भाग 2
कल अनूप जी ने अपनी टिप्पणी में कहा कि मुझे अपने मायके वालों के बारे में अच्छा सोचना चाहिए। हम कहां इंकार कर रहे हैं जी। बंबई आये थे किशोरावस्था में, तब तक आस पास के पुरुषों को देखा जाना नहीं था, आप कह सकते हैं कि अभी तो आखें भी न खुली थीं। बोम्बे आने के बाद फ़िर वापस उत्तर की तरफ़ कभी जाना नहीं हुआ। हम तो देश में रहते अप्रवासी भारतीय हैं जी। फ़िर बंबई में तो अपने मायके के प्रांत वाले बहुत कम नजर आये, उनके बारे में जो भी जाना और जो भी मन में इमेज बनायी सब मीडिया से मिले मसाले की बेस पर था। असली में तो अपने प्रांत वालों को जान रही हूँ अब ब्लोग जगत में आने के बाद्। पुरानी सब तस्वीरें धुल पुछ कर साफ़ हो चुकी हैं और नये रंग भरे जा चुके हैं। ऐसा न होता तो थोड़े हम वो लिख रहे होते जो अब लिख रहे हैं। अब तो हम कहते हैं मेरे प्रांत वाले " जय हो" …:)
खैर देखिए बोम्बे की एक और झलक
घर से बाजार और बाजार से मॉल :
कुछ चार पांच साल पहले तक चेम्बूर की वो मेन मार्केट जिससे गुजर कर हम रोज स्कूल जाते थे खाऊ गली के नाम से जानी जाती थी, लेकिन अब वहां कपड़ों की, मोबाइल इत्यादी की दुकानें बहुतायत में आ गयी हैं। हां सब्जी मार्केट अभी भी वहीं हैं , मेन रोड से एक गली अंदर, और सब्जी के साथ चाट पकौड़ी की दुकानें भी उसी गली में आ गयी हैं। बम्बई का ये रंग भी हमारे लिए निराला था। अलीगढ़ में सुबह सुबह (और बाद में इंदौर में भी हमने यही चलन देखा) सब्जी वाले सब्जी का टोकरा उठाये गली गली घूमते थे, रोज के ग्राहक हों तो आ कर घर के किवाड़ भी खटखटाते थे कि मां जी सब्जी ले लो। बम्बई में शाम के पांच छ: बजते ही औरतें लिप्सटिक पाउडर लगा तैयार होती हैं, कभी अकेली या कभी किसी पड़ौसन के साथ सब्जी लेने भाजी मार्केट जाती हैं। भाजी ले कर एक दो घंटे के बाद लौटना और फ़िर कभी वहीं मार्केट से चाट पकौड़ी खा कर आना या फ़िर भाजी ला कर वहीं बिल्डिंग के अहाते में बैठ कर भेल खाना । यहां बम्बई आकर जब पहली बार हमसे किसी ने कहा भेल खा लो तो हम समझे शिव जी को जो फ़ल चढ़ाया जाता है उसकी बात हो रही है, पर जब भेल बन कर हमारे सामने आयी तो एक निवाला न खाया गया। भेल बनती है मुरमुरे, सेव, उबले आलू, बारीक कटे प्याज, हरी मिर्च और तीखी , मीठी चटनी से। गिलगले सेव और मुरमुरे हमारे गले से नीचे न उतरे। अब की बात और है, अब तो हम भी आप को भेल या सेवपुरी खिलायेगें। चेम्बूर छूटे तो कई साल हो गये लेकिन आज भी जब उस मार्केट से गुजरते हैं तो पारस की दुकान की सेवपुरी खाये बिना नहीं आते।
वैसे अब बिल्डिंग में शाम को वैसी रौनक नहीं होती, बिल्डिंग के बीच का मैदान जहां बच्चे खेलते थे और मांए किनारे बैठी बच्चों को खेलता देखती थी अब कार पार्क में बदल गया है। बच्चे अपने अपने घरों में टी वी या कंप्युटर के आगे जम गये हैं। चीखने चिल्लाने की आवाजें बच्चों के गलों से नहीं निकलतीं टी वी के एंकरों के गलों से निकलती हैं । आज की पीढ़ी बेहद मेहनती कामकाजी महिलाओं की पीढ़ी है। उनके पास