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February 29, 2008

पहिया चले चले है यारा, तुझको चलना होगा

पहिया चले चले है यारा, तुझको चलना होगा

दो दिन पहले ममता जी के ब्लोग पर उनके सायकिल सीखने के संस्मरण पढ़े,…पढ़ कर याद हो आया अपना बचपन्।

बचपन में पापा की बड़ी सी सायकिल बहुत चलाई जब वो स्टेंड पर खडी होती थी। बहुत अच्छा लगता था सायकिल चलाना, पर असलियत में कभी सीख ही नहीं पाए। बाद में भाई ने दुपहिया स्कूटर सिखाने की कौशिश की, पीछे से स्कूटर को यूं पकड़ा मानो सायकिल का कैरिअर पकड़ा हो, जैसे ही हमने स्कूटर को बैंलेस करने के लिए रेस दिया, स्कूटर भाई के हाथ से छूट कर कंपाउड की दिवार के आगोश में ऐसे समाया जैसे बच्चा मां की गोद में समाता है। हम कराहते ही रह गये, हाय! 'हमारा बजाज'। भाई ने सिखाने से तौबा कर ली।



फ़िर 90 के दशक अंत में पहली चौपहिया गाड़ी 'मारुती वेन' घर आ गयी। लगा अब मेरे भी दिन फ़िरे, चौपहिया में बैलेसिंग का कोई चक्कर नहीं। पतिदेव की सलाह पर फ़टाफ़ट ड्राइविंग स्कूल में भरती हो गये, रोज आधे घंटे की क्लास, जिसमें से 15 मिनिट सिगनल खुलने के इंतजार और 15 मिनट सीखने का भ्रम। यूं कहिए कि बस एक छोटा सा चक्कर लगा कर वापस आ जाते थे।

हमें इस बात का अंदाजा नहीं था कि जिस कार में वो ट्रेनिंग वाला हमें सिखाता है उसमें उसके पास भी क्लच और ब्रेक है। ये भी नहीं पता था कि हमारे पास भी ब्रेक है, हम समझते थे जैसे घर में पंखे का स्विच ऑफ़ कर दो तो पंखा धीरे धीरे घूमते घूमते अपने आप रुक जाता है क्युं कि उसको अब करेंट नहीं मिल रहा , कार का भी वही फ़ंडा है, आप को गाड़ी रोकनी है तो बस एक्सिलेटर से पांव हटा दीजिए, इंजन को पेट्रोल नहीं मिलेगा और गाड़ी अपने आप थोड़ी दूर लुड़क कर बंद हो जाएगी। जब तक हम सीख रहे थे ट्रेनिंग स्कूल में ऐसा होता भी था। अब गाड़ी चलाते वक्त रोड को देखते या बाजू में बैठे इंस्ट्र्क्टर को। एक महीने बाद आया लाइसेंस के लिए टेस्ट। खुली रोड पर कार चलाने को कहा गया। इंस्पेकटर आगे हमारे पास बैठा। कार शुरु की, थोड़ा आगे गये तो एक बड़ा सा नारियल के झाड़ का पत्ता राह रोके खड़ा था। हमने न आव देखा न ताव, गाड़ी बढ़ा दी उस पत्ते के ऊपर,आखिरकार पत्ता ही तो था । पत्ता इतना बड़ा था कि गाड़ी बंद पड़ गयी। इंस्पेक्टर ने हमारे इंस्ट्र्क्टर की तरफ़ मुखातिब होकर पूछा गाड़ी चलाना सिखाया है या टेंकर?…।:) खैर लक्ष्मी जी की कृपा से हमें लाइसेंस तो मिल गया अब हमें लगा कि अपनी गाड़ी पर भी थोड़ा हाथ साफ़ करना चाहिए।

किसी तरह छोटे भाई को साथ चलने को तैयार किया। नयी नवेली चमकती गाड़ी ले कर निकल पड़े एक अनजानी सी सुनसान सी रोड की तरफ़्। जैसे जैसे उस रोड पर आगे बड़ते गये वो रोड संकरी होती गयी। हम सोच ही रहे थे कि गाड़ी वापस मोड़ लेनी चाहिए कि अचानक सामने से बेस्ट की लाल बस आती दिखाई दी, लगा मानों हम पर ही चढ़ी चली आ रही है, घबरा कर हमने स्टीअरिंग व्हील को तेजी से बाएं घुमा दिया और पैर एक्सीलेटर से हटा लिया। भाई चिल्लाता ही रह गया ,'दीदी ब्रेक, दीदी ब्रेक' तब तक तो गाड़ी को जोर से भींच कर अपने आगोश में ले लिया एक बिजली के खंबे ने। दो महीने पुरानी गाड़ी मुस्कुराती वेन के बदले V शक्ल में बदल गयी।

खंबा मेरे और मेरे भाई के बीचों बीच से निकल गया था। बड़ा हजूम जमा हो गया, आखिर उस विरान सी सड़क पर ऐसे हादसे रोज रोज थोड़े ही न होते हैं। हम दोनों गाड़ी से तो सही सलामत निकल आए पर ये जो बड़ा ह्जूम जमा हो गया था उसमें कई युवा लड़के थे जो आपस में बतिया रहे थे, "अरे, नयी गाड़ी लगती है यार, एक एक टायर हजार हजार रुपये का बिकेगा"। हम समझ चुके थे कि अगर हम गाड़ी छोड़ कर जरा भी इधर उधर हुए तो गाड़ी कहां गयी ये भी पता नहीं चलेगा। हम गाड़ी के पास खड़े रहे और भाई ने जाकर जीजा जी को फ़ोन किया। उन्हें आने में आते आते वक्त तो लगना ही था, गाड़ी के एक तरफ़ हम खड़े रहे और दूसरी तरफ़ भाई, साथ में वो हजूम भी। शुक्र्गुजार है उस ह्जूम के जिन्होंने हमारे खड़े रहते गाड़ी को हाथ लगाने की हिम्मत न की, नहीं तो हम दोनों क्या कर लेते?


