और वो लटक लिए
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पता नहीं क्या बात है पर अचानक आत्महत्या की कई खबरें, चर्चाएं सुन रहे हैं। अनूप जी ने कहा, उनसे प्रेरित हो कर अकुंर जी बोले, दोनों को आई आई टी में हुई छात्रों की आत्महत्या ने द्रवित किया। पिछले ही हफ़्ते अपनी ही बिल्डिंग में एक नौकरानी के आत्महत्या के मामले ने हमें अंदर से हिला कर रख दिया, मृत्यु तो अब कई बार देख चुके पर आत्महत्या पहली बार देख रहे थे। फ़िर पिछले हफ़्ते ही अखबार में पढ़ा कि जिस पुल को पार कर हम रोज कॉलेज जाते हैं उसी से एक युवक, शायद हमारे ही कॉलेज का, अपनी प्रेमिका की आखों के सामने इस दुनिया से कूच कर गया। हम आते जाते सोचते रहे क्या वजह /मजबूरी रही होगी कि इन नयी खिलती कलियों ने ऐसा कदम उठा लिया। इनके सामने तो अभी पूरी जिन्दगी पड़ी थी, अभी तो सब सपने देखे भी न होगें, उन्हें पूरा करने की मशकत करना तो दूर की बात थी। मेरे जैसे लोग जो अपनी जिन्दगी जी चुके हैं वो ऐसा करने की सोचें तो बात समझ आती है।
एक बात तो है मरना इतना आसान नहीं है, आत्महत्या करने की सोचना एक बात है और कर जाने के लिए कदम उठा लेना दूसरी बात है, उसके लिए बड़ा जिगरा चाहिए या मन में समुद्र जितना दर्द या डर। पर आदमी इतना क्युं डर जाए कि अपनी जान ही ले ले। कौन डराता है उन्हें इतना। ज्ञान जी के शब्द अगर चुराने की इजाजत हो तो कहूंगी कि मन में ऐसी ही हलचल चल रही थी।
अनूप जी ने विश्लेषण करते हुए कहा कि लोग( खास कर आजकल की युवा पीढ़ी) असफ़लता के चलते, आर्थिक विपदाओं के चलते, तनाव, अकेलेपन के कारण,और कोई दूसरा रास्ता न समझ आने के कारण, यहां तक कि दूसरों की नकल लगाते हुए भी आत्महत्या कर लेते हैं।
अकुंर जी ने भी लगभग वही बात दोहराई, आजकल लोगों की सहनशक्ति बहुत कम हो गयी है। आपसी रिश्तों का ह्रास अकेलेपन को बढ़ाए दे रहा है। दोनों पोस्ट पर टिप्पणीयों में भी कई कारण साफ़ हुए पर दोनों पोस्ट में एक एक बात मार्के की थी, जिसका जिक्र जरूरी है, पहले तो अनूप जी की बात-
“सामूहिक लक्ष्य में असफ़लता के चलते लोगों को आत्महत्या करने के किस्से नहीं सुनने को मिलते हैं। यह नहीं सुनाई देता कि क्रांति असफ़ल हो गयी तो नेता ने आत्महत्या कर ली, मार्च विफ़ल हो गया तो लीडर ने अपने को गोली मार ली, शिक्षा का उद्देश्य पूरा न हुआ तो बच्चों की शिक्षा के लिये दिन रात कोशिश करने वाला बेचैन शिक्षाशास्त्री लटक लिया। ”
और अकुंर जी की पोस्ट में जो उन्हों ने बड़ी पते की कही वो ये कि "यदि हमने आर्थिक संपन्नता का भोग किया है तो इसके दुश्परिणामों को भी हमें ही झेलना पड़ेगा।"
ये दोनों बातें भी एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। सामूहिक लक्ष्य में असफ़लता के चलते लोग इस लिए आत्महत्या नहीं करते क्यों कि असफ़लता के लिए वो सिर्फ़ खुद को जिम्मेदार नही मानते, उल्टे ऐसा सोचते हैं कि अगर दूसरे हमारे आढ़े न आते तो हम यकीनन सफ़ल हो जाते, इस प्रकार जिम्मेदारी का विकेन्द्रिकरण कर अपने अहं को चोट पहुंचने से बचाये रखते हैं।
