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March 08, 2008

हैप्पी विमेन्स डे ?

हैप्पी विमेन्स डे ?


आज सुबह से ही हर तरफ़ हैप्पी विमेन्स डे का शोर है, सुबह सुबह रेडियो लगाया तो वहां भी यही चर्चा थी, दोपहर को ब्लोगवाणी में घूमी तो वहां भी अनेक पोस्टें इसी विषय पर , ढेरों फ़ोन काल्स और सब महिला सहकर्मी एक दूसरे से हाथ मिलाती यूं लग रही थीं जैसे ऑस्ट्रेलियाई विकेट ले कर हमारे खिलाड़ी।
अभी तक तो विविध भारती पर, ऑल ईंडिया रेडियो पर दिन के एक दो घंटे सिर्फ़ औरतों से संबधित कार्यक्रम दिए जाते हैं जो अच्छे भी लगते हैं पर अब तो पूरा एक रेडियो चैनल एफ़ एम 104.8 म्याऊं सिर्फ़ महिलाओं का चैनल आ गया है, मर्दों को सिर्फ़ शनिवार के दिन इस चैनल का हिस्सा बनने की छूट है। आज सुबह से इस चैनल पर बड़ी धूम मची हुई थी। एंकर बार बार श्रोताओं को फ़ोन पर ये बताने के लिए कह रही थी कि उनकी जिन्दगी में किस महिला का सबसे ज्यादा प्रभाव है या था। जाहिर है फ़ोन करने वाली महिलाएं ज्यादातर अपनी माँ के गुणगान कर रही थीं और ये स्वाभाविक भी है।
किसी ने कहा मौसी से बहुत प्रभावित हूँ तो किसी ने किसी और का नाम लिया। सिर्फ़ एक लड़की ने कहा कि उसकी जिन्दगी को अनेक महिलाओं ने प्रभावित किया और किसी एक का नाम लेना दूसरों के साथ अन्याय होगा। यदि वह सिर्फ़ मां का नाम लेती है तो उन महिला टीचरों के साथ अन्याय करती है जिन्हों ने उसके जीवन को घड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

प्रोग्राम सुनते सुनते मेरे मन में ख्याल आ रहा था कि इनकी बातें सुन कर ऐसा लगता है मानो इनका संसार लोकल ट्रेन के लेडिस डब्बे के जैसा है, जिसमें पर पुरुष तो क्या किसी पुरुष स्वजन की छाया भी नहीं। स्वभाविक था कि एंकर का पूछा सवाल मुझे भी सोचने पर मजबूर कर रहा था कि मेरे जीवन को घड़ने में ( चाहे जैसा भी ढंगा/बेढंगा घड़ा गया है) किस किस की अहम भूमिका रही।
माँ तो याद आयी हीं जिन्हों ने कभी प्रतक्ष्य रूप से तो कभी अप्रतक्ष्य रूप से मेरे विचारों को, मेरे मूल्यों को आकार दिया, पर मेरी यादों के झरोखों से निकल मेरे पिता का चेहरा भी आखों के सामने छा गया।
सहसा हमें लगा कि एंकर का प्रश्न ही गलत है, किस महिला ने तुम्हारे जीवन को प्रभावित किया, के बदले में पूछना चाहिए कि किस व्यक्ति ने तुम्हारे जीवन को प्रभावित किया।
जिस तरह का पुरुष प्रधान हमारा समाज है ऐसे में अगर मेरे पिता प्रोत्साहन न देते तो क्या मैं उच्च शिक्षा प्राप्त कर पाती। आज भी याद है मुझे वो दिन जब ग्यारहवीं पास कर हमने घर में ऐलान कर दिया था कि हम आगे पढ़ने में अपना वक्त बर्बाद न करेगें। पिता के सर पर तो मानों गाज ही गिरा दी थी हमने। हमारा तर्क था कि अगर पढ़ाई कर के कैरिअर बनाना है और कैरिअर बनाने का मतलब है आर्थिक स्वालंबन प्राप्त करना है तो फ़िर चार साल क्युं बर्बाद किए जाएं , कैरिअर तो हम आज भी बना सकते हैं।

