एप्रिल का पहला ह्फ़्ता—अख्बारों की सुर्खियां--- 76 CRPF के जवान नक्सलवाद की बली चढ़ गये/चढ़ा दिये गये---
मन स्तब्ध, गहरा सदमा
सब की नजरें सरकार की ओर—पार्लियामेंट में भी हंगामा, मुंबई की 26/11 के बाद मीडिया को मिली एक और बड़ी कहानी भुनाने के लिए, साक्ष्तकारों और बहसों का दौर- नक्सलवाद क्युं, कौन जिम्मेदार- कांग्रेस या बीजेपी या कोई और( उड़ती उड़ती खबर ये भी है कि इसमें विदेशियों का यानि की पाकिस्तान का हाथ है), कैसे रोका जाए-सुझाव-ग्रहमंत्री हवाई निरिक्षण करें-(क्या दिखेगा- जंगलों से सलाम करते नक्सली और हवाई जहाज से हाथ जोड़ वोट मांगते मंत्री।) टेबलटेनिस का खेल चल रहा है- बॉल एक पाले से दूसरे पाले में पिंग पोंग, पिंग पोंग
नक्सलवादी की प्रतिक्रिया---अठ्ठास, तालियां, योजनाएं...इससे बड़ा धमाका, और पैसा, और प्रचार, बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा
18 मे—एक बार फ़िर धमाका- बस के साथ साथ पचास के करीब सुरक्षाकर्मी और सामान्य नागरिकों के परख्च्चे उड़ गये, कइयों के पेड़ों पे टंगे आज भी नजर आते हैं....कौन आम आदमी..उनमें से कई ऐसे गरीब नौजवान जो पुलिस में भर्ती होने के लिए परिक्षा देने जा रहे थे...नक्सलवाद सरकार की उपेक्षा के शिकार आम आदमी की रक्षा के लिए बना था? सच?
मुझे तो ये एक और रोजगार लगता है...कुछ नहीं कर सकते तो या तो नेता बन जाओ या फ़िर आतंकवादी/नक्सलवादी। दोनों के लिए एक ही योग्यता चाहिए-धूर्तता, क्रूरता, बेशर्मी और हर हाल में अपना मतलब साधने की कला
दिग्गविजय सिंह, लालू प्रसाद यादव, नरेंद्र मोदी के ब्यान—नक्सलवादियों के साथ नरमी से पेश आया जाए,
मेरे एहसास— गहरा आक्रोश( cold fury)
काश उस बस में लालू प्रसाद यादव की बारह की टीम सवार होती, तब देखते कि सेना भेजने की मांग सब से पहले कौन रखता। याद है न जब भारतीय हवाई जहाज अगवा कर कंधार ले जाया गया था और उसमें एक मंत्री की बेटी भी शामिल थी तो सरकार का जवाब क्या था?
मेरा दिल उन सब मांओं के लिए आज दुखी है जिनके जवान बेटे इस अर्थहीन हिंसा की बली चढ़ गये। नौ महीने पेट में रख कर जिन्हें इस संसार में लाया, परवान चढ़ते बेटों को देख मांओं के हृदय खुशी से लबलबाते होगें, आंखों में कितने सपने बसे होगें, बुढ़ापे की सुरक्षा का आश्वासन मिला होगा। वो सब एक पल में खत्म, किस लिए, सिर्फ़ अखबार में एक सुर्खी बनने के लिए।
ए सी केबिन में बैठे आला अफ़्सर पूछते हैं कि ये सुरक्षाकर्मी बसों में चढ़े ही क्युं, मना किया था न? जरा इन अफ़सरों से कोई पूछे तुमने जब इन्हें जंगलों की खाक छानने भेजा था तो इनकी इंसानी जरुरतों के लिए क्या इंतजाम करवाये थे। सुरक्षाकर्मी जान हथेली पर रख सेकड़ों मील जंगल में चलें और इनको थकान न हो, भूख प्यास न लगे, सिर्फ़ तुम्हें दोपहर एक बजे अपना लंच टाइम याद आये और फ़िर तीन बजे तक दोपहर की नींद।
आप कहेगें हां ये सब तो हमें पता है, हम भी दुखी हैं लेकिन हम कर क्या सकते हैं? तुम भी क्या कर रही हो, सिर्फ़ एक पोस्ट लिख रही हो। सही है, मैं भी उतनी ही बेबस हूँ सिर्फ़ मन ही मन उबलने के सिवा कुछ नहीं कर सकती।
लेकिन सुना है कि एक और एक ग्यारह भी होते हैं। क्या हम सब मिल कर कोई ऐसा रास्ता नहीं सोच सकते जिससे ये अर्थहीन हिंसा खत्म करने के लिए सरकार को मजबूर किया जा सके, ये वोटों की राजनीति को नकारा जा सके। हमारा जोर किसी और प्रकार के मीडिया पर नहीं पर सिटिजन जर्नलिस्म पर तो है। सुना है सिटिजन जर्नलिस्म में बहुत ताकत है। हमारे पास नेट की सुविधा है, आप सब लोग इतना अच्छा लिखते हैं, आप के पास की बोर्ड की ताकत भी है और अभिव्यक्ति भी, क्युं न हम सब ( खासकर रोज पोस्ट ठेलने वाले) मिल कर रोज एक ही विषय पर लिखें- ये आतंकवाद/नक्सलवाद के खिलाफ़ मोर्चा। अगर अलग अलग शहरों से, अलग अलग प्रोफ़ेशन से आने वाले लोग एक ही मुद्दे से त्रस्त दिखाई दिए तो क्या सरकार के कानों पर जूं न रेंगेगी?
