अम्मा- मेड टू ऑर्डर
जाल तंत्र पर हमारे एक मित्र हैं।मुश्किल से 23/24 साल के होंगे, मूलत:उत्तर प्रदेश के किसी गावँ से हैं पर आज कल देहली में रहते हैं, दाल रोटी के जुगाड़ के चक्कर में।देहली से ही उन्होंने मॉस मिडिया का कॉर्स किया हुआ है, खुद को अति महान पत्रकार मानते हैं। हम अक्सर उनसे अपनी रचनाओं पर टिप्प्णी करने को कहते थे। तब तक हमने ब्लोगिंग करना नहीं शुरु किया था और अपनी रचनाएँ दूसरी कविताओं की साइट पर प्रकाशित किया करते थे। ये जनाब से भी ऐसे ही कहीं मुलाकात हुई थी। हमारी कोई भी रचना इनकी नाक के नीचे नहीं आती थी, हर रचना में कोई न कोई कमी, पता नहीं क्या क्या टेकनिकल खामियाँ निकालते थे, ये मीटर में नहीं बैठती, यहाँ शब्दों का चयन ठीक नहीं, क्रिएटिव राइटिंग के फ़न्डास से ले कर हिन्दी व्याकरण तक सब समझाते थे। हम नतमस्तक हो सब सुन लेते थे। अपने कॉलेज के ग्रंथालय में भी क्रिएटिव राइटिंग की किताबें पूछ्ने लगे, नहीं मिली, वो बात अलग है। इनकी हर मीन मेख का हमारे पास एक ही जवाब होता कि भैया अपुन तो दिल से लिख्ते है, तुम्हारे बताए कोई नियम जानते ही नहीं तो लिख्ते वक्त वो जहन में कैसे आयेगें? और ये कहते सिर्फ़ दिल से लिखना काफ़ी नहीं होता। खैर, फ़िर पता नहीं क्युं ये कुछ एक महीने से गायब थे, पता लगा कि नौकरी बदल रहे हैं।
कल अचानक ऑन लाइन दिख गये, और हमारे बुलाने के पहले स्क्रीन पर टपक पड़े, बोले आजकल आप के लेखन में काफ़ी सुधार हुआ है। हमने सोचा क्या बात है, इनके मुहँ से ऐसे शब्द्। खैर इसके पहले कि हम धन्यवाद के आगे कुछ और कहते ये फ़िर गायब हो गये। आज शाम फ़िर प्रकट हुए और बोले, हम्म, मैने आप की कविता 'खुली वसियत' पढ़ी है, आप ऐसे कैसे लिख सकती हैं। हम हैरान, भई क्या लिख दिया ऐसा ओब्जेक्शेबल्। पहले तो लम्बी बहस कर डाली कि हमें कोई अधिकार नहीं मृत्यु शैया पर इलाज से इंकार करने का, फ़िर अचानक बोले, मैने अपनी अम्मा को लम्बी चिठ्ठी लिख दी है। अरे भई, बीच में तुम्हारी अम्मा को लिखी चिठ्ठी कैसे आ गयी। बोले इस टेलिफ़ोन के युग में हमने अपनी अम्मा को आपकी कविता का हवाला देते हुए खत लिख दिया है कि तुम तो ऐसा सोचना भी मत। माँ बिचारी ने परेशान हो कर बेटे को फ़ौरन फ़ोन लगाया कि बात क्या है, साथ ही समझाया कि बिट्वा जो आता है उसे जाना भी पड़ता है। बिट्वा भाव विहल हो मातृ प्रेम में डूबे बोले माँ तू मेरे से पहले नहीं मर सकती। भावनाओं में डूबे कुछ भी ऊलूल जलूल तर्क दिए गये, मैं जब छोटा था, असहाय था तूने मुझको संभाला, जिन्दा रखा, मैं चाहता तो मैं भी मर सकता था, तुझको कितना दु:ख होता, तेरी खातिर मैं तब जिन्दा रहा, बड़ा हुआ, और अब दुनिया को झेल रहा हूँ। अब तुझे भी मेरे साथ इसे झेलना है जब तक मैं झेलूं। माँ के कुछ बोलने से पहले ही ये अपने रौ में बोलते चले गये कि मैं चाहता हूँ मेडिकल क्षेत्र में इतनी तरक्की हो कि कोई मरे ही नहीं और शुरुवात मेरी माँ से हो। हम ने कहा,'आमीन'।
