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March 06, 2009
होली के दिन भी क्या दिन थे ,
होली के दिन हम बहुत उदास रहते थे। बम्बई की होली में वो बात नहीं जो अलीगढ़ की होली में थी। वहां तो सुबह तीन बजे उठ कर होलिका जलायी जाती थी और उसी आग में गेहूं की नयी बालियां भूनी जाती थी , होली की मुबारकबाद देने का सिलसिला वहीं से शुरु हो जाता था, लोग एक दूसरे को भुनी बालियों के कुछ दाने देते और गले मिलते। लोगों के बड़े बड़े मकान जहां आगंन में हौद बना होता था। रात को ही उसमें पानी भर कर टेसू के फ़ूल छोड़ दिये जाते थे। सुबह तक पानी पीला रंग लिए बर्फ़ के जैसे ठंडा होता था। घर पर जो भी आता उसे उस हौद में एक बार तो जरूर ढकेला जाता था। देवर भाभी की होली तो देखते ही बनती थी। लोग झूठमूठ का ना नुकुर करते, होली न खेलने के कई कारण गिनाते लेकिन दरवाजे पर खड़ी टोली घ्रर में घुस कर सबको रंग डालती। सबसे बड़ा अभागा वो होता जिसके घर कोई जबरदस्ती करने न पहुंचता। रंगों में सराबोर होने के बाद खाने पीने का दौर चलता, कांजी की गाजर और वड़े, खोये की गुजिया, भांग के पकौड़े, ठंडाई, और भी न जाने क्या क्या।
यहां बम्बई में आये तो पता लगा यहां तो कोई किसी के घर में नहीं घुसता, सबके कमरे खराब हो जायेगें न, दरवाजे पर भी नहीं जाते, घर के बाहर भी खराब होने का डर रहता है, सिर्फ़ नीचे बिल्डिंग के अहाते में खड़े हो कर आवाजे लगायी जाती हैं। जो आ जाए वो ठीक जो नहीं आये उन के साथ कोई जोर जबरदस्ती नहीं जी सब के अपने मानवाधिकार हैं। अगर आप किसी के दरवाजे पर चले भी गये तो वो फ़ट से दरवाजा बंद कर लेगें और फ़िर कितना भी घंटी बजाओ, नहीं खोलेगे। तब अगर मन नहीं तो दक्षिण भारतीय कह देगें , हमारी तरफ़ होली नहीं खेली जाती और हमें ये बिल्कुल पसंद नहीं। आप अपना सा मुंह ले कर वापस आ जाएं। किसी के घर कोई पकवान नहीं बनते। लोग रंग खेलने के बाद भूख लगती है तो जाके बाजार में कोई दुकान ढूंढते हैं और वहां से बड़ा पाव या फ़ाफ़ले और जलेबियां लायी जाती है। फ़ाफ़ले एक गुजराती व्यजंन है जो बेसन से बनाया जाता है। गुजिया को यहां करंजी कहा जाता है और वो भी महाराष्ट्रियन के घर बनती हैं, मावे की जगह घिसे हुए खोपरे और चीनी के साथ्। मावे की गुजिया का स्वाद अभी तक जीभ पर है फ़िर करंजी का स्वाद कैसे चढ़ेगा जी। जूहू पर लोग अपनी अपनी सोसायटी में होली खेलने के बाद समुद्र में नहाने चले जाते थे, खूब शौर मचाते हुए। इसमें आदमी औरत सभी शामिल होते थे। सारा रंग समुद्र के हवाले कर के ही लोग शाम तक घरों को लौटते थे। अब तो खैर वो बात नहीं रही। सत्तर के दशक से ही होली के दिन जूहू बीच पर गुंडों का राज होने लगा और महिलाओं के लिए समुद्र स्नान एक सपना बन कर रह गया। सत्तर के दशक में हम जब जूहू छोड़ वापस चेम्बूर और फ़िर नवी मुंबई की तरफ़ बढ़े तब तक जूहू तट काफ़ी गंदा हो चुका था। जगह जगह लोग खुद को हल्का करने को बैठे दिख जाते थे और रेता पर चलने का आनंद हवा हो रहा था। अब तो सुना है कि रेता के व्यापारी वहां से रेता चोरी कर बाजार में बेच रहे हैं और वहां बहुत कम रेता बची है। दुकाने भी बेतहाशा बड़ गयी हैं । वेश्यावृति , शराबखोरी, गुंडा गर्दी अब जूहू पर आम बात है। अगर कोई रिश्तेदार आ कर कहता है कि समुद्र देखना है तो हम जूहू का रुख नहीं करते। धीरे धीरे होली का त्यौहार अब फ़िल्मों में ही सिमट कर रह गया है। चालिस की दहलीज पार करते करते लोग होली को भूल जाते हैं। रंगों में मिलावट के चलते बच्चों को भी अब रंगों से खेलने के लिए मना किया जाता है। हमारी संस्कृति का एक और तनाव मिटाने वाला, लोगों को एक सूत्र में बांधने वाला सबब खतरे में है।
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12 comments:
आपने हमारी जयपुर की होली की याद ताजा कर दी, वहां भी ये सब धमाल हुआ करता था और मावे की गुझिया...वाह वा..वा...मुहं में पानी आगया...यहाँ मुंबई में तो देखे भी नहीं मिलती...सच उत्तर भारत में ही होली का असली रंग देखने को मिलता है...
