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January 08, 2008

वो काले छ: दिन

7/1/08    11.55 p.m.

 

 

अभी अभी ज्ञानद्त्त जी की हॉस्पिटल से लिखी पोस्ट पढ़ी। पोस्ट पढ़ते पढ़ते बरबस कुछ पुरानी यादें चली आईं।

मई महीने की शनिवार की शाम बड़ी अलसायी सी शाम थी।उस दिन बुखार के चलते कॉलेज से आते ही सोफ़े पर ही पस्त हो गये थे।शाम, पतिदेव के आने पर चाय पीते पीते मार्केट जाने का प्रोग्राम बना।

करीब पौने सात बजे मार्केट में घुसने ही वाले थे कि फ़ोन दनदना उठा, फ़ोन छोटे भाई का था, इंदौर से खबर आई थी कि मम्मी हॉस्पिटल में एड्मिट हैं। सुन कर सन्न रह गये। अभी पिछ्ले शनिवार को ही तो मम्मी छ: महीने मेरे साथ गुजार कर वापस इंदौर गयी थीं। बदवहास से भाई के घर पहुंचे, कानों पर यकीं नहीं हो रहा था। टाइम देखा तो सवा सात बज चुके थे। पहली बार इस बात का एहसास हुआ कि बम्बई से इंदौर जाने वाले सब संसाधन सात बजे तक निकल लेते हैं । ट्रेन सात बजे छूटती है, बस सात बजे और फ़्लाइट भी सात बजे। मन था कि रुकने को तैयार नहीं।

भाई ने अपनी गाड़ी निकाली, दूसरे दिन सुबह दस बजे के करीब सीधा अस्पताल  पहुचें। लगभग भागते हुए आई सी यू पहुचें तो देखा मम्मी कोमा में थीं, सिर्फ़ सांस चल रही थी पर कोई रिस्पांस नहीं। हमारे दुख और क्रोध की सीमा न रही जब हमने देखा कि ऐसी हालत में भी मम्मी के हाथ पांव बिस्तर से बांधे हुए हैं जैसे स्कूल के दिनों में मेढक का डिस्सेकशन करने के लिए उसकी चारों टागों को खीच कर  वेक्स ट्रे में पिन लगा दिया जाता था।

उसी कमरे में बैठे डॉक्टर से पूछा कि उनके हाथ पांव क्युं बाधें हैं, उसने हमारी तरफ़ ऐसे देखा मानों हम पागलखाने से छूट कर आयें हैं, जबाब में सिर्फ़ बेरुखी से मौन धारण किए अपनी फ़ाइलों में मुह गढ़ाये रहा । हमने जरा ऊंची आवाज में अपना सवाल दोहराया, उसके साथ में और कई सवाल जड़े जैसे क्या डायगनोस हुआ, क्या ट्रीटमेंट शुरु किया गया है, आदि आदि। डाक्टर झुंझला गया ( मानों कहता हो ये  लोग दो अक्षर क्या पढ़ लेते हैं खुद को डाक्टर समझते हैं ) बोला मरीज नाक में लगी नली खींच लेते हैं इस लिए ऐसा किया गया है और यही नियम है।जहां तक ट्रीटमेंट का सवाल था हमें समझना चाहिए कि अब उनकी उम्र हो गयी है और ऐसा होता है, उनके ब्रेन में ब्लड क्लोट फ़स गया था। इसके पहले उनको कोई शिकायत नहीं थी और वो हमसे ज्यादा फ़ुर्ती से काम कर लेती थीं, सो हम हैरान थे अचानक ये कैसे हो गया।

 