इनकी बातें सुन इनकी माँ जो कभी गांव से बाहर नहीं निकली और जिन्हों ने शायद स्कूल का कभी मुँह नहीं देखा, बोली, बिट्वा हमने तो सुना है कि आज कल के डागदर सीसे की नलियों में बच्चा बनाई देत हैं तो उन डागदरां के बोले एक नयी माँ काहे नहीं बनवा लेते? वैसे हम द्शहरा पर तोके मिलने को दिल्ली आईं। भई वाह, क्या कल्पना है-टेस्ट टुयब माँ, सारे अनाथालयों की छुट्टी, और बात भी कितनी स्टीक, अगर बिन औलाद के माँ बाप को ये अधिकार दिया मेडिकल सांइस ने कि इस तरह से बच्चे की चाह पूरी कर लो तो बच्चों को भी वही अधिकार मिलना चाहिए कि अगर किसी कारणवश अगर वो अपनी माँ खो दें तो भी मां के वात्सलय से वंचित न रहें। अब मामला जरा रोचक हो गया था, हम जानना चाहते थे कि बिटवा ने क्या जवाब दिया? जवाब सुन कर हमारी हसीं नहीं रुक रही थी। बड़ी मासुमियत से जनाब बोले कि वो तो बाबा को पूछ्ना पड़ेगा, आज कल धान की फ़सल कट रही है तो बाबा व्यस्त हैं । हमें भी इंत्जार है कि बाबा का कहीं? खैर हमने कहा कि क्या आप को इस कविता में कुछ कमी नजर आयी हो तो कहिए, बोले हाँ, कमी तो है, ये वसियत शब्द का चयन ठीक नहीं, वो 5 मिनिट तक तर्क देते रहे कि वो शब्द क्युं ठीक नहीं, फ़िर जाते जाते बोले वैसे आप मेरी बातों पर ध्यान मत दिजिएगा और जैसा लिख रही हैं वैसा ही लिख्ती रहिए। उफ़्फ़! अट्लास्ट, जनाब को कुछ तो पसंद आया। लेकिन अब हम इनकी टिप्प्णियों के बारे में नहीं इनकी माँ के बारे में सोच रहे थे। इनके बारे में भी सोच रहे थे कि ये बेटे का रूप उस टिप्प्णीकार से कित्ता ज्यादा सुहाना है।
सुस्वागतम
आपका हार्दिक स्वागत है, आपको यह चिट्ठा कैसा लगा? अपनी बहूमूल्य राय से हमें जरूर अवगत करावें,धन्यवाद।
October 16, 2007
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9 comments:
बड़ा रोचक घालमेल है आपके जाल-मित्र की भावुकता और तथाकथित तर्क पूर्ण सोच का।
और घालमेल इतना हो गया कि कॉमेडी हो गया।
खैर हम सभी यदा कदा ऐसा कर बैठते हैं।
सही है. हर कोई अपने अपने आयाम दे और आप अपनी किस्सा गोही जारी रखें. बहुते कन्फ्यूजन टाईप है भाई. हम तो चले. टेस्ट ट्यूब माई तो बड़ी सनसनाहट वाली खबर सिद्ध होगी.
अच्छा कौन हैं वो पत्रकार जनाब
मस्त लिखा है आपने!!
लिखते जाईए जो मन को भाए बस!!
मस्त लिखा है ।
घुघूती बासूती
saubhaaagya se wah kavita anya blog lekhakon ki tulna me humne thodi jaldi sun li thi. :)ye shayad hamare sun-ne ka hi punya prataap hoga jo ek ghaatak aalochak ko bhi narmaa gaya. :)
asal mai har likhne bale ka likhne ka maksad bhinn hota hai. aur mujhe thodee takleef hotee hai jab ham us dharatal ko jane bina jis per khade hoke lekhak likhta hai uskee nukta cheeni shuru kar dete hai. ye meter ye chhand vinyaas ye matra dosh un logo ke liye hone chahiye jo apne lekhan ko koi pehchan dena chahte ho. mai khud geeto ka paksgdhar hoo. per aaj kee duniya mai har vidha ke liye jagah hai. blog likhna bole to diary likhne jaise bole to samachar patro mai patkako ke sampadak ke naam kee parampara mai hai. is duniya ko vichaarsheel logo kee duniya banane mai bebak tippnikaro ka bada yogdan hai. yaha se agar vichaar ka plot achha lage to ek khulee chunautee hai shabd shilpi kavi aur gazalkaro ko ki ve iske aadhaar per shastriya kavita likhe. nahee to vichaar ke khusboo kee prashansha kare yadi prashansha ke layak ho.
Hari
अब ये परखनली माँ… आपके पत्रकार दोस्त की माँ ने तो चिकित्सा जगत को चुनौती दे दी। लेकिन कारण रहा आपकी वसीयत वाली कविता,मैं कैसे चूक गया सुनने में मुझे विकासजी से जलन हो रही है :)
So your poetry could stimulate a range of emotions in people... congratulations on yet another successful writing.
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