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September 10, 2009

संगोष्ठी: भाग 2











कल मसिवी जी पहली बार हमारे ब्लोग पर टिपियाये, उन्हें हैरानी थी कि मनोविज्ञान विभाग ने मीडिया पर संगोष्ठी आयोजित की…। उनकी हैरानी जायज है हमारे कॉलेज के टीचरों का भी पहला रिएक्शन यही था। लेकिन समाज में ऐसा कोई मुद्दा है जिसके आधार में मनोविज्ञान न हो ? हमारी इसी सोच को सत्यापित किया हमारे सभी गणमान्य अतिथियों ने। बहुत से मित्रों ने कहा कि विस्तृत रिपोरटिंग की जाए। तो आप की बात को सच मानते हुए हम एक छोटी सी रिपोर्ट दे रहे हैं , अब झेलिए…।:)
चौदह वक्ता थे तो रिपोर्ट बहुत छोटी तो नहीं हो सकती न फ़िर भी कौशिश यही रही है कि सिर्फ़ कुछ कुछ विषयों के बारे में रिपोर्टिंग करें…॥झेलिये :)

























मीडिया में उभरते नये चलन और चुनौतियों पर बोलते हुए मुख्य अतिथि श्री. कुमार केतकर जी ने पहले मीडिया के इतिहास की बात करते हुए बताया कि मीडिया कोई नयी चीज संकल्पना नहीं है, सदियों पुरानी है । हां ये बात जरूर है कि कुछ दशक पहले तक मीडिया को सिर्फ़ प्रेस के साथ जोड़ कर देखा जाता था, रेडियो के इस्तेमाल के लिए लाइसेंस लेना पड़ता था। यानी कि मीडिया प्रतिबंधित था और सिर्फ़ अमीरों और पढ़े लिखे लोगों की पहुंच में था। लेकिन इलेक्ट्रॉनिक क्रांति और हमारे पूर्व प्रधानमंत्री, स्वर्गीय श्री राजीव गांधी जी के योगदान की वजह से मीडिया का वो स्वरुप बना जिससे हम आज भली भांति परिचित हैं। मीडिया न सिर्फ़ सबकी पहुंच में आ गया बल्कि इसी मीडिया की वजह से हमारी व्यक्तिगत और सामाजिक स्वतंत्रता बची हुई है। लेकिन इसके साथ साथ उन्हों ने चेताया भी कि किस प्रकार मीडिया को मिली स्वतंत्रता मीडिया को समानांतर सत्ता प्रदान कर देती है जिससे अराजकता और नकारात्मक प्रभाव भी उत्पन्न हो सकता है अगर विभिन्न माध्यमों के पत्रकार अपनी जिम्मेदारी नहीं समझेगें तो। उन्हों ने कहा कि माना आज मीडिया में कैरियर बनाना काफ़ी लोकप्रिय हो रहा है लेकिन इसके साथ साथ जो सत्ता और स्वतंत्रता मीडिया कर्मियों को मिलती है उसका सही इस्तेमाल करना हर मीडिया कर्मी की नैतिक जिम्मेदारी है। मीडिया की ताकत और पत्रकारों की जिम्मेदारी पर अपनी बात खत्म करते हुए उन्हों ने कहा कि एक पत्रकार एक सोफ़्टवेयर इंजिनियर या न्युक्लियर साइंटिस्ट से ज्यादा खतरनाक हो सकता है, क्युं कि सोफ़्टवेयर इंजिनियर समाज को नष्ट या अस्थिर नहीं कर सकता लेकिन एक पत्रकार कर सकता है। मीडिया न्युकलियर बम से भी ज्यादा खतरनाक हो सकता है क्युं कि न्युकलियर बम गिरा तो लोग मर जाते हैं और मरने के बाद कोई दुख दर्द महसूस नहीं होता लेकिन मीडिया आप को मरने नहीं देता, जिन्दा रखता है और यातना देता है। इस लिए भावी मीडिया कर्मियों को उन्हों ने आग्रह किया मनोरंजन देने के चक्कर में और पैसा कमाने के चक्कर में वो अपनी नैतिक जिम्मेदारियों को न भूल जाएं।