हमारी आवाज में जो कंपकंपाता गुस्सा (कोल्ड फ़्युरी) था वो हमने उसके पहले और उसके बाद  खुद भी कभी नहीं देखा । हमने पूछा जो मरीज बेहोश पड़ा है अपनी करवट भी नहीं बदल सकता और हाथ भी नहीं उठा सकता वो नली कैसे खीचेंगा। अगर तुम्हारी बांह ऐसे बांध कर रख दी जाय तो कैसा महसूस होगा। डाक्टर खीज कर मम्मी के पास आया और जोर से चिकोटी काटी हमें ये दिखाने के लिए कि जो मरीज कोमा में होते हैं उन्हें कोई एहसास नहीं आता। चिकोटी काटते ही मम्मी के गले से क्षीण सी चित्कार उठी, हम लगभग चिल्ला उठे आप डाक्टर हैं कि कसाई, सिर्फ़ हमें दिखाने के लिए आप ने मरीज को जानबूझ कर बिना मतलब दर्द दिया। हमारे गुस्से का ठिकाना न रहा, हार कर मेरी जिम्मेदारी पर रस्सियां खुलवायीं गईं,  रस्सी खुलते ही बेहोशी के आलम में भी मम्मी ने अपना हाथ उठा कर अपने सीने पर रक्खा मानों कहती हों एक ही पोसिशन पड़े पड़े हाथ थक गया था। हमने तुरंत उन्हें अपोलो हॉस्पिटल शिफ़्ट करने का इंतजाम करवाया, फ़िर भी इस हॉसपिटल वालों ने डिस्चार्ज देते देते दो घंटे और बरबाद कर दिये। दोपहर एक बजे अपोलो हॉस्पिटल पहुचें। वहां तुंरत उनका इलाज शुरु हुआ। नर्सों ने बड़ी कोमलता से उन्हें एक करवट लिटाया। रोज सुबह बदन पौंछ कर कपड़े बदले जाते, बाल बनाये जाते, वातावरण भी साफ़ सुथरा, डाक्टर भी ज्यादा अच्छे और संवेदनशील्। लेकिन बहुत देर हो चुकी थी उन्हें इस अस्पताल में लाने में।

दरअसल, जब मम्मी को लकवे का अटैक हुआ वो घर पर बिल्कुल अकेली थीं, अटैक होने के 15 मिनिट के अंदर ही नौकरानी अचानक आ गयी थी और उसने शोर मचा कर  पड़ौसन को बुलाया था, पर नौकरानी और पड़ौसन दोनों अनपढ़, पहले तो उन्होनें खुद उन्हें होश में लाने की कौशिश की, फ़िर टेलिफ़ोन की डायरी ढूढनी शुरु की भाई को इत्तला देने के लिए, दूसरे के घर में क्या कहां रक्खा है कैसे मालूम होगा फ़िर नंबर पढ़ना। भाई का दफ़्तर घर से एक घंटे की दूरी पर था। उसने नौकरानी को ही रिक्वेस्ट की कि वो उन्हें पास वाले अस्पताल में ले जाए वो पहुंच रहा है, और कोई घर का बंदा शहर में था नहीं उस समय।  भाई ने शहर के सबसे अच्छे नामी गिरामी न्युरो सर्जन( जो उसका दोस्त भी था) को भी अस्पताल पहुंचने को कहा। वो पहुंचा  भी पर उस अस्पताल में सीटी स्केन की सुविधा न होने के कारण कह दिया कि उसकी जरुरत नहीं, अटैक मामूली है सब कंट्रोल में है। उसकी वही लापरवाही हमें भारी पड़ गयी। वो एक रात जो सही इलाह न मिला हमारे लिए मनहूस हो गयी। (कभी जान पहचान वालों पर भरोसा न करें यही सीख मिली इस हादसे से)

अपोलो हॉस्पिटल  में डाक्टरों ने बड़ी संवेदनशीलता के साथ पूरे परिवार को  आने वाले कल के लिए तैयार किया। बदवहासी में कितने ही न्युरो सर्जनस को बम्बई और दिल्ली में फ़ोन पर कंसल्ट किया गया, सब का एक ही मत कि अब सर्जरी कर के कोई फ़ायदा नहीं। हम बार बार अपोलो के डाक्टर के कमरे में जा धमकते इस निराश आशा में कि शायद कह दे कि हां कुछ हो सकता है। वो बड़ी पेशेंस के साथ हमारी दलीलें सुनता अपनी कही बातें फ़िर से दोहराता, और फ़िर हार कर उसने कहा कि मैं आप का दु:ख समझता हूँ पर अगर मेरी अपनी माता भी होती तो मैं सर्जरी की सलाह न देता। अब इसके आगे बोलने को कुछ नहीं रह गया था।

निराश हताश हम बार बार आई सी यू में मां के पास पहुंच जाते, हटने को मन न करता, हमें यकीन था वो हमें सुन सकती हैं चाहे जवाब न दे सकती हों। एक्चुली अपनी भारी सासों के जरिए जवाब देती थीं ऐसा हमें लगता था।  अपोलो के नियम बड़े कड़क थे। दिन में मिलने का वक्त सिर्फ़ दो घंटे, बाकी वक्त आप बाहर बैठे रहिए। दरबान हमें रावण से कम न दिखता था, कितना भी कौशिश कर लो वो टस से मस न होता। हां कभी कभी नर्स दया कर सुबह पांच बजे अंदर आने देती, इस शर्त पर कि हम आवाज न करें।

