Subscribe

RSS Feed (xml)

Powered By

Skin Design:
Free Blogger Skins

Powered by Blogger

सुस्वागतम

आपका हार्दिक स्वागत है, आपको यह चिट्ठा कैसा लगा? अपनी बहूमूल्य राय से हमें जरूर अवगत करावें,धन्यवाद।

December 22, 2007

घायल हुई सोने की चिड़िया

घायल हुई सोने की चिड़िया

कुछ दिन पहले संजीत जी ने अपनी पोस्ट पर "आज़ादी एक्स्प्रेस" के बारे में जानकारी दी थी। जहां एक तरफ़ ये जानकर दिल गर्वित हुआ कि हम एक स्वतंत्रता सेनानी के बेटे के दोस्त हैं, वहीं उनकी पोस्ट पर लॉर्ड मेकॉले के खत को पढ़ कर चौंक गये। इतिहास की किताबें बचपन में हमने भी पढ़ीं थीं , जानते थे कि भारत में मौजूदा शिक्षा प्रणाली का सूत्रधार करने वाला वही था। उसका कारण जो हमने पढ़ा था वो ये कि तब अग्रेजों को कई कर्लकों की जरुरत थी जो अंग्रेजी जानते हों और इस कमी को पूरा करने के इरादे से मौजूदा प्रणाली लायी गयी थी। ये भी कहा जाता है कि लॉर्ड मेकॉले के अनुसार संस्कृत और अरबी भाषाएं अंग्रेजी जितनी समृद्ध नहीं थीं। पर ये खत तो बता रहा था कि यहां तो माजरा ही कुछ और था। जैसे ही हमने अखबार में पढ़ा कि ये आजादी एक्सप्रेस 17-22 दिसंबर के बीच बम्बई में रहेगी हमने जाने का मन बना लिया, हांलाकी वी टी स्टेशन जहां ये गाड़ी रुकने वाली थी हमारे घर से बहुत दूर है।



हमारे पतिदेव ने भी साथ चलने में रुचि दिखायी। स्वाभाविक था, उनके पिता जी भारतीय सेना में लेफ़टिनेंट कर्नल रह चुके थे और अगर मेरे पति के जीवन में मुझसे मिलने की दुर्घटना न हुई होती तो आज वो भी भारतीय सेना का हिस्सा होते। ये निश्चय किया गया कि 21 को ईद की छुट्टी है तो उस दिन चलेगें। पतिदेव के ऑफ़िस में छुट्टी नहीं थी पर किसी तरह कौशिश करेगें, ये सोच 21 की शाम का प्रोग्राम बनाया गया।



21 की शाम हम किसी तरह लोकल ट्रेन में लदे फ़दे वी टी पहुंच गये। शाम के साढ़े पाँच बज चुके थे, हमारे पतिदेव को अचानक कांदिवली (बम्बई के दूसरे कोने में) जाना पड़ गया। सो हमने एक पुलिस वाले को पूछा "भैया, आजादी एक्सप्रेस कहां खड़ी है?" हमें लगा आदतन पुलिस वाला बोलेगा आगे पूछो। हैरानी तब हुई जब उसने बड़ी तत्परता के साथ बोला प्लेट्फ़ार्म नंबर 13, वहां पहुंच कर तो हमारी हैरानी का ठिकाना ही न रहा जब हमने देखा कि जितनी लंबी ट्रेन थी उतनी ही लंबी लाइन थी लोगों की अंदर जाने के लिए। हम लाइन में जाके खड़े हो गये, सोचा कि चलो इतनी लंबी लाइन है तो हमारे पतिदेव को उतना वक्त मिल जाएगा कि वो भी पहुंच जाएं।



हमारे पीछे खड़ा आदमी बहुत बातुनी था। कोई सुने या न सुने वो अपनी बात बोले जा रहा था-



पहले कहा था 22 दिसंबर तक ट्रेन रुकेगी अब कह रहे हैं आज लास्ट दिन है, और वो भी सिर्फ़ साढ़े छ बजे तक। जितने लोग घुस सके वो देख पायेगें बाकियों को वापस लौटना पड़ेगा। अब आज छुट्टी का दिन है भीड़ तो ज्यादा होगी ही न, इन्हें कम से कम रात के 8 बजे तक खुला रखना चाहिए, लोग इतनी दूर दूर से आते हैं"।



