गाजर मीठी है
1960 के दशक में बम्बई आने के बाद से और पिछले 25 सालों की नौकरी में शायद ही छुट्टियों में बाहर जाने का लुत्फ़ उठाया हो। कहते हैं सपनों में जीने का जो मजा है वो सपने साकार होने में शायद नहीं। सपने गधे के आगे टंगी गाजर के जैसे हैं जिन्हें पाने की आस में गधा चलता चला जाता है। पता नहीं गधा गाजर खाये तो उसे अच्छी लगे या नहीं। अगर उसे वो गाजर मिल जाये तो शायद सोचे अरे नाहक ही इतनी मेहनत की। खैर जो भी हो, अपनी हालत भी कुछ उस गधे जैसी ही थी। विनोद जी की एक कविता पढ़ी थी फ़ुरसतिया जी के ब्लोग पर, उसकी कुछ पक्तियां याद आती हैं जिन्हों ने हमारे दिल में घर बना लिया
जैसे तुम सोच रहे साथी,वैसे आजाद नहीं हैं हम-2
पिंजरे जैसी इस दुनिया में पंछी जैसे ही रहना है
भर पेट मिले दाना पानी, लेकिन मन ही मन दहना है
जैसे तुम सोच रहे साथी, वैसे संवाद नहीं हैं हम
जैसे तुम सोच रहे साथी वैसे आजाद नहीं हैं हम
आगे बढ़ने की कौशिश में, रिशते नाते सब छूट गये
तन को जितना गढ़ना चाहा, मन से उतना ही टूट गये
जैसे तुम सोच रहे साथी वैसे आबाद नहीं हैं हम
जैसे तुम सोच रहे साथी, ……………………………"
हमारी क्या हमारे माता पिता की भी वही हालत थी। इस भागती दौड़ती जिन्दगी में कभी कुछ फ़ुरसत के क्षण मिलते तो हमारे पिता अपने बचपन के किस्से सुनाते जिन्हें हम बड़े चाव से सुनते। कहानियां तो सभी घर में सुनायी जाती हैं और बच्चे बड़े चाव से सुनते हैं पर हमारे घर की कहानी में थोड़ा रोमांच था, थोड़ा दर्द्।
दरअसल हमारी दादी जी हमारे पिता(पहली संतान) को जन्म देते ही भगवान को प्यारी हो गयीं तो बाद में हमारे पिता का अपने ननिहाल से कोई संपर्क नहीं रहा।खैर वो कहानी फ़िर कभी, अभी तो हम बात कर रहे हैं अपने पिता के सपने की। उनकी बहुत इच्छा थी कि एक बार सपरिवार वैष्नो देवी के दर्शन कर सकें और लौटते हुए अपने ननिहाल ले जा सकें। एक बार वो गये भी पर हम साथ न जा सके। बस हम सब सपने ही देखते रह गये और पिता जी स्वर्ग सिधार गये और कुछ साल बाद माता जी भी पिता का ये सपना पूरा न होने का मलाल लिए चल दीं। माता का जाना हमें झक्झोर कर रख गया। हमने सब व्यस्तानों को किनारे करते हुए उसी साल माता के दर्शन का प्रोग्राम बना लिया। एक तरह से ये माता पिता को श्रद्धांजली देने जैसा था।
हमें इस बात का भी एह्सास न था कि माता का मंदिर कटड़ा में है जम्मु में नहीं। खैर माता के दर्शन कर लौटते वक्त हमने जम्मु के रास्ते लौटने का निश्चय किया। हमारे पिता का ननिहाल जम्मु में ही बसता है ऐसा सुना था उनसे। बचपन की सुनी उन कहानियों में से सिर्फ़ इतना याद था कि जम्मु में एक रघुनाथ का मंदिर है जिसके बाहर या नीचे उनके मामा की कैंटीन है या दुकान है(पता नहीं) और उनका सरनेम मनचंदा है। बस इतनी ही जानकारी के साथ हम उन्हें उस अनदेखे परिवार को अनजाने शहर में ढूंढने निकले। मन में ये भी उपापोह चल रही थी कि हम उनसे कभी मिले नहीं। उनमें से एक मामा जो शायद कश्मीर में रहते थे और साड़ियों की दुकान चलाते थे वो कभी बम्बई आये थे देखने की क्या बम्बई में दुकान खोली जा सकती है, जब कट्टरवादियों ने हिन्दुओं को कश्मीर से खदेड़ा था तब हम अपनी ससुराल में रहते थे तो उनसे मिलना न हो सका था।
खैर हॉटेल में सामान रख हम पहले रघुनाथ का मंदिर ढूंढने निकले वो तो आसानी से मिल गया काफ़ी प्रसिद्ध मंदिर है फ़िर हमने ढूंढना शुरु किया मंनचदा, कई दुकानों में पूछा कोई नहीं जानता था। मोबाइल से बम्बई अपने छोटे भाई को फ़ोन लगाने की कौशिश की, वो बरसों पहले हमारे पिता के साथ माता के मंदिर गया था, पर कश्मीर में तब सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए मोबाइल काम न करते थे, सिर्फ़ एस टी डी बूथ से फ़ोन कर सकते थे, वो भी न लगा। दरअसल रघुनाथ मंदिर का जो चित्र हमने अपनी कल्पना में खींचा था ये उससे बिल्कुल अलग था। दो तीन बार आतंकवादी हमले होने के बाद मंदिर की सुरक्षा बढ़ा दी गयी थी और उसके नक्शे में कुछ फ़ेर बदल कर दी गयी थी।
