बातें
बचपन में(तीसरी/चौथी क्लास में रहे होगें) हमने एक दिन अपनी मां से शिकायत की कि क्लास में कोई हमसे बात नहीं करता, मां ने पहले तो अनसुना कर दिया पर जब हमने दो तीन बार कहा तो एक दिन मां पता लगाने हमारे स्कूल चली आयीं। टीचर को क्लास के बाहर बुला कर पूछा कि भई बात क्या है, टीचर मां को क्लास के अंदर ले आयीं , हम बेन्च पर खड़े थे, सजा मिली हुई थी, टीचर बोली देखो, इत्ता बात करती है कि हमें सजा देनी पड़ी , बेन्च पर खड़ी है और फ़िर भी बतिया रही है।
बातों का सिलसिला आज तक जारी है। वो कहते है न कि अगर मन पंसद काम मिल जाए तो जिंदगी भर काम नहीं करना पड़ता, तो हमारा भी यही हाल्। क्लास में बातें करते हैं और उसके लिए पैसा भी पाते हैं। पर घर पर बहुत परेशानी हो जाती है। ले दे कर घर में हैं कुल तीन प्राणी, हमें मिला कर, उसमें भी बेटा जी तो अपने दोस्त यारों के साथ मस्त, तो बाकी बचे पतिदेव। वो बहुत मितभाषी हैं। ज्ञानी जन कह गये कि धीर गंभीर व्यक्तितव का रौब पड़ता है, और जो हर समय बक बक करे, उसे लोग बेवकूफ़ समझते हैं ( याद है न शोले की बसंती)।
पता नहीं लोग क्युं बाते करने के इतने खिलाफ़ हैं जी। किसी भी दफ़्तर में चले जाइए, अगर बॉस अपने आधीन लोगों को गप्पे लगाते देख लेगा तो आग बबुला हो जाएगा, उन्हें कामचोर समझेगा। खास कर महिलाएं गप्पबाजी के लिए बहुत बदनाम रहती हैं (जब की तथ्य ये है कि मर्द भी उतनी गप्पबाजी करते है जितनी औरतें)। पुराने जमाने में तो फ़ैक्टरियों, दफ़्तरों में दिवारों पर तख्तियां लगी होती थी,'कीप साइलेंस'।
लेकिन हम तो कहते है जी बातें बड़े काम की चीज होती हैं। बातें करने के लिए भी तो अक्ल चाहिए होती है, सवेंदना चाहिए होती है। मन में कुछ कुलबुलाए नहीं तो आप क्या बोलेगे। और मान लिजिए कि दुनिया के सारे लोग सिर्फ़ काम पड़ने पर ही बोले तो क्या ये साहित्य बनता था, ये गीत , ये कविताएं बनती थी? कितने अलौकिक आनंद से वंचित रह जाते हम सब्। पर नहीं जी , हमारे तर्क सुनता कौन है्।
लेकिन आज मैं अपने आप को बहुत हल्का मह्सूस कर रही हूँ, क्यों , क्या मैं ने बाते करना कम कर दिया? ना जी ना , वो तो हो ही नही सकता न, हाँ आज मेरे हाथ एक ऐसी साइनटिफ़िक रिपोर्ट लगी है जिसे पढ़ कर मन बाग बाग हो गया। इस रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में मनोवैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया गया था और पाया कि अगर दिन में कम से कम 10 मिनट लोगों के साथ बतियाने में गुजारे जाएं तो आप की यादाश्त और दूसरी मानसिक शक्तियां/मानसिक सामर्थ्य बड़ता है। इस प्रयोग में ये भी पाया गया
कि समाजिक अकेलेपन का हमारी भावनात्मक सेहद पर बुरा असर पड़ता है और मानसिक शक्तियों का हॉस होता है।
एक और भी ऐसी ही स्ट्डी याद आ रही है जो इसराइल के एक अनाथाश्रम में की गई थी कई साल पहले। उस अनाथाश्रम के साथ ही मेंटली रिटार्डेड(मानसिक रूप से कमजोर) महिलाओं का वार्ड था। एक बार उस अनाथाश्रम में अनाथ बच्चों की संख्या इतनी बड़ गयी कि आया कम पड़ने लगीं, एक आया के जिम्मे बीस बीस बच्चे, वो भी नवजात्। ये निर्णय लिया गया कि कुछ बच्चों को मेंटली रिटार्डेड महिलाओं की देख रेख में छोड़ दिया जाए। समाज में इस निर्णय की घोर निन्दा हुई, पर प्रबंधको के पास कोई और चारा न था। साल के अंत में सब बच्चों का मुआयना किया गया। जो अनाथाश्रम में थे उनका भी और जो इन महिलाओं के साथ थे उनका भी। परिणामों ने सबको आश्चर्यचकित कर दिया। जो बच्चे महिलाओं की देख रेख में थे उनका मानसिक और भावनात्मक विकास अनाथाश्रम में आयाओं के साथ पल रहे बच्चों से ज्यादा था। पता है क्युं? क्युं कि जो बच्चे मेंटली रिटार्डेड महिलाओं के पास रखे गये थे वो महिलाएं उन बच्चो के साथ बतियाती रह्ती थीं, क्या बतियाती थी ये महत्वपूर्ण नहीं था।