कहां टाइम है कि सब्जी बाजार जा कर सब्जी वाले से तोल मोल कर चुन चुन कर सब्जी लायें और फ़िर आराम से टी वी का प्रोग्राम देखते हुए काटें। आज तो जगह जगह मॉल खुल गये हैं, साफ़ सुथरे, एअरकंडीशनड, टोकरी तक उठाने की जहमत नहीं करनी पड़ती। कार से उतरो, ट्रॉली लो, चुनी चुनाई, कटी कटाई, पेक्ड सब्जी खरीदो, कोई मोल तोल नहीं, वहीं साफ़ सुथरे रेस्टॉरेंट में बैठ कर खाओ पिओ और देर रात घर पर आओ। पहले महिलाएं सब्जी खरीदने रोज जाती थीं, एक टहलना भी हो जाता था। आज कल महिलाएं पूरे हफ़्ते की सब्जी एक साथ ला कर फ़्रिज के हवाले कर देती हैं । दो तीन दिन का खाना बना कर फ़्रिज के हवाले कर दिया जाता है और फ़िर जय माइक्रोवेव की जो उस खाने को तरोताजा दिखा देता है। अभी परसों ही एक मॉल में हम गये और सब्जी खरीद वहीं खाना खाने बैठ गये। हमारे मेज के पास ही लकड़ी का जंगला लगा कर एक चौकोर बनाया गया था और उसमें कुछ प्लास्टिक के झूले रखे थे जैसे अक्सर पहले बच्चों को पार्क में खेलते हुए देखते थे। हम सोच रहे थे क्या जमाना आ गया है , अब पार्क का काम भी मॉल करेगें? हमारा लड़का आर सी एफ़ के बड़े बड़े बागों में खेल कर बड़ा हुआ और ये बच्चे बिचारे ये भी नहीं जान सकते कि पींग लगाना किसे कहते हैं, पींग लगा कर हवा से बाते करना तो दूर की बात है। जानते है उन पिद्दी से झूलों पर ए सी की बासी हवा और ट्युब लाइटों की चकाचौंध में आधा घंटा खेलने की कीमत थी मात्र 40 रुपये। दो साल का बच्चा झूलों की तरफ़ बरबस खिचा चला जाए तो उसे खीच कर अलग कर दिया जाता कि पहले जा कर पैसे ले कर आओ। वो झूलों के सामने लहराते हरे हरे नोट उस बच्चे के मानस पटल पर छप गये होगें और वो अब ताउम्र उन के पीछे भागता रहेगा। मां बाप पास ही बैठे पिज़ा खा रहे थे।
पहले महिलाएं छोटे छोटे स्तर पर किए बजत से भी खुश होती थीं, कईयों को बाइयों के काम पसंद ही नहीं आते थे, आज हाल ये है कि हर घर में दो दो नौकरानियां आम बात है। घर की सफ़ाई अभियान एक बड़ा काम होता था , घर की महिला को उपलब्धी की अनुभूती होती थी, आज घर सिर्फ़ एक नीड़ है रात्री विश्राम के लिए। जिन्दगी जीने के लिए हैं सफ़ाई कटाई कर के बर्बाद करने के लिए नहीं ।
चेम्बूर से जूहू तक
एक साल चेम्बूर वास के बाद स्थानंतरण हुआ सीधे जूहू में। यहां की तो दुनिया ही निराली थी। साफ़ सुथरी सड़कें, चार फ़्लेटों वाली पूरी बिल्डिंग में हमारे परिवार का साम्राज्य्, ढेर सारे नौकर, थोड़ी ही दूरी पर धर्मेंद्र, मनोज कुमार जैसे नामी फ़िल्मी कलाकारों के घर, इत्यादि। लेकिन तब तक मॉल संस्कृती नहीं आयी थी। सांताक्रूज में स्कूल में, और बाद में कॉलेज में गुजराती जनसंख्या बहुतायत में मिली। गुजराती भाषा बहुत ही मीठी भाषा है, गुजराती बहुत ही मिलनसार, जहीन और विनोदप्रिय वृति की जिन्दादिल कौम है, व्यापार और उधोग में तो इनकी कोई सानी नहीं। हमने न सिर्फ़ गुजराती पढ़ना लिखना बोलना सीखा बल्कि दसवीं में गुजराती को एक विषय के रूप में भी पढ़ा। गुजराती साहित्य भी बहुत समृद्ध है। गुजराती व्यजंनों के तो हम अब भी दिवाने हैं।