पूछ्ते पाछ्ते किसी ने बताया कि मंदिर में जाने का एक रास्ता पीछे से भी है सोचा ये भी आजमां लें। काफ़ी लंबा रास्ता पार कर जब हम उस दरवाजे पर पहुंचे तो महिला संतरी खड़ी थी, भारी चैकिंग होती थी। उसके सवालों का क्या जवाब देते कि किससे मिलना है। किसी तरह अंदर पहुंच ही गये। बायें हाथ को मुड़ते ही एक लंबा सा गलियारा दिखा जिसके अंत में कैंटीन नुमा कमरा दिख रहा था। हिचकिचाते से कदमों से हमने वो गलियारा पार किया। शुक्र है उस समय वंहा कोई ग्राहक नहीं था। कांउटर पर बैठे आदमी को हमने धीरे से प्रश्नीली आवाज में पूछा
"मंनचदा?",
उसने आश्चर्य से भवें ऊपर उठाईं, हमने झिकझिकते हुए कहा
धड़कने हमारी राजधानी से भी तेज दौड़ रही थीं कि पता नहीं क्या कहें कहीं मनचंदा नहीं हुए तो, अपनी निराशा के बारे में हम सोचना भी नहीं चाहते थे। अचानक उस व्यक्ती के चहेरे पर मुस्कान खेल गयी हालांकि आश्चर्य अभी भी बना हुआ था। हमारा परिचय पाते पाते उन्होंने हमें अपने अंक में ले लिया और आखें बरबस भर आईं। पता चला वो हमारे पिता के बीच वाले मामा थे। बातों का दौर शुरु हुआ, हमने अपने पिता के ननिहाल का ब्यौरा अब ठीक से सुनना शुरु किया। इतने में उन्होंने किसी को फ़ोन किया और जल्द ही एक 35/40 के आस पास का व्यक्ती आ गया। पता चला वो हमारे पिता का ममेरा भाई है (बड़े मामा का लड़का) और हमें घर लिवा लाने के लिए उनकी माता जी का विशेष आग्रह है। मना करने का तो सवाल ही न था।
हम अपने पिता के सबसे बड़े मामा के घर पहुंचे। मामा जी तो अब नहीं थे पर मामी जी ने हमारा स्वागत किया, उनकी उस नन्द की पोती का जिन्हें उन्हों ने कभी देखा नहीं था जो उनके शादी कर के आने से पहले परलोक सिधार चुकी थीं। मेरे पिता के मामा के पोते और उनके बच्चे और हम अजीब सुखद मिलन था, सब एक दूसरे को जिन्दगी में पहली बार मिल रहे थे। मामी जी (जिन्हें अब सब दादी कह रहे थे), पतोहू बहुएं, बच्चे इतने खुश थे हमें देख कर की हम ब्यां नहीं कर सकते। मामी जी की पोती जो दंसवी की परिक्षा में बैठ्ने वाली थी बुआ बुआ कर के हमसे ऐसे बातें कर रही थी जैसे घर के आंगन में फ़ुदकती गौरया। मामी जी ने अपनी उम्र की मजबूरी को दरकिनार करते हुए दूसरे दिन हमें सब रिशतेदारों से मिलाया ये सफ़र उनके लिए इतना आसान न था। पर सब रिशतेदार ऐसे खुश थे और हैरान थे जैसे हम हैरी पॉटर की किताब में से निकल आये हों।
हम देख सकते थे कि इन सब के स्नेह में बिभोर होता देख मेरे पिता कितना तृप्त महसूस कर रहे होगें और मानो हमसे कह रहे हों देखा मैं न कहता था मेरे ननिहाल जैसा कोई नहीं । हाँ डैडी आप की ननिहाल जैसा सच में किसी का ननिहाल नहीं हो सकता। कभी कभी गाजर मीठी भी होती है, सिर्फ़ उसके पीछे भागिए मत रुक कर खा कर भी देख लिजिए।
18 comments:
ek ek chitra mere saamne tha, kuch aisa hi mere saath bhi hua tha kabhi, isliye bahut achhe se samjh sakta hun aapki in bhaavnaaon ko
यह पोस्ट तो "रूट्स" उपन्यास का मजा दे गयी। वास्तव में रिश्ते एक अदृष्य धागे से बने होते हैं जो कभी-कभी बहुत मजबूत साबित होते हैं।
दुनिया रिश्तों से चलती है.....बहुत ही बढ़िया पोस्ट. केवल अंदाजा लगा सकता हूँ कि जब उन्होंने आपको पहचाना होगा तो आपको कैसा लगा होगा....बहुत बढ़िया लेख.
