Subscribe

RSS Feed (xml)

Powered By

Skin Design:
Free Blogger Skins

Powered by Blogger

सुस्वागतम

आपका हार्दिक स्वागत है, आपको यह चिट्ठा कैसा लगा? अपनी बहूमूल्य राय से हमें जरूर अवगत करावें,धन्यवाद।

October 19, 2007

दादी रॉक्स

दादी रॉक्स


अभी टी वी पर चैनल घुमाते घुमाते सोनी पर चल रहे कार्यक्रम बूगी बूगी पर जा पहुँची। मम्मी एपीसोड चल रहा था। शुरु के एक दो नृत्य तो अच्छे लगे(बाकी भी अच्छे लगे), 25 वर्ष से ले कर 29 वर्ष की महिलाएँ अपने नृत्य के जौहर दिखा रही थीं। फ़िर अपने जौहर दिखाने आयी एक 45 वर्षिय महिला, डील डौल भी काफ़ी हरा भरा और अदाएँ बिखेरी मॉइकल जैकसन की नकल की। अन्दाजा लगाना मुश्किल नहीं कि कैसा लग रहा होगा वो भी टी वी पर जिसे लाखों लोग देख रहे होगें। अच्छा, उस प्रोग्राम की एक और खासियत ये है कि जो भी कलाकार मंच पर होता है उसके साथ आये उनके स्वजनों पर कैमरा केन्द्रित किया जाता है, इस बार भी ऐसा ही हुआ। जो महिला नाच रही थी उनके साथ आयी एक वृद्धा बड़ी मजे ले कर उनका नृत्य देख रही थीं। जावेद जी के पूछ्ने पर पता चला वो वृद्धा उस महिला की माता जी हैं और वो भी बूगी बूगी में नाचने की तमन्ना रखती हैं। जावेद जी ने बड़ी शालीनता से उनकी ये मनोकामना पूर्ण करने के लिए उन्हें आमंत्रित किया मंच पर आने के लिए, बिना किसी हिचक के वो न सिर्फ़ मंच पर आ गयीं बल्की मॉइकल जैकसन की भी छुट्टी कर दी। जावेद ने जब उन्हें कैमरे में देख अपने पति को फ़्लांइग किस्स देने को कहा तो बेझिझक दादी जी ने वो इच्छा भी पूरी कर दी।

आप कहेंगे , हाँ तो आप क्युं इतना बखान कर रही हैं। वो इस लिए कि मैं पूरी तरह से कनफ़्युजड हूँ जी, पता नहीं मैं कौन सी सदी में जी रही हूँ , क्या मैं पिछ्ड़ गयी हूँ और मुझे पता भी नहीं चला कि जमाना कितना आगे निकल गया है। मेरे मानस पट्ल पर दादी नानी की जो आम तस्वीर है और जो मैं अब देख रही हूँ उसमें जमीन आस्मान का अंतर है। मेरी नानी ने पाँच बेटियों में से तीसरी की शादी की तो हल्के रंग की साड़ियाँ पहनना शुरु कर दिया था और अतिंम बेटी की शादी तक पहुंचते पहुंचते तो सफ़ेद साड़ियाँ पहनना शुरु कर दिया था। (यहाँ मै बता दूँ कि मेरे नाना की मृत्यु नानी के जाने के कई साल बाद हुई थी) उन्हें दामाद के सामने रंगीन कपड़े पहनने में शर्म आती थी। खैर वो तो बहुत पुराने जमाने की बात है जी। मेरी माँ ने मेरी शादी के बाद लिपस्टिक लगाना छोड़ दिया था, सिर्फ़ इस लिए कि मैं लिपस्टिक नहीं लगाती थी। अब नवविवाहिता बेटी अगर इतनी सादी रहे तो मैं कैसे होंठ रंग लूं। मैने लाख समझाया कि ये अपनी अपनी पंसद की बात है और इसमें कोई बुराई नहीं पर उन्होंने एक न सुनी। फ़िर जब कुछ साल बाद मेरे बालों में चांदी झिलमिलाने लगी, सबने कहा (पति को छोड़ कर) बाल रंग लो, पर हम इसके लिए तैयार न हुए, तो मेरी माता जी ने भी बाल रंगने छोड़ दिए, तर्क वही की बेटी के बाल सफ़ेद और मेरे काले, कैसा दिखेगा भला। ये
बात सिर्फ़ मेरी माँ और दादी की नहीं थी, मैने तो अपने परिवेश में सभी दादी नानियों को यूं ही देखा है, अपने रखरखाव से बेखबर, ममता से ओतप्रोत, हमेशा दूसरों की फ़िक्र करतीं, जीवन के मुल्य देती, धीर, गंभीर, जिन्हें देखते ही नतमस्तक हो आशिर्वाद लेने को मन करे। इन्हें घर में आयोजित कीर्तनों में भाग लेते हुए नाचते गाते देखा पर कभी भी पब्लिक में नहीं। किसी शादी ब्याह में बहुत जोर देने पर दादी तो नहीं पर माँ एक ठुमका भर लगा देतीं और बैठ जातीं, वो भी इस बात का ध्यान रखते हुए कि उम्र या रिश्ते के लिहाज से कोई बड़ा मर्द तो वहाँ नहीं। माँ का दर्जा पाते ही कब हमने अपने पराये (ऑटो ड्राइवर से लेकर सब्जी वाले, वॉचमेन, अर्द्ली, छात्र) सबको बेटा बुलाना शुरु कर दिया पता ही नहीं चला ।