नये नये स्कूल से निकले थे। पिता का दफ़्तर और घर एक ही बिल्डिंग में होने की वजह से अक्सर टहलते टहलते ऊपर तीसरी मंजिल पर पिता के दफ़्तर चले जाया करते थे। पिता तो अपने काम में मशगूल होते थे, हम बाहर बैठी उनकी सेक्रेटरी की टाइपराइटर पर तेजी से नाचती उंगलियों को मंत्र मुग्ध से घंटों निहारते रह्ते। उसका सलीके से संवारा बड़ा सा जूड़ा,लिप्सटिक से रगें होंठ, ऊंची एड़ी की सेन्डिल और बड़े सलीके से लिपटी साड़ी देख हमारा मन वो सब पाने को यूं मचला कि हम ये सब पाने के लिए चार साल तक इंतजार नहीं करना चाहते थे। हमने पिता से कह दिया कि हमें भी सेक्रेटरी बनना है।
आज सोचते हैं तो पिता के लिए श्रद्धा से सिर झुक जाता है कि कितना संयम से काम लेना पड़ा होगा उन्हें। उन्होंने एक बार भी नहीं कहा कि सेक्रेटरी का काम तुम्हारे लिए नहीं। बड़ी मुश्किल से मुझे समझाया कि अगर पढ़ लोगी तो इससे भी बड़े दफ़्तर में जा सकोगी, ऐसा ही परिधान पहन कर इससे भी बड़ी कुर्सी पर बैठ सकोगी। हमें उनकी सेक्रेटरी की पहियों पर घूमने वाली कुर्सी भी बहुत अच्छी लगती थी। वो कुर्सी सफ़लता की निशानी थी, जो जितना सफ़ल उसकी उतनी ही ज्यादा आरामदेह बड़ी सी कुर्सी। तो समझिए कि उस कुर्सी के लालच में हमने सेक्रेटरी के पद का लोभ छोड़ दिया। आज जब किसी अधेड़ उम्र के व्यक्ती को जीविकापोर्जन की लड़ाई में ये कहते सुनते है कि काश हम समय पर पढ़ लिए होते तो लगता है उस समय अगर पिता ने हमारे जीवन को कॉलेज के जीवन की तरफ़ न मोड़ा होता तो? वो सेक्रेटरी वाला फ़ेस टेंपररी था ,एक बार कॉलेज की जिन्दगी में रम गये तो हम उस सेक्रेटरी को पूर्णतया भूल गये। कॉलेज के दिनों की तरफ़ भी मुड़ कर देखते हैं तो हमें प्रभावित करने वाले सभी टीचरस पुरुष ही थे- इतिहास वाले संघवी सर, मनोविज्ञान पढ़ाने वाले सांवत सर, लोजिक के लिए वनमाली सर जो बोर्ड पर ऐसे लिख सकते थे जैसे कॉपी में लिख रहे हों, हमारी बेतुकी कविताओं की भी तारीफ़ करते हिन्दी के ठाकुर सर।