न चाहते हुए भी हम उसकी बातों पर ध्यान देने को मजबूर हो गये, घड़ी पर नजर डाली, पौने छ बज चुके थे। पतिदेव को फ़ोन लगाया तो पता चला कि वो तो अभी वी टी से बहुत दूर हैं। आखों से लाइन नापी, लाइन की रफ़्तार नापी और समझ गये कि अपना नंबर नहीं आने वाला। इतने एक बहुत ही सभ्रांत सा व्यक्ती आकर लाइन की लंबाई नाप गया। उसके गले में पहचान पत्र तो था लेकिन वो इतनी तेजी से हमारे सामने से निकल गया कि हम उसका नाम न पढ़ सके। अपने मनोरथ के विफ़ल होने की आशंका से मन ही मन कुढ़ रहे थे, खुद को ही कोस रहे थे कि थोड़ा जल्दी पहुंच जाते तो यहां तक आना अकारथ न जाता, पर जल्दी कैसे आ जाते जी वो मिश्रा जी( हमारे एक परिचित) जो आकर बैठ गये थे और उठने का नाम ही न ले रहे थे।



निराश हो कर हमने वहीं लाइन में खड़े खड़े संजीत को फ़ोन लगाया बताने के लिए कि भैया हम तो तुम्हारी बतायी ये आजादी एक्सप्रेस न देख सके। संजीत ने कहा आप फाये जी से मिलिए और हमारा नाम लिजिए। लो जी अब हम लाइन छोड़ ये मिस्टर फाये को कहां ढूढेगें, उन्होंने कहा अच्छा मैं उनको फ़ोन कर देता हूं । हमने कहा ठीक है लेकिन मन में सोच रहे थे "अरे भले आदमी मिस्टर फाये इतनी भीड़ में हमें पहचानेगें कैसे, तुमने भी हमें देखा नहीं तो मिस्टर फाये को क्या बताओगे?" खैर, तब तक लाइन कुछ और आगे रेंग गयी। हम नजरें इधर उधर दौड़ा रहे थे कि कोई अधिकारी दीख जाए तो शायद मिस्टर फाये का अता पता मिल जाए। तभी हमें कुछ दूरी पर वही सभ्रांत व्यक्ति खड़ा दिखायी दिया।



लाइन में अपनी जगह सुरक्षित कर हम लाइन छोड़ उसी व्यक्ती की तरफ़ बढ़ लिए और पूछा " मिस्टर फाये?"



उस व्यक्ती ने कहा, " अनिता कुमार?"



हमारे होठों पर मुस्कान तैर गयी। हम समझ गये संजीत जी ने अपना काम कर दिया। हमने कहा " जी, संजीत का…।"



वो बोले हां अभी अभी फ़ोन आया, आप मनोवैज्ञानिक हैं?



हमने हां में सिर हिलाते हुए सोचा लो उससे क्या फ़र्क पड़ता है।



और आप लॉर्ड मेकॉले का खत देखना चाह्ती हैं?



जी



आप अकेली हैं?



जी



ठीक है तब आइए



पूरी ट्रेन की लंबाई पार कर बारहवें डब्बे से हम पहले डब्बे के पास पहुचें जहां से ट्रेन के अंदर घुसना था। रास्ते में उन्होंने बताया कि उनके परिवार में से भी किन्ही दो महिलाओं ने मनोविज्ञान में एम फ़िल कर रखी है, हमने धीरे से बताया कि हम भी एम फ़िल हैं तब तक हम प्रवेश द्वार तक पहुंच गये। कुछ क्षण वो असंमजस में खड़े रहे फ़िर बोले कि आप अदंर जाइए और मजे से देखिए।



पहली बार हमने किसी अधिकारी को अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए इतना संकोच महसूस करते देखा। उनके चेहरे के भाव बता रहे थे कि हमें लाइन में बीच में घुसने की छूट दे कर वो खुद को गुनहगार मह्सूस कर रहे थे और लाइन में लगी जनता से आखों ही आखों में माफ़ी मांग रहे हो। हमें भी इतनी शर्म महसूस हुई, मन हुआ कि दौड़ कर वापस अपनी जगह पर जा कर खड़े हो जाए पर घड़ी की सुइयां आगे खिसक रही थीं और हम ये अवसर खोना नहीं चाहते थे। बाद में हमें पता चला कि उन्हों ने लाइन में खड़े सभी व्यक्तियों को अंदर जाने की इजाजत दे दी और किसी को निराश हो कर वापस नहीं लौटना पड़ा।



