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March 08, 2009


गांव वाले घर में अम्मा

आप सबकी तरह ब्लोग जगत ने मुझे भी बहुत से दोस्त दिए हैं भिन्न भिन्न प्रदेश, व्यवसाय,और उम्र के। आप सब से मिल कर मेरी सोच मेरी जिन्दगी बहुत समृद्ध हुई है। अपनी जिन्दगी में इतनी संतुष्ट मैं पहले कभी न थी,खैर उसके बारे में फ़िर कभी। अभी तो आइए मिलिए बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी, मेरे एक मित्र योगेश समदर्शी से। इस समय मेल टुडे में सीनियर इंफ़ोग्राफ़र, गाजियाबाद निवासी हैं। लेकिन मूलत: लेखक, कवि, पत्रकार,और समाजसेवी है। बहुत जल्द इनका एक कविता संकलन प्रकाशित होने वाला है ' आई मुझको याद गांव की'
अब हमारा गांव से नाता उतना ही है जितना किसी बच्चे का चांद से। गांव या तो फ़िल्मों में देखे या प्रेमचंद की कहानियों में। समदर्शी जी की यूं तो सभी कवितायें मुझे अच्छी लगीं लेकिन एक कविता यहां आज 'नारी दिवस' के उपलक्ष्य पर आप सब के साथ बांट रही हूँ (उनकी अनुमति ले कर )

गांव वाले घर में अम्मा


सुबह सवेरे जग जाती थी, गाय धू कर दूध बिलोकर.
गांव वाले घर में अम्मा, सब कुछ थी कुछ भी न होकर.
दूध मलाई और पिटाई, तक उसके हाथों से खाई.
रोज सवेरे वह कहती थी, उठो धूप सर पे है आई.
उपले पाथ रही अम्मा को, याद करूं हूं अब मैं रोकर.
गांव वाले घर में अम्मा, सब कुछ थी कुछ भी न होकर.


बापू, चाचा, ताऊ दादा, सबकी एक अकेली सुनती.
गलती तो बच्चे करते थे, पर अम्मा ही गाली सुनती.
रोती रोती आंगन लीपे, घूंघट भीतर लाज संजोकर.
गांव वाले घर में अम्मा, सब कुछ थी कुछ भी न होकर.
काला अक्षर भैंस बताती, लेकिन राम चौपाई गाती.
पूरे घर के हम बच्चों को, आदर्शों की कथा बताती.
सत्यवादी होने को कहती, हरिश्चंद्र की कथा बताकर.
गांव वाले घर में अम्मा, सब कुछ थी कुछ भी न होकर.


पढीं लिखीं बहुंओं को अम्मा, बस अब तो इतना कहती है.
औरत बडे दिल की होवे है, इस खातिर वह सब सहती है.
पेड भला क्या पा जाता है, अपने सारे फल को खोकर.
गांव वाले घर में अम्मा, सब कुछ थी कुछ भी न होकर.



यूं तो आज नारी सशक्तिकरण की कई बातें हुई होगीं, वो अपनी जगह सही भी हैं लेकिन इस कविता को पढ़ कर मुझे लगा कि ये गांव की अम्मा भी उतनी सशक्त है जितनी मैं शहरी अम्मा। आप क्या कहते हैं?

18 comments:

Yunus Khan said...

सुंदर कविता । समदर्शी जी को हमारी ओर से साधुवाद पहुंचे ।

Udan Tashtari said...

योगेश भाई की कविताऐं शुरु से ही मुझे प्रभावित करती हैं. आज भी बहुत सुन्दर रचना पेश की. आपका आभार.

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत सुंदर भावपूर्ण कविता है। इस कविता ने बहुत कुछ स्मरण करा दिया।

Anonymous said...

रोती रोती आंगन लीपे, घूंघट भीतर लाज संजोकर.
गांव वाले घर में अम्मा, सब कुछ थी कुछ भी न होकर.
काला अक्षर भैंस बताती, लेकिन राम चौपाई गाती.
पूरे घर के हम बच्चों को, आदर्शों की कथा बताती.


बहुत सुंदर भावपूर्ण कविता

Himanshu Pandey said...

"गांव वाले घर में अम्मा, सब कुछ थी कुछ भी न होकर." इन पंक्तियों ने मन को भाव-भावना से भर दिया.
धन्यवाद ।

आभा said...

अम्मा(शहरी ) आप और गाँव वाली जो कुछ भी नहोकर सब कुछ थी दोंनों को महिला दिवस पर बधाई .....

Gyan Dutt Pandey said...

ओह, गांव की स्त्रियों के कई चरित्र हैं जिन्होंने अकेले दम पर्दे में रह कर भी घर-खेत का कुशल प्रबन्ध किया। आदमियों से बेहतर।

योगेश समदर्शी said...

आपने मेरी इस कविता का कद बडा कर दिया आज अपने ब्लोग पर लगा कर.. आपका आभार है. और टिप्पणी में इस कविता को पसंद करने वालों के प्रति भी मेरा आभार और अभिवादन..

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

ऐसी ही होतीँ हैँ "अम्मा" --
श्री योगेश समदर्शी जी की कविता ने
उन्हेँ साकार कर दिया है
और आपने इसे पढवाया ..
आभार अनिता जी ..
स स्नेह,
- लावण्या

सागर नाहर said...

माँ की बात चली हो तो कुछ लिखने- कहने - सुनने के लिये शब्द भी नहीं होते हमारे पास, बस सर और आँखें आदर से झुक जाती है।
कुछ समय पहले मैने अपने ब्लॉग पर इसी तरह की एक कविता पोस्ट की थी, जरूर पढ़ियेगा।
बहुत दिनों पर आज अचानक, अम्मा छत प आई है

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर कविता है ... इसे पढाने के लिए योगेश समदर्शी जी के साथ ही साथ आपको भी बहुत बहुत धन्‍यवाद।

Sanjeet Tripathi said...

सुंदर स्पर्शी कविता।

मीनाक्षी said...

मर्मस्पर्शी कविता.. महिला दिवस पर बधाई

mamta said...

इस कविता से बहुत कुछ याद आ गया ।
देर से सही महिला दिवस की बधाई ।

और हाँ आपको और आपके परिवार को होली मुबारक ।

रंजू भाटिया said...

सुन्दर कविता ..बहुत बढ़िया .होली मुबारक आपको

नीरज गोस्वामी said...

गावं की अम्मा लाजवाब...
आपको होली की शुभ कामनाएं ...
नीरज

Asha Joglekar said...

पढीं लिखीं बहुंओं को अम्मा, बस अब तो इतना कहती है.
औरत बडे दिल की होवे है, इस खातिर वह सब सहती है.
पेड भला क्या पा जाता है, अपने सारे फल को खोकर.
गांव वाले घर में अम्मा, सब कुछ थी कुछ भी न होकर.

बहुत ही सुंदर कविता पढवाने का धन्यवाद । आपने वापस लिखना शुरू किया बधाई ।

Satish Saxena said...

होली की शुभकामनायें !