बहुत बढ़िया लेख… निश्चित ही सपने में टहलते हुए मन की तारें अत्यंत प्यारी लगती हैं… पर यह अवश्य है जब वो पूरे हो जाते हैं तो शायद वह उतना प्यारा ना हो जितना सोंचा था परंतु उसे पाने का आनंद तो अवर्णनीय होता है…।
बहुत बढ़िया पोस्ट है दीदी, संबंधों का खजाना किसी खास ताली से नहीं खुलता। उसके लिए वही आकुलता, गर्माहट चाहिए जो आपमें थी। वही गर्माहट ताली बन जाती है।
आपकी खुशियों का अंदाज़ लगा सकता हूं। यूं ही मिलती रहें खुशियां ।
किसी भूले-बिसरे अपने से मुलाकात के संयोग मिलाने में विधाता भी खास दिलचस्पी लेता है। अच्छा लगा, यह प्रसंग। रघुनाथ मंदिर और उसके आसपास का इलाका खूब घूमा हूँ। अब पता चला कि उसके अहाते में आपके पिताजी की ननिहाल भी है।
निश्चित ही सशक्त अभिव्यक्ति।
बहुत भावभीनी अभिव्यक्ति ....पढ़कर लगा कि जैसे हम भी आपके पीछे ही कहीं बैठे थे..
अच्छा लगा आपका मिलन-जुलन विवरण बांच कर।
भई वाह अनीता जी, अदभुत संस्मरण है । मैंने अपने दफ्तर में कितने ही लोगों को ये कहते सुना है कि उन्होंने जीवन में कभी ननिहाल ददिहाल देखा ही नहीं । एक महिला हैं, वो कहती हैं कि अब गांव जाने से मतलब ही क्या है, कोई है ही नहीं, जो हैं वो पहचानते नहीं, प्यार नहीं करते, फिर जड़ों से टूट जाने का दर्द आंखों में नज़र आया । इस नज़रिए से देखें तो हम और आप फिर भी भाग्यशाली हैं ।
शानदार!! बधाई कि मुलाकात हो ही गई!!
बहुत ही बढ़िया तरीके से लिखा है आपने। आपके तब के मनोभावों का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
अनिता जी ,परिजनों से मिलकर कितना सुखद अहसास हुआ होगा। मैं महसूस कर सकती हूँ। बचपन में अपने पापा के साथ कितनी ही बार उनके मामा के यहां गई हूँ लखनऊ में। कभी अनमने मन से कभी खुश होकर । वहां हमेशा पापा की आंखों में नमी और ढेर सी यादें देखी थी। रिश्तों की अहमियत अब पता चलती है। आप खुशकिस्मत है कि अपनों को खोज पायीं और मिल पायीं।
कितने अजीब होते हैं ये रिश्ते
कब पास तो कभी दूर होते हैं रिश्ते
अब लग रहा है कि आपके घर आकर कुछ बातचीत की जाए तभी मुंबई में मेरा रहना सार्थक होगा
aap bahut bareekee se sochtee hain chitr banane se poorv is liye wo apoorv kagte hain
अनिता जी, बहुत ही जबर्दस्त लिखा है आपने । बहुत पसन्द आया ।
घुघूती बासूती
MAIN SAMJHA AAP APNI UMER KE HISAB SE LIKHOGI MAGAR AAPKA PADHA TO PADHTA REH GAYA.
APNI BHAVNAOUN KO BADE ACHE SHABDON SE PURAYA HAI.
SHUAIB
नया वर्ष आपके लिए शुभ और मंगलमय हो।
आप की यह पोस्ट पता नहीं कैसे छूट गयी थी। आज पढ़ पाया हूँ। जब आप को पता लगा होगा कि आप जिसे तलाश कर रही थीं वे मिल गये हैं। और उन्हें जब आप मिलीं तो भावनाओं का जो ज्वार उमड़ा होगा, मैं तो उस की कल्पना से ही रोमांचित हूँ। वाकई आप अनुभवों को सरलता से उकेरती हैं।
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