ट्रेन के अंदर एक अलग ही दुनिया थी। एक अभूतपूर्व अनुभव्। लॉर्ड मेकॉले का खत खुद अपनी आखों से देखा। एक एक शब्द पढ़ कर एह्सास हो रहा था कि ये तो बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक था। देखिए कैसे उसने हमारा देश जो सोने की चिड़िया कहलाता था उसे घायल करने का प्लान बनाया- "दमित देश"॥ये शब्द पढ़ कर आज भी मन खौल उठा, कितना अचूक निशाना था उसका, अगर अंग्रेजी को इतना महत्व देने का षड्यंत्र न रचा होता तो आज कितने ही मेधावी युवा हीन भावना से ग्रस्त न होते और बेरोजगार न होते। अग्रेजों के दमन की तस्वीरें जहां मन को अवसाद से भर गयीं वहीं भारतीयों की वीरता की तस्वीरे देख सीना गर्व से चौड़ा हो गया। गांधी जी की कुछ बहुत दुर्लभ तस्वीरें भी देखने को मिलीं और आजादी के बाद भारत के प्रगती की ओर अग्रसर होते कदम देख बहुत अच्छा लगा। अपने तिरंगे का इतिहास भी मुझे वही पता चला।



इतने बड़िया आयोजन के लिए सरकार की तारीफ़ करनी पड़ेगी। खास कर बच्चों के लिए ये यात्रा काफ़ी ज्ञानवर्धक रही। मुझे तो लगता है कि सरकार को सब स्कूल के बच्चों को ये दिखाना अनिवार्य कर देना चाहिए। अंत में सबसे महत्त्वपूर्ण धन्यवाद देना है संजीत को, जिसकी मदद के बिना ये अनुभव लेना हमारे लिए मुमकिन न था। आज पता चला ब्लोगिंग सिर्फ़ शौकिया ही सही पर इसके भी कई फ़ायदे हैं। समीर जी जब बम्बई आये थे तो उन्होंने कहा था कि ब्लोगिंग का एक फ़ायदा ये है कि आप किसी भी शहर में चले जाइए आप को कोई न कोई ब्लोगर मित्र मिल जाएगा और शहर उतना अन्जाना नहीं लगेगा। यहां तो ब्लोगर मित्र ने हमें हमारे ही शहर में मदद दिला दी, क्या बात है। मेरे ख्याल से अब अंग्रेजी में भी ब्लोग लिखना शुरु कर दूं ताकि दोस्तों का दायरा और बढ़ जाए। संजीत जी थैंक्यु , और मैं मिस्टर फाये कैसे भूल सकती हूं। एक घंटे बाद जब हम ट्रेन से बाहर निकले तो प्लेट्फ़ार्म सूना पड़ा था। हम फाये जी का धन्यवाद करना चाह्ते थे पर वो कहीं नजर नहीं आये। संजीत से उनका लोकल नंबर लिया लेकिन लगा नहीं सो मेसेज छोड़ दिया और पतिदेव की कार की ओर बढ़ लिए जो अब तक पहुच गये थे।

17 comments:

ghughutibasuti said...

बहुत बढ़िया लेख लिखा हे आपने । संजीत से ट्रेन के बारे में तो पढ़ चुके थे परन्तु आपने तो ट्रेन तक की अपनी यात्रा का वृतांत ही मनोरंजक बना दिया ।
घुघूती बासूती

Pankaj Oudhia said...

बडा ही रोचक वर्णन किया आपने। लगा कि हम भी देखा आये। संजीत कमाल के है।

जब इतनी भीड है और सभी को समय नही मिल पा रहा है तो इसे समेटने की क्या जल्दी है सरकार को, यह समझ से परे है। रायपुर मे भी ऐसा ही हंगामा हुआ।

Gyan Dutt Pandey said...

अच्छा लेख।
हां, समेटने की जल्दी कई बार रेलवे को रहती है। महत्वपूर्ण स्टेशनों पर एक प्लेटफॉर्म लम्बे समय तक इस प्रकार के प्रयोग के लिये देने पर असामान्य गतिविधियों - ट्रेनों के संचालन में अवरोध और स्टेशन पर अतिरिक्त लोगों की उपस्थिति से निपटना रेलवे को अतिरिक्त काम और सिरदर्द लगता है।
आप किसी रेल अधिकारी से अकेले में पूछें - बहुत भुनभुनायेगा। :-)

दिनेशराय द्विवेदी said...

भीड़ के कारण मैं इसे कोटा में नहीं देख पाया हूँ। समेटने की जल्दी के बारे में मैं जो कहना चाहता था वह ज्ञान जी ने बता दिया। अब किसी रेल अधिकारी से पूछने की जरूरत कहाँ रह गई है।

Yunus Khan said...

भई मजा आया । एक तो मुंबई की परेशानियों की झलक मिल गयी । दूसरे आपकी जिद की । पक्‍के इरादे की । धरती के दूसरे छोर से आप सीधे वी टी पहुंच गयीं । यही नहीं इतना बढि़या विवरण भी लिखा , अच्‍छा है । ऐसे ही घूमती रहिए । हम हैं यहां आपका विवरण पढ़ने के लिए । और हां विनोद जी इतने व्‍यस्‍त हैं तो उनके भरोसे घूमना ठीक नहीं है ।

anuradha srivastav said...