डाक्टर की बहुत मिन्न्तें की पर वो कानून तोड़ने को तैयार नहीं। वक्त हाथ से बड़ी तेजी से फ़िसला जा रहा था। हम किसी तरह दरबान की आखँ बचा कर अंदर पहुंचे और डाक्टर के सामने कुर्सी खीच कर बैठ गये। वो आश्चर्यचकित इसके पहले कुछ कहता हमने कहा डाक्टर साब हमारी एक बात सुन लिजिए फ़िर जो कहेगें हम कर लेगें। उसने प्रश्नीला मौन हमारी तरफ़ उछाल दिया।

हमने बात शुरु की…॥

डाक्टर साब हम जानते हैं हमारी मां कुछ घंटे या कुछ दिन की मेहमान है, आप ने ही बताया। अब ऐसे में हमें आई सी यू के बाहर इंतजार करने के लिए कह कर क्या कहने की कौशिश की जा रही है, कि मरीज के मरने का इंतजार करो और जब मर जाए तो आकर डेड बॉडी ले जाना। क्या आप को नहीं लगता कि मां से  कुछ कहने सुनने का हमारे पास ये आखरी मौका है, क्या आप इस बात की गांरटी दे सकते हैं कि विसिटिंग टाइम शुरु होने तक उन्हें कुछ नहीं होगा और हम उनसे अपने मन की बात कह सकेगें। आप को एतराज किस बात पर है अगर हम उनके साथ खड़े हैं तो?

डाकटर ने कहा कि लोग जाते प्रियजन को देख भाव विह्हल हो जाते हैं और उनके रोने से दूसरे मरीज भी अपसेट हो जाते हैं। हमने कहा आप की बात एक दम सही है लेकिन अगर हम आप को गारंटी दें कि हमारे मुंह से एक आवाज नहीं निकलेगी तो?

ये डाक्टर संवेदनशील था उसने हमें मां के साथ अतिंम क्षण गुजारने की इजाजत दे दी। बड़ा दर्दविदारक था मॉनिटर पर उठती गिरती लकीरों को सपाट लाइन में बदलते देखना। बस अब कुछ नहीं कहा जाएगा।

 

18 comments:

मीनाक्षी said...

मर्म स्पर्शी चित्रण कि आँखे नम हो गईं.. सच है कि ज्ञान जी की माँजी अस्पताल में हैं, यह जानकर आपको माँ की याद आना स्वाभाविक है और जो वर्णन आपने किया उसे पढ़ते ही हमें अपने पिता याद आ गए..ऐसे में यादें और आसूँ दोनों ही थमते नहीं.

ghughutibasuti said...

यह समय जीवन में कभी ना कभी तो आता ही है परन्तु हम इसके लिए कभी भी तैयार नहीं हो सकते
हैं ।
घुघूती बासूती

दिनेशराय द्विवेदी said...

आज आप का गुस्से की बानगी भी देख ली। जैसा होता है कि आप की पोस्टें पाठक को अपने साथ ले जाती हैं हमे भी ले गयी। वैसे ही अस्पताल से बहुत डरते हैं। वहां की सैर भी करनी पड़ी। आजकल अस्पताल इतने अमानवीय हो उठे हैं कि वहां नहीं ठहरा जाता है। लेकिन यह भी जीवन का एक पक्ष है, उस का सामना करना तो हर एक को सीखना ही होता है।

सुनीता शानू said...

सचमुच आज तो सुबह-सुबह रुला देने वाला काम हो गया...कितना मर्म स्पर्शी चित्रण किया है आपने...यह वाकये तो जीवन में होते ही रहते है...परंतु हम जानकर भी बहुत रोते है...

Rajesh said...