लेकिन जब व्यक्तिगत असफ़लता मिलती है तो किसको दोष दें , लोगों के काल्पनिक हमलों से ही बचने के लिए निपट लेते हैं। आत्म रोष तो होता ही है डर भी बेहद होता है।
मेरे ख्याल में आत्महत्या की बिमारी की जड़ में हमारा अपनी संस्कृति से दूर होना और पाश्चात्य संस्कृति को अंधाधुंद अपनाना भी है। हमारी संस्कृति सिखाती है एक दूसरे के साथ जुड़ना, अपनी पहचान अपने घर परिवार से बनाना, पाश्चात्य संस्कृति सिखाती है अलगाववाद जिसमें मैं ही मैं सबसे ज्यादा महत्त्व रखता है। खून के रिश्तों से भी प्रतिस्पर्धा,अकेलापन तो होना ही है।
हमारी संस्कृति सिखाती है विनम्रता, सफ़ल असफ़ल होने वाले हम कौन, हम तो वही करते और पाते हैं जो ऊपर वाला चाहता है, ऐसी सोच असफ़लता से पैदा हुई निराशा से बचने के लिए कवच का काम करती है, लेकिन पाश्चात्य संस्कृति तो कहती है खुद को सर्वोपरि समझो, अपने आगे किसी को कुछ न समझो, तुम्हारे जीवन में जो कुछ भी होता है उसके लिए तुम खुद जिम्मेदार हो, तब असफ़लता हाथ लगे या उसका अंदेशा भी हो तो जोर का झटका तो लगना ही है। ऐसे में शर्म के मारे बच्चा किसी से कह भी नहीं सकता कि उसे कोई परेशानी है। ऐसा कहने का मतलब होगा ये मान लेना कि वो कमजोर है, नकारा है, अपनी जिन्दगी खुद नहीं संभाल सकता और ये मान लेना तो उसे मंजूर नहीं, स्वाभिमान दंभ होने की हद्द तक जो कूट कूट कर भरा जाता है।
कुछ लोग ये समझते हैं कि लोग आत्महत्या तभी करते हैं जब उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं बचता, पर मुझे तो लगता है कि आज कल लोग आत्महत्या का विकल्प एक बड़ा ही आसान विकल्प समझा जाता है और लोग उसे हमेशा साथ में रखते हैं। जिन्दगी के संघर्षों से जुझना बड़ा लंबा और मेहनत का काम है, जिन्दगी से निपट लेने में कुछ क्षण ही तो लगते हैं फ़िर ऐसी जगह पहुंच जाते हैं जहां कोई कुछ कह भी नहीं सकता।
मुझे नहीं लगता कि आत्महत्या करने वाला (खास कर कच्ची उम्र वाला)वास्तव में ये विश्वास करता है कि आत्महत्या के बाद जिन्दगी खत्म हो जायेगी। उसे लगता है मानों स्लेट पौंछ कर दूसरी कहानी लिखी जा सकेगी।
अनूप जी ने पूछा राम तो भगवान थे वो क्युं जा कर सरयु में समा गये। वैसे तो मैं ने धार्मिक किताबें कभी पढ़ी ही नहीं( वो सब रिटारयमैंट प्लान में आता है, वानप्रस्थ आश्रम के समय) पर जो कुछ रामायण के बारे में जानती हूँ उसके आधार पर मेरा अनुमान ये है कि राम जी की समस्या ये थी कि वो सारी जिन्दगी दूसरों के लिए जीते रहे, दूसरों को खुश करने के प्रयास में जिन्दगी निपटा ली। आज भी परिस्थति कुछ ज्यादा अलग नहीं, हम में से कई लोग दूसरों के लिए ही जीते हैं, खुद को क्या चाहिए, क्या अच्छा लगता है जब ये नहीं पता तो दूसरे को कैसे खुश रक्खा जाए कैसे पता होगा, सो बड़े क्न्फ़्युज्ड रह्ते हैं लोग। सिर्फ़ एक ही बात साफ़ होती है हम सबके दिमाग में , जन्म अपनी मर्जी से नहीं लिया, जीते भी हैं औरों की मर्जी से। अपने हाथ में तो बस एक ही चीज है अपनी मौत, जब चाहो गले लगा लो।