टाटा समाज विज्ञान संस्थान के मीडिया विभाग की अध्यक्ष डॉ. (सुश्री) बी मंजुला, ने अच्छे प्रशासन में नागरिक पत्रकारिता और मीडिया की भूमिका पर बात करते हुए कहा नागरिकों की भागीदारी के माध्यम से लोकतांत्रिक प्रक्रिया और गहन होती है। नागरिकों को मीडिया का इस्तेमाल अपने विचार, अपनी आवाज़ और अपनी रचनात्मकता को व्यक्त करने के लिए करना चाहिए। संवाद और बहस समाज में बदलाव लाते हैं और मीडिया इस में अहम भूमिका निभा सकता है। नफ़ाखोरी के चलते आज मीडिया बहुत महत्वपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर ध्यान न दे कर फैशन जैसे गैर मुद्दों पर ध्यान केंद्रित कर रहा है, ये कह कर कि यही बिकता है। मीडिया जिसे आम आदमी का प्रतिनिधित्व करना चाहिए आज सिर्फ़ एक कुलीन वर्ग के एक गढ़ के रूप में रहना चाहता है। आज नागरिक पत्रकारिता के सामने भी उपभोक्तावाद जैसी कई चुनौतियां हैं। वस्तुकरण और व्यावसायीकरण के चलते मानवीय संबंधों और भावनाओं की भी सौदेबाजी होती है। मीडिया और राजनीति पतन के गर्त में जा रहा है। नागरिकों के अंदर भी आज ऐसा जज्बा बहुत कम दिखता है जिसके बल पर वो समाजिक मुद्दों पर सवाल खड़े करे और एक बहस का सिलसिला शुरु करें। ऐसे में नागरिक की सक्रिय भागीदारी को प्रोत्साहित करना बहुत जरूरी है।













श्री. प्रदीप विजयकर टाइम्स ऑफ़ इंडिया से,ने इस बात को माना कि तकनीक का अग्रिम दोहन किया जाना चाहिए और हमें प्रौद्योगिकी को वश में रखना चाहिए न कि उसका दास होना चाहिए। प्रौद्योगिकी आज कम समय में हर प्रकार की जानकारी प्रदान करता है. लेकिन ये भी सत्य है कि आज तकनीक के गलत इस्तेमाल ने अनुसंधान, खोज की उत्तेजना, प्रयोग की खुशी को मार डाला है।






मंजुला जी की तरह उन्हों ने भी नागरिक पत्रकारिता के महत्व पर बल दिया और बताया कि नागरिकों को प्रोत्साहित करने के लिए मीडिया आज क्या क्या यतन कर रहा है। ‘लीड इंडिया’, ‘ईच वन टीच वन’ जैसी परियोजनाओं का जिक्र करते हुए उन्हों ने बताया कि किस तरह टाइम्स ऑफ़ इंडिया अपनी सामाजिक भूमिका निभा रहा है। उन्हों ने इस बात पर भी श्रोताओं का ध्यान खींचा कि कितने ही पाठकों के समाचार पत्रों में छपे पत्र जनहित याचिकाओं में बदल गये।












अन्य कई वक्ताओं ने माना कि मीडिया कोई समाजसेवी संस्था नहीं है बल्कि एक इंडस्ट्री है जो अपने नफ़े नुकसान के बारे में सोचती है इस लिए इससे आज के परिवेश में बहुत ज्यादा आदर्शवाद की उम्मीद करना सच्चाई से मुंह मोड़ना होगा।












फ़िर आया संगोष्ठी का दूसरा दिन्…।






पहले ही सत्र में वक्ता थे आलोक पुराणिक जी ,हर्षवर्धन जी और एम के दातार। सत्र का मुद्दा था वीत्तिय बाजार के प्रति बढ़ती जागरुकता और रुचि में मीडिया की भूमिका।






दातार जी ने बहुत विस्तार में शेयर बाजार के कार्य कलाप और सेबी के नियमों के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि मीडिया की वजह से ही सत्यम जैसे मामले उजागर हो सके और समय रहते नियत्रंण कर सके। मीडिया की वजह से ही कंपनियों की वार्षिक रिपोर्ट हमारे लिए रद्दी का टुकड़ा नहीं बनती। सत्र थोड़ा भारी हो चला था।