वो बच्चे उनके लिए खिलौनों के जैसे थे, हर कोई खेलने को ललायित्। बच्चे हर समय कुछ न कुछ समझने की कौशिश कर रहे होते थे। जब कि आया चुपचाप आकर दूध की बोतलें बच्चों के मुहँ से लगाती जाती थी और बच्चे सारा दिन अपने बिस्तर पर पड़े पड़े सर के ऊपर घूमते पखें को देखा करते थे। जब तक वो रोएं न कोई गोद में उठाने वाला नहीं न कोई बात करने वाला। उठाए भी गये तो कुछ क्षण के लिए।
कुछ महीने का बच्चा भी अगर कमरे में अकेला पड़ा हो और आप उस कमरे में जाए तो तेजी से हाथ पांव चलाने लगता है, मानों कहता हो मुझसे बात करो, और अगर आप बात करें चाहे कितनी भी बेतुकी, या कुछ बेतुकी सी आवाजें निकालें गले से, तो वो और जोर से हाथ पांव चलाने लगता है, चेहरे पर मुस्कान खिल उठती है, आखों मे चमक, और वो भी कुछ आवाजें निकालने लगता है मानों आपसे बाते कर रहा हो। ये खेल बच्चे के मानसिक विकास में तेजी लाते हैं। हमें जहां तक हो सके बच्चों को चाहे वो कोई भी उम्र के हों बतियाने से नहीं रोकना चाहिए।
रोकना तो बड़ों को भी नही चाहिए, क्या तुम सुनोगे मेरी बातें ?…॥:)
सुस्वागतम
आपका हार्दिक स्वागत है, आपको यह चिट्ठा कैसा लगा? अपनी बहूमूल्य राय से हमें जरूर अवगत करावें,धन्यवाद।
November 05, 2007
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11 comments:
खूब बतियाये-सुन रहे हैं. रोकेंगे नहीं.
सही बात है। श्रीकांत वर्मा के बारे में संस्मरण लिखते हुये हरिशंकर परसाईजी ने लिखा था-
रात-रात भर बातें की हैं
बात-बात पर रातें की हैं।
और बातूनियों से तो हमारा साहित्य भरा पड़ा है। वो कहा है न!
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय,
सौंह करे भौंहन हंसे, देन कहे नटि जाय॥
यह जानकारी काम की है कि बतियाने से याददाश्त
बढ़ती है। अच्छी पोस्ट! :)
बहुत खूब!!
अजी इतना मन भर के बतियाइए जब तक कि मन न भर जाए!!
बच्चे जो खिलते गुलाब जैसे होते हैं उनकी बाते --
कभी काँटा बन चुभती चली जाती मन में
कभी सुगन्ध बन फैलती चली जाती तन में !
बतियाइये शौक से। समीर जी की तरह हम भी तैयार है सुनने को पर शोधो का हवाला नही दीजिये। ये शोध पहले कहते है चाय अच्छी है, फिर कहते है बुरी है, फिर अच्छी, फिर बुरी-- कहाँ है इसका अंत पता नही। :)
आइये बातें करें..ब्लॉग के जरिये...
अरे भाई आप अगर नही बोलेंगी तब परेशानी हो होंगी, तो बोलते रहिये, ताकि हमारा स्वस्थ अच्छा रहे
अनिता जी आप ने लिखा.. मुंबई में गोष्ठी के बारे में.. हम इसे यहां भी शुरू करा चाहते हैं..कवि कुलवंत ०२२-२५५९५३७८
अब हम क्या कहें। हमने तो कई दिन बिना बोले गुजारे हैं।
वाह जी वाह!! आपने पुरुषों को भी लपेटे में ले लिया। हमारा अनुभव कहता है ( कि महिलायें ज्यादा बातूनी होती है। अनुभव कहाँ से मिला होगा? आप समझ सकती हैं)
इस लेख में यह वाला अंश पढ़ना बहुत अच्छा लगा (कुछ महीने का बच्चा भी अगर....) आँखों के आगे चित्र किलकिलाते और पाँव हिलाते बच्चे का चित्र सजीव हो गया।
शोध के बारे में पंकज जी ने खूब कही! ऐसा ही एक लेख हमने लिखा था जिसमें शोध कहती थी कि पति से झगड़ो लम्बी उम्र पाओ
सागर जी आप ने जिस शोध की बात की है उसके बारे में मुझे नही पता था,शुक्रिया, अब मैं भी स्वस्थ रहूंगी। पति किस तरह स्वस्थ रहें इस पर शोध हम कर लेते है। अब भई, खुदगर्जी भी तो ठीक नहीं न
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