मैं ये नहीं कह रही कि बूगी बूगी में नाच रही महिलाएं सभ्रांत नहीं थीं, वो संभ्रात थी,(छोटे शहरों से थीं)। वहाँ आयी सभी महिलाओं के परिवार(मायका और ससुराल दोनों) इतना गौरव महसूस कर रहे थे। कौन कहता है कि औरतों को मन की करने की छूट नहीं। मैं यहाँ कोई सवाल नहीं खड़े कर रही , सिर्फ़ अपना आश्चर्य प्रकट कर रही हूँ, सिर्फ़ बदलते समाजिक मुल्यों की बात कर रही हूँ। क्या कोई मुझे बताएगा कि मैं कित्ते साल पीछे छूट गयी हूँ?

15 comments:

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

अनिता जी, आपने कार्यक्रम की सूक्ष्मताओं को बहुत बढिया तरह से शब्द बद्ध किया है. बधाई. ज़माना वाकई बदला है. कम से कम समाज के एक हिस्से के लिए. दर असल हमारा भारत एक साथ ही कई काल खण्डों में जीता है. एक तरफ ये चन्द सन्नारिया6 हैं जो बूगे-बूगी के मंच पर नाच कर अपना जन्म सार्थक् करती हैं तो दूसरी तरफ ऐसी भी अनेक अभागी महिलाएं होंगी जो अपनी सासों ससुरों की इज़ाज़त के बगैर सर से पल्लू भी नहीं हटने दे सकती. उनकी तो बात ही मत कीजिए जिनके लिए ये सारी बातें कल्पनातीत हैं. लेकिन, मुझे तो इस बात की खुशी है कि चलिए भारतीय महिला समाज का एक बहुत छोटा-सा वर्ग ही सही, अपने मन की दबी-छिपी तमन्नाओं को ज़ाहिर और पूरा तो कर पा रहा है.

Udan Tashtari said...

चलिये पोस्ट करने के एक मिनट में टिप्पणी करने का प्रसाद: :)

वैसे जी अगर इस तरह नाचते देखकर आपके मन में यह भाव भी उठे हैं तो जान लिजिये आप बहुत पीछे छूट गई हैं. अभी भी मौका है, थोड़ा स्पीड बढ़ाईये और जमाने के साथ कदम ताल करिये.

कितनी अच्छी बात है कि जिस नारी ने हमारे सामाजिक परिवेश में जो चीज सपने में भी नहीं सोची होगी वो आज पूरी होते दिखती है. अपने मन का करने को स्वतंत्र हैं पूरे परिवार के समर्थन के साथ.

मैं ऐसे बदलाव के निश्चित समर्थन में हूँ.

आप भी तो समर्थन में हैं. :)

masoomshayer said...

ye tadap behe sachee aur ye bhee sach ki ham dheeme hain kuch hame thoda sa tej hona hai aur unhe to rafatar kam karnee hee hai bahut halke eharakat ho jatee hain kabhee kabhee main bhee manata hoon

lekh bahut sampoorn hai vishay ko bahut achha pakada hai aur lekhon men tum sabhee se alag nikal rahee ho bas yahee kahana hai

ANil masoomshayer

Sanjeet Tripathi said...

मस्त लिखे हो!!

चलो डांस करें!!

Asha Joglekar said...

अनिताजी, आपका लेख पढा । आपकी परेसानी समझ में नहीं आई । आप ही ने तो अपनी माँ से कहा था न कि आप को जो अच्छा लगता है आप करो । तो अगर कुछ दादी नानियों नें नाचने का हुनर है और उन्हें अच्छा मौका भी मिल रहा है तो क्यूं नही ? अब आपकी तरह सब तो लेख और कविता नही लिख सकते न?
मुझे इस प्रोग्राम का गुस्सा तब आता है जब छोटे छोटे बच्चे बीडी जलैले पर थिरकते दिखाई देते हैं ।

Gyan Dutt Pandey said...

