ये मेरा सौभाग्य है कि अनंत श्रीमाली जी मुझे नियमित रूप से हिन्दी साहित्यिक जगत के विविध कार्यक्रमों में आमंत्रित करते रहते हैं और मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे अक्सर उनके निमंत्रण को अपनी व्यस्तता के चलते नजर अंदाज करना पड़ता है। पिछले हफ़्ते भी श्रीमाली जी का एस म एस आया, किसी किताब का विमोचन था और साथ में काव्य गोष्ठी। एक दो बार किताब के विमोचन के कार्यक्रमों में गयी हूँ पर कोई खास आनंद नहीं आया। मैं ने उन के एस म एस को अनदेखा कर दिया, फ़िर दो दिन पहले दोबारा एस म एस आया जिसे मैं ने कल सुबह ही खोला। इस बार उस में 'कुतुबनुमा मंच' का नाम जुड़ा था। कुतुबनुमा मंच डा राजम नटराजन पिल्लै चलाती हैं, उन्हें मैं ने दो तीन बार मंच से बोलते सुना है। डा राजम पिल्लै की प्रशसंको की लंबी लिस्ट में मेरा भी नाम है। मूलरुप से तमिल मातृभाषी राजम जी हिन्दी की प्रकांड पंडित हैं और हिन्दी साहित्य की दुनिया में उनका नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है।
हिन्दी में एम ए करने के बाद वो कई साल तक एस आई एस कॉलेज में हिन्दी विभाग की अध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहीं और रिटायर होने के बाद कुतुबनुमा नाम से एक पत्रिका निकालनी शुरु की। पत्रिका की गुणवत्ता ऐसी है कि उसमें से कितने ही लेख पाठयक्रम में लगाये जा सकें। उनके व्यक्तित्व की जिस बात ने मेरा मन मोह लिया वो है उनका खिलंदड़ा अंदाज। गहरी से गहरी बात को भी वो ऐसे हंसी मजाक में कह जाती हैं कि हंसते हंसते लोगों की आखों में आसूँ और मन में उनके सामाजिक सरोकार के प्रति निष्ठा के प्रति आदरभाव होते हैं।
राजम जी को सुनने का मौका और काव्य गोष्ठी, दो दो आकर्षण, दिल ने कहा "चल यार इन दोनों के लिए तो ये किताब का लोकार्पण भी झेल लेगें", दिमाग बोला पागल है क्या, पता है विले पार्ले कितनी दूर है? लेकिन हमेशा की तरह अंत में जीत दिल की ही हुई।
जब हमने एस म एस देखा उस समय लगभग साड़े ग्यारह बज रहे थे। पच्चीस दिसंबर का दिन, क्रिसमिस की छुट्टी, हम बड़ी कशमश में थे कि क्या करें। बड़ी हिचक के साथ पतिदेव को बताया कि कैसे उनकी छुट्टी की ऐसी तैसी करने का मन हो रहा है। खैर वो मान गये, छुट्टी के बाकी सारे प्लान फ़टाफ़ट रद्दी के टोकरी में डाले गये, सिर्फ़ एक प्लान को मटियामेट नहीं किया जा सकता था, बहू के मायके जाने का( बहू हमारी आधी क्रिश्चयन है और क्रिसमिस उनके लिए बड़ा त्यौहार है, हाजिरी लगाना जरूरी था)। हमने थोड़ा एडजस्ट करने को कहा, जैसे बम्बई की भीड़भाड़ वाली लोकल ट्रेन में लोग कहते हैं थोड़ा खिसको और तीन सीटों वाली बैंच पर चार लोग फ़िट हो जाते हैं। हमने भी वादा किया कि हम पूरे कार्यक्रम के लिए नहीं बैठेगें और वो भी हमारा थोड़ा देर से आना माफ़ कर दें, खैर तालमेल बैठ गया।चार बजे के कार्यक्रम के लिए 2 बजे निकल पड़े।
यूँ तो विले पार्ले एरिया हमारे लिए नया नहीं है लेकिन जब से ये स्काई वॉकस, फ़्लाइओवर्स बने हैं पूरे शहर की शक्ल ही बदल गयी है, खैर हम ज्यादा लेट नहीं थे, सवा चार बजे तक पहुंच गये। दरवाजे पर ही राजम जी और खन्ना जी खड़े थे। वो हमें ज्यादा अच्छे से नहीं जानती होगीं यही सोच कर हम सिर्फ़ अभिवादन कर हाल में प्रवेश कर गये और बायें तरफ़ की सबसे आगे वाली पंक्ति में जम गये। श्रीमाली जी मंच संचालक होने के कारण व्यस्त नजर आये, हम ने अभिवादन कर महज अपने आने की खबर उन्हें दे दी। इस लिए नहीं कि हम कोई तोप हैं, बस इस लिए कि उन्हें एहसास हो जाए कि उनका एस म एस बेकार नहीं हुआ, हम हाजिर हैं। जवाब में उन्हों ने भी कार्यक्रम के बीच में मंच से जब उन्हों ने हमारा परिचय देना शुरु किया तो एक क्षण के लिए तो हम चौंके और सकते में आ गये कि कहीं कुछ बोलने को तो नहीं कहने वाले? नीरज जी के यहां काव्य संध्या में देव मणी पांडे जी ने यूं ही अचानक हमें कविता पढ़ने के लिए बुला लिया था। जब हमने आश्चर्य जाहिर किया था तो बोले थे कि आप को नीरज जी ने निमंत्रित किया है तो आप को समझ जाना चाहिए था कि आप को कविता तो पढ़नी होगी। हमें अपनी बेवकूफ़ी पे उस दिन बहुत गुस्सा आया था। खैर, श्रीमाली जी ने जब हमारा परिचय देने के बाद सिर्फ़ हमारे आने का आभार प्रकट किया तो हमारे चेहरे पर ऐसे ही भाव थे कि जान बची और लाखों पाये।