उससे भी पहले हमारी यादें बचपन की तरफ़ लौटती हैं तो एक अमूर्त सा चेहरा याद आता है। बात अलिगढ़ के दिनों की है, हम शायद सातंवी क्लास में थे, बेहद उधमी, हर नये टीचर की खबर लेना मानों हमारा जन्मसिद्ध अधिकार था। शहर था छोटा, गिने चुने कॉलेज , हमारे पिता प्रख्यात प्राध्यापक, जो भी हमारे स्कूल में टीचर के पद पर आता वो उनका शिष्य रह चुका होता, ऐसे में हम इन टीचरों के दिलों में खास स्थान पाते।
हमारी एक टीचर की शादी होने जा रही थी अत: वो एक महीने की छुट्टी पर जाते जाते अपने भाई को एक महीने के लिए अपने स्थान पर लगा गयी। मुझे आज भी याद है, ये भाई साहब का नाम था संतोष, ये भी अपनी बहन की तरह हमारे पिता के छात्र रह चुके थे और अभी अभी स्नातक की परिक्षा पास कर हटे थे।
क्लास में हमारी मस्ती चरम सीमा पर थी, हमने जैसे मन में ठान लिया था कि हम इन महाशय को पढ़ाने न देगें और अपनी प्यारी टीचर के आने का इंतजार करेगें।
संतोष महाशय की नाक में दम हो गया। एक तो पहले कभी इतने सारे बागड़ बिल्लों को, नहीं नहीं बिल्लियों को( गर्ल्स स्कूल था न) संभालने का कोई अनुभव नहीं था, ऊपर से उनकी सरगना थी अपने प्रिय आदरणीय टीचर की बेटी, कुछ कहा तो घर जा कर पता नहीं क्या क्या कहे और फ़िर सर पता नहीं मेरे बारे में क्या क्या सोचें?
एक दिन हार कर उसने मुझसे मुखातिब हो कर कहा, " बड़ के पेड़ के नीचे कोई बड़ा पेड़ नहीं उगता"। उस कोमल आयु में भी हम न सिर्फ़ उसका आशय समझ गये, वो बात हमको इतनी चुभ गयी कि आज तक हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत है। जब भी किताबों के साथ बैठते, संतोष महाशय के शब्द अंदर तक कचौट जाते। हमने ठान लिया कि हम पिता से ज्यादा पढ़ कर दिखायेगें। बाद में हमने जब एम ए करने की बात की और पिता को संतोष वाली बात बताई तो पता नहीं मन ही मन उन्होंने संतोष को कितनी दुआएं दे डालीं।
अगर मम्मी कभी कहतीं कि घर के काम करने की आदत डालो तो पिता जी फ़ौरन हमारे बचाव को आ जाते और एक्दम स्ट्रिक्ट हिदायत देते कि हमें घर के कामों में न उलझाया जाए, हम सिर्फ़ पढ़ाई करें। एम ए के बाद मम्मी जोर देने लगी कि अब हमारी शादी हो जानी चाहिए, पर हम अब मेनेजमैंट का डिप्लोमा करना चाह्ते थे, वो पिता ही थे जिन्होंने अपना भार उतारने के बदले हमारा साथ देने का निश्चय किया। कालांतर में शादी के बाद हमने एम फ़िल करने का मन बनाया, एक बार फ़िर मेरे पिता खुशी से मेरा साथ देने के लिए तत्पर दिखाई दिये और माँ भी। दोनों ने कहा तुम बच्चे की चिंता मत करो हम संभाल लेगें तुम बस अपनी पढ़ाई करो। कोई मुस्कुरा कर कहे कि इसमें कौन सी बड़ी बात हुई, आज कल तो सभी पिता अपनी लड़कियों को पढ़ाते ही हैं। हां सच है, लेकिन मेरे पिता ने बहुओं को बेटी से बढ़ कर माना, बहु को भी शादी के बाद पढ़ने के लिए उतना ही प्रोत्साहन दिया जितना बेटी को। उनकी पक्की हिदायत थी कि पढ़ाई के दौरान बहु से भी कोई काम न कराया जाए और सिर्फ़ पढ़ने दिया जाए।
असल में जिन्दगी जीना तो तब शुरु हुआ जब तीसरा पुरुष हमारे जीवन में पहले सखा और फ़िर पति बन कर आया। इस प्राण देयी पुरुष के बारें में हम अलग से फ़िर कभी लिखेगें, यहां संक्षिप्त में लिखने में उस रिश्ते के साथ अन्याय होगा।
अब बताइए ऐसे में अगर हमें लगता है कि मेन्स डे ना मनाना पुरुषों के साथ बहुत अन्याय है तो क्या गलत सोचते हैं?
:)

27 comments:

सोनाली सिंह said...