पर ये सिर्फ़ यादें हैं। गुजरात के दंगों और मोदी की सरकार आने के बाद गुजरातियों का जैसे चरित्र ही बदल गया हो। एक जमाना था जब मैं और मेरे पति गुजरातियों की जिन्दादिली और आत्मियता के इतने कायल थे कि हमें लगता था कि अगर बम्बई के बाहर कहीं जा कर बसा जा सकता है तो सिर्फ़ गुजरात में। लेकिन आज ये कहना मुश्किल है। कट्टर हिन्दूवाद ने मुझ जैसे न जाने कितने हिन्दुओं के सपनों का खून बहाया है जो किसी हाशिए पर नहीं दिखता।
खैर, जूहू किनारे रहने का एक लाभ ये था कि रोज शाम को अपनी सहेलियों के साथ या परिवार के साथ जूहू बीच पर घूमने जाते थे। यूं तो सुबह शाम जब भी खिड़की से बाहर झांकते समुद्र बाहें फ़ैलाये बुलाता नजर आता था, लहरों का संगीत दिन रात हमें तरंगित किए रखता था, लेकिन सुबह या देर शाम को ठंडी ठंडी रेत पर नंगे पांव घूमने का अपना एक अलौकिक आनंद है। अगर आप सुबह सवेरे चार पांच बजे समुद्र किनारे पर निकल जाएं तो विनोद खन्ना, रेखा वगैरह भी घुड़सवारी करते दिख जाते थे। बम्बई की ये खास बात है कि यहां लोग इन फ़िल्म कलाकारों को परेशान नहीं करते, एक हल्के से अभिवादन के साथ अपने अपने काम पर लगे रहते हैं। सिर्फ़ बम्बई के बाहर से आये लोगों को उन्हें देखने का , मिलने का पागलपन सवार होता है। मुझे याद आ रहा है एक बार घर पर मम्मी पापा नहीं थे, रात का समय था, अचानक नौकर ने आकर कहा कि कोई साहब आप से मिलना चाहते हैं। वो किसी फ़िल्म का प्रोडक्शन वाला था और हमारी बिल्डिंग में लगे ढेर सारे नारियल के पेड़ो के साथ शूटिंग करना चाहता था। उनके लिए इमेरजेन्सी थी क्युं कि राजेश खन्ना को बुलवा लिया गया था और ऐन मौके पर जहां पहले शूटिंग करनी थी वहां नहीं कर सकते थे। अब क्युं कि बहन भाइयों में हम ही सब से बड़े थे और मम्मी पापा घर पर नहीं थे हमसे इजाजत मांगी गयी। कोई मारधाड़ का सीन करना था। हमने इजाजत दे दी लेकिन सिर्फ़ हमारे बाग के इस्तेमाल की, घर में नहीं घुसने दिया। राजेश खन्ना उस समय का चढ़ा हुआ सितारा था, प्रोडक्शन वाले हैरान थे कि राजेश खन्ना का नाम सुन कर हमने वैसे रिएक्ट नहीं किया जैसा एक कॉलेज की लड़की से उम्मीद की जा सकती थी। खैर शूटिंग तो हमने भी देखी ऊपर से और जब इनाम के तौर पर कहा गया कि आप राजेश खन्ना से बात कर सकती हैं तो हमने साफ़ इंकार कर दिया ये कहते हुए कि जब तक बात करने के लिए कोई मुद्दा न हो तब तक किसी से ऐसे ही मिलना बेकार है। जिस कॉलेज में हम पढ़ते थे वहां हमारे साथ कई फ़िल्मी कलाकारों और गायकों के बच्चे पढ़ते थे तो हमें इन लोगों से मिलने की ललक क्युं होती भला।
सुस्वागतम
आपका हार्दिक स्वागत है, आपको यह चिट्ठा कैसा लगा? अपनी बहूमूल्य राय से हमें जरूर अवगत करावें,धन्यवाद।
March 05, 2009
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9 comments:
अनीता जी बहुत रोचक शैली में अपने संस्मरण लिखे हैं आपने...आपके साथ हम भी मुंबई के बारे में जान लिए...आगे भी सुनाईये ...