खुशकिस्मत है आप, इतनी जद्दोज़हद के बाद आप कामयाब तो रही। हम तो संजीत और अब आपके वृतान्त को पढ कर धन्य हो लिये।

Ashish Maharishi said...

वाह शानदार रहा आपका अनुभव, संजीत भाई को भी शुक्रिया जिनती वजह से आप मैकाले के खत से रुबरु हो पाईं

mamta said...

२३ से २६ तक ये आजादी एक्सप्रेस गोवा आ रही है सो हमने भी देखने का कार्यक्रम बनाया तो है देखें सफल होते है या नहीं।

राज भाटिय़ा said...

पहली बार हमने किसी अधिकारी को अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए इतना संकोच महसूस करते देखा। उनके चेहरे के भाव बता रहे थे कि हमें लाइन में बीच में घुसने की छूट दे कर वो खुद को गुनहगार मह्सूस कर रहे थे और लाइन में लगी जनता से आखों ही आखों में माफ़ी मांग रहे हो। हमें भी इतनी शर्म महसूस हुई, मन हुआ कि दौड़ कर वापस अपनी जगह पर जा कर खड़े हो जाए पर घड़ी की सुइयां आगे खिसक रही थीं
यही हे अन्तरात्मा की आवाज !काश आप अपनी जहग बापिस जाते.

Sanjeet Tripathi said...

वाह! तो आखिरकार आपने न केवल देख लिया बल्कि पोस्ट भी लिख डाली। बहुत बढ़िया।
कृपया मुझे इसके लिए धन्यवाद न दें, धन्यवाद के पात्र तो श्री फाये जी है जिनकी वजह से आप भीड़ के बावजूद आज़ादी एक्स्प्रेस देख सकीं।

विवरण रोचक बना दिया है आपने।

मेरी तो यही कामना है कि ज्यादा से ज्यादा लोग देखें इस आज़ादी एक्स्प्रेस को इसलिए ही मैने इतना विस्तार से इसके बारे में लिखा था।

Anita kumar said...

ज्ञान जी आप की वजह से हमें न सिर्फ़ रेलवे के आंतरिक कार्य प्रणाली की जानकारी मिलती है बल्कि उन के निर्णय के आधार भी पता चलते हैं। इससे दो फ़ायदे होते हैं - एक तो बिना बात के गुस्सा नहीं आता और हमारी सहनशीलता बढ़ती है। काश आप के जैसे और भी सरकारी अधिकारी ब्लोग लिखते होते तो हमें सरकार की निर्णय पद्ध्ती के बारे में और जानकारी मिलती और हम बेकार में बाबुओं को न कोसते।

Anita kumar said...

ममता जी आप जरुर जाये ये ट्रेन देखने और अगर आप के घर पर कोई छोटा बच्चा है तो उसे भी ले जाएं
युनुस जी आप को मेरे पतिदेव का नाम याद रहा…।:) जान कर अच्छा लगा
मित्रगण आप लोगों को मेरा लिखा अच्छा लगा जान कर अच्छा लगा, खास कर इस लिए कि हिन्दी पर हमारी पकड़ इतनी अच्छी नहीं है। धन्यवाद

Shastri JC Philip said...

संजीत के लेख से पहली बार इस रेल-प्रदर्शिनी की जानकारी मिली. अगले हफ्ते यह कोचिन आ रहा है अत: उम्मीद है कि मैं तसल्ली से इसे देख सकूंगा.

यदि वे छायाचित्र लेने देंगे तो उम्मीद है कि कुछ चित्र सारथी पर छाप सकेंगे. इस तरह संजीत के लेख से चालू करके अन्य चिट्ठों पर जितनी जानकारी आ जायगी उससे सुदूर प्रांतों में बैठे चिट्ठाकारों को काफी जानकारी मिल जायगी -- शास्त्री

हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है.
हर महीने कम से कम एक हिन्दी पुस्तक खरीदें !
मैं और आप नहीं तो क्या विदेशी लोग हिन्दी
लेखकों को प्रोत्साहन देंगे ??

Vikash said...

manoranjak vivaran.

Batangad said...

अनीताजी मैंने मैकाले के साजिशी खत की लाइनें अपने ब्लॉग पर चिपका दी हैं। कम से कम कुछ लोग तो देखकर शायद अपनी सभ्यता, संस्कृति बचाने की सोचेंगे।

मीनाक्षी said...

बहुत रोचक विवरण ! काश कि हम भी देख पाते लेकिन पहले संजीत जी के लेख और अब आपके लेख से यात्रा करने जैसा ही आनन्द आ गया.

Roshani said...

आभार दीदी जी इस चित्र के लिए...
रोशनी