मार्च के अंत में चैटियाते हुए संजीत ने कई बार एक पोस्ट का लिंक देते हुए इसरार किया कि हम जरूर देखें। अब संजीत जैसे दोस्त की बात टालना बहुत मुश्किल है। सो अगले ही दिन हमने वो पोस्ट देखी/ पढ़ी। पढ़ते पढ़ते अपनी आखों की चमक हम खुद महसूस कर सकते थे। हंस हंस के बुरा हाल था। ये मनिषा से शायद हमारा पहला परिचय था। मतलब पहले भी देखा होगा उनका ब्लोग लेकिन इस पोस्ट से ही वो हमारी यादाश्त में रजिस्टर हुईं।
उनकी पोस्ट पढ़ते पढ़ते हमारा एक बहुत पुराना सपना फ़िर से हमारी आखों में उतर आया और उलहाना देने लगा कि तुम तो हम को भूल ही गयीं। ये सपना था बम्बई से बाहर हाइवे पर अपनी ड्राइविंग स्किल्स अजमाने का। बहुत साल पहले इसे सच करने की कौशिश की थी, बम्बई से इंदौर छोटे भाई के साथ जा रहे थे। अब छोटे भाई को हड़काना कौन मुश्किल काम है? बस कह दिया कि कार हम चलायेगें। बम्बई से भिवंडी तक हमने बड़ी शान से गाड़ी दौड़ाई और फ़िर जब हाइवे डायटिंग कर इकहरा हो लिया तो हमारी हिम्मत जवाब दे गयी थी। उसके बाद बस ये सपना हमारे ख्यालों की अलमारी में कहीं धूल खा रहा था।
अब इतने बरसों बाद मनीषा की पोस्ट ने इस सपने को फ़िर से धो पौंछ कर सामने खड़ा कर दिया। इतवार की सुहानी सुबह हमने चाय की चुस्कियों के साथ एलान कर दिया कि अगले इतवार हम अकेले पूना जायेगें, शाम को लौट आयेगें। पति देव ने हमारी तरफ़ ऐसे देखा जैसे हमारे सर पर सींग उग आये हों। दरअसल पति देव ने सोचा था कि भिवंडी यात्रा के बाद हमारा ये भूत उतर चुका है। खैर निर्णय ये लिया गया कि हम सुबह अकेले जायेगें, लंच खायेगें, शाम को मेरे पतिदेव और बेटा बहू दूसरी कार में पूना पहुंचेगें और वापसी में पति देव मेरी कार चलायेगें और बेटा और बहू दूसरी कार से वापस लौटेगें। हमें इसमें पुरुषवाद दिख रहा था। क्युं जी? वापसी में गाड़ी ये दोनों बाप बेटा क्युं चलायेगें, जितनी अच्छी(?) गाड़ी हम चलाते हैं बहू उससे कई गुना अच्छी चलाती है और उसे तो हाइवे का अनुभव भी है। खैर, योजनाएं बनने लगीं लेकिन बात टलती गयी। हम एक बार फ़िर भूलभाल गये, तब तक मनिषा की दूसरी पोस्टे आ गयी, जो उतनी ही मजेदार थीं।
मई के पहले हफ़्ते में हम एक हफ़्ते की छुट्टी पे केरला चले गये( ससुराल है भाई)। खूब मजे रहे( उसके किस्से अगली पोस्ट में)। वहां से लौटे और ऐसा लग रहा था कि भई अब तो जिन्दगी सेट है, खूब मजे की कट रही है। तभी हम पर एक गाज गिरी। बेटे को पूना जाने का आदेश मिल गया। हमारा रो रो कर बुरा हाल्। यूँ तो खुद को कई बरसों से तैयार कर रहे थे कि बेटे को अपने कैरियर के लिए कभी भी बम्बई छोड़ के जाना पड़ सकता है पर इतना अचानक होगा…हम इसके लिए तैयार न थे।
बहू ने अपनी संवेदनशीलता का परिचय देते हुए कहा कि बेटा पहले जायेगा और बहू को एक हफ़्ते बाद हम छोड़ने आयें। " मम्मा यू वानटेड टू ड्राइव अप टू पूना" हम मान गये। निश्चय ये हुआ कि पतिदेव भी साथ में आयेगें। पतिदेव उम्मीद कर रहे थे कि हम अंतत: कहें कि हम नहीं ड्राइव करेगें लेकिन हम ने ऐसा कुछ न कहा। गाड़ी स्टार्ट करने के पहले पतिदेव की हिदायतों का दौर शुरु हो गया…।
1। सीट बेल्ट पहन कर चलाओगी ( आई हेट देट)
2। एक्स्प्रेस वे पर लेन नहीं काटोगी
3)स्पीड 60 से ऊपर नहीं जायेगी
4) चौथी हिदायत देते हुए कहा मुझे मालूम है तुम मानोगी नहीं पर फ़िर भी कह रहा हूँ कि धूप से बचने के लिए ये खिड़की पे लगे ब्लांइड उतार दो ।
हम चुप रहे। इसमें से सिर्फ़ एक हिदायत का पालन किया, सीट बेल्ट पहन ली। शाम को करीब 4 बजे घर से निकले। पतिदेव के मुंह पर तनाव की रेखाएं साफ़ दिख रहीं थी। जैसे जैसे हम एक्स्प्रेस वे पर चढ़ते गये उनके चेहरे की वो रेखाएं गहराती गयीं। बार बार हिदायत -- लेन मत काटो, स्पीद कम करो। हमने झुंझला कर कहा हमने तो एक्सेलेटर पर पांव ही नहीं रखा हुआ…॥:)
वो बोले ये नब्बे की स्पीड जो दिख रही है…क्या हवा गाड़ी को धकिया रही है?
