पतंगी चिड़िया
यूं ही इक शाम नभ विचरते
कुछ पतंगे मिलीं,
बादलों से बातें करती, महाराणी सी तेजस्वी
लाल पतंग उपेक्षा भरी नजर डाल ,
मुँह बिचकाती आगे बढ़ ली,
तालाब के उनींदे कंवल सी,
पीली पतंग आत्मध्यान में खोयी थी,
शेर मुँह वाली कालिया ,
मेरा निरीक्षण करने इतनी पास आयी
कि मेरी चीख निकल गयी,
तितली सी नाचती, हरे दुपट्टे वाली
गुलबिया खिलखिलाती मेरे पास खिसक आयी,
डर गयीं? कौन हो तुम ? हमारी बिरादरी की तो नहीं,
मैंने नाक सुनकी, मैं चिड़िया,
बिरादरी क्या होती है,
हरी पूंछ लहराते, गहरी द्रष्टी डाल, परिक्रमा की,
घुड़की,तुम्हारी डोर कहाँ,कहाँ रहती हो,
तभी पीली पतगं नींद से जागी,गुलबिया पर झपटी,
लगा डोर कट जाएगी,गुलबिया बाल बाल बची,
धौकंनी सी चलती सासों को संभाला, दुपट्टे को लहराया,
मेरी प्रश्नीली आखों में झांका, हंस कर बोली
वो दूसरे मुहल्ले की है ना,
मैंने पूछा, ये मुहल्ला क्या होता है,
उसने बड़ी गंभीर मुद्रा धारण की,
मुझ से कुछ ऊँचा उड़ी,
मानो गुरू आसन ग्रहण कर रही हो,
अरे बुद्धु , ये भी नहीं मालूम
आजकल के गुरू बताते कम पूछते ज्यादा हैं
मेरे सपाट चेहरे को देख, लंबी सांस भरी
पूंछ फड़फड़ाई, समझाया,
एक रंग,एक कागज से बने, एक ही जात पांत
मित्र होते हैं, बिरादरी होते हैं,एक मुहल्ले में रहते हैं,
मैंने सिर हिलाया, कुछ पल्ले नहीं पड़ा,
झुंझलाई वो, कुछ समझती ही नहीं हो,
क्युं आयी हो
पीली पतंग फिर झपटी, मेरी चीख निकल गयी,
गुलबिया बाल बाल बची,
मेरे कहने पर थोड़ा सुस्ताने को मेरे कोटर में आयी,
साँझ बेला,दूर दूर से भूख की जंग जीत कर लौटे
रंगबिरंगी पक्षी,गलबहियाँ करते,बतियाते थे,
दूर-सदूर के देशों से आए मेहमां स्नेही आतिथ्य पाते थे,
मस्ती की तान छिड़ी थी,
न कोई जात पात थी, न मार पीट,
गुलबिया हैरान खड़ी थी
हाथ बढ़ा कर मैंने पूछा- दोस्त?
बरगद की डाली से लिपटी वो, चक्कर घिन्नी सी घूमी,
डोर कट गयी, मुस्कायी वो, हाथ बड़ा कर बोली
मैं पतंगी चिड़िया, ठीक ?