ऐसे में आलोक जी ने मैदान संभाला और अपने चिरपरिचित अंदाज में मंच से उतर कर ( हर्ष जी मंच पर बैठे थे तब तक) कहा कि इस मीडिया का कोई विश्वास न करना। माना कि ई पी एस, लाभांश, जैसे कई तकनीकी शब्दों का अर्थ समझने में हमारी मदद करते हैं, माना कि मीडिया ने मध्यम वर्ग के मन से शेयर मार्केट का हौआ निकाल दिया है और आज के जमाने में शेयर मार्केट ही एक ऐसी जगह है जहां आप ईमानदारी से ज्यादा से ज्यादा पैसा कमा सकते हैं लेकिन मीडिया की अपनी व्यवसायिक मजबूरियां हैं जिनकी वजह से मीडिया आप के सामने पूर्ण सत्य नहीं रखता। कहने का मतलब ये कि मीडिया जहां एक तरफ़ शिक्षित करता है वहीं अगर आप सतर्क नहीं और मीडिया में परोसी हर बात पर भरोसा किया तो आप का नुकसान भी हो सकता है। आलोक जी ने सुझाव दिया कि मीडिया पैनल चर्चा में जिन विशेषज्ञों को शामिल करता है उनके वक्त्त्वयों का ऑडिट करना चाहिए। कई बार ऐसा होता है कि वही विशेषज्ञ जो एक महीने पहले किसी कंपनी के शेयरों के दाम दुगुने तिगने बढ़ने की बात कह रहा था और कंपनी की विश्वासियता की कस्में खा रहा था अब उसी कंपनी की तरफ़ आखँ भी उठा कर न देखने की सलाह देता नजर आये। शेयर मार्केट में पैसा बनाने के लिए आप को लोगों की मानसिकता को समझना होगा और अपनी भावनाओं पर नियत्रंण रखना होगा ।





आलोक जी ने कहा कि आज मीडिया अब छह महीने की अवधि को दीर्घकालिक निवेश के रूप में बता रहा है जब कि अल्पकालिक निवेश में कम से कम 5 वर्षों की अवधि के समय चाहिए। अगर कोई शेयर मार्केट में कम से कम दस साल तक निवेशित रहे तभी उसके पैसे डूबने की संभावना नगण्य होगी।






दूसरे, मीडिया ने भी सिर्फ़ शेयर बाजारों पर ध्यान केंद्रित कर रखा है जब कि म्युचुअल फंड, बीमा, सूचकांक कोष आदि पर ध्यान देना चाहिए।






श्री हर्षवर्द्धन त्रिपाठी जी ने वित्तीय बाजार के प्रति जागरुकता में मीडिया की भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा कि अतीत में लोगों की राय थी कि शेयर बाजार की गतिविधियाँ जुए के समान हैं। 2004-05 में सी एन बी सी आवाज पहला व्यापार चैनल था जो वित्तीय बाजार के प्रति जागरुकता पैदा करने के लिए और मध्यम वर्ग को शेयर मार्केट में उतरने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए शुरु किया गया था और मीडिया के इतिहास में एक मील का पत्थर माना जाता है। इससे पहले शेयर मार्केट में मध्यम वर्ग की भागीदारी सिर्फ़ बम्बई और गुजरात के कुछ शहरों तक सीमित थी। लेकिन सी एन बी सी आवाज और जी बिजनेस जैसे चैनलों की बदौलत न सिर्फ़ भारत के हर कोने में और हर छोटे शहरों तक शेयर मार्केट के कार्य प्रणाली की जानकारी पहुंची,बल्कि ऐसे लोगों तक भी पहुंची जो अंग्रेजी नहीं जानते थे। और हम सब जानते हैं कि भारत की 85% जनता अंग्रेजी नहीं जानती। अंततः,लोगों के विचार बदले और लोगों की आय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा शेयर बाजार के कारोबार पर लग रहा है, उनकी जीवन शैली में सुधार हुआ है।











हर्ष जी ने माना कि सी एन बी सी आवाज अपने नफ़े को ध्यान में रख कर ही कार्यक्रम शुरु करता है लेकिन इस बात को भी नहीं भुलाया जा सकता कि सी एन बी सी आवाज के कार्यक्रमों ने जहां एक तरफ़ वित्तीय बाजार के बारे में स्कूल के छात्रों को शिक्षित किया है, वहीं सास बहू जैसी ग्रहणियों की रुचि को भी शेयर मार्केट के प्रति जाग्रित किया है। जाहिर है अब भारी संख्या में लोग शेयर बाजार में भाग ले रहे हैं। यह शेयर बाजार के कामकाज में लोकतंत्रीकरण और पारदर्शिता लाने में मदद करता है.











श्री रविशंकर श्रीवास्तव जी ने साइबर पत्रकारिता और ब्लॉगिंग के तकनीकी पहलुओं की एक समग्र जानकारी दी।


श्री मंगेश करांदीकर ने ब्लॉग पर उपलब्ध जानकारी परंपरागत मीडिया खबर के रूप में क्युं नहीं इस्तेमाल कर सकता इस के कारण बताते हुए कहा कि परंपरागत मीडिया प्रामाणिकता चाह्ता है और नेट पर मौजूद जानकारी की प्रामाणिकता साबित करना बहुत मुश्किल है।






