मैं
मैं मास्टर चाबी हूँ,
जब असल चाबी कहीं इधर उधर हो जाती है,
मैं काम आती हूँ,
मैं काम आती हूँ,
मैं वो थाली हूँ,
जिस में सहानुभुती के कुछ ठीकरे
बड़े सलीके से सजा कर परोसे जाते हैं,
मैं वो लकड़ी हूँ,
जो साँप पीटने, टेक लगाने के काम आती हूँ,
कुछ न मिले, तो हाथ सेंकने के काम आती हूँ,
मैं ऑले में सजी धूल फाकँती गुड़िया हूँ,
जिस पर घर वालों की नजर मेंहमानों के साथ पड़ती है,
मैं पैरों में पड़ी धूल हूँ,
जो ऑधीं बन कर अब तक तुम्हारी आखों में नहीं किरकी,
मैं कल के रस्मों रिवाज भी हूँ, और आज का खुलापन भी,
मैं ‘आजकल’ हूँ,
जिसके ‘आज’ के साथ ‘कल’ का पुछल्ला लगा है,
जिसे जब चाहा ‘आज’ के आगे रख दिया,
मैं आकड़ों का हिस्सा हूँ,
पर कैसे कह दूँ कि हाड़ माँस नहीं,
11 comments:
थाली तो घर क़ी मास्टर चाबी है सरल शब्दो मे अच्छी रचना अपनी लीक से हटाकर सराहनीय प्रयास है |
मजा आ गया
anita ji
aapki yeh RACHNA bahut hi sarahniye hai.
Aagaaj inta achha hai to Anjaam kya hoga...............
Keep it up !!!!!!!!
उम्दा प्रयोग किया है, बधाई.
आंकड़ों का हिस्सा और जीवित - यह विरोधभास मैं भी अपने आप में यदा कदा पाता हूं. तभी भीड़ से घबराता हूं.
आपके अनुभव संतृप्त हैं.
खुद के होने पर सबाल बाहरी दुनियाँ से, जो बनाता आ रहा है ऐसी ही "मैं" को सदियों से
बहुत ही अच्छा विषय लिया है…।
सुंदर अभिव्यक्ति!!!
आम जीवन में ऐसी बहुत सी बाते हैं जिन्हें हम नजर अंदाज कर जाते है. लेकिन ये चीजें अपने आप में एकदम गौण नहीं है. ये न हों तो कहीं न कहीं एक कमी जरूर अखरती है. इस तरह की कुछ बातों के बारे में काव्य विधा में आपने ध्यान खीचा है.
चूंकि इस कविता में प्रतीकों/सुझावों का उचित प्रयोग किया गया है अत: इसको समझने के लिये एक से अधिक बार पढने की जरूरत है. लेकिन जो इस तरह मनन करके इस कविता का सार पाने के लिये तय्यार है उसके लिये यह एक दम आनंद एवं पुनरावलोकन का अवसर प्रदान करती है.
समझने के लिये मुझे तीन बार पढना पडा, जो मेरी कमजोरी को नही बल्कि कविता की निगूढता की ओर इशारा करता है. इस सशक्त कविता के लिये आभार, जो सामान्य कविताओं से कुछ हट कर लिखी गई है -- शास्त्री जे सी फिलिप
हे प्रभु, मुझे अपने दिव्य ज्ञान से भर दीजिये
जिससे मेरा हर कदम दूसरों के लिये अनुग्रह का कारण हो,
हर शब्द दुखी को सांत्वना एवं रचनाकर्मी को प्रेरणा दे,
हर पल मुझे यह लगे की मैं आपके और अधिक निकट
होता जा रहा हूं.
सुंदर!!
आपकी हर कविता एक प्रयोग लिए हुए होती है!!
आपकी प्रयोगधर्मिता को सलाम!!
अच्छी लगी कविता। बधाई!
मैं ‘आजकल’ हूँ,
जिसके ‘आज’ के साथ ‘कल’ का पुछल्ला लगा है,
जिसे जब चाहा ‘आज’ के आगे रख दिया,
बहुत अच्छा लिखा है । यही है हम नारियों की नियती ।
बहुत उम्दा रचना है... हर पंक्ति अनगिनत सवाल करती कभी कटाक्ष करती और कभी हेरान करती... just brilliant....
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