गलबहियाँ कर हम दोनों झूम गयीं
यूं ही इक शाम नभ विचरते
कुछ पतंगे मिलीं,
बादलों से बातें करती, महाराणी सी तेजस्वी
लाल पतंग उपेक्षा भरी नजर डाल ,
मुँह बिचकाती आगे बढ़ ली,
तालाब के उनींदे कंवल सी,
पीली पतंग आत्मध्यान में खोयी थी,
शेर मुँह वाली कालिया ,
मेरा निरीक्षण करने इतनी पास आयी
कि मेरी चीख निकल गयी,
तितली सी नाचती, हरे दुपट्टे वाली
गुलबिया खिलखिलाती मेरे पास खिसक आयी,
डर गयीं? कौन हो तुम ? हमारी बिरादरी की तो नहीं,
मैंने नाक सुनकी, मैं चिड़िया,
बिरादरी क्या होती है,
हरी पूंछ लहराते, गहरी द्रष्टी डाल, परिक्रमा की,
घुड़की,तुम्हारी डोर कहाँ,कहाँ रहती हो,
तभी पीली पतगं नींद से जागी,गुलबिया पर झपटी,
लगा डोर कट जाएगी,गुलबिया बाल बाल बची,
धौकंनी सी चलती सासों को संभाला, दुपट्टे को लहराया,
मेरी प्रश्नीली आखों में झांका, हंस कर बोली
वो दूसरे मुहल्ले की है ना,
मैंने पूछा, ये मुहल्ला क्या होता है,
उसने बड़ी गंभीर मुद्रा धारण की,
मुझ से कुछ ऊँचा उड़ी,
मानो गुरू आसन ग्रहण कर रही हो,
अरे बुद्धु , ये भी नहीं मालूम
आजकल के गुरू बताते कम पूछते ज्यादा हैं
मेरे सपाट चेहरे को देख, लंबी सांस भरी
पूंछ फड़फड़ाई, समझाया,
एक रंग,एक कागज से बने, एक ही जात पांत
मित्र होते हैं, बिरादरी होते हैं,एक मुहल्ले में रहते हैं,
मैंने सिर हिलाया, कुछ पल्ले नहीं पड़ा,
झुंझलाई वो, कुछ समझती ही नहीं हो,
क्युं आयी हो
पीली पतंग फिर झपटी, मेरी चीख निकल गयी,
गुलबिया बाल बाल बची,
मेरे कहने पर थोड़ा सुस्ताने को मेरे कोटर में आयी,
साँझ बेला,दूर दूर से भूख की जंग जीत कर लौटे
रंगबिरंगी पक्षी,गलबहियाँ करते,बतियाते थे,
दूर-सदूर के देशों से आए मेहमां स्नेही आतिथ्य पाते थे,
मस्ती की तान छिड़ी थी,
न कोई जात पात थी, न मार पीट,
गुलबिया हैरान खड़ी थी
हाथ बढ़ा कर मैंने पूछा- दोस्त?
बरगद की डाली से लिपटी वो, चक्कर घिन्नी सी घूमी,
डोर कट गयी, मुस्कायी वो, हाथ बड़ा कर बोली
मैं पतंगी चिड़िया, ठीक ?
गलबहियाँ कर हम दोनों झूम गयीं
11 comments:
Excellent mam!
You have really a great hold on language and words!
yah jaat, paat, biradari in sab cheejon se agar uper uth paye to duniya ka kya rangeen najara hoga. per hum manushya hai ki iske uper uthna hi nahi chahte, jaise chidiya ya aise aur kayi jaati ke pashu pakshiyan hai. In mein bhi thoda bahot to aisa hota hi hai, lekin jitna manushya samaj mein hai, aur kahin bhi nahi. aur yah patang jo bhi manushyon ne banayi hai, us mein bhi ilaka, biradari vagerah aa gaya. bahot khoob anita ji. great creation.
IS KAVITA MEIN JIS TARAH SE AAPNE TATKALIK SAMAJ KA CIHTRA KHEENCHA HAI,WO KABILE TARIF HAI.
सच में बहुत गहराई लिये हुये रचना है, दिल को छू जाती है...
वस्तव में एक भावपूर्ण अभिव्यक्ति..
बधाई...
बहुत सुन्दर कविता है ।
घुघूती बासूती
BAHUT KHUB, ANITAJI.
AAJ KE SAMAJ AUR INSANIYAT KI BAHUT HI PYARA VARNAN KIYA HAI JO
DIL KO CHOOOOOOOOOOOO GAYA.
LIKHTE RAHIYE.
अनीताजी की जय हो, बहुत खूब
पतंगें उड़ाये जाइये
आप ग्रेट हैं, वरना मुंबई के आकाश में पतंगों की नहीं बारिश की याद आती है। बारिश की याद आते ही डर सा लगता है। डर में कविता कहां सूझती है जी। आप को सूझ रही है। अच्छी बात है।
सादर
मन को अभिव्यक्त करने का बहुत मनभावन तरिका आपने चुना है। ह्रदय मे कही टिस दे जाती सी एक रचना लगी। मुझे बोलने मे कोई शर्म नही हो रही है कि मै स्वम भी कितनी बडी बडी बाते कर लु परन्तु मन के कही कोने मे ये जात पात रह हि जाता है, शिरोधार्य है ये रचना।
anita ji ,aapki kavitain bahut achhe aur sandesh dene wali hein .bhasha ki pakad bahut mazboot hai .aapki pratikriya meri rachna kailash maansarover trasadi mein dekhi mujhe bahut achcha laga.bas aapse nivedan hai ki isi tarh hamara manobal badhati rahein aur hamari sari rachnayien padhein .hamein aapke comments ka intzaar rahega.thanks
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