नीरज
अच्छा चित्र खींचा है बम्बैया चाट का और गली मुहल्लों का। रही बात राजेश खन्ना से बात करने की , तो सही है जब कुछ बात करने के लिए नहीं है तो क्या बात करना! किसी को यकीन न आये तो डिम्पल से पूछ लें:)
नए पुराने मुंबई --बाम्बे की अच्छी तुलना पढने को मिल गयी .. बहुत सजीव रोचक लिखा है .आपने
ye to ham vahan padh chuke hain.. aage ka padhna hai.. :(
जब आपके संस्मरण का पहला भाग पढ़ा तभी से दूसरे का इन्तजार था। आपने तो हमें बाँध लिया। अब अगले का इन्तजार रहेगा।
घणी ही संस्मरणात्मक हो ली हैं। ये कोई उम्र है संस्मरण बताने की।
अनिता जी,
आपके जुहुवाले घर के आस पास ही मेरी दोनोँ बहनोँ की ससुरालेँ हैँ और आपका सँसमरण बिलकुल अपना सा लगा ! :)
हम भी जुहु तारा रोड से दाखिल होकर डीम्पल के पिता के घर सेन्टोर होटल वाले जुहु स्कीम रोड तक सुबह का वोक लिया करते थे -
दोनोँ बच्चोँ की प्रसूति के वक्त :) और फिर बाहर आकर जँगबारी नारियल का पानी पीते थे...
..आहा....(almost 3 glasses !! )
बम्बई आज भी एक ऐसा शहर है जो
"अपना घर " सा लगता है ....
राजेश खन्नावाली बात पढकर खूब मुस्कुराये भी
बहुत अच्छा लिखा है
खासकर जो बम्बईवासी हैँ और जो दूसरे शहरोँ मेँ रहते हैँ सभी के लिये सजीव चित्रण किया है
स स्नेह,
-लावण्या
अद्भुत विरल अनुभव। मुंबई कभी आना नहीं हुआ, मगर ये मुंबई अपनी सी लगती है। बहुत बढ़िया रेखाचित्र खींचा है। राजेश खन्ना वाला प्रसंग बहुत दिलचस्प है। आजकल के छोकरे-छोकरियों को इससे प्रेरणा लेनी चाहिए :)
आलोक पुराणिक के कमेंट पर सख्त ऐतराज है...
वो कैसे किसी बात को उम्र से जोड़ सकते हैं ? इसका फौरन आपको जवाब देना चाहिए...
आप तो बस लिखने के लिए ही सही लेकिन इसी संस्मरणात्मक मोड में रहो ;)
दर-असल आपकी लेखन शैली में ऐसा प्रवाह है कि लम्बा हो या छोटा, पढ़ने वाला बोर नहीं होता।
इसलिए लिखते रहें और पढ़वाते रहें।
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