अब ऐसा था जी कि गाड़ी किस स्पीड से भागेगी ये हम नहीं डिसाइड कर रहे थे ये तो रेडियो पर बजते गाने डिसाइड करते थे। रेसी गाना हो तो गाड़ी भी भागे और सेड गाना हो तो गाड़ी भी थोड़ी स्लो।
पतिदेव ने सोचा कि गाड़ियों के बारे में हमारा ज्ञानवर्धन करने का इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा। मौका भी है दस्तूर भी। सो हमारी क्लास लग गयी…।ये गाड़ियां इतनी हाई स्पीड पर जाने के लिए नहीं बनीं, स्पीडोमीटर के डायल पर मत जाओ। बहू पीछे बैठी मंद मंद मुस्कुरा रही थी। जब पतिदेव ने देखा कि हम मंद बुद्धी हैं और उनकी क्लास का कोई असर हम पर नहीं हो रहा तो उन्हों ने दूसरा हथियार अख्तियार किया। खपोली पार हो चुका था, हमारा ध्यान बंटाने के लिए उन्हों ने कहा, अब चाय के लिए रुका जाए। उन्हें उम्मीद थी कि चाय पीने के बाद वो स्टेरियंग व्हील अपने हाथ में ले लेगें, लेकिन ऐसा नहीं होना था सो न हुआ । हमने घाट चढ़ने का मजा लिया, फ़िर एक्स्रेस वे छोड़ पुराने हाई वे पे आ गये। करते करते अब शाम घिर आयी। देहू रोड पहुंचते पहुंचते सामने से आने वाली गाड़ियों की बत्तियां हमें परेशान करने लगीं। तब हमने कहा कि 'अच्छा लो'…।पति के मुंह पर शांती की जो चमक आयी वो तो बस देखने ही लायक थी, लगता था मानों किसी को फ़ांसी के तख्ते से ऐन मौके पर नीचे उतार दिया गया हो।
अब जगह जगह पूछा जा रहा था ' ए भाऊ, ये यरवदा जेल किधर है?' किसी पुलिस वाले से नहीं पूछा, 'कहीं कह दे कि जाना है क्या? चलो मैं पहुंचा दूँ'। आखिरकार करीब साड़े आठ बजे हम यरवदा जेल के सामने खड़े थे। घुप्प अंधेरा पर रोड पर गाड़ियों की आवाजाही। कुछ ही दूरी पर बेटे का ऑफ़िस्। बताया गया कि ये पूना के पोश इलाकों में से एक हैं । हमारी हंसी नहीं रुक रही थी। जेल और पोश एरिया, सही है बॉस, आज कल के नेता और भाई लोग, जेल तो पोश ऐरिया होगा ही।
खैर वहां से बेटे की गाड़ी के पीछे पीछे कल्याणी नगर पहुंचे उसके गेस्ट हाउस में। बेटे ने कहा जल्दी से चलो, खाना खाने के लिए यहां रेस्त्रां जल्दी बंद हो जाते हैं। हमने घड़ी देखी अभी तो नौ बजे थे, लेकिन पता चला यहां दस/ग्यारह बजे तक सब बंद हो जाता है। ह्म्म ! इसी लिए इसे रिटायर्ड लोगों का स्वर्ग कहा जाता था। सुबह करीब सात बजे उठे तो देखा नौकर समेत सब सो रहे हैं। हमने बाहर के नजारे का आनंद लेना शुरु किया, इतवार का दिन, सुबह आठ बजे का समय, निस्ब्धता इतनी कि अपनी ही सांसों की आवाज शोर लगे। न चिड़ियों की चह्चाह्ट, न गाड़ियों की आवाजाही की आवाज, न बच्चों की आवाज, न किसी बाल्कनी में बैठे किसी मनुष्य के अखबार के पन्ने पलटने की आवाज्।