क्या कोई मुझे बताएगा कि मैं कित्ते साल पीछे छूट गयी हूँ?
------------------------

इस प्रश्न का जवाब तो पूर्णत: व्यक्तिगत होता है। पर यह सवाल उठना अपने आप में अच्छा है। उससे हम करेक्टिव एक्शन की तो सोचने लगते हैं।
आप समीर\संजीत की टिप्पणियों की सलाह मानिये। वैसे शायद मुझे भी वैसी सलाह की दरकार है। :-)

Atul Chauhan said...

आपकी सीरियल समीक्षा वाकई सारगर्भित है। लेकिन एक बात तय है,'बदलाव समय के साथ बडी तेजी से बदलता है,। और इस बदलाव के साथ बदलने में क्या अच्छाइयाँ-बुराईयां हैं।यह इंसान की अपनी सोच पर निर्भर है।

Rachna Singh said...

"क्या कोई मुझे बताएगा कि मैं कित्ते साल पीछे छूट गयी हूँ?"
हर वह व्यक्ती जो अपने समय पर अपने मन को मारता है और वह करता है जो समाज उससे चाहता है " पीछे छूटने " के एहसास को महसूस करता है । आप एक नारी हैं आप ने समाज के हर नियम को अगर इस लिये माना की आप की माँ , दादी , नानी , सास ने इसे माना हैं तो आप गलत है क्योंकी आप ने अपनी जिन्दगी को नहीं जिया । आप ने उस जिन्दगी को जिया जो दूसरो ने आप के लिये तय की । आप नाखुश हैं या खुश हैं ये आप पर निर्भर हैं पर अगर आप को ये एहसास होता हैं की आप पीछे छूट गयी हैं तो आप संपूर्ण नहीं हैं अपने आप मे ।
आप से ज्यादा संपूर्ण वह नानी दादी हैं जो बूगी बूगी के मंच पर बिंदास नाच रही हैं और उनका परिवार ताली बजा रहा हैं । उनके लिये यहाँ तक का सफर आसान नहीं रहा होगा पर एक मोका उन्हे मिला और उन्होने उस पल को जिया ये ही उनकी जीत हैं ।

Sagar Chand Nahar said...

नहीं आप बिल्कुल नहीं पिछड़ी, हर एक के पास अपना अपना हुनर होता है। आपजो कर सकती हैं सायद वह नाचने वाली दादी/नानी के पास ना हो।
........ और वैसे देर कभी नहीं होती, अपनी इच्छाओं को पूरा करने की कोशिश करिये।

आपकी इच्छाएं क्या हैं?

मीनाक्षी said...

अनित जी , आपने जो लिखा बहुत सुन्दर और ईमानदारी से लिखा लेकिन टिप्पणियाँ पढ़कर जो आनन्द का अनुभव हो रहा है उसके लिए भी आपको ही धन्यवाद.
थोड़ा खिलखिला कर हँसीं फिर मुस्काई... सोचा मैं भी टिप्पणीकारों मे शामिल हो जाऊँ जो बदलाव का समर्थन करते हैं. याद आ रहा है एक गीत .. दिल की गिरह खोल दो, चुप न बैठो, कोई गीत गाओ !!!
आपने वॉकमैन सुनना शुरु किया या नहीं ?
बताइएगा ज़रूर !

अनूप शुक्ल said...

आपकी पोस्ट पढ्कर बहुत अच्छा लगा। कुछ मजा भी आया। आप बिल्कुल भी नहीं पिछड़ी हैं। एक दम समय के साथ हैं। कदमताल करती हुयी। यह सोचना अपने आप में नया पन है।

Vikash said...

haajiri laga raha hoon :)

आलोक कुमार said...

बडों की बात बडे ही जाने :p

रवीन्द्र प्रभात said...

आपका लेख पढ्कर बहुत अच्छा लगा, सारगर्भित है,बढिया तरह से शब्द बद्ध किया है. बधाई.

पुनीत ओमर said...

ठीक ही तो है. आपकी नानी जी ने इतना सब कुछ एकदम सहज भाव से ही छोडा क्योकि शायद उन्हें अच्छा नहीं लगता होगा. पर जब दादी जी अपनी बेटी को सामने ही सामने ठुमके लगाते हुए देख रही हैं तो फ़िर क्या बुरा है की वो ख़ुद भी ऐसा करे. मंच नर्तकी को भी कहीं ना कहीं अपनी माँ से ही ऐसे कला संस्कार मिले होंगे. हमारे देश में कला का सम्मान करने वाले लोगों में तो आज भी परिवार वाद होता है. कलाकार अब सच्चे तौर पर वही बचे जिनके पिता ने उन्हें ४ बरस की उमर से तान्पुरा पकडाया था. ये तो अछा है ना की एक ही मंच पर कला का प्रवाह पीढियों के अन्तर को पाट गया.