वस्तुतः नारी को लेकर पुरुष दुविधा में हैं क्योंकि नारी के बगैर काम चल नहीं सकता और इसे बराबरी का दर्जा देना भी मुश्किल है। आज जरूरत है एक नए समाज की और इसकी रचना नारी ही करेंगी।

राज भाटिय़ा said...

अनीता जी, आप का आज का लेख ओरो से थोडा हट के हे,सच बोलु तो इस लेख मे मेरे विचार,मेरी सोच भी हे,धन्यवाद एक अच्छे लेख के लिये,अच्छा लगता हे आप के लेख पढ कर
ओर अब आप को महिला दिवस की बधाई.

Sanjeet Tripathi said...

ह्म्म, सच कहूं तो आज वीमेंस डे को यह लेख आपके बैलेंस्ड मानसिकता को दर्शाता है

Pankaj Oudhia said...

मै तो यही कहूंगा कि आपको लगातार लिखना चाहिये। इससे हम पाठको को भी नया जानने और सोचने को मिलेगा और आपका मन भी प्रसन्न रहेगा।

अनूप शुक्ल said...

बहुत अच्छा लेख है। संतुलित सोच। प्रेरणा के न जाने कितने-कितने रूप होते हैं। नारी को लेकर न जाने किसको दुविधा होती है लेकिन उनके बिना मानव समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती । बराबरी का दर्जा उनका हक है।

Udan Tashtari said...

बेहतरीन आलेख...हैप्पी विमेन्स डे.

Sajeev said...

excellent anita ji, this is the best thing i heard from a women on this women"s day
keep it up.... this type of balanced mentality is the need of the time both from man and women

Anonymous said...

मै'म लेख बहुत अच्छा है पर आपने लिखा है "एंकर बार बार श्रोताओं को फ़ोन पर ये बताने के लिए कह रही थी कि उनकी जिन्दगी में किस महिला का सबसे ज्यादा प्रभाव है या था।"
तो औरतें महिलाओं का ही तो ज़िक्र करेंगी? यदि प्रश्न व्यक्ति के बारे में होता तो अलग बात थी।
स्त्री जितनी संकीर्ण वातावरण में (रह रही है और )रह चुकी है वह पुरुष के समान बाहरी दुनिया से इतनी वाकिफ़ नहीं इसी कारण से वह घर के काम को और पिता बाहरी दुनिया से संबंधी बात को ज़्यादा समझते रहे हैं। पर आज समय बदला रहा है।

Vikash said...

आपका यादों का झरोखा बहुत पसंद आया. लिखने की शैली ने मन लुभा लिया :)

Anita kumar said...

मेरे अन्जान दोस्त…सबसे पहले तो आप आये उसके लिए धन्यवाद, नाम बता देते तो ठीक से धन्यवाद कह पाते। हम यही कह रहे हैं कि इतने संकीर्ण प्र्शन क्युं पूछे जा रहे थे। सवाल वातावरण का नहीं सोच का है

Niharika said...

As always... it's an emotional write-up along with a touch of humour in it. :)

दिनेशराय द्विवेदी said...

पुरुष प्रधान समाज की यह विशेषता है कि अपनी संतानों को समान रुप से प्यार करने वाला पिता सदैव अपनी पुत्रिय़ों के बारे में अधिक चिन्ता रखता है और उन को हमेशा शिक्षा-दीक्षा, लालन-पालन तथा स्वतंत्रता में पुत्र की अपेक्षा अधिक तरजीह देता है। उस की यहाँ तक इच्छा रहती है कि उस की पुत्री अपने विवाहित जीवन में स्वावलम्बी रहे, यहाँ तक कि वह उस के पति से भी सम्मान प्राप्त करने लायक योग्यता प्राप्त कर ले जिस से उस का जीवन निष्कंटक बीते। विवाह के बाद जहाँ पिता अपने पुत्र से परिवार के आर्थिक भार को संभालने की अपेक्षा रखते हैं वहीं उन की यह भी अपेक्षा रहती है कि पुत्र उस की बहनों की आवश्यकता पड़ने पर मदद भी करे। सभी शिक्षित मध्य वर्गीय परिवारों की यही स्थिति रही है।
आप के पिता एक श्रेष्ठ पिता रहे हैं। मैं उन्हें इस महिला दिवस पर नमन करता हूँ।
और हाँ, मेरी पुत्री से मेरी कल रात दस बजे करीब फोन पर बात हुई। कल महिला दिवस पर उसे महिला दिवस की विश करने वाला मैं पहला व्यक्ति था।