क्या आप का की बोर्ड वो जूं बनेगा?
एक और खबर जिसने हमें विचलित किया- महाराष्ट्रा सरकार ने पुलिस कर्मियों की वर्दी का डिजाइन बदलने के लिए मनीष मल्होत्रा जैसे नामी फ़ैशन डिजाइनर को अनुबंधित किया है। वर्दी खाकी रंग के बदले नीले रंग की होगी…॥
मतलब पुलिस कर्मी और कार मैकेनिक/रेलवे इंजन ड्राइवर में कोई फ़र्क ही नहीं दिखेगा। मनीष मल्होत्रा जैसे महंगे डिजाइनर पर पैसे बर्बाद करने के बदले पुलिस कर्मियों के लिए अच्छी बुलेटप्रूफ़ जैकेट लेते तो हम करदाताओं का पैसा बर्बाद न होता न्।
12 comments:
kafi din baad kuch likhaa aap ne
आज तो आप बहुत ही आक्रोशित हैं सिस्टम से, लगता है बहुत दर्द हुआ है, दर्द तो हमें भी बहुत होता है पर अब इसको सहने की आदत हो गई है।
आज आप गुस्से में लगती हैं। वैसे आप गुस्से में और अच्छी लगती हैं।
THIS IS HOW WE CALLED IT iNCREDIBLE iNDIA
पूरी तरह सहमत हूँ आपसे.
फालतू विषयों पर तात्कालिक और अनर्गल पोस्ट्स लिखने से बेहतर हो यदि ब्लोगर्स अपनी रचनात्मक ऊर्जा को ऐसे विषयों पर लिखने में लगाएं जो या तो सामयिक सरोकार से जुड़े हों अथवा जिनकी सार्वकालिक वैल्यू हो.
संवेदना जब दम तोड़ दे तो किसका दम भरा जाये । जो हथौड़े लायक हों उनके कान में जूं का क्या कार्य ।
आपने अपने शब्दों के माध्यम से गहरे तक झिंझोड़ दिया है। संगठन में असीम बल है। उसी बल को रचनात्मक, सर्जनात्मक और मानवीयात्मक बनाने के लिए ब्लॉग जगत का कैसे उपयोग हो, इसी पर जरूर विचार करेंगे हम सब मिलकर। कल दिल्ली में होने वाले इंटरनेशनल दिल्ली हिन्दी ब्लॉगर मिलन में। http://nukkadh.blogspot.com/2010/05/23-3-6.html
ये डरपोक लोग है जो नक्सलियों से नरमी से पेश आने की बात करते हैं. आंध्र प्रदेश ने बता दिया था कि ये लातों के भूत हैं जहां से इन्हें लतिया कर भगाया गया था, ज़्यादातर इलाक़ों से. छत्तीसगढ़ में रमण सिंह ने भी यही बीड़ा उठाया है और संताप झेल रहे हैं. पर अब लड़ाई शुरू कर ही दी है तो हो ही जाए आर-पार... और कोई तरीक़ा नहीं. कायर का जीना भी कोई जीना है!
इन वोटमांगू डरपोकों की चली तो यहां भी नेपाल की ही तरह ये सत्ता पर काबिज़ हो जाएंगे ये नक्सली. तब इन मायोपिक उठाइगिरों को अक़्ल आएगी पर तब तक बहुत देर हो चुकी होगी. यह नहीं होना चाहिये. लोगों को चाहिये कि इन काहिलों को इन्ही के जूते से हांका जाए अगले चुनाव में...
आपने हम सबके आक्रोश और दर्द को शब्द दे दिए हैं...सरकार को तो सिर्फ कुर्सी बचाने की चिंता,वोट और अपने और अपने सात पीढ़ियों के ऐशो-आराम से मतलब है...वे क्यूँ समस्या को सुलझाने की पुरजोर कोशिश करें??...उतनी उर्जा वे जोड़ तोड़ बिठाने में ना लगाएं...मन बहुत क्षुब्ध है ,सच..
इसे कहते हैं अभिव्यक्ति। जो कुछ भी मन में चल रहा है उसे सामने धर देना। आपने आम भारतीय के मन में चल रही बात को शब्द दिए हैं। बना रहे गलत के प्रति आक्रोश और यह संवेदनाएं।
बाकी दिनेशराय जी की बात से सहमत तो होना ही पड़ेगा। :)
आप सब मित्र मेरी बात से सहमत हैं इसके लिए और मेरे ब्लोग पर पधारने के लिए धन्यवाद
बढिया पोस्ट है।
बाकी इन सब मसलों पर शायद बहुत राजनीति है। बुलेटप्रूफ़ जैकेट के लिये पैसे की कमीं किधर है भाई!
माइन फ़टने में जैकेट क्या काम करेगी?
ऐसे ही नियमित लिखती रहें।
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