दिवाली के उपलक्ष्य में दिवाली की शुभ कामनाओं के साथ अपनी एक पुरानी रचना फ़िर से प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसमें एक राजस्थानी परंपरा को नमन किया गया है। ये कविता लिखी गयी थी जब मैं ने मकान बदला था
दिवाली की रात
कहने को चार दिवारें अपनी थीं
काले चूने से पुती हुईं
पहली दिवाली की शाम
न दिया न बाती
न जान न पहचान
ठंडा चुल्हा, घर में बिखरा सामान,
अन्जान बाजारों में ढूढंती पूजा का सामान,
दुकानों की जगमग, पटाखों का शोर,
सलीके से सजी दियों की पक्तियां,
मेरे घर से ज्यादा मेरे मन में अंधेरा भर रही थीं,
अकेलेपन की ठिठुरन, बोझिल कदम,
लौटते हुए माँ लक्ष्मी से बार बार माफ़ी मांग रही थी,
प्राथना कर रही थी,
इस ठंडे अंधेरे घर की तरफ़ नजर डाले बिना न निकल जाना
लौटी तो देखा, दरवाजे पर दो सुन्दर से दिये
अपनी पीली पीली आभा फ़ैला रहे हैं,
दो सुन्दर सी कन्याएं सजी संवरी
हाथों में दियों की थाली लिए खड़ी
मुस्कुरा कर बोलीं
ऑटी दिवाली मुबारक
आश्चर्यचकित मैं,
हंस कर बोलीं
हमारे यहां रिवाज है
अपना घर रौशन करने से पहले
पड़ौसियों का घर जगमगाओ
शत शत प्रणाम उन पूर्वजों को
जिन्हों ने ये रस्मों रिवाज बनाए
शत शत प्रणाम उन बहुओं को
जिन्हों ने ये रिवाज खुले मन से अपनाए
सुस्वागतम
आपका हार्दिक स्वागत है, आपको यह चिट्ठा कैसा लगा? अपनी बहूमूल्य राय से हमें जरूर अवगत करावें,धन्यवाद।
November 06, 2007
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18 comments:
दीवाली की राम राम,बहुत सुंदर रचना
बहुत सुंदर!!
बढ़िया रचना!!
ऐसी ही कुछेक परंपराएं तो हम सब को बचाए हुए है खो जाने से!!
बहुत प्यारी रचना... यही परम्पराएँ ही तो हमारी धरोहर है... दीपावली मंगलमय हो...
सचमुच अनुकरणीय और तारीफ़ के योग्य
सुन्दर रचना. दीपावली की शुभकामनायें.
ऐसी ही परम्परा हमारे ऋषियों - मनीषियों में थी/है। पूर्णत: निस्वार्थ भाव से अपने ज्ञान से विश्व को आलोकित करने की - तमसोमाज्योतिर्गमय! असल में स्व से पहले देने का भाव ही मानवता को जीवित रखे है। आपने कविता के माध्यम से उसी सत्य को प्रकट किया है शायद।
अच्छी रचना है!
बधाई!
हां जी ये शायद पूर्वजो का आशीर्वाद और सत्कर्म ही है जो ये परम्पराएँ अभी भी हर्कदम पर हमारे साथ है और रास्ता भटकने की सूरत मे मार्गदर्शन भी करती है. और मुझे लगता है जितना हम इनसे जुड़े रहेगे उतना ही हमारा संताप,उतना ही हमारा कष्ट कम होगा
दीपवली की ढेरों शुभ कामनाएँ। आपका जीवन सुखमय हो।
संजय गुलाटी मुसाफिर
दीवाली की रात
हर घर आंगन दिया जले
उसने जो घर आंगन दिया
वो न जले
दिया जले, दिल न जले
यूंहीं ज़िन्दगानी चले
दीवाली की रात सब से मिलो
चाहे बसे हो दूर कई मीलों
शब्दों से उन्हे आज सब दो
न जाने फिर कब दो
दुआ दी, दुआ ली
यहीं है दीवाली
आप सब को भी दिवाली की शुभ कामनाएं
शत शत प्रणाम उन पूर्वजों को
जिन्हों ने ये रस्मों रिवाज बनाए
शत शत प्रणाम उन बहुओं को
जिन्हों ने ये रिवाज खुले मन से अपनाए...
सचमुच मुझे ये पन्क्तिया कुछ ज्यादा ही छू गयी.शुभ दीपावली !
बहुत सुंदर रचना!
तम से मुक्ति का पर्व दीपावली आपके पारिवारिक जीवन में शांति , सुख , समृद्धि का सृजन करे ,दीपावली की ढेर सारी बधाईयाँ !
आपको दीपावली की हार्दिक शुभकामनाए।
"हमारे यहां रिवाज है
अपना घर रौशन करने से पहले
पड़ौसियों का घर जगमगाओ"
हर सामान्य व्यक्ति कि इच्छा होती है कि दुनियां में अमन चैन हो, सब एक दूसरे का भला करें, एवं किसी तरह की बुराई न हो. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि इसके लिये पहले उन्हें अपना स्वभाव बदलना होगा.
मैं उन अज्ञात लोगों का अभिवादन करता हूँ जिन्होंने यह परम्परा चालू की. इसके बारे में बताने के लिये आभार -- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है.
इस काम के लिये मेरा और आपका योगदान कितना है?
bahut sundar
ji namaste aapko
aap to meri maa se badi hai umar mein,so mata ko pranaam
बहुत बढ़िया रचना...
हमारे रीति-रिवाज शायद इसीलिए बनाए गए कि हम सब को एक साथ जोडें. इन्हें आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी हर पीढ़ी पर है.
सुंदर कविता और उससे भी सुंदर रिवाज़।
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