अजय कुमार झा said...

anita jee,
sadar abhivaadan. meow fm main bhee sun rahaa tha magar mujhe is baat ki khushi hai kam se kam koi to aisee jagah hai jo sirf mahilaaon ke liye hai . aapke lekh ne mahilaa diwas kee saarthaktaa ko aur bhee badhaa diyaa.

सागर नाहर said...

बहुत बढ़िय़ा लेख।
मुझे लगता है इस लेख कीए काद महीने पहले जरूरत थी जब बिना बात स्त्री पुरुष को लेकर झगड़े पैदा किये गये थे।
महिला दिवस पर हार्दिक शुभकामनायें।
:)

Dr Mandhata Singh said...

अनीता जी। महिला दिवस की यह व्याख्या करके आपने न्याय किया है। सच पूछिए तो महिला दिवस पर मैंने अभी तक कुछ नहीं लिखा। अब लिखूंगा भी नहीं क्यों जो आपने बयां किया है, उसके आगे मुझे यही कहना है कि आपके पिताजी जैसा बाप हर बेटी को मिले। वादा करता हूंकि मैं भी अपनी बेटियों (दो बेटियां हैं ) को पढ़ने और आगे बढ़ने की उतनी ही तरजीह दूंगा जितनी आपके पिताजी ने आपको दी। आपको महिला दिवस की शुभकामनाएं और इस सार्थक लेख के लिए धन्यवाद। आपके इस लेख को मैंने कुछ और लोगों को भेज दिया है।

Gyan Dutt Pandey said...

अब इस विषय पर हम क्या कहें। हमें तो वैसे ही लोगों ने लेबल थमा रखे हैं।
आपने बहुत मन से और बहुत अच्छा लिखा।

डॉ. अजीत कुमार said...

आंटी,
आपने महिला दिवस के मौके पर एक अच्छी पोस्ट से हमें रूबरू कराया जिसके लिए पहले तो मैं आपको धन्यवाद दे दूँ.
आपने अपनी जिन्दगी के उतार चढावों के उन खूबसूरत पलों को हमारे साथ हमारे साथ जिया , अच्छा लगा.
आजकल जहाँ माता दिवस, पिता दिवस, दोस्ती दिवस, प्रेम दिवस आदि मनाये जाने लगे हैं तो लगता है किसी दिन विशेष को नाते सिकुड़ जाते हैं. अगर इसी तरह महिला दिवस पर उदघोषक ने लोगों से पूछ लिया कि किस महिला का उन पर इन्फ्लुएंस है तो ग़लत नहीं है. यह तो समय की मांग है.
इसमें किसी को भी कोई शक नहीं होगा कि व्यक्ति अपनी पूरी जिन्दगी में अलग अलग व्यक्तियों से उत्प्रेरित होता है. हाँ, किसी की छाप कुछ ज्यादा होती है तो किसी की कम. जिन्दगी में पिता की अहमियत माता की अहमियत से कहीं भी कम हो ही नहीं सकती, दोनों हमारी जिन्दगी को एक प्रकार से बैलेंस करते हैं.
thanks.

Admin said...

लेख आकर्षक है..शायद कुछ गलत है....

हाँ.. आपने मेरे लेख पर तिप्प्न्नी में में लिख दिया की हिमाचल में बहुत भ्रूण हत्या होती है..पूरी तरह गलत है..यहाँ तो आंकडा न के बराबर है..

Tarun said...