लेकिन ये भी सत्य है कि चाहे परंपरागत हो या साइबर मीडिया, जो भी खबर हमें वहां मिलती है वो अर्ध सत्य ही होती है तथ्य नहीं क्युं कि हर इंसान किसी भी तथ्य को अपने अनुभवों,अपनी सोच, अपनी पसंद और नापसंद के अनुसार ग्रहण करता है और उसकी रिपोर्टिंग करता है।






इस सीमा के बावजूद, साइबर मीडिया के महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. यह सबसे ज्यादा आम आदमी के विचारों को आवाज देता है और इसकी वैश्विक पहुँच है। यह एक सामाजिक आंदोलन शुरू करने में मदद कर सकता है. ब्लॉग महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे कई तरह के विचार पेश करने की छूट देता है। पारंपरिक मीडिया क्या जानकारी दिखाई देगा ये पत्रकार के व्यक्तिपरक निर्णय और प्रकाशन घर पर निर्भर करता है जब की साइबर मीडिया में ऐसी कोई मजबूरी नहीं। खबर बनाने वाला खुद खबर प्रसारित भी कर सकता है और तत्काल प्रतिक्रिया पा सकता है।











लीजीए, अब मुझे तत्काल प्रतिक्रिया का इंतजार है।

12 comments:

संजय तिवारी said...

लेखनी प्रभावित करती है.

Arvind Mishra said...

विषद चर्चा ! क्या मनोविज्ञान और मीडिया के अन्तर्सम्बन्धों पर भी कुछ इन्नोवेटिव विचार विमर्श हुआ ? मीडिया पर तो बहुत चर्चा हुई पर का मेसेज भी विवेचित हुआ ? आज जब ट्विटर जैसे नेटवर्क पर मेसेज ही मीडिया का रूप लेता जा रहा है इन विचार बिन्दुओं पर चर्चा लाजिमी हो सकती है !
इस आयोजन की बधाई !

दिनेशराय द्विवेदी said...

अच्छी संगोष्टी हुई। यूँ कहिए मीडिया पर गंभीर चिंतन का आरंभ। मीडिया कर्मी खबर से सुनामी पैदा कर देते हैं। फिर कितनों की जान जाती है। यह भी मीडिया ही बताता है।

Anonymous said...

रिपोर्ट तो अपने आप में बहुत कुछ समेटे हुये थी
लेकिन दो -दो बार 'झेलिये' कहने का मतलब :-)

बी एस पाबला

Batangad said...

अनीताजी आपका शुक्रिया। आपकी वजह से मुझे करीब 9 महीने बाद मुंबई आने का मौका मिला। आपने काफी मेहनत से शानदार आयोजन किया।

RAJNISH PARIHAR said...

जन्म दिन के बहाने ही सही....आप जैसी साहित्यिक चिंतन रखने वाली ब्लोगर से परिचय हुआ...!बहुत बहुत धन्यवाद,जन्मदिन की बधाई के लिए और एक अच्छी पोस्ट के लिए भी...

Gyan Dutt Pandey said...

पुराणिक सही कह रहे हैं - मीडियावाले कहानियां बांट शेयर ऊपर नीचे करते हैं। दिमाग बन्द कर मीडिया पर जो भरोसा किया सो गया!

Asha Joglekar said...

Achchi eporting kar letin hain aap. Par media ko apne jimmedari ka ahsas ho bhee kaise reporter t onokar hotahai aur wah to wahee dikhyaega ya likhega jitana malik karane dega.

स्वप्न मञ्जूषा said...

अब का कहें ...
काहे की इ तो हमारा पहिलौठा है ....अरे बाल-बच्चा का बात नहीं कह रहे हैं हम..
हमरा पहिला तिपनी है भाई ....और एहो कह दे रहे हैं की दू बार झेले भी हैं...
बाकि आप लिखती एकदम फस्ट किलास हैं भाई...
एही खातिर टिपिया भी फ़स्ते किलास रहे हैं..
बहुत नीमन था reporting aur सबकुछ..

शरद कोकास said...

"मीडिया आप को मरने नहीं देता, जिन्दा रखता है और यातना देता है।"बहुत भयानक विचार है यह लेकिन ठीक है अलग अलग दिमागों के अलग अलग विचार !! गम्भीर परिचर्चा को हम लोगों तक पहुंचाने के लिये धन्यवाद - शरद कोकास ,दुर्ग छ.ग.

jayanti jain said...

excellent reporting and great work

अजित वडनेरकर said...

बधाई। शानदार रिपोर्टिंग। क्या ये वही आयोजन था जो जिसकी खबर आपने हमें दी थी?
दिक्कत यही है कि हम कुछ भी समय पर नहीं कर पाते, सिवाय शब्दों का सफर के।