First of all, sorry for the sad news. Actually yahi hota hai jab apna koi is haalat mein hota hai aur bebas hum chupchap dekhne ke alava kuchh nahi kar sakte. 2005 mein hamare pitaji ke saath bhi yahi yahi ghatna ghati. With the grace of GOD he came out from ICU after 15-20 days. Lekin ve din kafi bojil the. Pitaji ekdam theek ho gaye. 20 dinon ke baad ghar per aa kar fir tandurast ho gaye. June 2007 mein kuchh bhi nahi hua unhe, 4-5 din tak sadharan sa bukhar raha aur hospital le jate samay, mummy ki god mein hi sir daal diya aur avval manzil ke aur chal diye, kisise kuchh bina kahe kuchh sune. Hum to Delhi mein baithe the. Is news ke adhe ghante ke pahle to ham se baat hui thi ki bukhar hai aur hum log hospital jaa rahe hai, vaapas aa kar phone karange. Vaapas aa kar phone to mila lekin unki death ka news dene ke liye. Main aur meri patni Delhi mein akele, koi kisi ko kya ashwast kar sakta tha. Jaise taise doosre din early morning hi flight mil gayi luckily Baroda ke liye aur bus hum unka antim darshan kar sake, jo kuchh hi pal ke baad khaak mein mil jane wale the..........

Sanjeet Tripathi said...

मार्मिक!!
मृत्यु अवश्यंभावी है यह हम सब जानते है फिर भी उससे बचना और अपनो को बचाना चाहते हैं।
ऐसे पल हममें से बहुतों के जीवन में आते हैं।

पिताजी को दो-तीन बार दिल की तकलीफ़ के कारण अस्पताल में रहना पड़ता था। तकरीबन हर बार उनके साथ मैं ही रहता रहा कभी एक हफ़्ते तो कभी पंद्रह दिन।
लिखूंगा कुछ इस बारे में भी बहुत कुछ याद दिला दिया आपने!

Anita kumar said...

आप सब दोस्तों का धन्यवाद मेरे दु:ख में शामिल होने के लिए

Gyan Dutt Pandey said...

मैं यह बहुत गहरायी से समझ रहा हूं कि सबसे उत्कृष्ट लेखन संस्मरणों का है। और संस्मरणों में भी यह अत्यन्त उत्कृष्ट पोस्ट है।
आपने ब्लॉगिंग को महत्व प्रदान किया है इस पोस्ट से। उत्कृष्ट लेखन के लिये बधाई।

सागर नाहर said...

लिखने के लिये कॊई शब्द नहीं, बस आप समझ जायें।

सागर नाहर said...
This comment has been removed by the author.
लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

अनिता जी ये ६ दिन का दुःख, मानसिक तनाव, अपनों के अस्वस्थ होने पे जो विकलता होती है वो सभी महसूस किया ...और आप के स्वजन हमारे हो गए हैं. आपका दर्द भी :-((

Pankaj Oudhia said...

उस दिन आपके ब्लाग मे पहले पहुँचने वाले हम ही थे। बडा लंबा सन्देश लिखा और जैसे पोस्ट किया तो कनेक्शन चला गया। सेव भी नही किया था।

आपसे खुशियो वाली पोस्ट की आशा है अब। वैसे आपने हमे अपना समझा और अपने दुख बाँटे उसके लिये आभार।

Anonymous said...

Ji apki blog per to pahli bar aye hain
sirf hum blog padhte hain abhi...
Lekin apka ye lekh to sach me bahut he marmsparsi hai..
hamar v rishte k ek jijaji k sath PMCH Patna k doctors ne apni laparwahi dikhayi aur chand ghanto me he madhy darje ka case complicated ho gaya aur unhone akhiri sans le li..
Laparwahiyo se bachne k liy to kuch na kuch kiya he ja sakta hai...
Per tatchan(instantly) karna muskil hai...

Anita kumar said...

प्रभात जी
आप मेरे ब्लोग पर आये मुझे प्रसन्नता हुई। आप के और मेरे अनुभव एक से हैं इस लिए आप इतनी संवेदना के साथ टिप्प्णी लिख रहे हैं। आप का ई-मेल पता नहीं और ब्लोग भी पता नहीं चला इस लिए यहीं धन्यवाद दे रही हूं आते रहिए।

anuradha srivastav said...

मार्मिक ........ अपनों को इस हाल में देखना किसी यंत्रणा से कम नहीं है।

Ashish Maharishi said...

आखिर आपने आंखे नम कर ही दीं और कुछ लिखने के लिए मेरे पास फिलहाल कुछ भी नहीं

Priyankar said...

बहुत मार्मिक संस्मरण . मन की पूरी बेचैनी कागज पर उतर आई है .

Asha Joglekar said...

मैं भुक्त भोगी हूँ इसीसे आपका दर्द समझ सकती हूँ
पिता और बडे भाई को ऐसे ही बिछुडते देखा है हमने और कुछ न कर पाने की हताशा और छटपटाहट.