आज शायद, पहली बार आपके ब्लोग में आया हूँ वो भी अजितजी के शब्दों के सफर में छपे आपके बायोडाटा से। अच्छा लगा आपको पढ़कर, मैनस डे का तो पता नही लेकिन हम वूमेन डे मनाने के भी पक्षधर नही हैं। एक दिन का शोकेस है ये अगले दिन से सब अपनी में आ जाते हैं। एक दिन प्यार दुलार बाकि दिन अत्याचार

Kaput bhatkav said...

aapke sabhi chitthe bahut shandaar hain, women's day par aapka aalekh mind boggling hai

Rajesh said...

Anitaji, firist of all many many congratulations to you on writing such a beautiful article. Again this has proved that your ideas are always new for any article and you can write on any subject. In fact, all these days are being celebrated in such a manner that no one will do anything reverse to that. People express their views on such days in such a manner that they are keen in giving ADAR and SANMAAN to women. In fact, as rightly said by some one above, its only a temporary thing that comes in the mind from the next day they will do what they were doing. And one more thing, there is an influence of your father in your life and likewise each daughter is loved by her father in this way but no one is able to express or rather no one dare to express it, which you have done beautifully. In fact, man and woman are now parallely working in all the fields of life. A man has influence of a woman thorughout his life like mother, sister, wife and so on and simultaneously a woman is equally influenced by a man throughout her life in the role of a father, brother and a husband too. Anyways, thanks once again for such a beautiful article.

Manish Kumar said...

अच्छा लगा आपके पिता के बारे में जानकर !

Dr. Chandra Kumar Jain said...

AAPKE LEKHAN PAR SAMAY-SAMAY PAR CHACHA JAROOR KARUNGA.BAHARHAL ITNA HI KI LIKHNE KE LIYE JO AATUR ANTARMAN CHAHIYE, AAPMEN USKI JANDAR MAUZOODGI HAI.JARI RAKHIYE.
AAPNE MERE BLOG PAR EK ADAD INSAAN KI TALASH KI RACHNATMAK TADAP KO SAMJHA, MAIN AAPKA SHUKRAGUZAR HOON...PAR YE BHI KAH DOON KI KAVITA KO BACHAYE RAKHNE KE LIYE DUNIYA MEIN AADHE-ADHOOREPAN KI BADI AHAMIYAT HAI.AGAR MERI TALASH POORI HO GAI TO KAVITA ADHOORI RAH JAYEGI.KAYNAAT KA KHAALIPAN HI TO SRIJAN-SANSAAR KA BHARAV HAI...NA ? GUZARISH HAI KI MERI GAZALON PAR BHI EK NAZAR DALIYE.

Dr. Chandra Kumar Jain said...

ANITA JI,
AAPNE MERE E-mail ADDRESS KI APEKSHA KI HAI.
YAHAN VAH PATA DE RAHA HUN...
chandrakumarjain@gmail.com
blog par EK DEEP SURAJ KE AAGE KAVITA AAPKO ACHHI LAGI...SHUKRIYA.

Pramendra Pratap Singh said...

आज लेख पढ़ कर टिप्‍पणी नही दे रहा हूँ।


आपको महिला दिवस की देर से सही इस बच्‍चे की भी बधाई स्‍वीकार करें।

महाशक्ति

Ila's world, in and out said...

आदरणीया अनीताजी, मेरे ब्लौग पर आकर हौसला-अफ़्ज़ाई करने के लिये हार्दिक धन्यवाद. आपकी पोस्ट पढ कर मुझे अपने नारी होने पर गर्व मह्सूस होता है. सौभाग्य से मैं ऐसे माता-पिता के यहां पैदा हुई, जहां बालक और बालिका को बराबर स्थान दिया जाता रहा है.नारीवाद के खोखले आदर्श समूची नारी जाति को किस ओर ले जाएन्गे कह नहीं सकते.मेरा ई मेल आइडी है---ilapachauri@gmail.com.आपसे मित्रता हासिल करना मेरे लिये गौरव की बात है, आपसे मार्ग दर्शन पाने की कामना लिये,इला

Anita kumar said...

आप सभी मित्रों का लेख पसंद करने के लिए धन्यवाद