सामने मंच पर लगे बैनर पर लिखा था कुमार शैलेन्द्र के गीत संग्रह
' धूप की कचहरी' का लोकार्पण समारोह्। मन में सोचा, हम्म्म्म, नाम तो इंट्रस्टिंग है, 'धूप की कचहरी' । अभी कार्यक्रम शुरु होने में कुछ देर थी, अध्यक्ष का पदभार संभालने वाले श्री नंद किशोर नौटियाल जी अभी तक नहीं आये थे। सो टाइम पास के लिए हमने दायें तरफ़ की पहली पंक्ति पर विराजमान महानुभावों को देख अंदाजा लगाना शुरु किया कि इसमें कुमार शैलेन्द्र कौन से होंगें। नौटियाल नाम जाना पहचाना सा लग रहा था लेकिन शक्ल याद नहीं आ रही थी। जान पहचान न होते हुए भी लक्ष्मी यादव जी ने बड़े स्नेह से हमारे आने पर प्रसन्नता दिखाई और तभी कार्यक्रम शुरु हो गया।
राजम जी के व्यक्तव्य पर एक बार फ़िर निसार हुए(पैसा वसूल वाली बात), यहां आने के बाद ही पता चला कि जिस किताब का लोकार्पण होने जा रहा है उसे कुतुबनुमा ने प्रकाशित किया है, मतलब कि अब राजम जी प्रकाशक भी हो गयी हैं। अपने व्यक्तव्य में उन्हों ने नौटियाल जी की खूब चुटकी ली जो संपादक भी हैं। नौटियाल जी ने भी अपने अध्यक्षीय संबोधन में राजम जी को बक्शा नहीं और उनकी हर चुटकी का जवाब उसी अंदाज में दिया। डां करुणा शंकर उपाध्याय, जो मुंबई विश्व विध्यालय में बतौर रीडर कार्यरत हैं, उन्हों ने पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत की। जैसे जैसे वो पुस्तक के बारे में बताते गये वैसे वैसे हमारी उस पुस्तक को तभी का तभी पढ़ने की इच्छा बलवती होती गयी। किताब में करीब अस्सी गीत और कविताएं हैं और बीच बीच में मुक्तक हैं। एक झलक आप भी देखिए
" याचक बन कर दुख आया फ़िर मन के द्वारे।
दान कर दिये मैं ने भी सुख के पल सारे॥"
" एक पंख पर पर्वत ढोए,
एक पंख पर स्वपन संजोए,
कितनी दूर उड़ेगा रे मनपाखी॥"
"ढूंढ रहे मेले में अपनी ही परछाईं,
सूनेपन से शायद युग युग का नाता है"
"सबको ही तलाश है,
उससे ज्यादा की,
जितना जिसके पास है"
"टुकड़ा टुकड़ा जी रहा है ,
आदमी कितना बिखर कर ।
जिंदगी तू क्या करेगी,
एक पल सज कर संवर कर्॥
धज्जियां कितनी उड़ी हैं,
राह बिन मोड़े मुड़ी हैं,
चाह की हर इक चिता पर, आस ही जिंदा खड़ी है।
आत्मा मर जाए तो क्या, तन टिका रहता उमर भर॥"
" मैं जिन्दगी को ढूंढता रहा, जिन्दगी मुझे ढूंढती रही।
उम्र की मशाल बुझ गयी, न मैं मिला न जिंदगी मिली।। "
हम एक एक मुक्तक सुनते जाते थे और नीरज जी को याद करते जा रहे थे। वो भी अगर वहां होते तो बहुत खुश होते। मन के भाव बिल्कुल ऐसे थे जैसे बचपन में दो दोस्त एक साथ बैठे हों, एक दोस्त लॉलीपॉप का स्वाद ले रहा हो और उसे लगे कि ये अलौकिक आनंद अपने मित्र के साथ बांटना मजेदार रहेगा और वो अपनी लॉलीपॉप उसकी तरफ़ बढ़ा दे कि तुम भी चखो)
लोकार्पण का कार्यक्रम समाप्त होते होते इतना वक्त लग गया कि काव्य गोष्ठी की शुरुवात की बस दो ही कविताएं सुन पायी और सात बज गये, मुझे अपना दूसरा वादा निभाना था। सोच रही थी कि अक्सर ऐसे मौकों पर जिस किताब की मुंह दिखाई होती है उसे बेचने के लिए कांउटर भी बना होता है तो जल्दी से एक प्रति खरीद कर वापसी की राह पकड़ें। इतने में राजम जी एक प्रति लिए हुए आयी और मेरे पास बैठी महिला को देनी चाही, उस महिला ने कहा उसके पास पहले से है एक कॉपी, हमने अच्छा मौका समझ राजम की तरफ़ कदम बढ़ाया तो हमारे मन की बात समझते हुए उन्हों ने वो प्रति हमें थमा दी। आभार व्यक्त करते हुए हम बाहर आ गये। वाशी पहुंच स्टीरयिंग व्हील पति के हवाले कर हम भागती कार में सड़क के लैम्प पोस्टों से आती रौशनी में किताब पढ़ने लगे।
आप बोर न हो रहे हों तो उनकी एक कविता सुना दूँ, जो मुझे बहुत अच्छी लगी?