गुझिया पर शिव ने एक पोस्ट लिखी है जिसमें उसने गुझिया पर मेरी और से शेर डाले हैं....
गज़ब की ये मिठाई है कहें जिसको सभी गुझिया
बिना मावा भरे किसकी बता अच्छी बनी गुझिया
कभी तुम भूल कर मत देखना इसको हिकारत से
अगर किस्मत में हो लिख्खी तभी मिलती सही गुझिया
नीरज
सच लिखा आपने ...
होली तो सब कहीं बदली है। लेकिन रंग अब भी बरकरार हैं।
अब कहीं ना होली है ना दिवाली है बस है तो केवल व्यस्तताएं समय की कमी
दिल दुखी हो जाता हे आज के त्योहारों को देखकर और आज से दस साल पहले त्योहारों को देखकर
अब तो बस नाम भर को है की कोई त्योहार है ..बाकी तो लफ्जों में लिख लो तो लगता है हो गया त्योहार ..जुहू बीच की दुर्दशा पढ़ कर दिल्ली की यमुना का हाल जैसा लगने लगता है ..अच्छा लिखा है आपने
aapki yaha post pasand aayi.
ise ratlam,jhabua(M.P.), Dahod(gujarat) se prakashit Dainik Prasaran me prakashit karane ja rahan hoo.
kripyaya, aap apana postal address send karen, taki prati post ki ja saken.
pan_vya@yahoo.co.in
पिछले १० सालों से होली छूटी हुई थी. पिछले वर्ष अति उत्साहित थे बचपन वाली बातों के साथ मगर कोई खेलने वाले ही नहीं मिले.
वाकई, खो सा गया है यह त्यौहार..
अनिता जी ,
समय के साथ साथ कितना कुछ बदल गया है ...शायद हम भी ..मगर दिल है कि फिर भी मधुर यादोँ को सँजोये आज भी राह तकता है सुखद क्षणोँ की और मधुर अनुभूतियोँ की ..यही एक सच है ..
बहुत अच्छा लगा ये भी ..
स स्नेह,
- लावण्या
हम तो रंग की धूल से अलर्जी के चलते होली का आनन्द ले नहीं पाते।
कमी पर्याप्त गुझिया खा कर करते हैं!
सही कह रही हैं आप्। हम तो छोटे से शहर मे भी इस प्यार के देशी त्योहार को धीरे-धीरे दम तोड़ते देख रहे हैं।महानगरो की हालत की कल्पना कर सकते हैं।ज्ञान जी कि तरह मै भी एलर्जी का मरीज़ हूं,मगर मै अस्थमा होने का खतरा उठा कर भी इस प्यार के त्योहार को जी भर कर मनाता हूं।शायद रायपुर मे सबसे देर तर तक़ रंग प्रेस क्लब मे ही खेला जाता है।
होली की रंग-बिरगी बधाई। होली है।
अनीता जी आज बड़े दिनों बाद आपको पढ़ रहे है ।
इलाहाबाद मे खेली होली की तो बात ही मत पूछिए ।पूरे २ दिन तक होली खेलते थे । पर अब यहाँ गोवा मे हम कुछ लोग यु.पि. बिहार वाले मिलकर होली खेल लेते है (१ घंटा बस ) और गुझिया और मालपुआ खाकर मना लेते है होली ।
होली की बधाई
anita ji aaj aapke lekh se pata chala aap hamare karibi hain... main etah se hu... yaha ki holi k bare me aa kafi likh chuki hain... sach yahi hai ki holi ka asli maja apne brij chhetra me hi hai.
wo dhmal, wo gujhiya dahi-bade ka swad aur kaha....
holi ki badhaiyan....
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