कई बार तो बच्चे सिर्फ़ अपने अति व्यस्त मां बाप को दु:ख पहुंचाने के लिए जिन्दगी से निपट लेते हैं जैसे कुछ घर से भागने की योजना बनाते हैं। इन्हें लगता है घर से भाग कर कहां जाएगें तो चलो जिन्दगी से भाग लो, आसान रहेगा। टिकट भी न कटाना पड़ेगा।
खैर इस विषय पर तो ढेर सारी चर्चा हो सकती है और होनी भी चाहिए। इस चर्चा को शुरु करने के लिए अनूप जी को साधुवाद देना होगा।
15 comments:
जीवन को समाप्त करना कभी किसी भी विषम समस्या से मुक्ति का विकल्प नहीं हो सकता । आपने सही कहा। ऐसा न करने की मदर तो परिवेश ही दे सकता है। बीमारी की वजह से खुदकुशी एक अलग बात हो सकती है मगर ज्यादतर आत्महत्याओं के मूल में समाज, परिवेश के बीच जी न पाने का भय प्रमुख होता है और क्षणिक आवेग में फैसला हो जाता है।
अच्छी पोस्ट
हम आत्महत्या पर कइए बार सोच चुके हैं जी। सारे तो तरीके भी छान मारे। मगर जिन्दगी से खूब सूरत एक भी नहीं। इसलिए कैसी भी हालत में ना करने की कसम खाए हैं। वास्तव में लोगों को जिन्दगी की खूबसूरती पता नहीं। जिन्दगी हर हालत में खूब सूरत है। यह मनुष्य का जेहानी विकास हो गया है न वहाँ कुछ गड़बड़ है जो आत्महत्या को प्रेरित करता है। अब डाक्टर लोग, जीव विज्ञानी, दार्शनिक और इसी किसम के लोग बता सकते हैं कि इन्सान की औलाद के अलावा और कोई जीव क्यों नहीं आत्महत्या करता है।
कुछ लोग ये समझते हैं कि लोग आत्महत्या तभी करते हैं जब उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं बचता, पर मुझे तो लगता है कि आज कल लोग आत्महत्या का विकल्प एक बड़ा ही आसान विकल्प समझा जाता है और लोग उसे हमेशा साथ में रखते हैं।
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यह मुझे सत्य के अधिक समीप लगा। लोग सॉफ्ट ऑप्शन में उत्तरोत्तर ज्यादा विश्वास करने लगे हैं। लिहाजा आत्महत्या सरल तरीके के रूप में सामने आ रहा है।
मर्डर डकैती लूटपाट भी इसी सॉफ्ट ऑप्शन के वशीभूत बढ़ रही है।
मुझे लगता है कि परिवेश और आसपास का वातावरण बहुत प्रभावित करता है...अच्छा मुद्दा लिया है..चर्चा आवश्यक है. अनूप भाई का आभार.
आत्महत्या लोग विकल्पहीनता की स्थिति में करते होंगे। समझ में नहीं आता होगा कि क्या होगा आगे।सामने आयी चुनौती इत्ती भारी लगती होगी कि आदमी खुदकशी कर लेता होगा। अकेलापन इसमें इजाफ़ा करता होगा। आसपास का आशावादी परिवेश इस समस्या से निजात पाने में सहयोगी हो सकता है।
कहीं न कहीं इसमें मुझे समाज की भूमिका भी दिखती है खासकर छात्रों के मामले में... अच्छा करने का दबाव और फिर न करने पर ग्लानी.