खैर, पतिदेव पास के पुलिस स्टेशन गये एक्सीडेंट की रिपोर्ट लिखवाने, पता चला कि पुलिस वालों को तो एक्सीडेंट होते ही खबर लग गयी थी, थाने से 10 मिनट की दूरी पर तो हुआ था हादसा, लेकिन आए नहीं, इंतजार कर रहे थे कि अगर किसी को मरना वरना है तो मरखप्प जाए कौन हॉस्पिटल वगैरह ले जाने की जहमत उठाए और फ़िर जिनको रिपोर्ट लिखानी है वो खुद आयेगें थाने।


कार की ऊपर की बॉडी नयी मंगानी पड़ी गुड़गांव से। तब जाके पता चला कि कार में ब्रेक नाम की भी कोई चीज होती है और गाड़ी सिर्फ़ एक्सीलेटर से पांव हटा लेने से अपने आप नहीं रुकती। छ: महीने बाद गाड़ी बन कर फ़िर से नयी नवैली बन कर आयी तो हमने हाथ लगाने से साफ़ इंकार कर दिया। पतिदेव जोर देते रहे कि हमें फ़िर से सीखना चाहिए, इस बार किसी और ड्राइविंग स्कूल से पर हमने तौबा कर ली और फ़िर दस साल तक कार को हाथ नहीं लगाया।


अररररे कहां चले रुकिए रुकिए सफ़र अभी जारी है, क्या कहा? अच्छा ठीक है भाग दो कल के लिए उठा रखते हैं, पर आप कल आइएगा जरूर्…हम इंतजार करेगें……:)

12 comments:

Pankaj Oudhia said...

पत्ता इतना बड़ा था कि गाड़ी बंद पड़ गयी।

बडा उत्सुक हूँ इस पत्ते के बारे मे जानने जो गाडी रोक दे। :)

काकेश said...

आपका यह और अगला लेख मुझे गाड़ी चलाना सीखने की प्रेरणा देगा. एक बार पहले कोशिश की थी पर नहीं सीख पाया. अब फिर करता हूँ.

अनूप शुक्ल said...

गाड़ी चलाने में एक्सलेटर से पहले ब्रेक लगाना आना चाहिये। :)

आभा said...

स्लोब से साइकिल चलाते उतरती और अपने नाना जो लान मे धुप सेक रहे होते जानबुझ कर भी उन्हें
ठोक देती वे तखत सहीत ऊझल पङते ..मजा ही मजा फिर गाङी साल भर पहले सीखी....

Sanjeet Tripathi said...

ह्म्म, मतलब कि एक से एक लोचे किए बैठे हो ;)

चलो जी आपके इस और आने वाले से हमें भी प्रेरणा मिलेगी चौपहिया वाहन सीखने की, अभी तो आलम यह है कि कभी कार घर के अंदर-बाहर भी करनी होती है तो भतीजों की राह तकते हैं।

mamta said...

बहुत ही रोचक लगा। और अगली कड़ी का इंतजार है।
वैसे कार के लिए भी कहते है एक बार ठोकने के बाद डरने की जरुरत नही होती। :)
आप लिखिए हम अपनी स्कूटर और कार का किस्सा अगले कुछ दिनों मे लिखेंगे।

Gyan Dutt Pandey said...

अपनी क्या कहें। हमें तो स्पॉण्डिलाइटिस के चलते साइकिल तक चलाने से मना कर दिया है पत्नी जी ने!

ghughutibasuti said...

बहुत बढ़िया । हम तो केवल वही चलाते हैं जिसमें लाइसेंस की आवश्यकता नहीं , जैसे पैर, जबान व कलम ।
घुघूती बासूती

PD said...

bahut badhiya tha ji.. :)
kal ka bhi intejar rahega..
par subah hi likh dijiyega.. main 2-3 baje saturday ko cybercafe jata hun.. nahi to sunday ko padhna parega.. :)

Shiv Kumar Mishra said...

बढ़िया संस्मरण.
अनूप जी की बात गाँठ बाँध ली है. मैं तो पहले ब्रेक लगाना सीखूँगा......:-)

Dr Parveen Chopra said...

बहुत अच्छा है, आपने हम सब को भी लिखने का एक नया आइडिया दे दिया है। जो भी हो, वो पुराने दिन बेहद रोमांचक होते( या लगते हैं) हैं ।

अजित वडनेरकर said...

दिलचस्प है अनितादी। कुछ देर से पढ़ पाए हैं। अगली कड़ी का इंतजार है।