफ़ कीजिएगा मैं विश करना भूल गया था. :)
आंटी,
इस बसंत का स्वागत हम करें.
अपने दिल में किसी का प्यार बसाएं, हर किसी को अपना प्यार बाँटें. दूसरे के सुख - दुःख में हमेशा शामिल हों, बराबर के साझीदार हों.
इस एक दिन को नही वरन हर दिन को हम प्यार भरा, स्नेह भरा, वात्सल्य भरा बनाएं तो शायद सारी दुनिया..... हमसे कहेगी ... happy valentines day to you.
ज्ञान जी ने वैलेंटाइन डे को सही नाम दिया है.. मदनोत्सव ...मदनोत्सव आनन्दमय हो !
achee vichar is baar bhee
Anil masoomshayer
अनितादी, आपके ब्लाग को हमने अपने ब्लागरोल में चढ़ा लिया है। देर आयद , दुरुस्त आयद...
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