आत्महत्या क्षणिक आवेश का परिणाम है...ये आवेश कभी इतना अधिक हो जाता है की हमारी सोच समझ की ताकत को कुंद कर देता है....चर्चा चलनी चाहिए.
नीरज
आत्महत्या का अपना मनोविज्ञान है। मेरी समझ से इसे वह ही समझ सकता है, जो मनोविज्ञान का पारखी हो या जिसने उस जैसे हालातों को झेला हो।
अजित जी से सहमत हूँ.
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यह भी कि जिन पुलों से
हम रोज़ पार जाते हैं
उन्हीं पुलों से कोई अगर
दुनिया के पार चला जाए
तो मंथन करना होगा
इस पीढ़ी को भटकाव से उबरने
और
दुश्चिंता के पार जाने की
मुक़म्मल राह
कैसे सुझाई जा सकती है ?
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आपने संवेदनशील मुद्दे पर
सार्थक चर्चा की है.
आभार
डा.चन्द्रकुमार जैन
लगता है हम दोनो को एक बार फिर से इस मुद्दे पर साथ साथ सोचने की जरूरत है, हमारे विचार मिलकर कुछ नये रास्ते खोलने मे सक्षम हैं, आपको पढने के बाद, मेरा पोस्ट अधूरा सा लग रहा है।
आपकी नई पोस्ट की प्रतीक्षा है।
आत्महत्या का विषय बहुत सामयिक चुना है आपने.बहुत दुख होता है जब ७वी-८वी के बच्चे पढाई /माता पिता के दबाव से तंग आकर अपने जीवन की समाप्ति कर लेते हैं.सामजिक परिवेश कुछ ऐसा होता जा रहा है कि जो सफ़ल है वही ज़िन्दगी का हकदार है.लोग सहनशीलता और सूझ बूझ से परे जाते जा रहे हैं.
सबसे पहले तो मैं छुट्टी के कारण बहुत दिनों बाद ब्लॉग देख रहा हूँ ...
आत्महत्या पर अनिताजी का विचार पूरी तरह सटीक है ..आपने हर कारण और पहलू को बता दिया है . एक मनोविज्ञानी से इतनी उम्मीद जाहिर सी थी ,मैं अभी छात्र हूँ और मैंने भी लम्बे तनाव का अनुभव किया है.इसलिए मैं इस लेख की सार्थकता समझ सकता हूँ ,आजकल परिवर्तन और पाश्चात्य-प्रभाव के दौर में अधिकतर छात्रों को तनाव से गुजरना पड़ जाता है. और तनाव एक ऐसा अंधापन है जिसके कारण कोई भी अंधे कुँए में कूद सकता है .इस लेख में जो भी है वो सही है अलगावबाद या स्वाभिमान या पाश्चात्य . या फिर रामजी की कथा, सचमुच जो अपनी भावना को नही समझ सके, उसे जब सबकी भावनाओं को समझने के लिए प्राकृतिक दबाव आता है तभी वह तनावग्रस्त हो जाता है और उसे लगता है कि कोई नया जीवन शुरु करते हैं, आखिर स्वाभिमान तो भी उसे प्रकृति ने ही प्रदान किया है .
ma'm...iit के ही एक student ने एक फिल्म बनायीं थी "देजावू " उस फिल्म की कहानी भी हमारे विषय से मिलती-जुलती है....उसमे एक लड़का वह सब नहीं चाहता जो iit में होता है ...उसे सबका व्यहवार अपने प्रति अजीब लगता है ...अगर आप देखना चाहे तो वह सबसे अच्छी तरह समझा पायेगी की आत्महत्या के कारण क्या होते है...
जब आदमी की विवशता उसे एक हद से परे ले जाती है जहाँ उसे सार असार विचार नही आते और जीवन की समाप्ती ही एकमात्र विकल्प रह जाता है तभी वह यह कदम उठाता है ।
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