मेरे संग खेलोगे?
अनिता कुमार
अनिता कुमार
बचपन में याद है न हम सब ने न जाने कितनी दुपहरियां टीचर-टीचर, डाक्टर-डाक्टर, मम्मी-पापा और न जाने क्या क्या खेलते हुए बिताई थी। मम्मी सो रही होती थी और हम चुपके से तार पर सूखती उनकी साड़ी खींच कर ले आते थे , उलटी सीधी जैसी लपेटी जाती लपेट ली जाती( मैं आज तक नहीं समझ पाई ये साड़ी इतनी लंबी क्युं बनाई जाती है, लपेटते ही जाओ, लपेटते ही जाओ…अजीत जी को पूछना पड़ेगा ये हिन्दी का मुहावरा "लपेट लिया" और साड़ी लपेटने का कोई संबध है क्या?…:)) और फ़िर अलमारी खोलते ही भड़ भड़ करते हमारे छोटे छोटे किचन के खिलौने बर्तन जमीन पर फ़ैल जाते थे। आवाज सुन कर मम्मी समझ तो जाती थीं कि उनकी धुली साड़ी फ़िर से धोनी पड़ेगी पर नींद में वहीं से डांट लगा कर गुस्से की इतिश्री कर देती थीं। हम भी अपने साजो सामान लपेटे बाहर बरामदे निकल लेते थे और फ़िर शुरु होता था घर-घर का खेल्। कल्पना के पंख लगते ही मन पता नहीं क्या क्या खुराफ़ातें करने को मचल जाता था।
आगे यहाँ पढ़ें.......... रेडियोनामा
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7 comments:
अभी यहां टिपियाये जा रहें हैं.. अभी वहां भी टिपियायेंगें.. मगर आपको यहीं पूरा पोस्ट देना चाहिये था.. अब वहां भी जाना परेगा.. :D
घर से ज्यादा दुर नही जाना चहिये बुजुर्ग कहते हे,यही टिपी याण टिपीयाना कर लेते हे ठीक हे ना सागर नाहर जी
चलो तबादला कुबूल।
अगर सभी जनॊं ने रेडियोनामा वाली पोस्ट पढ़ ली हो तो तो प्रशांत जी भी जान गये होंगे कि ये पोस्ट वहां क्यूं है और राज जी भी समझ गये होंगे कि कभी कभी घर से दूर भी काफ़ी आनंद आता है.
बहुत अच्छे । ऐसे ही रंगारंग कार्यक्रम देती रहिये ।
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