करीब दस बजे नौकर महाराज अवतरित हुए तब जा कर एक प्याला चाय का नसीब हुआ। बाकि के लोग अब भी सो रहे थे। हम दोनों अखबार पढ़ने लगे। अखबार के चौथे पन्ने पर पहुंचे तो यहीं महाराष्ट्रा में एल पी रिकॉर्ड की एक प्रद्र्शनी के बारे में जानकारी दी गयी थी। जिसमें आज से सौ साल पहले के रिकॉर्ड्स भी थे। अभी कुछ दिन पहले दिलीप कवथेकर जब घर पर आये थे तो बता रहे थे कि इंदौर के पास के किसी गांव में एक गरीब किसान के पास भी ऐसा ही कुछ खजाना है और दिलीप जी ने अपने कुछ मित्रों के साथ मिल कर पैसा जमा कर उसे दिया ताकि वो उस खजाने की अच्छे से देखभाल कर सके और वो खजाना समय के अंधेरों में खो न जाए।
हमने तुरंत उनको फ़ोन लगा इस प्रदर्शनी की जानकारी दी। पता चला कि उनकी बेटी भी पूना में कार्यरत है। ये दुनिया कितनी छोटी है न? खैर नाश्ते के बाद हम वहां से लौट लिए। अच्छी पत्नी होने के नाते पति कि सेहत का ख्याल करते हुए हमने गाड़ी चलाने की जिद्द न की। बस रास्ते में जब जब पतिदेव ने लेन काटी, स्पीड 80 के ऊपर गयी, उन्हें उनकी क्लास याद दिलायी…॥:)
आते आते एक काम और कर आये, बहू की आखों में सपना भर आये कि वो अगले साल की कार रैली में हिस्सा ले, कहिए कैसी रही…:)
बोर तो नहीं हुए न?
14 comments:
बोर तो होना ही था :-)
ना कोई फोटो ना कोई रेसी गाना! कैसे मान लें कि स्पीड तेज थी :-D
वैसे, आपके अनुभव हमारे काम आएँगे, यह तो पक्का है
बी एस पाबला
वाह सफर कैसे कटा पता ही नहीं चला
बाप रे ,हाईवे पर कार ड्राइविंग रफ़्तार मांगती हैं ...दिमाग की और शरीर की भी ..अपुन के पास तो नहीं है!
और कार चलाये मुझे ३० -३५ वर्ष हो गए ....पुराने दिन याद आ गए अपुन के जब प्रधान मंत्री इंदिरा जी के काफिले की एक कार को पीछे से धकिया दिया था ...आपवी वी आई पी के कानवाय में कार चला के दिखायें तो मानू !
पाबला जी से सहमत हूँ। मानता हूँ कि आप गाड़ी चला रही थीं। लेकिन कैमरा बहू को तो दे सकती थीं। इतनी अच्छी रेसर हैं तो कैमरा तो जरूर ड्राइव कर सकती हैं।
Interesting post !
हाई वे पर पत्नी कार चलाये तो हम आँख बन्द रखते हैं वरना मूँह बन्द रखना मुश्किल हो जाता है. :)
खैर, आप दुरुस्त वापस आईं तो अब आगे के लिए आपकी भड़क तो खुल ही गई.
मस्त रहा वृतांत!
Speed thrills but kills... :)
बहुत सुंदर पोस्ट....
kya baat hai!
bhale hi manisha se parichay der se hua lekin unke likhe ke bahane aapko apna sapna yaad to aaya aur dekhiye karib karib use pura karne sa mauka bhi mil hi gaya aapko ise kahte hai sanyog na...
baki public demand apni jagah sahi hai ki na to koi pic hai na koi racy gana...so aap jano,
apan to bas aaoko lagatar blog pe likhta dekh kar hi khush ho lete hain jee
ड्राइविंग का प्रमाणपत्र हाईवे पर चलाकर नहीं वरन कानपुर में चलाकर मिलना चाहिये । आनन्द आ गया, हमें भी पुणे की याद आ गयी ।
बेहद रोचक पोस्ट....आपके साथ साथ हमें भी सफर का आनन्द मिल गया..
पुणे आकर आपने हमें बताया नहीं ? वो भी वीकेंड पर?
मजेदार पोस्ट!
वैसे हाईवे पर तो कोई भी गाड़ी चला लेता है। भीड़ में रेंगते हुये चलाइये तो जानें। :)
aannd a gya aapki mjedar post padhkar
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