हमें भी ख़बर है
हमें भी ख़बर है, तुम्हें भी ख़बर है,
ये जिसकी ख़बर है वो बेख़बर है॥
जमीं तो वही है, वही आस्मां है,
मगर रंग मिट्टी का बदला हुआ है,
नजर बेनजर क्यों?ज़ुबां बेज़ुबां क्यों?
ये चारों तरफ़ बस धुंआ ही धुआं क्यों?
यहां घुट रहा दम, यहां मौत-मातम,
यहां ज़िंदगी ढो रही हर उमर है॥
वतन भी वही, हमवतन भी वही हैं।
मगर दिल की धड़कन मे सरगम नहीं है,
यहां ज़ख़्म ही ज़ख़्म हैं, मरहम नहीं है,
बिना राह के रहनुमा कम नहीं हैं।
ये इंसा में वहशत, ये अपनों से दहशत,
अब अपने ही आंगन में लुटने का डर है॥
मुखौटों की मंडी में आबाद चेहरे,
सियासत की खेती, गुनाहों के पहरे
करे कौन इंसाफ़ मुंसिफ़ ही बहरे,
ये मीनार कालिख की गुंबद सुनहरे
यहां मौत जिंदा है, इंसा दरिंदा है,
ये पूरा शहर पत्थरों का नगर है॥
अभी बहुत से रोचक किस्से बाकी है इस सांझ के लेकिन पहले आप ये बताइए कि कहीं बोर तो नहीं हो रहे?
9 comments:
अजी कैसे बोर हो जाएंगे, आपकी लेखन शैली ऐसी है कि पकड़ कर बांधे रखती है।
धूप की कचहरी में तो वैसे इन सर्द दिनों में हर कोई हाजिर होना ही चाह रहा है न।
अभी तक तो बोर नहीं हुए… :) :) :)
वैसे अक्टूबर के बाद सीधे दिसम्बर अन्त में पोस्ट??? क्या प्रणव मुखर्जी से भी ज्यादा व्यस्त हैं आप?
test comment please
झलक तो उत्सुकता जगा गयी।
'धूप की कचहरी' बहुत आकर्षक नाम लगा...बहुत ज्यादा।
नंदकिशोर नौटियाल जी के द्वारा ही प्रकाशित (शायद नूतन सवेरा अखबार) में मैने विलेपार्ले वाली एक हिंदी लाइब्रेरी 'जीवनप्रभात विमला पुस्तकालय' का पता पाया था जहां पर कि हिंदी की तमाम साहित्यिक रचनायें मिलती है। उस विज्ञापन का ही नतीजा है कि मैं उस लाइब्रेरी का सदस्य बन गया औऱ अब भी किताबें वहीं से लाता हूँ।
हां अब वो लाइब्रेरी विलेपार्ले से अंधेरी शिफ्ट हो गई है।
बढ़िया वृत्तांत है। मुक्तक तो मुग्ध कर देते हैं।
बोर हो गये जब देखा कि आगे की कहानी पूरी नहीं दी गयी थी। इंतजार है आगे की कहानी का।:)
ना, बोर तो नहीं हुए, जाते हैं अगली कड़ी की ओर
अनीता जी, आपकी पुरानी पोस्ट पढ़ी। 'धूप की कचहरी' उद्धृत गीत- हमें भी ख़बर है, तुम्हें भी ख़बर है,ये जिसकी ख़बर है वो बेख़बर है॥ मुखौटों की मंडी में आबाद चेहरे,सियासत की खेती, गुनाहों के पहरे, करे कौन इंसाफ़ मुंसिफ़ ही बहरे- पसंद आया। महानगर की आपाधापी में समय निकील पाना तो मुश्किल होता है। इसीलिए बहुत दिन से कुछ नहीं लिखा।
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